''हाल बेहाल, हाथों में कंपकपाहट, चेहरे पर सूखे हुए आंसू के निशान और कांपती जुबां पर साहब भूखी हूं कुछ पैसे दे दोÓÓ यही हाल हो रहा है महानगरों में सिग्नल्स,रेलवे स्टेशनों, बस स्टैंड पर रहने वाले बच्चों का । उनका कसूर बस इतना है कि वह किसी बड़े घर में पैदा नहीं हुए और ना ही ऐसे घर में जहां उनकी जरूरतों को पूरा किया जा सके। जिंदगी से उन्हें कुछ नहीं मिला सिवाय सड़कों की खाक छानने के। भागदौड़ भरी जिंदगी में जब कुछ पल के लिए सिग्नलों पर रईसजादों की गाडिय़ा रूकती हैं तो ना जाने ऐसे कितने मासूम पांव जाकर उन गाडिय़ों के पास रूक जाते हैं और उभरती है उससे कुछ दर्द भरी आवाज । यह कोई फिल्म की कहानी नही है बल्कि ये हाल है एक ऐसे देश का जो अपने आपको 2020 तक विकसित करने की बात करता है। रेलवे स्टेशनों ,बस स्टैंडों और सिग्नलों पर रहने वालें लड़के-लड़कियों की व्यथा एक जैसी ही है ये इनके लिए एक ऐसा दलदल है जिसमें वह बुरी तरह फंस चुके है । ऐसे नजारे महानगरों के लिए आम हो चुके है । ऐसे जगहों पर रहने वाली लड़कियों की व्यथा तो और भी शर्मसार करने वाली है। हर कोई इन मासूम लड़कियों को सार्वजनिक सम्पत्ति के रूप में देखता है। यह वही देश है जहां की पहंचान उसकी सभ्यता और संस्कृति से होती थी और जहां महिलाओं को देवी का दर्जा मिला था। इन स्थलों पर भीख मांगने वाली इन लड़कियों को भीख मिले ना मिले पर गाडिय़ों में सवार लोगों की बुरी नजर से उन्हें हर रोज रूबरू होना पड़ता है। किस्सा यहीं खत्म नहीं होता है बल्कि हर सुबह एक नए हालात पैदा कर रही हैं। आए दिन सिग्नल पर रहने वाली लड़कियों के साथ सरेआम अभद्रता हो रही है, लेकिन हर इंसान इसे देखकर नजर अंदाज कर रहा है। उनकी आंखें तो खुली हैं पर जुबां खामोश हैं क्योकि कही ना कहीं वह भी इस अध्याय का हिस्सा हैं। कुछ मनचलें जहां इन लड़कियों को छेड़ कर मजे लेते हैं वही अपनी प्रौढ़ अवस्था में पहुंच चुके लोग भी इन लड़कियों को छेडऩे से बाज नहीं आते। इन स्थानों पर गुजर-बसर करने वाले बच्चों के सिर पर ना तो छत है ना पैरों तले जमीं इन्हें खुद नहीं पता आज यहां तो कल कहां। शायद इन बच्चों का एहसास ही मर चुका है या फिर वह अपनी समस्या किसी ऐसे संस्था तक पहुंचाने में असमर्थ है जो उनकी मदद कर सकें। आखिर कहां गए वह लोग जो गरीबों के नाम पर वोट बटोरते हैं या कहां काम कर रही हैं वह स्वयं सेवी संस्थाए जिनके पास ऐसे ही मजबूर लोगों की मदद के लिए लाखों-करोड़ो रूपए बाहर से आ रहे हैं? क्या इन स्थानों से उन ठेकेदारों की गाडिय़ां नहीं गुजरती और यदि गुजरती है तो उन्हें वह मासूम बच्चें क्यों नहीं दिखाई देते, जो हर रोज जिल्लत भरी जिंदगी जीने को मजबूर हैं। यूं तो सरकार और स्वयं सेवी संस्थाएं इन बेसहारा बच्चों के लिए कई कायदे- कानून बनाए पर वह कहीं ना कही कागजों तक ही सीमित रह गए । एक बार फिर केन्द्र सरकार इन एक योजना ला रही है जिससे ये बेसहारा बच्चें नए साल के आगमन पर अपने साथ कुछ अच्छा होने की सोच सकते हैं हालांकि ये भी मात्र कल्पना से ज्यादा नहीं हैं जब तक कि इस योजना को अमली जामा ना पहना दिया जाएं। तमाम राजनीतिक भविष्यवाणियों और आर्थिक आकलन के बीच महिला और विकास मंत्रालय ने लावारिस बच्चों के लिए 'आंगनबाड़ी केन्द्र योजनाÓ बनाई है जिसके तहत आंगनबाड़ी केन्द्र खुद रेलवे स्टेशनों, बस स्टैंडों पर रहने वाले बच्चों के पास आएंगा और उन्हें पेट भर खाना,मेडिकल सुविधा के साथ-साथ पढ़ाई- लिखाई की भी सुविधा मुहैया कराएंगा। यूं तो केंद्र सरकार ये योजना इसी साल लागू करने वाली है लेकिन हर योजना की तरह सरकार की यह योजना भी सिर्फ पेपरों में ही सिमट कर ना रह जाएं और एक बार फिर ये बेसहारा बच्चे बेसहारा ही ना रह जाएं जिन्हेें चाहिए तो सिर्फ सिर पर छत और पेट भरने के लिए रोटी। जिस देश में करोड़ो रूपए चुनाव प्रचार में पानी की तरह बहा दिए जाते हैं वहां क्या कुछ पैसे ऐसे लोगों पर नहीं लगाए जा सकते जिनको चाहिए सिर्फ और सिर्फ दो जून की रोटी।
Sunday, December 20, 2009
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2 Comments:
Samaj ki ek dushpravarti dikhata aapka aalekh aacha laga...sath hi aapki lekhni ki ek nayi vidha dikhi ... blog aacha hai..likhne ka kram banaye rakein... shubhkamnao k sath....
Rashmi Verma
aap ke writeup bahot aache hae. kya mai aap ke writeup ko apne paper mee prakashit kar sakta ho.
imediat sent ans
K.P.Tripathi
Prabhat Meerut
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