12-12-12 का आंकड़ा सौ साल बाद आएगा इसलिए इस दिन को युवावर्ग भाग्यशाली मान रहा है। फिर चाहे हो वो आम लोग हो या ज्योतिष सभी के अनुसार 12-12-12 का ये आंकड़ा अपने आप में अदभुत है। यही कारण कारण है कि शादी से लेकर बच्चे के जन्म और नई नौकरी ज्वाइन करने से लेकर कोई भी नया काम करने के लिए लोग इस दिन का बेकरारी से इंतजार कर रहे हैं।
जिस तरह पिछले साल 11-11-11 की तारीख को लेकर लोग खासकर युवा पागल थे उसी तरह इस साल 12-12-12 के जादुई तारीख को लेकर भी युवाओं का जुनून देखते ही बन रहा है। इस तारीख का जादू हर किसी के सिर चढ़ कर बोल रहा है। देश भर में लोग इस दिन को यादगार बनाने का मन बना रहे है, जिन के घरो में नवजात आने वाला है वो लोग किसी भी तरह अपने घरो के चिराग को इसी अदभुत योग नक्षत्र की घड़ी में जन्म देना चाहते है, कुछ माएं तो असहनीय प्रसव पीड़ा को 24 घंटे ओर सहने को तैयार है। साथ ही युवा जोड़े इस दिन शादी करने के लिए जहां अदालतों में रजिस्ट्री करवा चुके हैं वहींइस दिन के लिए पंडितों व ज्योतिषाचर्यो से खास मुहूर्त भी निकलवाया जा रहा है।
यादगार बनाने की होड़
इस महीने 12-12-12 की खास तिथि को कई लोग अपने-अपने तरीके से यादगार बनाने की कोशिश कर रहे हैं। कोई इस दिन विवाह, तो कोई नन्हे मेहमान को घर लाने की तैयारी में है। वहीं युवा इस दिन को पार्टी के साथ सेलिब्रेट कर रहे हैं। 12 दिसंबर यानी 12-12-12 को शहर के कई लोग खास तिथि के रूप में देख रहे हैं। कोशिश कर रहे हैं कि उस दिन उनकी जिंदगी में कोई ऐसी चीज हो, जो हमेशा के लिए यादगार बन जाये। यही वजह है कि लोग अपने घर में नया मेहमान लाने के लिए भी इस तारीख को चुन रहे हैं। कई बड़े अस्पतालों के डॉक्टर्स के अनुसार जिन महिलाओं की डिलीवरी डेट दिसंबर के पहले या दूसरे सप्ताह में है, वे अपना ऑपरेशन 12 दिसंबर को कराने की इच्छा जता रही हैं। वैसे तो इस दिन हिंदुओं में पारंपरिक रीति-रिवाज से शादी का कोई मुहूर्त नहीं है। पर कई जोडिय़ां इस खास दिन पर कोर्ट मैरिज या फेरों के साथ शादी करने के लिए तैयार हैं। कई लोग अपने नए शाप को इसी दिन इसे लांच करने की योजना बना चुके हैं। वो सभी 12 दिसंबर को ही अपने शॉप की शुरुआत करना चाहते हैं ताकि सभी के लिए ये दिन यादगार बन जाए। जिनका जन्मदिन 12 दिसंबर को आता है वो भी इस खास तारीख को यादगार बनाना चाहते हैं। कुछ युवा इस खास दिन को पार्टी करके सेलिब्रेट करने की तैयारी की है। कुल मिलाकर कोई भी इस तारीख को यूं ही नहींजाने देना चाहता है।
गूंजेगी शादी की शहनाई
हर जोड़ें का बस यही सपना होता है कि उनकी शादी इतनी यादगार बने कि सालों तक लोग इसे याद रखें। अपनी इसी इच्छा को पूरा करने के लिए इस साल सैकड़ों जोड़ों ने एक अनोखी तारीख के दिन सात जन्मों के इस बंधन में बंधने की प्लैनिंग की है। ये तारीख है इस साल दिसंबर के महीने में 12 तारीख जो एक अनोखा योग बना रही है। इस बेहद अनोखी तारीख को कई कपल अपने जीवन का सबसे यादगार दिन बनाने की तैयारी कर रहे हैं। भले ही हिंदू धर्म के अनुसार इस तारीख को कोई शादी का साया नहीं पड़ रहा है। लेकिन कई जोड़े इस डेट को शादी करने के लिए पंडित जी के पंचांग को छोड़ न्यूमेरोलॉजिस्ट की सहायता ले रहे हैं। जो लोग इस दिन शादी करने वाले हैं उनका मानना है कि शादी जीवन का एक ऐसा उत्सव है जो हमेशा यादगार रहता है। ऐसे में ये तारीख एक स्पेशल दिन को और भी स्पेशल बना देगी। हालांकि इस तारीख को कोई शुभ मुहूर्त तो नहीं हैं, पर अंक विज्ञान के अनुसार 12-12-12 यानी 3 3 3= 9 होता है। ये तारीख मंगल कार्य के लिए उत्तम है। लेकिन ज्योतिष की माने तो ये भी देखना पड़ेगा कि जिन कपल का आपसी तालमेल मंगल के कारण बिगड़ रहा है, उनको ये तारीख नहीं अपनानी चाहिए।
नन्हे मेहमान को लाने का जुनून
पटेल अस्पताल की स्त्री रोग विशेषज्ञ डा. शमा बत्रा कहती हैं कि कभी गाडिय़ों के वीआईपी नंबर के लिए मारामारी होती थी। इसके बाद मोबाइल नंबर की बारी आई लेकिन अब एक तय तारीख पर बच्चा पैदा करने की तैयारी जोरों पर है। फिलहाल हर जगह बच्चों की पैदाइश इस तय तारीख पर कराने के लिए बुकिंग की लाइन लग रही है और ये तारीख है 12-12-12। तय तारीख पर डिलीवरी कराने की ये प्रकिया मुश्किल ही नहीं कभी कभी खतरनाक भी साबित हो सकता है। जिन महिलाओं की पहली डिलीवरी है, उनको तों खास तौर पर इस तरह की तारीखों पर बच्चे पैदा कराने पर डॉक्टर साफ मना भी कर रहे हैं। इतना ही नहीं यदि उनके परिजनों की भी काउंसलिंग की जा रही है। डॉक्टर इस बात पर खास गौर कर रहे हैं कि मां ने कम से कम 38 हफ्ते पूरे कर लिए हों। कई डॉक्टर इस तरह के ऑफरेशन से साफ मना कर रहे हैं। उनका कहना है कि प्रकृति को उसका काम करने दिया जाना चाहिए। ऐसी मांग करने वाली कुछ माओं को तो सख्त हिदायत दी गई है कि वो अपना जुनून छोड़ दें क्योंकि वक्त से पहले या बाद में बच्चे की पैदाइश में जच्चा-बच्चा के साथ ऑपरेशन के दौरान भी और बाद में भी पैदा बच्चे में गड़बड़ी की आशंका रहती है। पर फिर भी बच्चों की किस्मत को चार चांद लगाने के लिए लोग तारीखों का चुनाव खुद कर रहे हैं। कोशिशे ये हैं कि बच्चा तय शुदा तारीख पर ही पैदा हो इसके लिए इस बार 12 के तिलिस्म को तरजीह दी गई है। इसे शुभ माना जा रहा है। मानना है कि ये बच्चे के लिए शुभ होगा। अंक ज्योतिष के अनुसार बच्चे का इस तारीख को जन्म उसके पुरे जीवन के लए शुभ होगा। उसके व्यवहार से लेकर कैरियर की कामयाबियों तक उसकी जन्म तारीख उसके लिए भाग्यशाली साबित होगा।
ऐसी दीवानगी ठीक नहीं
मनोवैज्ञानिक डा. समीर पारिख कहते हैं कि 12-12-12 जैसी अनोखी तारीख देखने में ये संख्या जितनी रोचक और आकर्षक लग रही है, उतना ही युवाओं को भटकाने वाली भी है। इस संख्या का प्रभाव इतना है कि जिन युवाओं का विवाह निर्धारित हो चुका है वो इसी दिन विवाह करना चाह रहे हैं। इस तिथि के प्रति लोग इतने उत्सुक हैं कि पंडितों या शुभ मुहूर्त का भी ख्याल नहीं कर रहे हैं। अगर 12-12-12 के प्रति आकर्षण का कारण सिर्फ रोचकता होता तो फिर भी इसे हम उत्सुक युवाओं की सोच कह सकते थे लेकिन हैरानी वाली बात ये है कि युवाओं के मस्तिष्क में ये सोच भी अपनेआप ही अवतरित नहीं हुई बल्कि इस मानसिकता पर भी न्यूमरोलॉजी का पूरा प्रभाव है। इस रोचकता को भी ज्योतिषीय कोण के आधार पर देखा जाए तो समझ में आ जाएगा कि हमारे युवा कितने फ्री माइंडेड और अंध-विश्वास के दूर रहने वाले हैं। कथनों से प्रभावित होकर ही युवा 12-12-12 को विवाह करने या फिर संतान को दुनियां में लाने के लिए बहुत जागरुक और उत्सुक हो गए हैं। कई महीनों पहले ही लोगों ने विवाह के लिए स्थान सहित सभी जरूरी प्रबंध कर लिए हैं। वहीं महिलाओं ने इसी दिन अपने बच्चे को जन्म देने के लिए डॉक्टरों से समय ले लिया है लेकिन क्या किसी विशेष तारीख पर विवाह करने या जन्म लेने वाले व्यक्तियों के सफल और खुशहाल जीवन की गारंटी ली जा सकती है? कुल मिलाकर इसे एक तरह का अंधविश्वास ही कहेगे जिसके रौ में बहुतायत में युवा बह रहे हैं।
ज्योतिषी मान रहे हैं शुभ
