Thursday, December 31, 2009

नववर्ष दो हजार दस

खुशियों भरा संसार दे, नव वर्ष की पहली किरण
आनंद का उपहार दे, नव वर्ष की पहली किरण
दुनिया की अंधी दौड़ में, कुछ दिल्लगी के पल मिले
सबको ही अनुपम प्यार दें, नव वर्ष की पहली किरण
जर्जर हुए बदले अधर, नव वर्ष की पहली किरण
नव चेतना, दे नया स्वर, नव वर्ष की पहली किरण
अब आ चढ़ें नव कर्म रथ पर हर चिरंतन साधना
इस बुद्धि को कर दे प्रखर, नव वर्ष की पहली किरण
सबको अटल विश्वास दे, नव वर्ष की पहली किरण
नव देह में नव श्वास दे, नव वर्ष की पहली किरण
इस अवनि तल पर उतरकर, अब कर दे रौशन ये फिज़ा
उल्लास ही उल्लास दे, नव वर्ष की पहली किरण
अब आ रही है मनोरम, नव वर्ष की पहली किरण
यह चीरती अज्ञान तम, नव वर्ष की पहली किरण
मैं छंद तुझ पर क्या लिखूँ 'अद्भुत' कहूँ इतना ही बस।
सुस्वागतम सुस्वागतम, नव वर्ष की पहली किरण

सरकारी बाबुओं की बल्ले-बल्ले

वेतन के लिए सरकार का खज़ाना खोल देने वाले छठे वेतन आयोग ने सरकारी बाबुओं को मिलने वाली छुट्ïिटयों पर भी अपनी राय व्यक्त की है। केन्द्रीय कर्मचारी 365 दिनों में 123 दिन की सरकारी छुट्टी मनाते हैं, इसके अलावा 8 कैजुअल, 30 अर्न किए गये तथा 20 हाफ-पे छुटियाँ अलग से होती हैं। मसलन ये आंकड़ा साल में 274 दिन काम करने का बैठता है। इसे सरकारी बाबुओं की लॉबी ने पूरी तरह से खारिज़ कर दिया है। इन छुट्टियों का खामयाजा लोगों को भुगतना पड़ता है क्योंकि इसी का परिणाम है सरकारी फाइलों की मोटी होती परत और काम के दिनों की छोटी होती संख्या। कभी आपने सरकारी दफ्तरों में एक के उपर एक लदी फाइलों का जंगल देखा है? देखा तो जरुर होगा, क्योंकि सरकारी दफ्तरों के काम-काज की रफ्तार का पता तो उनकी मोटी फाइलों को देखकर ही लगता है। लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है और वह है सरकारी छुट्टियाँ हाल ही में केन्द्रीय मंत्री शशि थरुर ने एक ऐसा मुद्दा उठाया, जिसे केन्द्र सरकार लगातार टालती रही है। हालांकि इस विवादित मुद्दे को हवा देकर शशि थरुर ने सबका ध्यान सरकारी छुट्ïिटयों की तरफ खींचा है। यह अलग बात है कि कांग्रेस ने इसे थरुर का नीजी विचार बताया और इस मामले से पल्ला खींच लिया। मगर, प्रश्न अब भी वहीं बरकरार है? इस विषय पर छठे वेतन आयोग ने भी नजऱ दौड़ाई थी, उनका मानना है कि भारत में त्यौहारों के कारण इतनी छुट्टियाँ पड़ती हैं। धर्मनिरपेक्ष होने के कारण हर धर्म के लोगों के अनुसार पडऩे वाले त्यौहारों की अच्छी खासी लिस्ट होती है, इसके अलावा भी कई अन्य प्रकार की छुट्टियों होती हैं। जिसका सीधा असर सरकारी कामकाज पर पड़ता है। तीन राष्ट्रीय अवकाशों के अलावा 14 गजटेड छुट्टियाँ का लाभ सरकारी बाबुओं को मिलता है। इसमें 2 प्रतिबंधित अवकाश जोड़ दें और 104 शनिवार-रविवार की छुट्टियाँ तब कहीं जाकर केन्द्रीय कर्मचारियों की छुट्टियाँ वाली लिस्ट पूरी होती है। यानि साल के 34 प्रतिशत दिन तो छुट्टियाँ होती ही होती हैं, बाकी के 66 प्रतिशत दिनों में कितनी तन्मयता से सरकारी बाबू काम करते हैं, यह जग जाहिर है। इस पर करीब दो दशकों से असमंजस जैसी स्थिति बनी हुई है, करीब एक दशक पहले कार्यकुशलता को बढ़ावा देने के नाम पर केन्द्रीय कर्मचारियों को 5 डे वर्किंग का तोहफा दिया गया, जो कि पूर्व में 6 डे वर्किंग था, जिसमें भी हर दूसरे शनिवार की छुट्टियाँ होती थी। इस प्रास्तव को तुरंत हाथों-हाथ लिया गया और केन्द्र सहित कई राज्यों में इसे लागू कर दिया गया। हालांकि इस मामले पर पांचवे वेतन आयोग ने टिप्पणी की थी कि फिर से 6 डे वर्किंग लागू किया जाए, जिसके तहर हर दूसरे शनिवार की छुट्टी रहे। मगर, सरकारी बाबुओं ने इस सलाह को सिरे से खारिज़ कर दिया। फिर छठे वेतन आयोग ने भी इस मसले पर अपनी राय दी, लेकिन सरकार ने उसे अनसुना कर दिया। दोनों वेतन आयोगों ने इस मसले पर सिफारिश दी थी। सरकारी कार्यालयों के अलावा अदालतें, शिक्षण-संस्थान और संसद में छुट्टियाँ को लेकर ज्यादा उदारता देखी जाती है। जिसका ताजा उदाहरण है कि सन्ï 2009 में अब तक सुप्रीम कोर्ट 175 दिन बंद रह चुका है, जबकि केन्द्रीय कार्यालयों की साल भर की कुल छुट्ïटी 123 दिन की होती है। देश के हॉलीडे सिस्टम का हाल अगर आप ग्लोबल टीम के साथ भारत में किसी प्रोजेक्ट पर काम करना चाहते हैं, या किसी बिजनेस ट्रीप पर देश का दौरा कर रहे हों या फिर कोई ऐसा ऑपरेशन जिसमें भारतीय भी शामिल हैं, तो यहां के तीज-त्यौहारों सहित सालभर के हॉलीडे का हाल आपको जरुर जानना चाहिए। हालांकि प्राईवेट कंपनियां जो 24 घंटे सेवा प्रदाता हैं, वे इन छुट्ïिटयों पर कर्मचारियों को भत्ता देकर काम निकलवा लेती हैं, मगर सरकारी कार्यालय सुविधानुसार कार्य करने से कतराते हैं। राष्टï्रीय अवकाश देश में तीन धर्मनिरपेक्ष छुट्ïिटयां होती हैं, जिनमें 26 जनवरी(गणतंत्र दिवस), 15 अगस्त(स्वतंत्रता दिवस)और 2 अक्टूबर(महात्मा गांधी जयंती) शामिल है। इस दिन सभी सरकारी दफ्तर बंद रहते हैं। ऑल इंडिया पब्लिक हॉलीडे तीन राष्ट्रीय अवकाश के अलावा 14 ऑल इंडिया पब्लिक हॉलीडे हैं, जिसके तहत सभी केन्द्रीय दफ्तर व बैंक बंद रहते हैं। इन 14 छुट्ïिटयों में 11 राष्ट्रीय स्तर के और 3 राज्यों के आधार पर लिये जा सकते हैं। धार्मिक सद्ïभावना के तहत इन छुट्ïिटयों में सभी प्रमुख धर्मों हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, सिख, जैन व बौद्ध धर्म के त्यौहार आते हैं। स्टेट पब्लिक हॉलीडे देश के 29 राज्यों में कुछ और धार्मिक तथा धर्मनिरपेक्ष छुट्ïिटयां होती हैं। क्योंकि सभी प्रदेशों की अपनी सभ्यता, संस्कृति है और त्यौहारों को मनाने का तरीका भी। सभी राज्य प्रतिवर्ष प्रदेश के पब्लिक हॉली डे की लिस्ट घोषित करते हैं। जैसे ज्यादातर राज्य 1 मई को मजदूर दिवस के रुप में मनाते हैं, जबकि महा राष्ट्र में इसी दिन पारसी नववर्ष मनाया जाता है। इसी तरह तमिलनाडु में कुल 24 पब्लिक हॉलीडे मनाये जाते हैं। प्रतिबंधित अवकाश छुट्ïिटयों की इस श्रृंखला में एक प्रतिबंधित अवकाश की श्रेणी भी रखी गयी है। यह पूरी तरह से व्यक्तिगत होता है, सरकारी कार्यालय व व्यापारिक प्रतिष्ठïान खुले होते हैं, मगर व्यक्ति अपनी सुविधानुसार इस छुट्ïटी को ले सकता है। यह पूर्णत: वैयक्तिक होता है। एड हॉक हॉलीडे एड हॉक हॉलीडे की चर्चा के बगैर छुट्ïिटयों की यह पूरी कहानी खतम नहीं होती। यह वह छुट्ïटी जैसे किसी राष्ट्रीय नेता की मृत्यु हो जाए या राज्य या केन्द्र के चुनाव हों, आद्यौगिक हड़ताल भी इसी कैटेगरी में आती है। इसके अलावा भी समय-समय पर राजनैतिक पार्टियों द्वारा बुलाया जाने वाला बंद भी सरकारी कामकाज को पूरी तरह से प्रभावित करता है। क्रिकेट मैचों के दौरान कार्यालयों में होने वाली कम उपस्थिति को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है, क्योंकि क्रिकेट क्रेजी इस देश में अमूमन बीमार होने का बहाना बनाकर मैच वाले दिन छुट्ïटियां ले ली जा जाती हैं। लगातार छुट्ïिटयां का सिलसिला बीते वर्ष में सरकारी मुलाजि़मों के लिए के सितंबर व अक्टूबर का महीना खूब एन्जॉय करने वाला रहा क्योंकि सितंबर माह में एक बार लगातार 4 दिन की छुट्ïटी रही तो सप्ताह भर के भीतर ही तीन दिन लगातार की फिर छुट्ïटी। यही नहीं बीते अक्टूबर महीने में भी कुछ ऐसा ही हाल रहा, जब तीन-तीन दिन लगातार की तीन छुट्ïिटयां सरकारी बाबुओं को खुश कर गयी। 2 अक्टूबर को गांधी जयंती, 3 को शनिवार व 4 को रविवार की लगातार छुट्ïटी रही, फिर उत्तर प्रदेश में 9 अक्टूबर को कांशीराम निर्वाण दिवस, 10 तारीख को शनिवार व 11 तारीख को रविवार की वजह से भी तीन दिन लगातार की छुट्ïटी और अंत में 17 अक्टूबर का दीपावली की गजटेड छुट्ïटी 18 को रविवार व 19 अक्टूबर को भैया दूज की प्रतिबंधित छुट्ïटी की वजह से यह माह सरकारी दफ्तरों के लिए आरामदायक रहा। हालांकि नवंबर महीनों में छुट्ïिटयों का थोड़ा टोटा रहा पर दिसबंर की 4 लगातार छुट्ïिटयां सरकारी कर्मचारियों को बल्ले बल्ले करने के लिए उत्साहित कर रही हैं। 25 दिसंबर को क्रिसमस, 26 को शनिवार व 27 को रविवार तथा अगले दिन सोमवार को मोहर्रम की छुट्ïटी तय थी ही साथ ही 1 जनवरी 2010 को शुक्रवार फिर शनिवार और रविवार की छुट्टी से ये बाबू उत्साहित हैं। मनोज manragini.blogspot.com

