तुम तुंग - हिमालय - श्रृंग और मैं चंचल-गति सुर-सरिता। तुम विमल हृदय उच्छवास और मैं कांत-कामिनी-कविता। तुम प्रेम और मैं शान्ति, तुम सुरा - पान - घन अन्धकार, मैं हूँ मतवाली भ्रान्ति। तुम दिनकर के खर किरण-जाल, मैं सरसिज की मुस्कान, तुम वर्षों के बीते वियोग, मैं हूँ पिछली पहचान। तुम योग और मैं सिद्धि, तुम हो रागानुग के निश्छल तप, मैं शुचिता सरल समृद्धि। तुम मृदु मानस के भाव और मैं मनोरंजिनी भाषा, तुम नन्दन - वन - घन विटप और मैं सुख -शीतल-तल शाखा। तुम प्राण और मैं काया, तुम शुद्ध सच्चिदानन्द ब्रह्म मैं मनोमोहिनी माया। तुम प्रेममयी के कण्ठहार, मैं वेणी काल-नागिनी, तुम कर-पल्लव-झंकृत सितार, मैं व्याकुल विरह - रागिनी। तुम पथ हो, मैं हूँ रेणु, तुम हो राधा के मनमोहन, मैं उन अधरों की वेणु। तुम पथिक दूर के श्रान्त और मैं बाट - जोहती आशा, तुम भवसागर दुस्तर पार जाने की मैं अभिलाषा। तुम नभ हो, मैं नीलिमा, तुम शरत - काल के बाल-इन्दु मैं हूँ निशीथ - मधुरिमा। तुम गन्ध-कुसुम-कोमल पराग, मैं मृदुगति मलय-समीर, तुम स्वेच्छाचारी मुक्त पुरुष, मैं प्रकृति, प्रेम - जंजीर। तुम शिव हो, मैं हूँ शक्ति, तुम रघुकुल - गौरव रामचन्द्र, मैं सीता अचला भक्ति। तुम आशा के मधुमास, और मैं पिक-कल-कूजन तान, तुम मदन - पंच - शर - हस्त और मैं हूँ मुग्धा अनजान ! तुम अम्बर, मैं दिग्वसना, तुम चित्रकार, घन-पटल-श्याम, मैं तड़ित् तूलिका रचना। तुम रण-ताण्डव-उन्माद नृत्य मैं मुखर मधुर नूपुर-ध्वनि, तुम नाद - वेद ओंकार - सार, मैं कवि - श्रृंगार शिरोमणि। तुम यश हो, मैं हूँ प्राप्ति, तुम कुन्द - इन्दु - अरविन्द-शुभ्र तो मैं हूँ निर्मल व्याप्ति। नोट - यह कविता निराला की लिखी हुई है... उनके जन्मदिन के अवसर पर....वसंत पंचमी..के दिन..
Monday, February 7, 2011
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