ज्योतिषाचार्य पं. संजीव शर्मा की माने तो 12-12-12 का ये आंकड़ा अपने आप में अदभुत है और ज्योतिष के हर अंग के अनुसार ये तिथि चमत्कारी है। इस दिन का नक्षत्र, योग अपने आप में अदभुत है और 12-12-12 साल का आखिरी अनूठा संयोग है। अगला अनूठा संयोग 100 साल बाद आयेगा। इस दिन जन्म लेनेवाले बच्चे भविष्य में कभी असफल नहीं होंगे। इन बच्चों का मूलांक तीन और भाग्यांक दो रहेगा। ये किसी भी विषम परिस्थिति में सामना आसानी से कर सकेंगे क्योंकि ये हर बात पर अडिग रहनेवाले होंगे। इसलिए जो भी लक्ष्य निर्धारित करेंगे, उसे वे हासिल भी करेंगे। 12 में एक और दो है। इसलिए इसका मूलांक एक जोड़ दो यानी तीन होता है। तीन मूलांक का कारक बृहस्पति होता है। बृहस्पति के प्रभाव से ये संयोग बहुत ही शुभ साबित होता है। ऐसे अंक वाले जातक अलग पहचान, अलग व्यक्तिव रखते हैं। वे उच्च आकांक्षावाले होते हैं। इस योग में अब्राहम लिंकन, चर्चिल, चाल्र्स रॉबर्ट जैसे महान लोगों का जन्म हुआ था। पर विवाह के लिए इस दिन कोई मुहूर्त नहींहै। अंकशास्त्री पं. रूपेश जैन कहते हैं कि 12-12-12 की तिकड़ी व्यक्ति के जीवन में ठहराव और सामंजस्य ला सकती है। हिंदू नक्षत्रों के आधार पर न्यूमरोलॉजी को अध्यात्म से जोडक़र भी देखा जा रहा है। ये दिन आपके जीवन से नकारात्मक ऊर्जा को दूर कर सकता है। वे जोड़े जो इस दिन विवाह बंधन में बंधेंगे या जो जन्म लेंगे उनको दैवीय आशिर्वाद प्राप्त होगा और वे एक खुशहाल जीवन जी पाएंगे।
Wednesday, December 12, 2012
छाया नशा 12-12 12 का
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Saturday, August 18, 2012
लव सेक्स और सत्ता
सियासतदां अभी शेहला मसूद और भंवरी के भंवर से निकल भी नहींपाएं है कि गीतिका और फिजा की मौत ने राजनीतिक हलकों में फिर हडक़ंप मचा दिया है। वैसे भी जब-जब सियासत नंगी हुई है, तब-तब अवाम शर्मिंदा हुआ है। हर बार कीमत लोकतंत्र को चुकानी पड़ी है। पहले भी कई ऐसे कांड हुए हैं जिसने सफेदपोशों के चोहरों पर काली स्याही पोत दी है।
नैना साहनी, मधुमिता शुक्ला, शशि प्रसाद, भंवरी देवी, गीतिका शर्मा और अब फिजा इन सबके जीवन की कहानी लगभग एक जैसी है। सभी ने अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए राजनीतिक शख्सियतों का सहारा लिया और अपना सबकुछ उनपर लुटा दिया पर बदले में न सत्ता मिली न ही जिंदगी जीने का हक। इन सबके रातों रात चमकने के सपने ने इनसे इनकी आखिरी सांसे भी छीन ली। किसी को अज्ञात हमलावरों ने गोलियों से भून डाला तो किसी को तंदूर की आग के भेट चढऩा पड़ा। पर ये सिलसिला यहींरुका नहींहै और शायद कभी रुकेगा भी नहीं क्योंकि सत्ता का नशा और सत्ता का उपयोग अपने विलासिता के साधन जुटाने में करना नेताओं के लिए नया ट्रेंड नहीं है। बस हर बार इसको डील करने का तरीका बदल जाता है।
अगर नैना साहनी में राजनीतिक महत्वकांक्षा और समाज में नाम पाने का जुनून न जागता और युवक कांग्रेस का दबंग नेता सुशील शर्मा उसकी इस महत्वकांक्षा को पूरा करने का वादा न करते तो शायद नैना का हश्र इतना दहला देने वाला न होता। मंदिर मार्ग के एक फ्लैट में कांग्रेस का खूबसूरत और तेजतर्रार युवा नेता नैना साहनी के साथ में रहता था। नैना को भले ही सुशील ने अपने घर वालों से कभी नहीं मिलवाया था, लेकिन तेज दिमाग नैना के दबाव के चलते उसको गुपचुप शादी करनी पड़ी थी। नैना के भी पॉलिटिकल रिश्ते थे, जो सुशील को बाद में अखरने लगे थे और यही उसकी हत्या की भी वजह भी बने। 2 जुलाई 1995 की रात कांस्टेबल अब्दुल कादिर कुंजू और होमगार्ड चंद्रपाल को दिल्ली के ओपन एयर रेस्तरां से उठने वाला धुंआ कुछ इतना ज्यादा लगा कि वो चैक करने के लिए अंदर जा पहुंचे। अंदर पहुंचते ही बदबू आना शुरू हो गई। ये दोनों पुलिस वाले अगर अंदर नहीं जाते तो दुनिया कभी भी तंदूर कांड से रूबरू नहीं हो पाती। सुशील ने नैना को ठिकाने लगाने का मन तब बनाया जब किसी बात को लेकर दोनों में कहासुनी हो गई और गुस्से में सुशील ने नैना पर अपने लाइसेंसी रिवॉल्वर से दाग दीं एक-एक करके पूरी तीन गोलियां। जान लेने के बाद भी उसका गुस्सा खत्म नहीं हुआ। उसने रेस्तरां के मैनेजर के साथ मिलकर लाश के टुकड़े-टुकड़े कर उनको जलते तंदूर में झोंक दिया। नैना साहनी की दर्दनाक हत्या ने सरकार को हिलाकर रख दिया। कांग्रेस के नेता का यह रूप देखकर हर कोई हैरत में था। सरकार को न जवाब देते बन रहा था न कार्यवाही करते। मजबूरन लोगों और मीडिया के दबाव के चलते पुलिस और प्रशासन सक्रिय हुआ। पुलिस की बढ़ती गतिविधियों के चलते सुशील को सरेंडर करना पड़ा। लेकिन वह इतनी जल्दी हार मानने वाला नहीं था। हर बार वह पुलिस को उलझाता रहा। बयानों के लगातार बदलने और झूठ बोलने के कारण मामला उलझता जा रहा था। सुशील ने फ्लैट से लेकर, उसमें मिले कागजातों तक को अपना मानने से इनकार कर दिया। इसी बीच नैना साहनी की एक डायरी में 3 जुलाई को नैना की लिखावट का लेख भी मिला। सुशील ने बस उसे पहचाना ताकि ये साबित किया जा सके कि नैना 2 जुलाई को मरी ही नहीं। कई वकीलों ने इस केस से हाथ खींचा तो सुशील ने भी तमाम कानूनी दांवपेच भिड़ाए। लेकिन मीडिया के जरिए पब्लिक प्रेशर काम आया, जांच अधिकारियों को सतर्कता बरतनी पड़ी और कोर्ट ने सुशील को फांसी की सजा सुना दी। फिलहाल सुशील जेल में है और सुप्रीम कोर्ट से राहत भरे फैसले की उम्मीद कर रहा है।
राजनीतिक मुहब्बत की एक और खूनी दास्तां है युवा कवयित्री मधुमिता शुक्ला और उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी की जहां मधु को अपनी जान गवां कर एक नेता से प्रेम करने का कर्ज चुकाना पड़ा। कम उम्र का जोश, वीर रस की कविताएं, दबंग राजनेता की मोहब्बत, सियासत का रसूख इस कॉकटेल के नशे में मधुमिता जिंदगी और प्रेम की अपनी इबारत गढऩे लगी। जिस समय अमरमणि से उसकी मुलाकात हुई थी, तब उसकी उम्र महज 18 साल थी, जबकि 45 साल के अमर मणि न केवल शादीशुदा थे, बल्कि बच्चों के बाप भी थे। एक नवोदित कवयित्री मधुमिता शुक्ला और अमरमणि की प्रेम कहानी बदस्तूर चलती रहती अगर मधुमिता ने अमरमणि पर विवाह करने का जोर ना डाला होता। यूपी के स्टांप और रजिस्ट्रेशन राज्य मंत्री (तत्कालीन मायावती सरकार में) अमरमणि त्रिपाठी के प्यार में पागल यह कवयित्री उसके अवैध अंश को जन्म देना चाहती थी। लेकिन मंत्री साहब को यह गवारा नहीं था। मई 2003 को अचानक मधुमिता की उनके लखनऊ स्थित पेपर मिल कालोनी के घर में हत्या कर दी जाती है। शक की सुई मंत्री अमरमणि त्रिपाठी पर उठीं। मधुमिता की मौत के बाद डायरी और पत्रों से इस बात का साफ खुलासा हो गया कि त्रिपाठी के दबाव में मधुमिता दो बार गर्भपात करवा चुकी थी। जिस समय हत्या हुई, उस समय भी वे छह माह की गर्भवती थी। मधुमिता की हत्या ने उत्तरप्रदेश की राजनीति में भूचाल ला दिया था। मीडिया के दबाव चलते अंत्येष्टि से चंद घंटे पहले मधुमिता के शव से भ्रूण निकालने के लिए पुलिस को मजबूर कर दिया। अजन्मे बच्चे का डीएनए टेस्ट से मधुमिता और त्रिपाठी के रिश्तों की पुष्टि हो गई। मीडिया का साथ मिला तो लखीमपुर में रह रही मधुमिता की बड़ी बहन निधि में भी हिम्मत दिखाई। दबाव बढऩे लगा, जांच में तेजी आई और राजफाश होने लगे। पता चला मधुमिता की हत्या में अमरमणि और उसकी पत्नी मधुमणि दोनों का हाथ था। खतरनाक प्रेम की भेंट में जहां मधुमिता को जान से हाथ धोना पड़ा वहीं त्रिपाठी भी उम्रकैद की सजा भी काट रहा है। अमरमणि को 21 सितंबर 2003 को में गिरफ्तार कर लिया जाता है और उनकी जमानत की अर्जी भी ठुकरा दी जाती है। 24 अक्टूबर 2007 को देहरादून में एक विशेष अदालत ने मंत्री अमरमणि त्रिपाठी, उनकी पत्नी मधुमणि त्रिपाठी, उनके चचेरा भाई रोहित चतुर्वेदी और उनके सहयोगी संतोष राय को मधुमिता शुक्ला की हत्या के मामले में दोषी पाया। अदालत ने अमरमणि को आजीवन कारावस की सजा सुनाई।