Wednesday, December 30, 2009

सर्दियों में सैर सपाटा

सर्दियों में सैर सपाटा सर्दी का मौसम घूमने फिरने वालों के लिए किसी सौगात से कम नहीं है। इस मौसम में विदेशी सैलानी भी भारत का रुख करते हैं क्योंकि उनके लिए भारत की सर्दियां गुलाबी होती हैं। अगर इन सर्दियों में आपका भी सैरसपाटे का मन है तो निकल पडिए भारत के किसी भी कोने में, ये मौसम पूरे भारत के लिए आदर्श है। चाहे बर्फीली वादियां हों या तपता रोगिस्तान या फिर समुंदर का किनारा, सर्दी के मौसम में घूमने का अलग ही मजा है। वैसे तो सर्दियों में घर से बाहर न निकलने के लिए लोगों के पास ढेरों बहाने मौजूद होते हैं पर घूमने फिरने की बात पर सभी आसानी से तैयार हो जाते हैं। यही वह मौसम है जब घूमने से सबसे ज्यादा आनंद आता है। भारत में ऐसे ढेरों स्थान हैं जिनकी खूबसूरती सर्दियों में अपने चरम पर होती है। प्रकृकि के कई अनोखे रंग इस मौसम में बिखरते हैं। विदेशी सैलानियों को भी भारत का यह सर्दियों का मौसम अपनी ओर खींचता है क्योंकि सर्दियों में भारत उनके देश की अपेक्षा गर्म रहता है। यहां बताए जा रहे हैं भारत के कुछ फेवरेट विंटर डेस्टिनेशन तय आप को करना हैं कि यह सर्दियां आप कहां बिताना चाहते हैं। १.बर्फीली घाटियों में टहलें चाहे स्नोफॉल का मजा लेना हो या बर्फ पर घूमना या फिर स्लेजिंग और स्कीइंग के खेल का मजा लेना यह तब तभी संभव हो पायेगा जब आप सर्दियों में पहाडों की सैर करेंगे। आसमान से सफेद रुई जैसी बर्फ जब आपके शरीर से टकराती है तो उस अनुभव को शब्दों में बयां कर पाना मुश्किल है। स्नोफॉल की शुरुआत अक्सर जनवरीद्ब्रफरवरी में होती है। पहले भले ही लोग सर्दियों में पहाडो पर जाने से कतराते हों पर अब, लोग सर्दियों का इंतजार करते हैं ताकि बर्फीली वादियों की सैर कर सकें। । पर्वतों की रानी शिमला सर्दी हो या गर्मी शिमला हर मौसम में सबकी पसंदीदा हिल स्टेशन है। स्नोफॉल देखने के लिए तो शिमला सबसे पहले लोग शिमला का ही रुख करते है क्योंकि यह दिल्ली से काफी करीब है। यहां का मौसम कुछ कुछ निराला है। यहां कुफरी और नारकंडा में जब स्नोफॉल होता है तब शिमला का मौसम सुहाना होता है। इससे होता यह है कि आप कुफरी और नारकंडा में बर्फ में खेलने के बाद शिमला के मॉलरोड पर टहल सकते हैं। कुफरी और नारकंडा में स्नोफॉल होने के बाद शिमला में स्नोफॉल शुरू होता है। जो मजा यहां के मॉल रोड और स्केंडल पॉइंट पर स्नोफॉल देखने और बर्फ पर खेलने में आता है वह कहीं और नहीं आता। शिमला के आसपास जाखू मंदिर, कालीबाडी, वायसराइगल लॉज, समर हिल आदि भी घूमने का अलग ही आनंद है। हनीमून इन कुल्लू मनाली हिमालय का जो सौंदर्य व्यास नदी के तट पर बसे कूल्लू मनाली में दिखता है वह शायद ही और कहीं देखने को मिले। एक ओर कल कल बहती व्यास नहीं दूसरी ओर आसमान को छूती पर्वत श्रृंखलाएं किसी को भी रोमांचित कर सकती हैं। तभी तो इसे हनीमून मनाने के लिए सबसे आदर्श माना जाता है। यहां भी जनवरी से हिमपात शुरू हो जाता है। सबसे पहले रोहतांग दर्रे के पास हिमपात होता है। इसके साथ ही यहां का मार्ग बंद हो जाता है। और फिर देखते ही देखते पूरा शहर बर्फ की चादर से ढंक जाता है। वशिष्ठ मंदिर और हिडम्बा मंदिर जाने के लिए भी बर्फ पर चलना पडता है। हिमाचल प्रदेश में मनाली के निकट सोलांग घाटी विंटर गेम्स के लिए आदर्श स्थान है। यहां के ढलानों की विशेषता है कि यहां नौसिखिए सैलानियों भी स्कीइंग करने आनंद उठा सकते हैं। मनाली से सौलांग वैली आसानी से जाया जा सकता है। नैनीताल का टाइगर प्रोजेक्ट नैनीताल में स्नोफॉल का आनंद तो लिया ही जा सकता है साथ ही वाइल्ड लाइफ को भी काफी करीब से देखा जा सकता है। नैनीताल की नैनाभिराम दृश्य और पहाडों पर जमी सफेद बर्फ की चादर इसको स्वर्ग सा खूबसूरत बना देती हैं। और इन्हीं पर्वतों के साये में बसा है नैनीताल का कार्बेट नेशनल पार्क जो भ्ख्क् वर्ग किमी में फैला है। इसे साल, खैर, शीशम आदि वृक्ष और भी खूबसूरत बनाते हैं। यह उद्यान अपने बाघों के लिे पहचाना जाता है। आज इस उद्यान में बाघों की संख्या काफी अधिक है। बाघ के अतिरिक्त यहां भालू, तेंदुआ, जंगली सुअर, पैंथर, बारहसिंगा, नीलगाय, सांभर, चीतल, हाथी और कई अन्य प्राणी देखे जा सकते हैं। रामगंगा नदी उद्यान के मध्य से बहती है। यहां पक्षियों की ४०० से अधिक प्रजातियां हैं। उनमें से मोर, बाज, वनमुर्गी, तीतर, बया, हरियल, उल्लू, अबाबील, कलचुरी, बगुला आदि को सैलानी आसानी से देख पाते हैं। सर्दियों में तो यहां प्रवासी पक्षी भी आ बसते हैं। रामगंगा के तट पर ऊदबिलाव, मगरमच्छ और जलगोह भी देखे जा सकते हैं। दार्जिलिंग दार्जिलिंग के चाय बागान जितने खूबसूरत गर्मियों के दिनों में दिखते हैं उससे कहीं ज्यादा आकर्षक तब दिखते हैं जब बर्फ की चादर उनपर पूरी तरह से बिछ जाती है। यहां इस मौसम में सैलानियों को बर्फ पर खेलना काफी भाता है। बर्फीले रास्तों पर चल कर यहां के बौद्ध मठ एवं पर्वतारोहण संस्थान देखने का मजा ही कुछ और है। धरती का स्वर्ग स्नोफॉल की बात हो धरती के स्वर्ग कश्मीर को भुला दिया जाए ऐसा तो हो ही नहीं सकता। वैसे तो इस मौसम में पूरा कश्मीर ही बर्फ से ढक जाता है पर कुछ जगह ऐसा जहां आप बारद्ब्रबार जाना चाहेंगे। शायद आपको जानकर हैरानी होगी कि कश्मीर का गुलमर्ग देश का सबसे पहला स्कीइंग डेस्टिनेशन है। इस खेल का लुत्फ उठाने आज भी यहां देशद्ब्रविदेश के हजारों सैलानी आते हैं। यहां आकर गंडोले में बैठ ऊंचे बर्फीले पहाडी ढलानों पर नहीं गए, तो कश्मीर दर्शन अधूरा समझिए। इसके अलावा पटनी टाप भी लोगों को काफी पसंद आता है। इसके अलावा उत्तराखंड के विभिन्न पर्यटन स्थलों पर भी इस मौसम में काफी भीड होती है। २. सन, सैंड और सर्फिग यानी समुंदर का किनारा सुंदर सागरतट घूमने के शौकीन लोगों को अपनी ओर आकर्षित न करे ऐसा तो हो ही नहीं सकता। वो भारत हा है जहां एक ओर उंचे पहाड हैं तो दूसरी समुद्र के तट जो इसे तीन ओर से घेरे हुे हैं। नंगे पैर समुद्र के किनारे पैदल चहने की कल्पना हर इंसान ने कभी न कभी की ही होगी। तो अगर आपका भी सपना समुद्र को अपने पैरों के नीचे लेने का कर रहा हो तो यह मौसम आपको बुला रहा है। इन दिनों समुद्री हवाएं और भी सुहानी लगती हैं और किनारे की सूखी रेत पर पैदल चलना भी सुखद लगता है। तभी तो सन, सैंड और सर्फिग के शौकीन विदेशी पर्यटक भी इन दिनों भारतीय तटों पर नजर आ जाते हैं। विदेशी सैलानियों का स्वर्ग गोवा सुंदर सागर तटों का जिक्र आते ही सबसे पहले जो तस्वीर हमारे जेहन में आती है वो है गोवा जो अपने अपने आपमें एक संपूर्ण पर्यटन स्थल है। यहां की लंबी तटरेखा पर करीब ४० मनोरम बीच हैं। कई ऐतिहासिक चर्च व प्राचीन मंदिर भी यहां हैं। वैसे तो पर्यटक राजधानी पणजी के समीप मीरामार बीच पर शाम को सूर्यास्त का शानदार नजारा देखना ज्यादा पसंद करते हैं पर अगर खूबसूरती की बात करें तो कलंगूट को यहां का सबसे सुंदर तट है। दोना पाउला तट पर मोटरबोट की सैर और वाटर स्कूटर का रोमांचक सफर किया जा सकता है। अंजुना बीच पर बैठकर लाल चट्टानों से टकराती लहरों को देखना भी अपने आप एक नया अनुभव होगा। यहां से कुछ पर ही बागा बीच है, जहां सैलानी समुद्र स्नान का आनंद लेते हैं। गोवा में कई ऐतिहासिक चर्च हैं। इनमें बैसिलिका ऑफ जीसस सबसे प्रसिद्ध है। करें जगन्नाथ के दर्शन उडीसा के शहर पुरी सैर करना मतलब एक पंथ दो काज करने जैसा है। और शहर बंगाल की खाडी के मनमोहक सागरतटों वाला शानदार शहर है। इसे जगन्नाथ पुरी भी कहते हैं। यहां का सुंदर, स्वच्छ, विस्तृत और सुनहरा सागरतट दुनिया भर के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। दूर तक फैले सफेद बालू के तट पर बल खाती सागर की लहरों को देख हर कोई मंर्तमुग्ध हो जाता है। भीडभाड भरे जीवन से परे जब सैलानी यहां पहुंचते हैं तो स्वयं को उन्मुक्त महसूस करते हैं। समंदर को छूकर आती हवाएं उनमें एक नई ऊर्जा का संचार कर देती हैं। इसलिए पुरी के मनोरम बीच पर सुबह से शाम तक खासी रौनक रहती है। सुबह से