Saturday, January 8, 2011

संस्कृति का गुत्थम-गुथ

अंतर्राष्टï्रीय स्तर पर साहित्य के माध्यम से जो कुछ लोग संबंधों में प्रगाढ़ता लाने का काम कर रहे हैं, उनमें एक नाम सुरेश चंद्र शुक्ल का भी है जो भारत और नार्वे के मध्य सांस्कृतिक संबंधों को सघन करने में सतत प्रयत्नशील हैं। इसी कड़ी में शुक्ल जी की नई काव्य संग्रह 'गंगा से ग्लोमा तकÓ है। लेखक की दृष्टिï में 'गंगाÓ भारत की पावन पयस्विनी है और 'ग्लोमाÓ नार्वे की पुनीत सरिता। गंगा जहां भारत की सांस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है और ग्लोमा नार्वे की संस्कृति का प्रतीक है। इस काव्य संग्रह में कवि ने भरसक प्रयास किया है कि वह दोनों संस्कृतियों के संगम-स्थल के रूप में लोगों के सामने आए। अपनी कविताओं को भी शुक्ल जी ने दो खण्डों में विभाजित किया है - 'गंगाÓ और 'ग्लोमाÓ। भारत के वसंत की बात करते हुए कहते हैं, 'महुआ महके / फूल उठे आमों के बीर / खिलते हैं कचनार और कनेर...Ó तो नार्वे की वसंत छटा का वर्णन करते हुए लिखते हैं, 'यहां बरफबारी / क्रिसमस वृक्ष हरे / अमावस की रात / बरफ ने तम हरे...Ó इस काव्य संग्रह में कवि ने लखनऊ, उज्जैन, अमृतसर हैं तो किसान मजदूर, मशाले हैं। वीर क्रांतिकारी हैं तो शांति के विश्वदूत गांधी भी है। 'दूर देश से आई चि_ïी हैÓ, 'उधव के पत्र हैंÓ, 'हिंदी है तो कर्मभूमि ओस्लो हैÓ, 'ग्लोमा हैÓ, 'आकेर नदी हैÓ जैसे कविता विचार को एक नई ऊर्जा प्रदान करती है। साथ ही हृदय को संवेदना से झकझोरती है तो इतिहास की बोधगम्यता भी कराती है। अपने रचनाकर्म के बारे में स्वयं कवि कहते हैं कि मातृभूमि भारत तो मेरी हर सांस में है परंतु नार्वे को भुला पाना मेरे बस की बात नहीं है। इस संग्रह की पूरी कविता पढऩे के बाद यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि शुक्ल जी की कविताओं में वैविध्य है, अपने देश की स्मृति है, नार्वे के प्राकृतिक सौन्दर्य और उनकी यायावरी वृत्ति के कारण विश्व भ्रमण के अनेक प्रसंगों के कलात्मक चित्रण हैं। भाषा और अभिव्यक्ति प्रवाहमान और प्रांजल है। पुस्तक - गंगा से ग्लोमा तक लेखक - सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोकÓ प्रकाशक - विश्व पुस्तक प्रकाशन पश्चिम विहार, नई दिल्ली - 63 मूल्य - 125 रुपए

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नीलम