फैजाबाद की रहने वाली शशि प्रसाद लॉ की स्टूडेंट थी। वह राजनीति में आना चाहती थी। इसलिए शार्टकट के रूप में उसने मायावती सरकार में कैबिनेट मंत्री आनंद सेन को चुना। आनंद सेन ने भी उसकी आंखों में बसे इस ख्बाव को देख लिया था। फिर शुरू हुआ वायदों का सिलसिला। वायदे बढ़ते गए, जिस्मानी दूरियां मिटती गईं। बीएसपी कार्यकर्ता राजेंद्र प्रसाद की बेटी शशि प्रसाद के आनंद सेन के साथ संबंध बने पर इस संबंध से उसे सत्ता सुख तो नहींमिला पर मौत जरूर मिली। 22 अक्टूबर 2007 को शशि अचानक गायब हो गई। गुमशुदगी की सूचना 23 अक्टूबर 2007 को दर्ज कराई गई। एक सप्ताह बीत जाने के बाद भी जब शशि का कुछ पता नहीं चला तो शशि के पिता ने आनंद पर अपहरण और हत्या का आरोप लगाया। मामले में आनंद और उनके ड्राइवर विजय को आरोपी बनाया गया। लंबी छानबीन और धड़पकड़ के बाद पता चला कि वह इस दुनिया से जा चुकी थी। उसकी हत्या हो गई थी। फैजाबाद की अदालत ने आनंद सेन और उसके ड्राइवर को उम्रकैद की सजा सुनाई।
हाल ही राजस्थान की गवर्नमेंट को हिलाने वाली भंवरी देवी का केस पिछले कई दिनों से सुर्खियों में है। सत्ता का नशा और सत्ता का उपयोग अपने विलासिता के साधन जुटाने में करना नेताओं के लिए नया ट्रेंड नहीं है। पर जब उनकी विलासिता की वस्तु पलटकर उनका गिरहबान पकड़ लेती है और उनको ब्लैकमेल करने लगती है तो उसका हश्र सिर्फ मौत ही होता है।
पेशे से नर्स भंवरी देवी कोई साधारण महिला नहीं थी, बल्कि सत्ता के गलियारों में जहां उसकी ऊंची पहुंच थी, वहीं इस पहुंच को बरकरार रखने के लिए उसने शार्टकट का इस्तेमाल करने तक से गुरेज नहीं किया। जैसलमेर सरकारी अस्पताल में नर्स भंवरी देवी 2001 में कॉग्रेस एमएलए मल्खान सिंह बिश्नोई के संपर्क में आईं और बाद में राजस्थान के वॉटर रिसोर्स मिनिस्टर महिपाल मदेरणा के संपर्क में। बिश्नोई को मंत्री बनाने के लिए मदेरणा के साथ अश्लील सीडी बनाई ताकि गहलोत कैबिनेट में उन्हें बदनाम कर हटाया जा सके। भंवरी ने मदेरणा और बिश्नोई दोनों के साथ अश्लील सीडी तैयार की और दोनों को ब्लैकमेल करती रहीं। 1 सितंबर 2011 में भंवरी लापता हो गई। 2 दिसंबर को मदेरणा कैबिनेट से बाहर हुए और पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। भंवरी देवी का अपहरण हुआ है, वह बंधक है या फिर उसकी हत्या कर उसे जला दिया गया है, यह अभी तक रहस्य बना हुआ है, लेकिन इस मामले ने फिर एक बार कांग्रेसी नेताओं की इज्जत उतार कर जरूर रख दी है।
एमडीएलआर की पूर्व एयर होस्टेस गीतिका शर्मा ने 4 अगस्त की देर रात अशोक विहार फेज-3 स्थित अपने फ्लैट में पंखे से लटककर आत्महत्या कर ली थी। उनका शव रविवार सुबह उनके परिजनों ने पंखे से उतारा। 2 पेज के सूइसाइड नोट में गीतिका ने हरियाणा के पूर्व मंत्री गोपाल कांडा और उसी कंपनी की मैनेजर अरुणा चड्ढा पर मानसिक प्रताडऩा का आरोप लगाया था। पुलिस ने दोनों के खिलाफ आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला दर्ज किया। सूइसाइड नोट के सार्वजनिक होने के कुछ ही घंटों बाद कांडा ने इस्तीफा दे दिया और कहा कि यह उनके खिलाफ कोई राजनैतिक षड्यंत्र का हिस्सा है जबकि गीतिका ने सुसाइड नोट में लिखा है कि कांडा उसका पायाद उठाना चाहते थे।
अनुराधा बाली यानी फिजा की संदिग्ध हालात में मौत हो गई। फिजा 2008 में उस समय सुर्खियों में आई थीं जब उन्होंने हरियाणा के तत्कालीन उप मुख्यमंत्री चंद्रमोहन से शादी की थी। दिसंबर 2008 में जब पूरा देश मुंबई के आतंकवादी हमलों से जूझ रहा था ऐसे में हरियाणा की जमीं पर कुछ नया और अनोखा ही पक रहा था। जन्म से हिन्दू चंदर मोहन और अनुराधा ने देश के 2.3 करोड़ हिंदुओं की भावनाओं पर चोट करते हुए यह घोषणा की कि उन्होंने इस्लाम धर्म कबूल कर लिया है और चांद मोहम्मद और फिजा बन एक दूसरे के साथ निकाह पढ़ लिया है। 43 साल के इस अधेड़ ने इस्लाम कबूलकर दूसरा विवाह रचा लिया क्योंकि उसकी पहली पत्नी जिंदा है उससे उन्हें दो बच्चे भी हैं। पर चंदर उर्फ चांद ने जितने जोर-शोर से अपने निकाह का ऐलान किया था उतनी ही तेजी से वह इससे दूर भी हो गए। इसका कारण था कि उनके पिता ने उनसे सारे अधिकार छीन लिए थे।
चंदर के प्यार में अपनी नौकरी तक दांव पर लगाने वाली फिजा फिर से सुश्री बाली बन अपनी मां के साथ बेरोजगारी में दिन बिताने लगी। उसपर कर्ज बढ़ते जा रहे थे और प्यार की नाकामी का गम भी। इस गम को मिटाने के लिए वह शराब पीने लगी और लोगों से बात बेबात झगडऩे भी लगी। जितना खूबसूरत इस कहानी का आगाज था उतना ही दर्दनाक फिजा यानी अनुराधा का अंत है। अपने 41वें जन्मदिन के 10 दिन बाद 6 अगस्त 2012 को फिजा मरी हुई पाई गईं। उनका शव उनकी मौत के तीसरे दिन बरामद हुआ। उनका खूबसूरत शरीर सड़ चुका था और उसमें कीड़े रेंग रहे थे। शुरूआती जांच के बाद पुलिस ने कहा कि अनुराधा ने फांसी लगाकर आत्महत्या की है। पुलिस की यह बात सच मानी जा सकती थी क्योंकि अनुराधा पहले भी आत्महत्या करने की कोशिश कर चुकी है। वह जीवन से निराश भी थी पर फांसी लगाने का बाद उसका शव बिस्तर पर कैसे आया, उसके घर में ढेर सारी शराब की बोतले क्या कर रही थीं और क्यों चद्रमोहन उसका जिक्र तक नहींकरना चाहते जैसे सवाल उसकी मौत को संदिग्ध बनाते हैं।
अपनी भूख शांत करने के बाद हमारे देश के पॉलिटिशियंस ने अपनी इन तथाकथित ‘प्रेमिकाओं’ को ही ठिकाने लगा दिया। उसका न तो इन्हें कभी कोई पछतावा रहा और न ही इनके परविार के सदस्यों को। आज भी इस तरह के गुनाह करने वालों को कोई मुक्कमल सजा नहींमिली है। इनके केस अदालत दर अदालत चल रहे हैं और ये बेशर्मकी तरह जी रहे हैं। इन्हें तो कभी शर्म आएगी नहीं, लेकिन हम जैसे लोगों को भी इनके कारनामे सामने आने के बावजूद शर्म नहीं आती और जब यह वोट की भीख मांगते हुए हमारी चौखट पर आते हैं तो समाज-नैतिकता के नाम पर दुहाई देने वाले हम लोग ही इन्हें चुनकर सत्ता में भेज देते हैं। जब तक लड़कियां अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए शार्टकट अपनाती रहेंगी और सियासतदां अपने शरीर की भूख मिटाने के लिए ऐसी महिलाओं और लड़कियों को अपना शिकार बनाते रहेंगे तब तक इस तरह की घटनाएं घटती रहेंगी और सियासत शर्मसार होती रहेगी।
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Wednesday, February 8, 2012
कहां प्लेस की जा रही हैं लड़कियां
पिछले आठ वर्षो के दौरान मानव तस्कर छत्तीसगढ़ के जनजातीय इलाके सरगुजा, रायगढ़ और जशपुर से भोली-भाली लड़कियों को नौकरी और प्रशिक्षण के नाम पर भगा कर ले जा रहे हैं। बाद में इन लड़कियों को दिल्ली, मुम्बई, बेंगलुरू और चेन्नई जैसे महानगरों में ले जाकर बेच (प्लेस कर) दिया जाता है। गौरतलब यह है कि ऐसे है आदिवासी इलाके जहां नक्सलियों की कुछ खास दखल नहीं है।
छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों से बड़े पैमाने पर लड़कियों की बिक्री किए जाने और उन्हें देश के महानगरों में बंधुवा बनाए जाने की घटनाओं ने राज्य शासन की नींद उड़ा दी है। राज्य के अलग-अलग हिस्सों से लगातार इस तरह की तरह घटनाएं सामने आ रही हैं। जिस समय एक्टर शाइनी आहूजा का अपनी आदिवासी नौकरानी के साथ रेप का प्रकरण चर्चा में था, उसी समय छत्तीसगढ़ की नाबालिग लड़कियों की मंडी के कहे जाने वाले जशपुर में मुंबई पुलिस का एक दल बंधक बनाई गई लड़की को छोडऩे के लिए आया हुआ था। यह इस बात का बड़ा सबूत है कि छत्तीसगढ़ की आदिवासी लड़कियां न सिर्फ बाहर भेजी जा रही है बल्कि बेची भी जा रही हैं। बावजूद इसके न तो मुख्यमंत्री डा.रमन सिंह इस बात को मानने को तैयार हैं और न ही गृहमंत्री ननकी राम कंवर। पिछले कई सालों से इन इलाकों से प्लेसमेंट एजेंसी के नाम पर अशिक्षित या अर्धशिक्षित गरीब आदिवासी युवतियों को घरों में काम दिलाने के बहाने शहरों में पहुंचा देना कोई मुश्किल काम नहीं है। फिलहाल सिर्फ दिल्ली में तकरीबन 200 प्लेसमेंट एजेंसियां है, जो छत्तीसगढ़ के सरगुजा, जशपुर के अलावा झारखंड के रांची, गुमला, पलामू आदि इलाकों से आदिवासी लड़कियों को घरेलू नौकरानी का काम दिलाने आकर्षित करती हैं। उनके निशाने पर हैं उरांव आदिवासी लड़कियां हैं जिनमें से अधिकांश ने मिशनरियों के प्रभाव में आकर इसाई धर्म अपना लिया है। इनके एजेंट का काम इन लड़कियों के वे रिश्तेदार करते हैं, जो कई साल पहले से ही इन महानगरों में काम कर रहे होते हैं।
दिल्ली की ज्यादातर प्लेसमेंट एजेंसियों के संचालक उत्तरप्रदेश, बिहार और झारखंड के संदिग्ध प्रवृति के लोग हैं। पहले ये खुद छत्तीसगढ़ जाकर लड़कियों को तलाश कर ले जाते थे लेकिन पिछले दो साल से जब इनके खिलाफ अंचल में आवाज उठने लगी है तो उन आदिवासी लड़की लड़कों का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो इन गांवों से पहले से ही निकलकर दिल्ली पहुंच चुके हैं। इन प्लेसमेंन्ट एजेंसियों ने स्वयंसेवी संगठनों और सरकारी विभागों की आंख में धूल झोंकने के लिए बहुत से नियम कायदे बना रखे हैं। जिनमें से एक यह भी है कि नाबालिग लड़कियों को काम पर नहीं रखा जायेगा। पर अब तक देखने में यही आया है कि उनके निशाने पर 8 से 14 साल की लड़कियां ही हैं। प्लेसमेंट एजेंसियां चलाने वाले ऐसी लड़कियां लाने वाले दलालों को आने-जाने का खर्च और 5 से 15 हजार रूपये तोहफे के तौर पर देते हैं। रोजगार की तलाश में ये युवतियां बड़े शहरों में पहुंचने के बाद असामाजिक तत्वों के चंगुल में फंस जाती हैं। वैसे तो गाहे बगाह कुछ लोगों कुछ लोगों को इस मामले में गिरफ्तार भी किया जाता है पर लड़कियों को बहला-फुसला कर बाहर ले जाने का सिलसिला थम नहींरहा है। लड़कियों को भारत के दिल्ली, मुम्बई, बेंगलुरू और चेन्नई जैसे महानगरों में तो प्लसमेंट दिया ही जाता है साथ ही इन लड़कियों को घरेलू काम कराने के बहाने से कुवैत और जापान तक भी ले जाया जाता है।
मानव व्यापार के मुद्दे ने 2007 में भी जोर पकड़ा था, जब मिशनरियों द्वारा संचालित कुनकुरी की स्वयंसेवी संस्था ने अपने सर्वेक्षण में 3718 युवतियों के गायब होने का खुलासा किया था। संस्था ने बताया था कि इन युवतियों को दिल्ली एवं अन्य महानगरों में बेचा गया। आदिवासी क्षेत्रों में लड़कियों को उठाने वाले दलालों के गिरोह भी सक्रिय हैं। वर्ष 2007 में तत्कालीन भाजपा विधायक राजलिन बेकमेन एवं राकपा के नोबेल वर्मा ने इस मामले को विधानसभा में भी उठाया था। पर मामला आया गया हो गया। छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाकों में मानव तस्करी का व्यवसाय अनवरत जारी है और सरकार इसके विरुद्ध आदिवासी क्षेत्रों में किसी भी कानून को सख्ती से लागू कर पाने में असफल रही है। दिल्ली और राज्य के कई स्वयंसेवी संगठनों की आवाज भी सरकार को इस मामले में कदम उठाने के लिए राजी नहींकर पा रही हैं।
राज्य के बिलासपुर, जशपुर, रायगढ़ और सरगुजा जिले में लड़कियों के अपहरण के कई मामले दर्ज हैं, जिनमें लगातार वृद्धि हो रही है पर यह ऐसे इलाके हैं जहां नक्सलियोंं की दखल कुछ कम हैं। इस तरह तो यही बात सामने आता है कि जिन क्षेत्रों में नक्सलियों का जोर है वहां की आदिवासी लड़कियों ज्यादा सुरक्षित हैं। गौर करने वाली बात यह है कि आज जिन आदिवासी इलाकों से लड़कियां गायब हो रही हैं वह ऐसे इलाके हैं जहां नक्सलियों का दखल कम है या न के बराबर है। आज जितनी भी प्लसमेंट एजेसियां छत्तीसगढ़ में अपना शिकार ढूढ़ रही हैं वह सब ऐसे इलाकों का ओर रूख नहींकरती जहां नक्सलियों का बोलबाला है। राज्य के बस्तर, दंतेवाड़ा, बीजापुर, कांकेर आदि जिलों में जहां नक्सलियों का राज चलता है वहां न तो प्लसमेंट एंजेसियां पूर्ण रूप से सक्रिय हैं और न ही मिशनरी।
प्रदेश भाजपा सरकार मानव तस्करी को रोक पाने में असफल है। परिणाम यह है कि मासूम, भोली-भाली आदिवासी बालाओं की खरीद-बिक्री छत्तीसगढ़ के आदिवासी जिलों में बेरोकटोक जारी है। शासन-प्रशासन इस ओर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं है। इस मामले को लेकर कई बार विधानसभा में भी सरकार से प्रश्न पूछे जा चुके हैं, लेकिन सरकार हमेशा इस पर गोलमोल जवाब देकर टाल देती है। सरकार की उदासीनता का ही परिणाम है कि आज यह संख्या 20 हजार का आंकड़ा पार कर चुकी है। सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहींझारखंड और उड़ीसा जैसे गरीब राज्यों के सीमावर्ती गांवों की आदिवासी बालाओं को प्लेसमेंट एजेंसी के नाम पर दलाल सुनहरे भविष्य का सपना दिखाते हैं और उन्हें बड़े शहरों में ले जाकर बेच देते हैं। कई समाजसेवी संगठनों का आरोप है कि ऐसे मामलों में एक ओर तो दूरदराज के क्षेत्रों से पुलिस थाने तक पहुंच पाना आदिवासियों के वश की बात नहीं है और अगर कोई पुलिस तक पहुंच भी जाता है तो पुलिस रिपोर्ट दर्ज करने से आनाकानी करती है।
इतवार वीकली में प्रकाशित
छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों से बड़े पैमाने पर लड़कियों की बिक्री किए जाने और उन्हें देश के महानगरों में बंधुवा बनाए जाने की घटनाओं ने राज्य शासन की नींद उड़ा दी है। राज्य के अलग-अलग हिस्सों से लगातार इस तरह की तरह घटनाएं सामने आ रही हैं। जिस समय एक्टर शाइनी आहूजा का अपनी आदिवासी नौकरानी के साथ रेप का प्रकरण चर्चा में था, उसी समय छत्तीसगढ़ की नाबालिग लड़कियों की मंडी के कहे जाने वाले जशपुर में मुंबई पुलिस का एक दल बंधक बनाई गई लड़की को छोडऩे के लिए आया हुआ था। यह इस बात का बड़ा सबूत है कि छत्तीसगढ़ की आदिवासी लड़कियां न सिर्फ बाहर भेजी जा रही है बल्कि बेची भी जा रही हैं। बावजूद इसके न तो मुख्यमंत्री डा.रमन सिंह इस बात को मानने को तैयार हैं और न ही गृहमंत्री ननकी राम कंवर। पिछले कई सालों से इन इलाकों से प्लेसमेंट एजेंसी के नाम पर अशिक्षित या अर्धशिक्षित गरीब आदिवासी युवतियों को घरों में काम दिलाने के बहाने शहरों में पहुंचा देना कोई मुश्किल काम नहीं है। फिलहाल सिर्फ दिल्ली में तकरीबन 200 प्लेसमेंट एजेंसियां है, जो छत्तीसगढ़ के सरगुजा, जशपुर के अलावा झारखंड के रांची, गुमला, पलामू आदि इलाकों से आदिवासी लड़कियों को घरेलू नौकरानी का काम दिलाने आकर्षित करती हैं। उनके निशाने पर हैं उरांव आदिवासी लड़कियां हैं जिनमें से अधिकांश ने मिशनरियों के प्रभाव में आकर इसाई धर्म अपना लिया है। इनके एजेंट का काम इन लड़कियों के वे रिश्तेदार करते हैं, जो कई साल पहले से ही इन महानगरों में काम कर रहे होते हैं।