दोपहर तक यहां समुद्र स्नान और सूर्य स्नान करने वालों की भीड रहती है तो शाम को सूर्यास्त का मंजर देखने लोग यहां जुटते हैं। पुरी का यह बीच मीलों तक फैला है। शहर के निकट तट पर भारतीय सैलानी अधिक होते हैं तो पूर्वी हिस्से में अधिकतर विदेशी सैलानी सनबाथ का आनंद ले रहे होते हैं। यहां हस्तशिल्प की वस्तुओं हाट लगता है। इसकी जगमगाहट पर्यटकों को शाम को यहां खींच लाती है। उस समय समुद्र की लहरों का शोर माहौल को संगीतमय बनाए रखता है। जगन्नाथ पुरी यह देश के चार पविर्त धामों में से एक है। १६वीं सदी में बना जगन्नाथ मंदिर यहां महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल है। यह मंदिर भगवान कृष्ण, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा को समर्पित है। पुरी का विश्वप्रसिद्ध रथयार्ता महोत्सव इसी मंदिर से जुडा है। पुरी घूमने आए सैलानी विश्वविख्यात कोणार्क मंदिर भी देख सकते हैं। १५ वींीं सदी में बना यह मंदिर सूर्यदेव को समर्पित है। यूनेस्को की ओर से इसे विश्व धरोहरों की सूची में दर्ज किया जा चुका है। समय हो तो पर्यटक भुवनेश्वर शहर, चिल्का झील और गोपालपुर ऑन सी सागरतट भी देखने जा सकते हैं। कोवलम के बीच केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम के समीप कोवलम बीच देश के सुंदरतम समुद्रतटों में से एक है। यह देश का पहला तट है जिसे अंतरराष्टीय स्तर के सीद्ब्रबीच के रूप में विकसित किया गया है। इसलिए यहां विदेशी सैलानियों की संख्या भी काफी होती है। कोवलम का सुंदर किनारा ताड और नारियल के वृक्षों से घिरा है। यहां दो छोटीद्ब्रछोटी खाडियां हैं, जिनके कोनों पर ऊंची चट्टानें हैं। चट्टानों पर बैठ सैलानी मचलती लहरों का आनंद लेते हैं। यह सागर की लहरें कुछ शांत हैं। तिरुअनंतपुरम में और भी कई दर्शनीय स्थान हैं। इनमें श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर शंखमुगम बीच, नेपियर संग्रहालय और श्री चिर्ताकला दीर्घा मुख्य हैं। भारत का अंतिम छोर तमिलनाडू के कन्याकुमारी को शब्दों में बयां कर पाना मुश्किल है। यहां तीन सागरों के संगम के साथ सूर्योदय व सूर्यास्त का अनूठा नजारा देखा जा सकता है। यहां से श्रीलंका भी काफी करीब है। हिं्द महासागर, बंगाल की खाडी और प्रशांत महासागर यानी तीन अलगद्ब्रअलग रंगों के समुद्र का नजारा इसके अलावा भारत में और कहीं नहीं देखा जा सकता है। ३. पधारो म्हारे देश क्या आप यह कल्पना कर सकते हैं कि भरी गर्मी में आप राजस्थान की गर्म रेत पर चहल कदमी करें। नहीं न। पर इस मौसम में रेत के ऊंचेद्ब्रनीचे टीलों बनी हवा की लहरें और दूर तक फैली रेत पर चलते ऊंटों के काफिले आपका मन मोह लेंगे। यही वह मौसम है जब आप मरुभूमि के ऐसे दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर सकते हैं। राजस्थान का बहुत बडा क्षेर्तफल थार रेगिस्तान से घिरा है। यहां ऐसे बहुत से ठिकाने हैं, जहां सैलानी डेजर्ट हॉलिडे मना सकते हैं। इन स्थानों की रेतीली धरती पर रेत के विशालकाय टीले यानी सैंडद्ब्रड्यूंस देखना किसी रोमांच से कम नहीं है। इसे स्थानीय भाषा में रेत के टिब्बे या रेत के धोरे कहा जाता है। बीकानेर में लें कैमल सफारी का मजा बीकानेर शहर अपने किले, महल और हवेलियों के लिए पहचाना जाता है। राव बीकाजी द्वारा स्थापित इस के आसपास स्थित जूनागढ फोर्ट, लालगढ पैलेस, गंगा गोल्डन जुबली म्यूजियम, देवी कुंड और कैमल रिसर्च सेंटर आदि दर्शनीय हैं। बीकानेर के निकट सैलानी सैंड ड्यूंस की सैर भी कर सकते हैं। इसके लिए फ्ख् किमी दूर गजनेर वाइल्ड लाइफ सैंचुरी या कटारीसर गांव जाना होता है। रेगिस्तान की धरती का सही रूप देखना है तो कैमल सफारी सबसे अच्छा और रोमांचक तरीका है। इन सभी नगरों में टूर ऑपरेटरों द्वारा कैमल सफारी की व्यवस्था की जाती है। ऊंट के मालिक पर्यटकों के लिए गाइड का काम करते हैं। कैमल सफारी का कार्यऋम दो दिन से एक सप्ताह तक का बनाया जा सकता है। कैमल सफारी के दौरान मरुभूमि के ग्राम्य जीवन को करीब से देखने का अनुभव भी अनूठा होता है। बीकानेर से फ्. किमी दूर देशनोक में करणीमाता का मंदिर है जहां चूहों को पूजनीय माना जाता है। गोल्डन सिटी जैसलमेर राव जैसल द्वारा स्थापित यह ऐतिहासिक शहर सर्दियों में सैलानियों का पसंदीदा पर्यटन स्थल है। गर्म धूप में सुनहरी रेत को देखना हो तो जैसलमेर की सैर करना बेहतर होगा। गोल्डेन सिटी के नाम से पहचाना जाने वाले जैसलमेर में विशाल किला, सुंदर हवेलियां और शहर से कुछ दूर स्थित सैंड ड्यूंस सभी कुछ है। पीले पत्थरों से बने जैसलमेर फोर्ट को सोनार किला कहा जाता है। र्तिकूट पहाडी पर स्थित यह किला विशाल परकोटे से घिरा है। सोनार किले के अंदर कुछ सुंदर महल भी दर्शनीय हैं। राज परिवार के सुंदर महलों के अलावा यहां आम लोगों के घर भी हैं। शहर में भव्य हवेलियां भी पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। इनमें सबसे आकर्षक पटवों की हवेली है। यह सात मंजिली पांच हवेलियों का समूह है। जैसलमेर की गडीसर झील भी है जहां बोटिंग का आनंद लिया जा सकता है। सैलानियों के लिए यहां सबसे बडा आकर्षण सम सैंड ड्यूंस है जो शहर से ब्ख् किमी दूर स्थित हैं। वहां पहुंचकर चाहे आप रेत पर पैदल घूमें या फिर ऊंट पर बैठ रेत के धोरों के मध्य घूमने निकल पडें। साथ ही लोद्रवा, कनोई, कुलधारा आदि गांवों के समीप भी रेत के टीले देखे जा सकते हैं। इसके अलावा अगर आप राजस्थान जाएं तो जयपुर, जोधपुर और अजमेर शरीफ भी जरूर जाएं। इन सबका अपना अलग आकर्षण है। इसके अलावा नागौर और चूरू के नजदीक भी रेत के टीलों को देखा जा सकता है। इन टीलों की खासियत यह है कि यहां के टीले तेज हवाओं के साथ अकसर स्थान बदल लेते हैं। इसलिए इन्हें शिफ्टिंग सैंड ड्यूंस भी कहा जाता है। ४. मौसम जंगल में खोने का अगर आप लंबे समय से चाहते हैं कि कुदरती नजारों के साथ वन्य जीवन को भी करीब से निहारा जाए तो इसके लिे भी यह मौसम सबसे उपयुक्त है। नवंबर से मार्चद्ब्रअप्रैल तक का समय जब सर्दी में तापमान कम होता है तो वन्य प्राणियों को उन्मुक्त रूप से विचरते देखा जा सकता है। निहारें सौराष्ट्र के शेर को गीर नेशनल पार्क, गुजरात की ही नहीं बल्कि देश की भी प्रमुख वाइल्ड लाइफ सैरगाह है क्योंकि यही वह एकमार्त स्थान है जहां आप एशियाई शेर के दर्शन कर सकते हैं। यह गुजरात के सौराष्ट्र क्षेर्त के जूनागढ में पडता है। लगभग ख्म्. वर्ग किमी में फैले यहां के वन सागवान, बरगद आदि के अलावा कीकर, बेर एवं बबूल जैसे कंटीले पेडद्ब्रपौधों से आच्छादित हैं। एशियाई बब्बर शेर यहां का विशेष वन्य प्राणी है जिसे देखने लोग दूर दूर से आते हैं। इसके अलावा यहां तेंदुआ, चौसिंगा, चीतल, लकडबग्घा, नीलगाय, चिंकारा व जंगली सुअर भी देखे जा सकते हैं। नदी घाटी में मगर और गोह भी देख सकते हैं। गीर नेशनल पार्क पहुंचने के लिए निकटतम एयरपोर्ट केशोड है। अक्टूबर से अप्रैल तक यहां भ्रमण का उपयुक्त समय है। काजीरंगा में करें हाथी की सवारी असम का काजीरंगा राष्टीय उद्यान एक सींग वाले भारतीय गैंडे और जंगली भैंसे के लिए विश्व विख्यात है। आज ये दोनों प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं। इनके संरक्षण के इरादे से ही इसे राष्टीय उद्यान घोषित किया गया था उत्तर में बहती ब्रह्मपुर्त नदी और दक्षिण में पहाडों से घिरा यह क्षेर्त किसी को भी आनंदित कर सकता है। यहां पाए जाने वाले जीवों में तेंदुआ, बारहसिंगा, भालू, सांभर, काकड, हुलाक, पाडा, हाथी और बाघ आदि शामिल हैं। इसके अलावा यहां तीतर, चील, हवासिल, उल्लू आदि पक्षी भी बडी संख्या में हैं। कांजीरंगा पहुंचने के लिए निकटतम हवाई अड्डा जोरहाट है। उद्यान के अंदर घूमने के लिए हाथी की सवारी करनी होती है। तो देर किस बात की इस बार की सर्दियों में निकल पडिए एक नए अंदाज से भारत को देखने लिए। यकीन मानिए किसी भी मौसम की तुलना में सर्दियों में भारत की खूबसूरती और भी निखर आती है तभी तो इस मौसम में हजारों की संख्या में विदेशी सैलानी भारत का रुख करते हैं।

Tuesday, December 29, 2009

बढ़ती जनसंख्या और शादी में देरी

विश्व जनसंख्या दिवस के दिन जनसंख्या को बढऩे से रोकने के गुलाम नबी आजाद के नायाब तरीके ने एक नई बहस को जन्म दिया है। साथ ही यह सोचने पर भी मजबूर कर दिया है कि आखिर भारतीयों की बढ़ती जनसंख्या को रोका कैसे जाए? पहले भारत जनसंख्या के मामले में चीन से काफी पीछे था पर अब उसके आगे बढऩे को आमादा है। कुछ लोगों की राय है कि भारत में बढ़ती जनसंख्या को रोकने के लिए चीन जैसे कड़े नियम बनाने होंगे, पर क्या भारत का कोई भी राजनीतिक दल या मंत्री चीन जैसा कड़ा रुख अपनाने की हिमाकत कर सकता है? बच्चे दो ही अच्छे, छोटा परिवार सुखी परिवार, हम दो हमारे दो, यह कुछ ऐसे स्लोगन हैं जो भारतीयों को परिवार नियोजन के लिए अभिप्रेरित करते हैं। अब इनमें शादी में देर भली, लेट मैरिज, हैप्पी लाइफ जैसे स्लोगन भी सुनने के लिए तैयार हो जाइये क्योंकि अगर केन्द्रिय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद की चली तो वह भारतीयों का परिवार, छोटा करने के लिए लोगों को देर से शादी करने को प्ररित करेंगे। पिछले दिनों एक प्रेस कांप्रेक्स में केन्द्रिय स्वास्थ्य मंत्री ने भारतीयों को देर से शादी करने की सलाह दे डाली। साथ ही यह भी कहा जो भारतीय देर से शादी करते हैं, उन्हें पुरस्कृत किया जाना चाहिए। आजाद ने यह सारी बातें भारत की बढ़ती जनसंख्या को रोकने के लिहाज से कहा था। उनका मानना है कि लेट शादी होगी तो लोग बच्चे भी कम पैदा करेंगे। इस बात को लेकर आजाद की मंशा भले ही अच्छी हो पर उनके इस बयान ने उनको विवादों में घसीट लिया। अधिकांश लोगों का मत है कि आजाद ने बिना सोचे समझे अपनी राय जाहिर कर दी है। समाजशात्रियों की माने तो भारत की समाजिक संरचना में विवाह का अभिप्राय सिर्फ सेक्स ही नहीं है। भारतीयों के लिए विवाह एक संस्कार है और वे विवाह वंश वृद्धि करने के लिए करते हैं। ऐसे में अगर देर से विवाह होता है तो बच्चों की पैदाइश में समस्या हो सकती है। यही मत चिकित्सा विशेषज्ञों का भी है। उनके अनुसार 30 से ज्यादा उम्र होने पर स्त्रियों की प्रजजन क्षमता घट जाती है और बच्चे को जन्म देने में समस्या हो सकती है। ऐसे में देर से शादी करने वाले दंपत्ति को संतान उत्पन्न करने में समस्या होगी। इसके अलावा भी एक पक्ष है जिसपर आजाद ने गौर नहीं किया। तमाम शोधों से यह बात सामने आयी है कि आजकल के बच्चे समय से पहले बड़े हो रहे हैं। उनके ज्ञान का स्तर हर मामले में पहले की अपेक्षा बढ़ा है। इसमें सेक्स ज्ञान और उसके प्रति जागरुकता भी शामिल है। वैसे भी आजकल शादी पहले की अपेक्षा देर से हो रही है। अब अगर शादी और भी विलंब से हुई तो युवाओं की असामाजिक क्रियाकलापों में लीन होने की संभावना बढ़ जाएगी। बाबा रामदेव की माने तो संस्कृति का पतन जितना अब तक हो चुका है, देर से शादी होने पर इसमें और ज्यादा गिरावट आएगी। इसका कारण वह जिज्ञासा होगी जो युवाओं में उम्र के साथ पैदा होगी और इसी का जवाब पाने के लिए उन्हें मजबूरन गलत राह चुननी पड़ेगी। अपने भाषण में आजाद ने एक और बात कही, जिसपर लोगों को ऐतराज है। आजाद ने कहा कि गांवों में बिजली और टीवी ने जनसंख्या वृद्धि की दर को कम किया है। लोग देर रात तक टीवी देखते हैं और फिर इतने थक जाते हैं कि सेक्स का विचार भी उनके मन में नहीं आता। इसपर बाबा रामदेव का मत है कि आजकल लोग आलसी हो गए हैं। पहले जिस समय का उपयोग ग्रामीण खुद को आत्मनिर्भर बनाने के लिए करते थे, आज वही समय वह टीवी देखकर बर्बाद कर रहे हैं। इसी का नतीजा है कि आज वे अपनी हर छोटी बड़ी जरूरत के लिए शहरों पर निर्भर हो रहे हैं। खैर आजाद के इस कथन ने भले ही उनको विवादों के घेरे में ले लिया है पर उनके भाषण ने भारत की उस समस्या पर सोचने को मजबूर कर दिया है जिसे सभी ने लगभग भुुला दिया है। भारत की विस्फोटक होती जनसंख्या नि:संदेह आज भारत की सबसे बड़ी समस्या होना चाहिए। आज कोई भी इसका जिक्र नहीं करता पर आजाद के भाषण ने इस समस्या पर फिर से लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया है। भले ही बढती जनसंख्या भारत की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है पर साथ ही यह भारत की एक बड़ी ताकत भी है। इतिहास गवाह है जब भी देश पर कोई भी खतरा, फिर चाहे वह मानवीय हो या प्राकृतिक, मंडराता है, सारा भारत एक हो, उस खतरे से जूझने को तैयार खड़ा दिखता है। पर सिर्फ एक इस कारण से बढ़ती जनसंख्या पर लगाम न लगाना गलत होगा। लगातार बढ़ती जनसंख्या से भारत के प्राकृतिक संसाधनों पर काफी दबाव पड़ा है। मंदी के इस दौर में आस्टेऊलिया, अमेरिका और मध्य पूर्व एशिया के प्रवासी भारतीय, नौकरी छूटने के कारण बड़ी संख्या में स्वदेश लौट रहे हैं। ऐसे में भारत के संसाधनों पर नि:संदेह दबाव बढेगा। स्वास्थ्य मंर्ती का अपनी बात कहने का तरीका भले ही गलत हो पर उनकी सोच गलत नहीं थी। भारत की जनसंख्या इन दिनों विस्फोटक रूप से बढ़ रही है और अगर अभी इसपर लगाम नहीं लगाया गया तो हम सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले देश चीन को भी पीछे छोड देंगे। संयुत्तक् राष्ट्र संघ का अनुमान है कि भारत में जनसंख्या वृद्धिदर अगर इसी तेजी से बढती रही तो 2101 तक भारत की आबादी 2 अरब होगी। भारत की सरकार ने भी अपनी तरफ से सब प्रयोग कर डाले हैं पर वह जनसंख्या विस्फोट को रोक पाने में कामयाब नहीं हो सकी। आज पश्चिम के देश इस बढती जनसंख्या को आतंकवाद से भी ज्यादा विस्फोटक और खतरनाक मानते हैं। इसलिए अब सिर्फ भाषण, सलाह या बहसबाजी से काम नहीं चलेगा। इससे बेहतर है कोई कडा रुख इख्तियार करना ताकि देश में जनसंख्या विस्फोट होने से रोका जा सके। अगर ऐसा नहीं हुआ तो अगला विश्व युद्ध खाने और पानी के लिए लडा जाएगा, जो विध्वंसकारी होगा। चीन की नीति 1979 में चीन की जनसंख्या दर 2.8 थी और केरल की 3 और आज चीन की जनसंख्या दर 1.7 है और केरल में आज भी दर उतनी ही है। कहना गलत न होगा कि यह सिर्फ केरल ही नहीं पूरे भारत का हाल है। एक समय था जब चींन की आबादी काफी तेजी से बढ रही थी। वहां की सरकार इसपर लगाम लगाने में नाकाम थी। फिर चीन की सरकार ने लोगों पर बल का इस्तेमाल किया और एक बच्चा पैदा करने की नीति को को बलपूर्वक लागू किया और उसी नतीजा है कि आज जनसंख्या उनके काबू में है। चीन में एक बच्चा होने के बाद सरकार बलपूर्वक लोगों की नसबंदी कर देती है और जो लोग दूसरा बच्चा पैदा करने का गुनाह करते हैं, उन्हें कडी से कडी सजा मिलती है। इसी का नतीजा है कि आज वहां की आबादी सरकार के काबू में है। कैसे करें काबू भारत की बढती जनसंख्या का कारण भारत की दोषपूर्ण स्वास्थ्य नीतियां रही हैं। विशेषज्ञों की माने तो आजादी के बाद, भारत के लोगों को गरीब भारत की परिसंपत्ति कहा गया था। यानी यहां की जनसंख्या को भारत संपत्ति माना गया। यही मानना ही दोषपूर्ण साबित हुआ और जब तक हम संभले काफी देर हो चुका थी। भारतीयों को यह समझने में ही सालों लग गए कि बच्चे भगवान की नहीं, उनकी अपनी देन हैं। भारत में जनसंख्या पर काबू पाने का प्रयास 1960 से शुरू किया गया था पर अब तक इसपर काबू नहीं पाया जा सका है। करोडों रुपए इसके कैम्पेनिंग में खर्च हो रहे हैं, पर नतीजा आज भी शून्य ही है। इससे तो यही माना जा सकता है कि यह साफ तौरपर सरकारी योजनाओं की विफलता है। अब रहा सवाल चीन की तरह कडा रुख अपनाने का तो वह भारत में संभव ही नहीं है। चीन की तरह भारतीयों पर बल का प्रयोग नहीं किया जा सकता है क्योंकि इसके नतीजे काफी विस्फोटक हो सकते हैं। संजय गांधी ने 1977 में कुछ इसी तरह का प्रयोग किया था। उन्होंने भारत की बढती आबादी पर रोक लगाने के लिए जबरदस्ता लोगों की नसबंदी करवा दी थी। इसका नतीजा उन्हें और इंदिरा गांधी को चुनाव में हार के रूप में भुगतना पडा। अब ऐसे में कोई भी राजनीतिक पार्टी भारतीयों की इस कमजोर नस को दबा कर अपना राजनीतिक करियर खराब नहीं करना चाहती। महत्वपूर्ण आकडे कम उम्र में शादी होने बच्चे ज्यादा होने की संभावना 40 प्रतिशत बढ जाती है। झारखंड, राजस्थान और बिहार में 70 प्रतिशत लडकियों की शादी 18 वर्ष से कम उम्र में ही हो जाती है। भारत में पहला परिवार नियोजन कार्यक्रम 1952 से शुरू हुआ था पर अब तक 2.1 का टीीएफआर का लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया है। फिलहाल भारत का टीएफआर 2.7 है औैर ग्रामीण क्षेर्तों में 3 है। राष्ट्रीय जनसंख्या नीति के अनुसार 2010 तक प्रति महिला 2 बच्चे का लक्ष्य है पर आज भी 53 प्रतिशत महिलाएं चाहती हैं उनके कम से कम तीन बच्चे हों। अगर मौजूदा जन्मदर यही रही तो विश्व स्वास्थ्य संगङ्गन के अनुसार 2101 तक भारत की जनसंख्या दे अरब होगी। 2030 तक भारत चीन को पछाड़ देगा। आजाद से असहमति आजाद की देर से शादी करने के मशवरे पर न सिर्फ समाजशास्र्ती असहमत हैं बल्कि चिकित्सा विशेषज्ञों का भी इसपर कडा ऐतराज है। आजाद का यह कहना सही है कि शादी जितनी देर से होगी बच्चे होने की संभावना उतनी ही कम होती जाएगी। लेकिन साथ ही महिलाओं की प्रसूति और प्रजनन क्षमता भी प्रभावित होगी। इसके अलावा देर से होने वाले बच्चों में जीन संबंधि विसंगतियां अधिक पाई जाती है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के एक रिसर्च में यह बात सामने आयी है कि लेट मैरिज से जन्म लेने वाले बच्चों में जीन संबंधि होती है। कैसे हो काबू भले आजाद ने बिजली और टीवी को जनसंख्या वृद्धि दर कम करने की बात को मजाक में कहा हो और इसपर कई लोग असहमत होंगे पर बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो उनकी बात से पूरी तरह से इत्तेफाक रखते हैं। इमरजेंसी के 32 साल बाद फिर से बढती जनसंख्या के गडे मुर्दे को आजाद एक बार फिर से उखाडने का साहस किया है। वैसे तो भारत में जनसंख्या पर काबू पाने का प्रयास 1952 से शुरू किया गया था पर अब तक इसपर काबू नहीं पाया जा सका है। करोडों रुपए इसके कैम्पेनिंग में खर्च हो रहे हैं, पर नतीजा आज भी शून्य ही है। इससे तो यही माना जा सकता है कि यह साफ तौरपर सरकारी योजनाओं की विफलता है। अब रहा सवाल चीन की तरह कडा रुख अपनाने का तो वह भारत में संभव ही नहीं है। चीन की तरह भारतीयों पर बल का प्रयोग नहीं किया जा सकता है क्योंकि इसके नतीजे काफी विस्फोटक हो सकते हैं। संजय गांधी ने 1977 में कुछ इसी तरह का प्रयोग किया था। उन्होंने भारत की बढती आबादी पर रोक लगाने के लिए जबरदस्ता लोगों की नसबंदी करवा दी थी। इसका नतीजा उन्हें और इंदिरा गांधी को चुनाव में हार के रूप में भुगतना पडा। अब ऐसे में कोई भी राजनीतिक पार्टी भारतीयों की इस कमजोर नस को दबा कर अपना राजनीतिक करियर खराब नहीं करना चाहती।