दिल्ली की ज्यादातर प्लेसमेंट एजेंसियों के संचालक उत्तरप्रदेश, बिहार और झारखंड के संदिग्ध प्रवृति के लोग हैं। पहले ये खुद छत्तीसगढ़ जाकर लड़कियों को तलाश कर ले जाते थे लेकिन पिछले दो साल से जब इनके खिलाफ अंचल में आवाज उठने लगी है तो उन आदिवासी लड़की लड़कों का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो इन गांवों से पहले से ही निकलकर दिल्ली पहुंच चुके हैं। इन प्लेसमेंन्ट एजेंसियों ने स्वयंसेवी संगठनों और सरकारी विभागों की आंख में धूल झोंकने के लिए बहुत से नियम कायदे बना रखे हैं। जिनमें से एक यह भी है कि नाबालिग लड़कियों को काम पर नहीं रखा जायेगा। पर अब तक देखने में यही आया है कि उनके निशाने पर 8 से 14 साल की लड़कियां ही हैं। प्लेसमेंट एजेंसियां चलाने वाले ऐसी लड़कियां लाने वाले दलालों को आने-जाने का खर्च और 5 से 15 हजार रूपये तोहफे के तौर पर देते हैं। रोजगार की तलाश में ये युवतियां बड़े शहरों में पहुंचने के बाद असामाजिक तत्वों के चंगुल में फंस जाती हैं। वैसे तो गाहे बगाह कुछ लोगों कुछ लोगों को इस मामले में गिरफ्तार भी किया जाता है पर लड़कियों को बहला-फुसला कर बाहर ले जाने का सिलसिला थम नहींरहा है। लड़कियों को भारत के दिल्ली, मुम्बई, बेंगलुरू और चेन्नई जैसे महानगरों में तो प्लसमेंट दिया ही जाता है साथ ही इन लड़कियों को घरेलू काम कराने के बहाने से कुवैत और जापान तक भी ले जाया जाता है।
मानव व्यापार के मुद्दे ने 2007 में भी जोर पकड़ा था, जब मिशनरियों द्वारा संचालित कुनकुरी की स्वयंसेवी संस्था ने अपने सर्वेक्षण में 3718 युवतियों के गायब होने का खुलासा किया था। संस्था ने बताया था कि इन युवतियों को दिल्ली एवं अन्य महानगरों में बेचा गया। आदिवासी क्षेत्रों में लड़कियों को उठाने वाले दलालों के गिरोह भी सक्रिय हैं। वर्ष 2007 में तत्कालीन भाजपा विधायक राजलिन बेकमेन एवं राकपा के नोबेल वर्मा ने इस मामले को विधानसभा में भी उठाया था। पर मामला आया गया हो गया। छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाकों में मानव तस्करी का व्यवसाय अनवरत जारी है और सरकार इसके विरुद्ध आदिवासी क्षेत्रों में किसी भी कानून को सख्ती से लागू कर पाने में असफल रही है। दिल्ली और राज्य के कई स्वयंसेवी संगठनों की आवाज भी सरकार को इस मामले में कदम उठाने के लिए राजी नहींकर पा रही हैं।
राज्य के बिलासपुर, जशपुर, रायगढ़ और सरगुजा जिले में लड़कियों के अपहरण के कई मामले दर्ज हैं, जिनमें लगातार वृद्धि हो रही है पर यह ऐसे इलाके हैं जहां नक्सलियोंं की दखल कुछ कम हैं। इस तरह तो यही बात सामने आता है कि जिन क्षेत्रों में नक्सलियों का जोर है वहां की आदिवासी लड़कियों ज्यादा सुरक्षित हैं। गौर करने वाली बात यह है कि आज जिन आदिवासी इलाकों से लड़कियां गायब हो रही हैं वह ऐसे इलाके हैं जहां नक्सलियों का दखल कम है या न के बराबर है। आज जितनी भी प्लसमेंट एजेसियां छत्तीसगढ़ में अपना शिकार ढूढ़ रही हैं वह सब ऐसे इलाकों का ओर रूख नहींकरती जहां नक्सलियों का बोलबाला है। राज्य के बस्तर, दंतेवाड़ा, बीजापुर, कांकेर आदि जिलों में जहां नक्सलियों का राज चलता है वहां न तो प्लसमेंट एंजेसियां पूर्ण रूप से सक्रिय हैं और न ही मिशनरी।
प्रदेश भाजपा सरकार मानव तस्करी को रोक पाने में असफल है। परिणाम यह है कि मासूम, भोली-भाली आदिवासी बालाओं की खरीद-बिक्री छत्तीसगढ़ के आदिवासी जिलों में बेरोकटोक जारी है। शासन-प्रशासन इस ओर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं है। इस मामले को लेकर कई बार विधानसभा में भी सरकार से प्रश्न पूछे जा चुके हैं, लेकिन सरकार हमेशा इस पर गोलमोल जवाब देकर टाल देती है। सरकार की उदासीनता का ही परिणाम है कि आज यह संख्या 20 हजार का आंकड़ा पार कर चुकी है। सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहींझारखंड और उड़ीसा जैसे गरीब राज्यों के सीमावर्ती गांवों की आदिवासी बालाओं को प्लेसमेंट एजेंसी के नाम पर दलाल सुनहरे भविष्य का सपना दिखाते हैं और उन्हें बड़े शहरों में ले जाकर बेच देते हैं। कई समाजसेवी संगठनों का आरोप है कि ऐसे मामलों में एक ओर तो दूरदराज के क्षेत्रों से पुलिस थाने तक पहुंच पाना आदिवासियों के वश की बात नहीं है और अगर कोई पुलिस तक पहुंच भी जाता है तो पुलिस रिपोर्ट दर्ज करने से आनाकानी करती है।
अब फिर एक बार विधानसभा में यह मामला उठा है जो शायद हर बार तरह फिर विधानसभा खत्म होते-होते ठंडा पड़ जाएगा। ये समाज की एक बुराई है, जिसके पीछे दो ही कारण प्रमुख हैं एक तो गरीबी दूसरी सरकार की उदासीनता। भले ही इन दिनों छत्तीसगढ़ में न जाने कहां-कहां से लोग आ रहे हैं और रोजगार पा रहे हैं, पर जो मूल छत्तीसगढ़ी हैं, वे कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक मजदूरी करते पाए जाते हैं। यह दोहरापन आखिर क्यों? उन्हें अपने ही राज्य में रोजगार क्यों नहीं मिल पाता? क्यों विवश हैं वे और क्यों विवश है सरकार जो उनकी बेटियों को बिकता देखकर भी मौन है। फिर इसमें पुलिस की भूमिका भी सवालों के घेरे में है कि आखिर क्यों वह इन एंजेसियों पर नजर नहींरखती है। शायद भाजपा सरकार और प्रदेश की पुलिस किसी बड़ी घटना के इंतजार कर रही है।
Posted by नीलम at 2:29 AM 10 comments
Labels: आदिवासी, छत्तीसगढ़, प्लेसमेंट एजेंसियां, लड़कियां
Monday, January 30, 2012
राजनीतिक पहचान की जद्दोजहद में अमित जोगी
राहुल गांधी की तर्ज पर कभी किसी सरकारी योजना का विरोध जताकर तो कभी अपने उपर हमला करने वालों को माफ करने को लेकर अमित जोगी इन दिनों चर्चा में बने हुए हैं। चर्चाओं को यूं विस्तार देने के पीछे की उनके मंशा छत्तीसगढ़ में अपने लिए वह राजनीतिक जमीन तलाश करना है जो उनपर लगे आरोपों के चलते उनसे छिन सी गई है। उनके इस काम में उनके मददगार है छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री और उनके पिता अजित जोगी।
राजनीति संभावनाओं का खेल है। यहां चीजे हमेशा एक जैसी नही रहती हैं। उतार चढ़ाव आते जाते रहते है पर छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजित जोगी के राजनीतिक जीवन में 2003 के बाद जो उतार आया वह अब तक जारी है। एक समय था जब मध्य प्रदेश से अलग हुए आदिवासी बाहुल्य छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी के नाम का डंका बड़े जोर शोर के साथ बजा करता था। साथ ही उनकी गिनती दस जनपद के खासमखास लोगो में होती थी जहां पर उनका सिक्का बड़ी बेबाकी से चला करता था। यही नही अविभाजित मध्य प्रदेश में रायपुर में अपनी प्रशासनिक दक्षता का जोगी ने लोहा भी मनवाया था। इसी के चलते पार्टी आलाकमान ने जोगी को छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री रुपी कांटो का ताज सौंपा। आलाकमान जोगी पर इस कदर भरोसा करता है कि 2003 के आम चुनाव से पहले उनके इकलौते बेटे अमित जोगी का नाम राकपा के महासचिव रामअवतार जग्गी मर्डर केस में आने के बाद भी छत्तीसगढ़ में 2003 के आम चुनाव में पार्टी ने जोगी को ही आगे किया परन्तु उसके हाथ से सत्ता फिसल गई और साथ ही पीछे छूट गया वह रूतबा भी जिसके बलबूते पर जोगी की साख टिकी थी। 2003 के चुनाव परिणाम के बाद भाजपा के जीतने वाले नेताओं को खरीदने और फिर से सत्ता में काबिज होने का सपना देखने वाले जोगी को इस मामले में पकड़े जाने पर कांग्रेस आलाकमान की नाराजगी भी झेलनी पड़ी। पर वह बात आयी गई हो गई। इस बात से इंकार नहींकिया जा सकता है कि आज भी छत्तीसगढ़ में जोगी से ज्यादा शक्तिशाली कांग्रेसी नेता कोई दूसरा नहींहै। यही कारण है कि पार्टी आलाकमान आज भी जोगी को ही प्रदेश में आगे करती रही है और हर बार वहां होने वाले चुनाव में जोगी का ही सिक्का चलता है। इन सबके बावजूद आज भी लोग जोगी के उत्तराधिकारी के रूप में अमित जोगी को नहींदेखते हैं जो अमित के राजनीतिक भविष्य के लिए गहन चिंता का विषय है। शायद इसीलिए अब छोटे जोगी पिता की मदद से समय रहते अपनी राजनीतिक जमीन तलाश लेना चागते हैं।
जब 2003 के चुनावों ने करवट बदली और जोगी के हाथ से सत्ता फिसल गई ठीक इसी समय अमित के सितारे भी गर्दिश में चले गए। एक समय अजित जोगी के उत्तराधिकारी के तौर देखे जाने वाले अमित का नाम राकपा के महासचिव रामअवतार जग्गी की हत्या की साजिश रचने और दिलीप सिंह जूदेव घूस प्रकरण के कारण उनकी खासी किरकिरी हुई। माना जाता है कि जूदेव प्रकरण को हवा देने में अमित जोगी की खासी अहम् भूमिका है। इतना ही नहींइसके बाद मर्डर के सिलसिले में अमित जोगी को जेल की हवा भी खानी पड़ी। 2004 में अजित जोगी एक कार दुर्घटना में घायल हो गए जिसके चलते आज तक वह व्हील चेयर में है परन्तु लचर स्वास्थ्य के बाद भी अभी जोगी का राजनीति से मोह नही छूट है।
जोगी का एक दौर था और उस दौर में वह आदिवासियों के बीच खासे लोकप्रिय थे, पर आज आलम यह है कि छत्तीसगढ़ में चावल वाले बाबा जी यानी डा.रमन सिंह के मुकाबले जोगी की पूछ परख लगभग मृत्त प्राय है। यही कारण है कि पिछले चुनाव में जोगी ने राज्य के कोने कोने में पार्टी के लिए वोट मांगे थे पर जनता ने उनके नेतृत्व को नकार दिया। यह घटना ये बताने के लिए काफी है कि किस तरह जोगी अपने राज्य के आदिवासियों के बीच ठुकराए जा रहे है, जबकि जोगी खुद को आदिवासियों का बड़ा हिमायती बताया करते थे। 2008 के चुनावो में आदिवासी बाहुल्य इलाको में कांग्रेस को केवल 11 सीट मिल सकी। इसके बाद से लगातार राज्य में कांग्रेस का ग्राफ घटता जा रहा है। एक समय ऐसा भी आया जब खुद अजित जोगी की राजनीति पर संकट पैदा हो गया है। उनको करीब से जाने वाले कहते है वर्तमान दौर में उनकी राजनीति के दिन ढलने लगे थे और अपने राज्य में ही जोगी अपने विरोधियो से पार नही पा रहे थे। पहले जोगी ने 15 वी लोक सभा के चुनावो में अपनी पत्नी डॉक्टर रेनू जोगी को लोक सभा का चुनाव लड़ाया लेकिन वहां पर भी जोगी को मुंह की खानी पड़ी। इसके बाद भी राजनीति के प्रति उनका मोह कम नही हुआ। राज्य सभा के जरिये केंद्र वाली सियासत करने में रूचि दिखाई लेकिन असफलता ही हाथ लगी। जोगी की इन सारी नाकामयाबियों में उनके विरोधियों का बड़ा हाथ रहा जिनमेंंबहुत से विरोधी ऐसे भी थे जो कांग्रेसी हैं पर जोगी के विरोधी भी हैं। इसी के चलते अब कई लोग और कांग्रेस के जानकार यह मानने लगे है अगर समय रहते राज्य में जोगी का विकल्प नही खोजा गया तो राज्य में रमन सिंह तीसरी बार अपनी सरकार बना लेंगे। जोगी को भी अब लगने लगा है कि व्हील चेयर पर वह अपने और पार्टी के नाम पर वोट नहींमांग सकते हैं। शायद तभी वो राज्य में वंशवाद को बढ़ाने में लगे है और इसीलिए अब वह अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने के लिए अमित को तैयार कर रहे हैं। भारतीय राजनीति में वंशवाद से कोई अछूता नही है। फिर जोगी तो उस पार्टी की उपज है जहां सबसे ज्यादा वंशवाद की अमर बेल फैली है। इसकी परछाई जोगी पर स्वाभाविक तौर पर पडऩी ही थी।
अब जोगी यह बात भली भांति जान गए है मौजूदा समय में उनका राज्य में बड़े पैमाने पर सक्रिय हो पाना असंभव लगता है। साथ ही पार्टी आलाकमान भी उनका विकल्प तलाश रही है। प्रदेश राजनीति में उनके विरोधियो ने उनको हाशिये पर धकेल दिया है इस लिहाज से वह अपना खुद का वजूद बचाने में लगे हुए है। इसी बात को जानते और वकत की नजाकत को भांपते हुए अब उन्होंने आदिवासियों का दिल फिर से जीतने का मन बनाया है ताकि आदिवासी इलाको में अपने बेटे अमित के लिए सम्भावना तलाशनी शुरू कर दी है। आदिवासी कार्ड खेलकर वह राज्य में अपने बेटे अमित को जनता के सामने लाकर वह राज्य की राजनीति में अपनी विरासत सौपने की दिशा में जल्द ही कदम बढ़ाकर फैसला ले सकते है। यही कारण है कि इन दिनों राहुल गांधी की तर्ज पर अमित भी कांग्रेस का प्रचार बड़े जोर शोर से कर रहे हैं साथ ही अपने करियर में ऐसे-ऐसे राजनीतिक तड़के लगा रहे कि जैसा कि कोई बड़ा राजनीतिज्ञ करता है।
छोटे जोगी पहली बार बड़ी चर्चा का कारण तब बने जब जून 2011 में उनपर जानलेवा हमला हुआ। मध्यप्रदेश के जबेरा विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी और अपनी बहन तान्या सोलेमन के चुनाव प्रचार के लिए गए छोटे जोगी को कुछ असामाजिक तत्वों ने हमला कर बुरी तरह घायल कर दिया था। इसके फलस्वरूप उनके सिर पर चोट की वजह से बाई आंख की रोशनी चली गई थी। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के नेत्र अस्पताल के डाक्टरों ने आंख में खून का थक्का जमने से रोशनी का न आना बताया। खून का थक्का साफ होने के बाद धीरे-धीरे आंखों में रोशनी वापस आ सकी। इस मामाले में पहले तो अमित ने खुद पर हुए हमलों पर भाजपा को कोसते हुए ढेरों बयान बाजी की और जोर शोर से भाजपा नेता विनोद गोटिया और उजियार सिंह पर आरोप लगाते हुए कहा कि स्थानीय शासन-प्रशासन की शह पर इन दोनों ने अपने साथियों के सात मिलकर हम पर और हमारे साथियों पर हमला किया जिसके गवाह स्थानीय लोग है। इन लोगों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने के लिए छोटे जोगी कृतसंकल्प भी दिखे। पर दिल्ली वापस आकार और चोट का इलाज करवाने के बाद अचानक ही उनका रूख नम्र हो गया। उन्होने गांधी के सिद्धांतों का हवाला देते हुए कहा कि गांधी के सिद्धांतों की सियासत करने वालों को कार्रवाई की बजाय माफी को ज्यादा बड़ा मानना चाहिए। अब अमित हमले के आरोपियों पर कोई कानूनी कार्रवाई करना चाहते हैं। इस घटना में छोटे जोगी ने पहले आग में घी डाला और फिर उसपर थोड़ा सा पानी डालकर उसे धीरे-धीरे सुलगने दिया। राजनीति की थोड़ी सी समझ रखने वाला भी यह बता देगा कि यह पैंतरेबाजी छोटे जोगी को विरासत में मिली है। रणनीति की बिसात पर भले ही आवाज छोटे जोगी की हो पर बैकग्रांउड की आवाज तो सीनियर जोगी की ही है।
छत्तीसगढ़ में भी खबरों में बने रहने के लिए गाहे बगाहे छोटे जोगी कुछ न कुछ ऐसा करते रहते हैं जिससे उनकी चर्चा हो सके। ऐसा ही एक कारनामा उन्होंने जांजगीर चांपा में बन रहे आधुनिक पवार प्लांट का विरोध जता कर किया। उनकी गिरफ्तारी को लेकर पूरे प्रदेश में सरकार के खिलाफ आंदोलन और पुतला दहन किया गया। दरअसल जांजगीर चांपा में बन रहे इस आधुनिक पवार प्लांट से किसानो की सिंचित और कृषि योग्य भूमि को भरी नुकसान होने की बात को लेकर अमित ने यह सारा हंगामा किया था। जिस स्थान पर सरकार की आधुनिक पवार प्लांट स्थापित करने की योजना है वह डोलोमाइट एरिया घोधित है यानी वहां पर खनिज सम्पदा की भरमार है। ऐसी स्थिति में नियमानुसार पवार प्लांट यहां पर स्थापित नहीं किया जा सकता। अमित अपने हजारों साथियों के साथ वहां विरोध प्रदर्शन करने जा रहे थे पर पुलिस ने उन्हें रास्ते में ही रोक लिया औप उनके साथियों समेत उनको बाराद्वार रेस्टहाउस नजर बंद कर दिया। इस बात का फायदा जोगी ने बखूबी उठाया और काफी समय तक मीडिया की नजरे इनायत उनपर बनी रही। इसी तरह पिछले दिनों अमित जोगी ने प्रदेश भाजपा पर संगीन आरोप लगाते हुए यहां तक कह डाला कि बस्तर में ना तो प्राथमिक सुविधाएं हैं और ना ही आदिवासियों के इलाज की व्यवस्था। उनके पास ना तो रोजगार के संसाधन उपलब्ध हैं और ना ही आधारभूत सुविधाएं। ऐसे में वहां ते आदिवासियों में के सामने नक्सली बनने के अलावा और चारा बचता ही नहींहै। गरीबी और अशिक्षा जैसी समस्याएं आज भी मुंह बाए सबके सामने खड़ी है। आज के समय में वे खुद भी अगर बस्तर में पैदा हुए होते तो शायद वे भी नक्सली ही होते। अमित जोगी के इस बयान ने कांग्रेस और भाजपा के बीच चल रही राजनीतिक गहमागहमी को हवा दे दी है और फिर से बयानों का दौर शुरू होने की संभावना तो बढ़ ही गई है। साथ ही अमित ने एक ऐसा मुद्दा उठाया है जिसकी चर्चा सिर्फ प्रदेश में ही नहींबल्कि उसके बाहर भी काफी समय तक गूंजेगी।