Monday, December 28, 2009

अंतर

उनमें और मुझमें अंतर है इतना वे परहित चाहते हैं मैं आत्महित चाहता हूँ उनमें और मुझमें मतभेद है इसका वे राष्टï्रहित चाहते हैं मैं स्वहित चाहता हूँ अजीब दास्तान है दो पीढिय़ों की वे काम चाहते हैं मैं नाम चाहता हूँ जब भी तय की जाती है देश की तक़दीर वे आदर पाते हैं मैं कुर्सी पाता हूँ

Saturday, December 26, 2009

खेलों का महाकुंभ खटाई में

खेलों के महाकुंभ की सफलता, संदेहों के घेरे में है। कॉमनवेल्थ खेलों का आयोजन करने वाली समिति के अधिकारियों में तालमेल के आभाव को लेकर कैग की चिंता जायज है। कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन के अध्यक्ष माइकल फेनेल का प्रधानमंत्री से, आयोजन की तैयारियों में हस्तक्षेप करने की दरख्वास्त करना, इसकी तैयारियों की पोल खोलने के लिए काफी है। खेलों का निमार्ण कार्य अगर इसी गति से चलता रहा तो भारत पर कॉमनवेल्थ खेलों के असफल आयोजन का बट्टा लग सकता है।
न स्टेडियम तैयार हैं और न ही खेल गांव, न ही सड़कों का सौदर्यीकरण हो पाया है और न ही बिजली-पानी की व्यवस्था ही हो पायी है। खेल 2010 में 3 से 14 अक्टूबर के बीच होने हैं पर इसकी तैयारियों की गति तो यही दर्शाती है कि इस बार भारत को, इन खेलों के असफल आयोजन के लिए शर्मसार होना पड़ सकता है। यहां बात 2010 में होने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स की हो रही है जिसकी लचर गति से होने वाली तैयारी ने प्रधानमंत्री को भी चिंतित कर दिया है। पिछले कॉमन वेल्थ गेम्स 1986 के सफल आयोजन के लिए इंदिरा गांधी ने सेना की मदद ली थी। कुछ ऐसे ही हालात इस बार भी बन रहे हैं। डर है कि पिछली बार की तरह कहीं इस बार भी सेना की मदद न लेनी पड़े। और तो और सेना की मदद के बावजूद 2010 में होने वाले कॉमनवेल्थ खेल सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाए, इसमें भी संदेह है। खेलों के आयोजन की अब तक की तैयारियों को देखकर तो यही लग रहा है कि न तो स्टेडियम ही समय पर तैयार हो पायेंगे और न ही आने वाले अतिथियों के रुकने की व्यवस्था ही हो पायेगी।
वैसे तो इस बात के संकेत काफी पहले से मिल रहे थे कि तयशुदा समयसीमा में इन खेलों की तैयारियां पूरी नहीं हो पायेंगी पर पिछले दिनों महालेखा परीक्षण यानी कैग और कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन के अध्यक्ष माइकल फेनेल के असंतोष ने फिर से लोगों का ध्यान इन खेलों के आयोजन की ओर खींचा है। इस महाकुंभ के लिए अक्षरधाम के पास प्रस्तावित खेल गांव भी अबतक अधूरा है। आलम यह है कि अबतक कई ब्लाक की छतें तक नहीं ढाली गई हैं। इसके बाद अगर युद्धस्तर पर भी बिल्डिंग के फिनिशिंग का काम किया गया तो भी कॉमनवेल्थ खेलों तक यह पूरा नहीं हो पायेगा। खैर बिल्डिंग की फिनिशिंग का काम कुछ अधूरा रह गया, तो भी ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन खेलों की सबसे बड़ी जरूरत, स्टेडियम भी अगर अधूरे रहे तो? कैग की मूल्यांकन रिपोर्ट के अनुसार इन खेलों के लिए बनने वाले मुख्य स्टेडियम की डिजाइन तक को अबतक अंतिम रूप नहीं दिया गया है। साथ ही चिन्हित 19 स्टेडियम में से 13 में अब तक 25 से 50 फीसदी ही काम हुआ है। छत्रसाल स्टेडियम, नेहरू स्टेडियम, साकेत स्पोट्र्स कॉम्प्लेक्स, यमुना स्पोटर्स कॉम्प्लेक्स, डॉ। करणी सिंह शूटिंग रेंज आदि अभी भी पूरी तरह से तैयार नहीं हैं और जिस रफ्तार से यहां काम हो रहा है उसे देखकर यह संभावना कम ही है कि यह समय पर पूरे हो पायेंगे।
खेलों के मद्देनजर बिजली की व्यवस्था के लिए 1500 मेगावाट का बवाना प्लांट बनाने का निर्णय लिया गया था। इस प्लांट पर सिर्फ कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए बिजली मुहैय्या करवाने की जिम्मेदारी थी पर अब तक यह प्रोजेक्ट मात्र 30 फीसदी ही पूरा हो पाया है। इन दिनों हो रही बिजली की किल्लत को देखते हुए, दादरी पावर प्लांट और दामोदर वैली कार्पोरेशन से बिजली मिलने की उम्मीद करना भी बेकार है। ऐसे में खेलों के समय बिजली कहां से मिलेगी, यह भी एक यक्ष प्रश्न है। खेलों के लिए पानी के सुचारू इंतजाम पर भी सवालिया निशान लगे हैं। जल बोर्ड के पास इतना पैसा भी नहीं है कि वह अपने पुराने प्लांटों की मरम्मत करवा सके तो नए प्लांट के निर्माण की बात तो भूलना ही बेहतर है। ऐसा ही हाल खेलों के दौरान आने वाले अतिथियों के ठहरने की व्यवस्था का भी है। मंत्रालय के सचिव सुरजीत बेनर्जी की अध्यक्षता में इन खेलों के लिए गठित कमेटी, टॉस्क फोर्स की माने तो विदेशी मेहमानों के लिए दस हजार कमरों की जरूरत पड़ेगी पर अब तक केवल चार हजार कमरें ही विदेशी मेहमानों के रहने लायक बन पाएं हैं। इसके अलावा 20 हजार कमरें अन्य मेहमानों के लिए चाहिए। हालांकि आयोजन समिति रजिस्टर्ड गेस्ट हाउसों के 11 हजार कमरें, ब्रेड एण्ड ब्रेकफास्ट योजना के 3000 कमरे और डीडीए के 5,500 कमरों की व्यवस्था करने का दावा कर रही है। इन कमरों को तैयार करने का लक्ष्य 31 मार्च 2010 का दिया गया है पर टास्क फोर्स के हालिया सर्वेक्षण पर गौर करें तो जिस रफ्तार से काम हो रहा है उसमें तय समयसीमा में काम खत्म हो पाना मुश्किल है। कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन के मद्देनजर दिल्ली की खूबसूरती बढ़ाने के लिए बनने वाली सड़कों, फ्लाईओवर, रेल्वे ब्रिज आदि का काम भी आधा-अधूरा ही पड़ा है। अब ऐसे में न तो महालेखा परिक्षक यानी कैग की मूल्यांकन रिपोर्ट गलत है और न कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन की चिंता। खेलों के लिए होने वाली तैयारियों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दिल्ली सरकार ने इस प्रोजेक्ट से जुड़ी 6 योजनाओं को ठण्डे बस्तें में डाल दिया है।
अंतर्राष्ट्रीय गाइडलाइन के अनुसार यह निर्माण कार्य मई 2009 तक पूरा हो जाना चाहिए था। फिर एक साल का ट्रायल पीरियड होता। लेकिन हालात यह हैं कि कार्य अक्तूबर तक अधूरे हैं और इनकी जिम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं है। निर्माण कार्यों की देरी के लिए, पीडब्ल्यूडी के अधिकारी आयोजन समिति को दोष दे रहे हैं, आयोजन समिति एजेंसियों को और एजेंसिया एक दूसरे पर दोषारोपण कर रही हैं। अक्टूबर में कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन, 70 देशों के सदस्यों के साथ, तैयारियों का जायजा लेने आ रही है। यहां अधूरी तैयारियों के लिए कोई जिम्मेदारी लेने तक को तैयार नहीं है। ऐसे में फेडरेशन और 70 देशों के सदस्य कितना संतुष्ट हो पायेंगे, कहना मुश्किल है।