सीनियर जोगी ने अमित को अपना उत्तराधिकारी तो बना लिया पर क्या वह अमित को सत्ता सुख दिला पाने में कामयब होंगे यह प्रश्न सभी के साथ छोटे जोगी को भी परेशान कर रहा है। इसका कारण है आदिवासी वोट बैंक का सीनियर जोगी के हाथों से लगातार फिसलना। पिछले दिनों बलिराम कश्यप के निधन से रिक्त हुई सीट बस्तर की के लिए जोगी ने कांग्रेस के पक्ष में जमकर प्रचार किया था पर फिर भी यह सीट भाजपा के पाले में चली गई। इस हार के बावजूद आदिवासियों की हर सभा में आज भी जोगी की एहमियत कम नही हुई है। आज भी उनकी सभाओं में लोगों की भारी भीड़ उमड़ आती है। अब जोगी की कोशिश है कि इस भीड़ को अमित के पक्ष में किसी भी तरह किया जाए। हत्या कांड में जेल की यात्रा कर चुके अमित अब पिता के पग चिन्हों पर चलकर अपनी छवि बदलने की तैयारियों में जुट गए है। वह इस बात को जानते है चाहे राज्य के कांग्रेसी नेता उनके पिता को आने वाले दिनों में किनारे करने के मूड में है लेकिन पिता आदिवासी इलाके में उनको स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है। अजित जोगी भी इस बात को बखूबी जान रहे है। शायद तभी उनकी नजर आदिवासियों के एक बड़े वोट बैंक पर आज भी लगी हुई है। जोगी का सपना और मकसद एक है कि किसी तरह आने वाले विधान सभा चुनाव में अमित को कांग्रेस पार्टी टिकट दे जिससे राज्य में वह उनकी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा सके। इसीलिए छोटे जोगी आदिवासियों को हितचिंतक बन उनके पक्ष में बयान बाजी कर रहे हैं। देखना होगा अजित जोगी का ये दाव छत्तीसगढ़ में कितना कारगर साबित होता है। इस बहाने अजित जोगी जहां अपने बेटे को आगे कर अपनी विरासत को आगे बढ़ाएगे वहीं आदिवासियों के बीच अपनी लोकप्रियता के मद्देनजर अपने बेटे अमित जोगी की राजनीतिक राह आसान कर देंगे। अब यह तो समय ही बताएगा कि उनका यह कदम और छोटे जोगी की पैंतरेबाजियां आने वाले समय में कितना कारगर साबित होती हैं।
राजनीति संभावनाओं का खेल है। यहां चीजे हमेशा एक जैसी नही रहती हैं। उतार चढ़ाव आते जाते रहते है पर छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजित जोगी के राजनीतिक जीवन में 2003 के बाद जो उतार आया वह अब तक जारी है। एक समय था जब मध्य प्रदेश से अलग हुए आदिवासी बाहुल्य छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी के नाम का डंका बड़े जोर शोर के साथ बजा करता था। साथ ही उनकी गिनती दस जनपद के खासमखास लोगो में होती थी जहां पर उनका सिक्का बड़ी बेबाकी से चला करता था। यही नही अविभाजित मध्य प्रदेश में रायपुर में अपनी प्रशासनिक दक्षता का जोगी ने लोहा भी मनवाया था। इसी के चलते पार्टी आलाकमान ने जोगी को छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री रुपी कांटो का ताज सौंपा। आलाकमान जोगी पर इस कदर भरोसा करता है कि 2003 के आम चुनाव से पहले उनके इकलौते बेटे अमित जोगी का नाम राकपा के महासचिव रामअवतार जग्गी मर्डर केस में आने के बाद भी छत्तीसगढ़ में 2003 के आम चुनाव में पार्टी ने जोगी को ही आगे किया परन्तु उसके हाथ से सत्ता फिसल गई और साथ ही पीछे छूट गया वह रूतबा भी जिसके बलबूते पर जोगी की साख टिकी थी। 2003 के चुनाव परिणाम के बाद भाजपा के जीतने वाले नेताओं को खरीदने और फिर से सत्ता में काबिज होने का सपना देखने वाले जोगी को इस मामले में पकड़े जाने पर कांग्रेस आलाकमान की नाराजगी भी झेलनी पड़ी। पर वह बात आयी गई हो गई। इस बात से इंकार नहींकिया जा सकता है कि आज भी छत्तीसगढ़ में जोगी से ज्यादा शक्तिशाली कांग्रेसी नेता कोई दूसरा नहींहै। यही कारण है कि पार्टी आलाकमान आज भी जोगी को ही प्रदेश में आगे करती रही है और हर बार वहां होने वाले चुनाव में जोगी का ही सिक्का चलता है। इन सबके बावजूद आज भी लोग जोगी के उत्तराधिकारी के रूप में अमित जोगी को नहींदेखते हैं जो अमित के राजनीतिक भविष्य के लिए गहन चिंता का विषय है। शायद इसीलिए अब छोटे जोगी पिता की मदद से समय रहते अपनी राजनीतिक जमीन तलाश लेना चागते हैं।
जब 2003 के चुनावों ने करवट बदली और जोगी के हाथ से सत्ता फिसल गई ठीक इसी समय अमित के सितारे भी गर्दिश में चले गए। एक समय अजित जोगी के उत्तराधिकारी के तौर देखे जाने वाले अमित का नाम राकपा के महासचिव रामअवतार जग्गी की हत्या की साजिश रचने और दिलीप सिंह जूदेव घूस प्रकरण के कारण उनकी खासी किरकिरी हुई। माना जाता है कि जूदेव प्रकरण को हवा देने में अमित जोगी की खासी अहम् भूमिका है। इतना ही नहींइसके बाद मर्डर के सिलसिले में अमित जोगी को जेल की हवा भी खानी पड़ी। 2004 में अजित जोगी एक कार दुर्घटना में घायल हो गए जिसके चलते आज तक वह व्हील चेयर में है परन्तु लचर स्वास्थ्य के बाद भी अभी जोगी का राजनीति से मोह नही छूट है।
जोगी का एक दौर था और उस दौर में वह आदिवासियों के बीच खासे लोकप्रिय थे, पर आज आलम यह है कि छत्तीसगढ़ में चावल वाले बाबा जी यानी डा.रमन सिंह के मुकाबले जोगी की पूछ परख लगभग मृत्त प्राय है। यही कारण है कि पिछले चुनाव में जोगी ने राज्य के कोने कोने में पार्टी के लिए वोट मांगे थे पर जनता ने उनके नेतृत्व को नकार दिया। यह घटना ये बताने के लिए काफी है कि किस तरह जोगी अपने राज्य के आदिवासियों के बीच ठुकराए जा रहे है, जबकि जोगी खुद को आदिवासियों का बड़ा हिमायती बताया करते थे। 2008 के चुनावो में आदिवासी बाहुल्य इलाको में कांग्रेस को केवल 11 सीट मिल सकी। इसके बाद से लगातार राज्य में कांग्रेस का ग्राफ घटता जा रहा है। एक समय ऐसा भी आया जब खुद अजित जोगी की राजनीति पर संकट पैदा हो गया है। उनको करीब से जाने वाले कहते है वर्तमान दौर में उनकी राजनीति के दिन ढलने लगे थे और अपने राज्य में ही जोगी अपने विरोधियो से पार नही पा रहे थे। पहले जोगी ने 15 वी लोक सभा के चुनावो में अपनी पत्नी डॉक्टर रेनू जोगी को लोक सभा का चुनाव लड़ाया लेकिन वहां पर भी जोगी को मुंह की खानी पड़ी। इसके बाद भी राजनीति के प्रति उनका मोह कम नही हुआ। राज्य सभा के जरिये केंद्र वाली सियासत करने में रूचि दिखाई लेकिन असफलता ही हाथ लगी। जोगी की इन सारी नाकामयाबियों में उनके विरोधियों का बड़ा हाथ रहा जिनमेंंबहुत से विरोधी ऐसे भी थे जो कांग्रेसी हैं पर जोगी के विरोधी भी हैं। इसी के चलते अब कई लोग और कांग्रेस के जानकार यह मानने लगे है अगर समय रहते राज्य में जोगी का विकल्प नही खोजा गया तो राज्य में रमन सिंह तीसरी बार अपनी सरकार बना लेंगे। जोगी को भी अब लगने लगा है कि व्हील चेयर पर वह अपने और पार्टी के नाम पर वोट नहींमांग सकते हैं। शायद तभी वो राज्य में वंशवाद को बढ़ाने में लगे है और इसीलिए अब वह अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने के लिए अमित को तैयार कर रहे हैं। भारतीय राजनीति में वंशवाद से कोई अछूता नही है। फिर जोगी तो उस पार्टी की उपज है जहां सबसे ज्यादा वंशवाद की अमर बेल फैली है। इसकी परछाई जोगी पर स्वाभाविक तौर पर पडऩी ही थी।
अब जोगी यह बात भली भांति जान गए है मौजूदा समय में उनका राज्य में बड़े पैमाने पर सक्रिय हो पाना असंभव लगता है। साथ ही पार्टी आलाकमान भी उनका विकल्प तलाश रही है। प्रदेश राजनीति में उनके विरोधियो ने उनको हाशिये पर धकेल दिया है इस लिहाज से वह अपना खुद का वजूद बचाने में लगे हुए है। इसी बात को जानते और वकत की नजाकत को भांपते हुए अब उन्होंने आदिवासियों का दिल फिर से जीतने का मन बनाया है ताकि आदिवासी इलाको में अपने बेटे अमित के लिए सम्भावना तलाशनी शुरू कर दी है। आदिवासी कार्ड खेलकर वह राज्य में अपने बेटे अमित को जनता के सामने लाकर वह राज्य की राजनीति में अपनी विरासत सौपने की दिशा में जल्द ही कदम बढ़ाकर फैसला ले सकते है। यही कारण है कि इन दिनों राहुल गांधी की तर्ज पर अमित भी कांग्रेस का प्रचार बड़े जोर शोर से कर रहे हैं साथ ही अपने करियर में ऐसे-ऐसे राजनीतिक तड़के लगा रहे कि जैसा कि कोई बड़ा राजनीतिज्ञ करता है।
छोटे जोगी पहली बार बड़ी चर्चा का कारण तब बने जब जून 2011 में उनपर जानलेवा हमला हुआ। मध्यप्रदेश के जबेरा विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी और अपनी बहन तान्या सोलेमन के चुनाव प्रचार के लिए गए छोटे जोगी को कुछ असामाजिक तत्वों ने हमला कर बुरी तरह घायल कर दिया था। इसके फलस्वरूप उनके सिर पर चोट की वजह से बाई आंख की रोशनी चली गई थी। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के नेत्र अस्पताल के डाक्टरों ने आंख में खून का थक्का जमने से रोशनी का न आना बताया। खून का थक्का साफ होने के बाद धीरे-धीरे आंखों में रोशनी वापस आ सकी। इस मामाले में पहले तो अमित ने खुद पर हुए हमलों पर भाजपा को कोसते हुए ढेरों बयान बाजी की और जोर शोर से भाजपा नेता विनोद गोटिया और उजियार सिंह पर आरोप लगाते हुए कहा कि स्थानीय शासन-प्रशासन की शह पर इन दोनों ने अपने साथियों के सात मिलकर हम पर और हमारे साथियों पर हमला किया जिसके गवाह स्थानीय लोग है। इन लोगों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने के लिए छोटे जोगी कृतसंकल्प भी दिखे। पर दिल्ली वापस आकार और चोट का इलाज करवाने के बाद अचानक ही उनका रूख नम्र हो गया। उन्होने गांधी के सिद्धांतों का हवाला देते हुए कहा कि गांधी के सिद्धांतों की सियासत करने वालों को कार्रवाई की बजाय माफी को ज्यादा बड़ा मानना चाहिए। अब अमित हमले के आरोपियों पर कोई कानूनी कार्रवाई करना चाहते हैं। इस घटना में छोटे जोगी ने पहले आग में घी डाला और फिर उसपर थोड़ा सा पानी डालकर उसे धीरे-धीरे सुलगने दिया। राजनीति की थोड़ी सी समझ रखने वाला भी यह बता देगा कि यह पैंतरेबाजी छोटे जोगी को विरासत में मिली है। रणनीति की बिसात पर भले ही आवाज छोटे जोगी की हो पर बैकग्रांउड की आवाज तो सीनियर जोगी की ही है।
छत्तीसगढ़ में भी खबरों में बने रहने के लिए गाहे बगाहे छोटे जोगी कुछ न कुछ ऐसा करते रहते हैं जिससे उनकी चर्चा हो सके। ऐसा ही एक कारनामा उन्होंने जांजगीर चांपा में बन रहे आधुनिक पवार प्लांट का विरोध जता कर किया। उनकी गिरफ्तारी को लेकर पूरे प्रदेश में सरकार के खिलाफ आंदोलन और पुतला दहन किया गया। दरअसल जांजगीर चांपा में बन रहे इस आधुनिक पवार प्लांट से किसानो की सिंचित और कृषि योग्य भूमि को भरी नुकसान होने की बात को लेकर अमित ने यह सारा हंगामा किया था। जिस स्थान पर सरकार की आधुनिक पवार प्लांट स्थापित करने की योजना है वह डोलोमाइट एरिया घोधित है यानी वहां पर खनिज सम्पदा की भरमार है। ऐसी स्थिति में नियमानुसार पवार प्लांट यहां पर स्थापित नहीं किया जा सकता। अमित अपने हजारों साथियों के साथ वहां विरोध प्रदर्शन करने जा रहे थे पर पुलिस ने उन्हें रास्ते में ही रोक लिया औप उनके साथियों समेत उनको बाराद्वार रेस्टहाउस नजर बंद कर दिया। इस बात का फायदा जोगी ने बखूबी उठाया और काफी समय तक मीडिया की नजरे इनायत उनपर बनी रही। इसी तरह पिछले दिनों अमित जोगी ने प्रदेश भाजपा पर संगीन आरोप लगाते हुए यहां तक कह डाला कि बस्तर में ना तो प्राथमिक सुविधाएं हैं और ना ही आदिवासियों के इलाज की व्यवस्था। उनके पास ना तो रोजगार के संसाधन उपलब्ध हैं और ना ही आधारभूत सुविधाएं। ऐसे में वहां ते आदिवासियों में के सामने नक्सली बनने के अलावा और चारा बचता ही नहींहै। गरीबी और अशिक्षा जैसी समस्याएं आज भी मुंह बाए सबके सामने खड़ी है। आज के समय में वे खुद भी अगर बस्तर में पैदा हुए होते तो शायद वे भी नक्सली ही होते। अमित जोगी के इस बयान ने कांग्रेस और भाजपा के बीच चल रही राजनीतिक गहमागहमी को हवा दे दी है और फिर से बयानों का दौर शुरू होने की संभावना तो बढ़ ही गई है। साथ ही अमित ने एक ऐसा मुद्दा उठाया है जिसकी चर्चा सिर्फ प्रदेश में ही नहींबल्कि उसके बाहर भी काफी समय तक गूंजेगी।
सीनियर जोगी ने अमित को अपना उत्तराधिकारी तो बना लिया पर क्या वह अमित को सत्ता सुख दिला पाने में कामयब होंगे यह प्रश्न सभी के साथ छोटे जोगी को भी परेशान कर रहा है। इसका कारण है आदिवासी वोट बैंक का सीनियर जोगी के हाथों से लगातार फिसलना। पिछले दिनों बलिराम कश्यप के निधन से रिक्त हुई सीट बस्तर की के लिए जोगी ने कांग्रेस के पक्ष में जमकर प्रचार किया था पर फिर भी यह सीट भाजपा के पाले में चली गई। इस हार के बावजूद आदिवासियों की हर सभा में आज भी जोगी की एहमियत कम नही हुई है। आज भी उनकी सभाओं में लोगों की भारी भीड़ उमड़ आती है। अब जोगी की कोशिश है कि इस भीड़ को अमित के पक्ष में किसी भी तरह किया जाए। हत्या कांड में जेल की यात्रा कर चुके अमित अब पिता के पग चिन्हों पर चलकर अपनी छवि बदलने की तैयारियों में जुट गए है। वह इस बात को जानते है चाहे राज्य के कांग्रेसी नेता उनके पिता को आने वाले दिनों में किनारे करने के मूड में है लेकिन पिता आदिवासी इलाके में उनको स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है। अजित जोगी भी इस बात को बखूबी जान रहे है। शायद तभी उनकी नजर आदिवासियों के एक बड़े वोट बैंक पर आज भी लगी हुई है। जोगी का सपना और मकसद एक है कि किसी तरह आने वाले विधान सभा चुनाव में अमित को कांग्रेस पार्टी टिकट दे जिससे राज्य में वह उनकी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा सके। इसीलिए छोटे जोगी आदिवासियों को हितचिंतक बन उनके पक्ष में बयान बाजी कर रहे हैं। देखना होगा अजित जोगी का ये दाव छत्तीसगढ़ में कितना कारगर साबित होता है। इस बहाने अजित जोगी जहां अपने बेटे को आगे कर अपनी विरासत को आगे बढ़ाएगे वहीं आदिवासियों के बीच अपनी लोकप्रियता के मद्देनजर अपने बेटे अमित जोगी की राजनीतिक राह आसान कर देंगे। अब यह तो समय ही बताएगा कि उनका यह कदम और छोटे जोगी की पैंतरेबाजियां आने वाले समय में कितना कारगर साबित होती हैं।
Posted by नीलम at 1:49 AM 0 comments
Labels: अजित जोगी, अमित जोगी, छत्तीसगढ़, राजनीतिक जमीन
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