Friday, December 25, 2009

आसमान से आगे.. .. .. जहां और भी हैं

आसमान से आगे.. .. .. जहां और भी हैं चोकिला अय्यर, निरूपमा राव, अरुंधती घोष, सुजाता सिंह, चित्रा नारायण, ये कुछ ऐसे नाम हैं जिनको आम लोग नहीं जानते पर यह वह महिलाएं हैं जो विदेशों में, भारतीय महिलाओं की परंपरागत छवि को, एक नए मुकाम की ओर ले जाने का प्रयास कर रही हैं। पिछले दिनों आई एक खबर ने मन में रोमांच सा भर दिया। खबर थी कि बीएसएफ ने भारत की पहली महिला बाटालियन को सीमा पर तैनात किया है। वही सीमा जिसकी रक्षा जवानों के हाथ हुआ करती थी। अब वहां महिलाएं दुश्मनों से दो-दो हाथ करेंगी। यानी चूडिय़ां पहनने वाली नाजुक कलाइयां अब दोनाली के वार से दुश्मनों के हौसले पस्त करने को तैयार हैं। कुछ ऐसा ही परिवर्तन तब भी हुआ था जब 2001 में चोकिला अय्यर को भारत की पहली विदेश सचिव के तौर नियुक्त किया गया था। भले ही चोकिला की नियुक्ति मात्र एक औपचारिता रही हो पर उनकी नियुक्ति ने भविष्य में, विदेशी नौकरी में आने वाली महिलाओं का मार्ग प्रशस्त करने का काम किया। वैसे तो ज्यादातर कार्यक्षेत्रों में महिलाओं ने काफी पहले ही बाजी मार ली है पर कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जहां अब भी पुरुषों का एकक्षत्र राज माना जाता है। इन्हीं में से एक है फॉरेन सर्विसेज, जहां कुछ समय पहले तक महिलाओं की घुसपैठ कम थी लेकिन अब इस क्षेत्र मेें भी महिलाएं खुद को साबित कर रही हैं। पिछले चार सालों में भारतीय महिलाओं ने फॉरेन सर्विसेज में कामयाबी पाकर, पुरुषों के सबसे मजबूत माने जाने वाले गढ़ में सेंध मारी है। पिछले चार सालों में यानी वर्ष 2005 से 2008 के दौरान इस क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। इस दौरान चुने गए विदेशी सेवा अधिकारियों की संख्या पर गौर करें तो 84 पदों में से 24 पदों पर महिलाओं ने कामयाबी पाई है जो लगभग 29 प्रतिशत है। वहीं 2008 में 25 में 8 पद महिलाओं के हिस्से में आएं हैं जो 32 प्रतिशत है। यानी तेजी से महिलााएं फॉरेन सर्विसेज में भी अपने पर फैला रही हैं। विदेशी सेवा में महिलाओं को मिली कामयाबी आसान नहीं थी। वैसे भी भारत ही नहीं बल्कि विश्व के ज्यादातर देशों में महिलाओं को पुरूषों के मुकाबले कमतर ही माना जाता है। एक वक्त था जब भारत में विदेशी सेवा में जाने के लिए महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग प्रावधान थे। नियमानुसार महिलाओं को शादी करने से पूर्व इस नौकरी को अलविदा कहना पड़ता था साथ ही उन्हें पुरुषों के मुकाबले वेतन भी कम मिलता था। इस नियम को चुनौती दी 1979 में सीबी मुथम्मा ने। उन्होंने फॉरेन सर्विसेज में महिलाओं के साथ किए जा रहे इस लैंगिक भेदभाव के सरकारी फरमान को को खत्म करने की अपील सुप्रीम कोर्ट में की। कोर्ट ने भी उनके ऐतराज को सही माना और महिलाओं के साथ कि ए जा रहे इस भेदभावपूर्ण नियम को खत्म कर दिया। इसके बाद भी महिलाओं को फॉरेन सर्विसेज में आज मिली कामयाबी के लिए काफी इंतजार करना पड़ा और समाज व परिवार से बगावत करनी पड़ी। भारत में माता पिता अपनी बेटियों के लिए नौकरी का मतलब टीचर या प्रोफेसर बनना ही मानते थे। बहुत ज्यादा प्रोगेसिव परिवार हुआ तो बेटी को इंजीनियर या डाक्टर बनते देखना चाहता था। इसके पीछे एकमात्र मंशा यही हुआ करती थी कि लड़कियां अपने पैरों पर खड़ी तो हो जाएं पर नौकरी के साथ ही अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियां भी आसानी से निभा सकें। वैसे अब से 30 साल पहले महिलाएं खुद भी साफ्ट पोस्टिंग चाहती थी ताकि उन्हें ज्यादा काम न करना पड़े। उनकी यह मानसिकता पिछले 15-20 सालों में बदली है। ऐसे में नौकरी के लिए विदेश जाने के नाम पर महिलाओं को कितने मोर्चों पर जूझना पड़ा होगा, सोचा जा सकता है। खैर जो बीत गयी, वह बात गई। आज महिलाएं हर वो उंचाई छूने की ख्वाहिश रखती हैं जो कभी उनकी पहुंच से बाहर थी। नित नवीन करियर की राहें तलाशने वाली आज की नारी के लिए फॉरेन सर्विसेज एक आकर्षक और चुनौतीभरा करियर है। जहां उन्हें कई नई उंचााइयांं छूने का मौका मिलता है। यही कारण है कि आज अधिक से अधिक संख्या में महिलाएं फॉरेन सर्विसेज की ओर रुख कर रही हैं। आज आलम यह है कि अरब देशों में, जहां पश्चिमी देश भी महिलाओं को भेजने से कतराते हैं, भारतीय महिलाएं पूरी दबंगता से कार्य कर रही हैं। लेबनान में भारतीय राजदूत, नेनगछा लाह्युम ने अपनी बालकनी में बम फटते देखा था लेकिन तब भी उन्होंने एकबार भी यह नहीं कहा कि उन्हें कहीं और पोङ्क्षस्टग दे दी जाए। दीपा गोपालन वाधवा कतर में काम कर रही हैं। एक ऐसा देश जहां महिलाओं को, ऊंचे ओहदे पर आसानी से स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रत्यक्ष न सही, अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही, दीपा इस देश की महिलाओं को प्रेरित करने का काम कर रही हैं। घाना की भारतीय उच्चायुक्त रुचि घनश्याम पहली महिला थी जिन्हें इस्लामाबाद में नियुक्त किया क्या था वह भी तब, जब महिला अधिकारी की स्थिति शो पीस से ज्यादा नहीं थी। रुचि, घाना से पहले नेपाल और न्यूयार्क में भी अपनी सेवाएं दे चुकी हैं। इसी तरह मीरा शंकर जर्मनी में कार्य कर रही हैं। उन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ के अगले स्थायी भारतीय सदस्त के रूप में देखा जा रहा है। चीन में निरुपमा राव इस प्रयास में हैं कि एशिया के ये दो बड़े देश भारत और चीन कैसे अपने तनाव को कम करके एकसाथ, एकमंच पर आ सकें ताकि एशिया, विश्व के सामने अपनी मजबूत दावेदारी सिद्ध कर सके। इसी तरह लीबिया में मणिमेखलई मुरुगेसन, आस्ट्रेलिया में सुजाता सिंह, न्यूयार्क में नीलम देव, शंघाई में रीवा गांगुली आदि भारतीय दूतावासों में नियुक्त हैं। इन महिलाओं ने उस सोच को बदलने का काम किया है जिसके चलते उन्हें मात्र सजी धजी गुडिय़ा के रूप में देखा जाता। अपने कड़े फैसलों और कार्य करने के जज्बे के चलते आज उन्हें दुनिया के ऐसे देशों में भी नियुक्त करने में किसी को कोई ऐतराज नहीं होता जो महिलाओं के लिहाज से सुरक्षित नहीं माने जाते हैं। आज भारतीय महिलाएं विदेशों में भी पूरी तरह कामयाब हैं। फिर चाहे वह शांत मुल्क न्यूयार्क, आस्ट्रेलिया या स्वीटजरलैंड हो या नित नए खतरों से जूझता लीबिया, कतर या लेबनान ही क्यों न हो। कमजोर मानी जाने वाली नारी का यह नया अवतार, नि:संदेह आने वाली पीढि़ का पथप्रदर्शक बनेगा।

खिलवाड़

एक प्राचार्य ने अप्रैल फूल को नया अंजाम दिया क्लास न चलने की शिकायत लानेवाले छात्रों को मनोरंजन हेतु सौ रुपए दे विदा किया समझ में नहीं आता किसने, किससे क्या खिलवाड़ किया?

Thursday, December 24, 2009

पुरानी फाइल पर नया कलेवर

छत्तीसगढ में नक्सलिय्ाों द्वारा आईएस अधिकारी विनोद चौबे सहित 30 लोगों की बेरहमी से की गई हत्य्ाा के बाद लगा था कि अब राज्य्ा सरकार के साथµसाथ केन्द्र सरकार भी इस समस्य्ाा से निपटने के लिए कोई पुख्ता कदम उठाएगी, पर ऐसा हुआ नहीं। छत्तीसगढ में पिछले कई सालों से चलने वाले नक्सली पुनर्वास पैकेज को ही थोडा विस्तार देकर, लागू करके केन्द्र सरकार ने अपने कर्तव्य्ाों की इतिश्री कर ली है।
छत्तीसगढ के नक्सल प्रभावित इलाकों की स्थिति आज ऐसी ही है। य्ाहां हर दिन किसी आदिवासी को य्ाा तो पुलिस का मुखबिर बताकर सरेआम मार दिय्ाा जाता है य्ाा उसके गुनाहों की सजा देने के लिए उसे बंदी बना लिय्ाा जाता है। य्ाहां ऐसे लोगों को भी नहीं बक्शा जाता जो किसी भी तरह से सरकारी फाय्ादा लेते हैं। पर नक्सलिय्ाों ने अपनी सबसे बडी वारदात को अंजाम जब दिय्ाा जब बीती 14 जुलाई को उन्होंने मदनवाडा में राजनांदगांव के पुलिस अधीक्षक विनोद चौबे को उनके साथिय्ाों सहित उडा दिय्ाा। इस घटना से केन्द्र भी सकते में आ गय्ाा था क्य्ाोंकि इस वारदात को अंजाम देने के लिए, नक्सलिय्ाों ने किसी माहिर रणनीतिकार की तरह पहले 3 किमी लंबा एम्बुस लगाय्ाा और फिर जाल बिछाकर चौबे और उनके साथिय्ाों को वहां आने के लिए मजबूर कर दिय्ाा। राज्य्ा के साथ पूरा देश इस घटना पर दुखी होने से ज्य्ाादा अचंभित था क्य्ाोंकि इससे पहले य्ाा तो नक्सल वारदातों को राज्य्ा सरकार द्वारा दबा दिय्ाा जाता था य्ाा तोड मरोड कर इस तरह प्रस्तुत किय्ाा जाता कि वह एक साधारणµसी घटना बनकर रह जाती थी। चौबे के काफिले पर हुए नक्सलिय्ाों के आत्मघाती हमले और इस हमले में हुई मौतों को सरकार दबाने में नाकाम रही। य्ाही वह समय्ा था जब पूरे देश को छत्तीसगढ में नक्सलिय्ाों की ताकत का अंदाजा हुआ था। इस घटना के बाद विपक्ष ने रमन सरकार की नाक में दम कर डाला। बात प्रधानमंत्र्ाी और गृहमंत्र्ाी तक जा पहुंची। लगने लगा अब तो तीन दशक पुरानी इस समस्य्ाा से छत्तीसगढ को छुटकार मिल ही जाएगा। पर न ऐसा होना था और न ही हुआ।
केंद्रिय्ा गृहमंत्र्ाी पी। चिदम्बरम ने इस घटना के बाद लोकलुभावन नक्सली पुनर्वास पैकेज की घोषणा की है जिसमें नक्सलिय्ाों को आमधारा में जोडने के प्रय्ाास किए जाएंगे वह भी उन्हें प्रलोभन देकर। केन्द्र के नक्सली राहत पैकेज की घोषणओं में आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलिय्ाों को व्य्ावसाय्ािक प्रशिक्षण के साथµ साथ डेढ लाख की राशि उसके नाम से बैंक में सावधि जमा खाते में जाम की जाएगी जिसे नक्सली तीन साल के बाद, अच्छे चाल चलन का परिचय्ा देकर प्राप्त कर सकता है। पैकेज के दिशनिर्देशों पर गौर करें तो आत्मसमर्पण करते समय्ा य्ादि नक्सली हथिय्ाार भी जमा करता है तो उसके पैसे अलग से मिलेंगे। इसमें जनरल परपज मशीनगन आरपीजीय्ाूएमजी य्ाा स्निकर राइफल के ख्भ् हजार, किसी भी एके राय्ापल के क्भ् हजार, पिस्तौल य्ाा रिवाल्वर य्ाा बारूदी सुरंग के फ् हजार रुपए, जमीन से हवा में मार करने वाली मिसाइल के ख्. हजार रुपए, सेटेलाइट फोन के क्. हजार रुपय्ो, वाय्ारलेस सैट के एक से पांच हजार रुपए तथा प्रति कारतूस फ् रुपय्ो दिय्ाा जाएगा। अब जरा छत्तीसगढ के पुनर्वास पैकेज पर ध्य्ाान दें जो ख्... से लागू है। य्ाहां तो केन्द्र से ज्य्ाादा उदारता दिखाय्ाी गई है। जो नक्सली आत्मसमपर्ण करते हैं, सबसे पहले उनपर से आपराधिक मामले हटा लिए जाते हैं। एमएलजी हथिय्ाार के साथ गिरफ्तारी देने वालों को फ् लाख, एके ब्स्त्र्ाा के साथ समर्पण करने वालों को स्त्र्ााभ् हजार, बंदूक के साथ समर्पण करने वाले को भ्. हजार नकद दिए जाते हैं। साथ ही इन्हें कृषि भूमि और सरकारी नौकरी में प्राथमिकता दी जाती है। केन्द्र के पैकेज में व्य्ावसाय्ािक प्रशिक्षण और तीन साल तक दो हजार रुपए, प्रतिमाह देने का प्रावधान नय्ाा है। कुल मिलाकर य्ाह पैकेज राज्य्ा के पैकेज जैसा ही है। भले ही आम लोगों को य्ाह पैकेज लुभा रहा हो पर नक्सलिय्ाों के लिए इसके माय्ाने कुछ भी नहीं हैं। अगर नक्सली ऐसे लुभावने वादों पर भरोसा करते तो अब तक छत्तीसगढ से नक्सल समस्य्ाा का अंत हो चुका होता क्य्ाोंकि छत्तीसगढ में पिछले क्. सालों से नक्सलिय्ाों के लिए पुनर्वास पैकेज चलाय्ाा जा रहा है। केन्द्र का य्ाह नय्ाा पैकेज छत्तीसगढ के संदर्भ में पुरानी किताब पर नई जिल्द से ज्य्ाादा कुछ नहीं है।
नक्सलिय्ाों में इस पैकेज को लेकर कोई भी सुगबुगाहट अब तक नहीं दिखाय्ाी दी है बल्कि क्फ् जुलाई को मदनवाडा की वारदात को अंजाम देने के बाद नक्सलिय्ाों के हौसले काफी बुलंद हो गए हैं। पिछले दिनों उन्होने सरकार के कई कायर््ाो को प्रभावित करने का प्रय्ाास किय्ाा। नए टाॅवरों को ध्वस्त कर दिय्ाा, नई बनने वाली पुलिस चौकिय्ाों के लिए निर्माण सामग्री नहीं पहुंचने दी। मजदूरों को धमकाय्ाा गय्ाा कि अगर उन्होंने किसी भी सरकारी काम में हिस्सा लिय्ाा तो उन्हें मौत के घाट उतार दिय्ाा जाएगा। अब भी छत्तीसगढ में नक्सलिय्ाों की खूनी वारदात लगातार जारी है। नक्सली न सिर्फ सुरक्षा बलों को चकमा दे रहे हैं, बल्कि पुलिस के मुखबिरों को सरेआम मौत के घाट भी उतार रहे हैं। पिछले दिनों नकस्लिय्ाों ने दो बडी जन अदालतें लगाकर पुलिस के चार मुखबिरों की गला रेतकर हत्य्ाा कर दी। नक्सलिय्ाों की इन अदालतों में नक्सली उन लोगों को सरेआम मौत की सजा सुनाते हैं जिनपर उनके साथ धोखा करने का आरोप होता है, वह भी आम होगों के सामने ताकि उनके मन में नक्सलिय्ाों से बगावत का बीज अगर पनप भी रहा हो तो वह हमेशा हमेशा के लिए शांत हो जाए। बस्तर, राजनांदगांव और सरगुजा के लोग नक्सलिय्ाों की इन जन अदालतों से भलीभांति परिचित हैं। जिन चार मुखबिरों की नक्सलिय्ाों ने हत्य्ाा की थी उनकीा लाश को लाने का साहस तक पुलिस नहीं कर सकी। ग्रामीणों ने उन लोगों की लाश थाने पहुंचाय्ाी।
आज नक्सली इलाकों के हालात य्ाह हैं कि जवान ब् किमी से ज्य्ाादा अंदर सर्च नहीं करना चाहते हैं। पिछले दिनों एक सरकारी फरमान की अनदेखी के चलते क्फ् जवानों को कायर््ामुक्त करना पडा। य्ाह जवान मोर्चे पर जाना नहीं चाहते थे। केन्द्रिय्ा सुरक्षा बल और राज्य्ा पुलिस के बीच इतना तनाव इस कदर बढ गय्ाा है कि बीच बचाव के लिए मुख्य्ामंत्र्ाी डाॅ। रमन सिंह को पंचाय्ात बिठा कर खुद फैसला करने आना पडा। ऐसे विकट हालात वाले राज्य्ा के लिए नक्सली पुनर्वास पैकेज किसी मजाक से कम नहीं है।
अब जरा छत्तीसगढ में दस सालों से लागू इस पैकेज में आत्मसमर्पण करने वाले नकसलिय्ाों की संख्य्ाा पर गौर कर लिय्ाा जाए। पिछले दस सालों में क्ब्। शातिर नक्सलिय्ाों ने आत्मसमर्पण किय्ाा है और ख्ब्॥ ऐसे आदिवासिय्ाों ने, जिन्होंने नक्सलिय्ाों के बहकावे में आकर संघम य्ाा दलम ज्वाइन किय्ाा था। कुल मिलाकर ख्भ्.. के आसपास। छत्तीसगढ में नक्सलिय्ाों की मोटीµमोटी गणना की जाए तो इनकी संख्य्ाा फ्भ् हजार के आसपास है। य्ाानी इन ढाई हजार लोगों के आत्मसमर्पण करने के बावजूद आज भी य्ाह देश का सबसे बडा आतंकवादी समूह है।
बस्तर के हालात ऐसे हैं कि आदिवासिय्ाों के लिए कोई भी सरकारी सहाय्ाता से लाभान्वित होने के बारे सोचना य्ाानी मौत को सीधा निमंत्र्ाण देना है। नक्सली इन अबोध ग्रामीणों को किसी भी प्रकार का अनुदान, कृपा राशि अनाज य्ाा स्वास्थ्य्ा सुविधाएं तक लेने नहीं देते। ऐसे में इस राहत पैकेज का क्य्ाा मतलब? नक्सल प्रभावित क्षेत्र्ाों में नकसल प्रभाव को खुद मुख्य्ामंत्र्ाी भी स्वीकार करते हैं। इन क्षेत्र्ाों में नक्सली, ठेकेदारों और अफसरों से खुलेआम फ्॥ करोड से ज्य्ाादा सालाना वसूलते हैं और इसकी भरपाई के लिए ठेकेदार और अफसर कहां से कमाते होंगे, य्ाह बताने की आवश्य्ाकता नहीं है। इसमें नेताओं का भी हिस्सा होता होगा, इसमें भी कोई शक नहीं। अब इस फाय्ादे के सौदे को न तो नेता खोना चाहेगा और न ही अफसर और ठेकेदार। आखिर नक्सलिय्ाों की आड में उनकी अपनी तिजोरिय्ाां भी तो भर ही रही हैं।
खैर बात गृहमंत्र्ाालय्ा के पुनर्वास पैकेज की। लगता है गृहमंत्र्ाालय्ा ने नक्सली समस्य्ाा का ठीक से अध्य्ाय्ान नहीं किय्ाा है य्ाा फिर नौकरशाहों ने चिदम्बरम को इस अंधेरे में रखा है कि इस पैकेज के दूरगामी परिणाम होंगे। बल्कि सच तो य्ाही है कि य्ाह य्ाोजना भी समय्ा के साथ अपनी सामय्ािकता खो देगी। होगा बस य्ाह कि इस पैकेज के लालच में कुछ नकली नक्सली, असली हथिय्ाारों के साथ आत्मसमर्पण करेंगे। इससे उनको लाखों रुपय्ाों के साथ जीवनय्ाापन का साधन मिल जाएगा और सरकार अपनी य्ाौजना को भलीभूत होते देख, खुश हो लेगी। पर इन सबमें नकस्ली समस्य्ाा का क्य्ाा?

Wednesday, December 23, 2009

पक्षियों का ठिकाना...

पक्षी प्रकृति पदत्त सबसे सुन्दर जीवों की श्रेणी में आते हैं। इनसे मानव के साथ रिश्तों की जानकारी के उल्लेख प्राचीनतम ग्रंथों में भी मिलते हैं। किस्सा तोता मैना का तो आपने सुना ही होगा। इन किस्सों में आपने पाया होगा कि राजा के प्राण किसी तोते में बसते थे। फिर राम कथा के जटायु प्रसंग को कौन भुला सकता है। कबूतर द्वारा संदेशवाहक का काम भी लिया जाता रहा है। कहा जाता है कि मंडन मिश्र का तोता-मैना भी सस्वर वेदाच्चार करते थे। कई देवी देवताओं की सवारी पक्षी हुआ करते थे। पक्षियों का जीवन विविधताओं भरा अत्यंत ही रोचक होता है। पक्षियों के जीवन की सर्वाधिक आश्चर्यजनक घटना है उनका प्रवास। अंग्रेज़ी में इसे माइग्रेशन कहते हैं। शताब्दियों तक मनुष्य उनके इस रहष्य पर से पर्दा उठाने के लिए उलझा रहा। उत्सुकता एवं आश्चर्य से आंखें फाड़े आकाश में प्रवासी पक्षियों के समूह को बादलों की भांति उड़ते हुए देखता रहा।
पक्षी हज़ारों मील दूर से एक देश से दूसरे देश में प्रवास कर जाते हैं। साधारणतया तो पक्षियों के किसी खास अंतराल पर एक जगह से दूसरी जगह जाने की घटना को पक्षियों का प्रवास कहा जाता है। पर इस घटना को वातावरण में किसी खास परिवर्तन एवं पक्षियों के जीवनवृत्त के साथ भी जोड़कर देखा जा सकता है।
पक्षियों का प्रवास एक दो तरफा यात्रा है और यह एक वार्षिक उत्सव की तरह होता है, जो किसी खास ऋतु के आगमन के साथ आरंभ होता है और ऋतु के समाप्त होते ही समाप्त हो जाता है। यह यात्रा उनके गृष्मकालीन और शिशिरकालीन प्रवास, या फिर प्रजनन और आश्रय स्थल से भोजन एवं विश्राम स्थल के बीच होती है। मातृत्व का सुखद व सुरक्षित होना अनिवार्य है। ऐसा मात्र इंसानों के लिए हो ऐसी बात नहीं है। सुखद व सुरक्षित मातृत्व पशु-पक्षी भी चाहते हैं। इस बात का अंदाज़ा साइबेरिया से हज़ारों किलोमीटर दूर का कठिन रास्ता तय कर हुगली, पश्चिम बंगाल पहुंचे साइबेरियन बर्ड को देख कर लगाया जा सकता है।
प्रवासी यात्रा में पक्षियों की सभी प्रजातियां भाग नहीं लेतीं। कुछ पक्षी तो साल भर एक ही जगह रहना चाहते हैं। और कई हज़ारों मील की यात्रा कर संसार के अन्यत्र भाग में चले जाते हैं। प्रकृति की अनुपम देन पंखों की सहायता से वे संसार के दो भागों की यात्रा सुगमता पूर्वक कर लेते हैं। इनकी सबसे प्रसिद्ध यात्रा उत्तरी गोलार्द्ध से दक्षिण की तरफ की है। गृष्म काल में तो उत्तरी गोलार्द्ध का तापमान ठीक-ठीक रहता है, पर जाड़ों में ये पूरा क्षेत्र बर्फ से ढ़ंक जाता है। अत: इस क्षेत्र में पक्षियों के लिए खाने-पीने और रहने की सुविधाओं का अभाव हो जाता है। फलत: वे आश्रय की तलाश में भूमध्य रेखा पार कर दक्षिण अमेरिका या अफ्रीका के गर्म हिस्सों में प्रवास कर जाते हैं। अमेरिकी बटान (गोल्डेन प्लोवर) आठ हज़ार मील की दूरी तय कर अर्जेन्टीना के पम्पास क्षेत्र में नौ महीने गृष्म काल का व्यतीत करते हैं। इस प्रकार वे प्रवास कर साल भर गृष्म ऋतु का ही आनंद उठाते हैं। उन्हें जाड़े का पता ही नहीं होता। इसी प्रकार साइबेरिया के कुछ पक्षी भारत के हिमालय के मैदानी भागों में प्रवास कर जाते हैं। हुगली के हरिपाल जैसे अनजान व शांत इलाके में ये पक्षी आकर तीन से चार माह का प्रवास करते हैं। इस दौरान वे प्रजनन की क्रिया संपन्न करते हैं। बच्चों को जन्म देने के बाद वे पुन: वापस लौट जाते हैं। उत्तर प्रदेश के भी कई वन्य विहार, नदियों, झीलों आदि में ये अपना बसेरा बना लेते हैं। हंस (हेडेड गोज), कुररी (ब्लैक टर्न), चैती, छेटी बतख (कामन टील), नीलपक्षी (गार्गेनी), सराल (इवसलिंग), सिंकपर (पिनटेल), तेलियर (स्टर्लिंग), पनडुब्बी (ग्रेब्स), टिकरी (कूट्स), अबाबीलों (स्वैलोज), बगुलों (हेरोन्स), बतासी (स्विफ्ट्स), अबाबील (स्वैलो), बुलबुल (नाइटिंजेल), पपीहा (कक्कू), पथरचिरटा (बंटिंग), बत्तख (डक्स), सामुद्रिक (गल्स), रोबिन, बाज, नीलकंठ, क्रेन, मुर्गाबी (लून्स), जलसिंह (पेलिकन्स), आदि प्रवासी पक्षी न सिर्फ दिखने में खूबसूरत होते हैं बल्कि अपनी दिलकश अदाओं के लिए भी जाने जाते हैं।
बत्तख (डक्स), सामुद्रिक (गल्स) एवं समुद्र तटीय पक्षी रात या दिन किसी भी समय अपनी यात्रा करते हैं। पर कुछ पक्षी जैसे कौए, अबाबील, रोबिन, बाज, नीलकंठ, क्रेन, मुर्गाबी (लून्स), जलसिंह (पेलिकन्स), आदि केवल दिन में ही उड़ान भरते हैं। अपनी लम्बी उड़ान के दौरान ये कुछ देर के लिए उचित जगह पर चारे की खोज में रुकते हैं। किन्तु अबाबील और बतासी तो अपने आहार कीट-पतंगों को उड़ते-उड़ते ही पकड़ लेते हैं। दिन में उडऩे वाले पक्षी झुंड में चलते हैं। बत्तख, हंस एवं बगुले में झुंड काफी संगठित होता है। इन्हें टोली का नाम दिया जा सकता है। जबकि अबाबील का झुंड काफी बिखरा-बिखरा होता है।
अधिकांश पक्षी रात में ही लंबी यात्रा करना पसंद करते हैं। इस श्रेणी में बाम्कार (थ्रशेज), एवं गोरैया (स्पैरो) जैसे छोटे-छोटे पक्षी आते हैं। ये अंधेरे में अपने शत्रुओं से बचते हुए यात्रा करते हैं। इसके अलावा एक और बात महत्त्वपूर्ण है, यदि ये पक्षी दिन में यात्रा करें तो रात होते-होते काफी थक जाएंगे। अत: अगली सुबह ऊर्जाहीन इन पक्षियों को अपने आहार प्राप्त करने में काफी दिक़्क़त होगी। यह उनके लिए प्राणघातक भी साबित हो सकता है। जबकि रात को चलते हुए सवेरा होते-होते ये उचित जगह पर थोड़ा विश्राम भी कर लेते हैं, फिर भोजनादि की तलाश में जुट जाते हैं। रात होते ही आगे की यात्रा पर पुन: निकल पड़ते हैं। कुछ पक्षी जैसे बाज, बतासी, कौडि़ल्ला (किंगफिशर), आदि अलग-अलग अपनी ही प्रजाति की टोली में चलते हैं। जबकि अबाबील, पीरू (टर्की), गिद्ध एवं नीलकंठ कई प्रजातियों की टोली में चलते हैं। इसका कारण उनके आकार-प्रकार का एक ही तरह का होना या फिर आहार की प्रकृति एवं पकडऩे के तरीक़े का समान होना हो सकता है। कुछ प्रजातियों में नर और मादा की टोली अलग-अलग चलती है। नर गंतव्य पर पहले पहुंच कर घोंसलों का निर्माण करता है। जबकि मादा अने साथ नन्हें शिशु फक्षी को लिए पीछे से आती है।
अपनी प्रवासीय यात्रा के दौरान ये पक्षी कितनी दूरी तय करते हैं यह उनकी स्थानीय परिस्थिति एवं प्रजाति के ऊपर निर्भर करता है। इनके द्वारा तय की गई यात्रा की दूरी मापने के लिए पक्षी विज्ञानी इन्हें बैंड लगा देते हैं या फिर इनके ऊपर रिंग लगा देते हैं। फिर जहां वे पहुंचते हैं, उसका उनहें अंदाज़ा हो जाता है। और तब दूरी माप ली जाती है। आर्कटिक क्षेत्र के कुररी (टर्न) पक्षी को सबसे ज़्यादा दूरी तय करने वाला पक्षी माना जाता है। लेबराडोर की तटों से ये ग्यारह हज़ार मील की दूरी तय कर अन्टार्कटिका में जाड़े के मौसम में पहुंचते हैं। इतनी ही दूरी तय कर गर्मी में ये वापस लौट जाते हैं। इसी तरह की मराथन उड़ान भरने वाली अन्य प्रजातियां हैं सुनहरी बटान, टिटिहरी (सैंड पाइपर) एवं अबाबील। ये आर्कटिक क्षेत्र से अर्जेन्टिना तक की छह से नौ हज़ार मील की दूरी तय करते हैं। यूरोप के गबर (व्हाइट स्टौर्क) जाड़ों में आठ हज़ार माल की दूरी तय कर दक्षिण अफ्रीका पहुंच जाते हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि प्रवासी पक्षियों में ज़बरदस्त दमखम होता हागा, नहीं तो इतनी दूरी तय करना कोई आसान बात नहीं है। इस जगत में इनसे ज़्यादा अथलीट शायद ही कोई जीव होगा। प्रवासी यात्रा आरंभ करने के पहले ये पक्षी अपने अंदर काफी वसा एकत्र कर लेते हैं जो उनकी उड़ान वाली यात्रा के दौरान इंधन का काम करते हैं।
दूरी के साथ-साथ अपनी उड़ान में जो ऊंचाई ये छूते हैं वह भी कम रोचक नहीं है। कुछ तो जमीन के काफी साथ-साथ ही चलते हैं, जबकि सामान्य रूप से ये तीन हज़ार फीट की ऊंचाई पर उड़ान भरते हैं। उंचाई पर उड्डयन में कठिनाई यह होती है कि ज्यों-ज्यों उड़ान की ऊंचाई अधिक होती जाती है त्यों-त्यों संतुलन एवं गति बनाए रखना काफी मुश्किल हो जाता है। क्योंकि ऊपर में हवा का घनत्व काफी कम होता है और हवा की उत्प्लावकता (बुआएंसी) काफी कम हो जाती है। रडार के द्वारा पता लगा है कि कुछ छोटे-मोटे पक्षी पांच हज़ार से पंद्रह हज़ार फीट तक की ऊंचाई पर भी उड़ान भरते हैं। यहां तक कि हिमालय या एंडेस की पहाडिय़ों को पार करते समय ये पक्षी बीस हज़ार फीट या उससे भी अधिक की ऊंचाई प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे प्रमाण मिले हैं जिससे यह पता लगता है कि पक्षी अपनी प्रवासीय यात्रा के दौरान सामान्य से अधिक गति से यात्रा करते हैं। छोटे-छोटे पक्षियों की यात्रा में औसत गति तीस मील प्रति घंटा होती है। जबकि अबाबील और अधिक गति से उड़ते हैं। बाज की गति तीस से चालीस मील प्रति घंटा होती है। तटीय पक्षी की गति चालीस से पचास मील प्रति घंटा होती है। जबकि बत्तख की गति पचास से साठ मील प्रति घंटा होती है। भारत में सबसे अधिक गति ब्रितानी पक्षी बतासी(स्वीफ्ट) का रिकार्ड किया गया है जो 171 से 200 मील प्रति घंटा होती है। प्रवासी पक्षी एक दिन या एक रात में कऱीब 500 मील की दूरी तय कर लेते हैं। पक्षी साधारणतया पांच से छह घटों की एक उड़ान भरते हैं। बीच में वे विश्राम या भोजन के लिये रुकते हैं। उनकी गति पर मौसम का भी प्रभाव पड़ता है। जैसे वर्षा, ओलों का गिरना या फिर तेज हवा के झोंकों से इनकी गति बाधित होती है।
कई पक्षियों की प्रवासी यात्रा में कफी नियमितता पाई जाती है। साल-दर-साल के गहन अध्ययन से यह पता लगा कि ये नियमित रूप से मौसम की प्रतिकूलता की मार सहकर भी अपनी लंबी यात्रा बिल्कुल नियत समय पर नियत स्थल पर पहुंच कर पूरी करते हैं। शायद ही कभी एकाध दिन की देरी हो जाए। अबाबील और पिटपिटी फुदकी (हाउस रेन) ठीक 12 अप्रैल को वाशिंगटन पहुंच जाती हैं। भारत के प्रख्यात पक्षीशास्त्री सालीम अली ने खंजन (ग्रे वैगटेल) को अलमुनियम का छल्ला पहना दिया। मुम्बई के उनके आवास पर यह पक्षी प्रति वर्ष नियत समय पर पहुंच जाया करता था। पक्षी अपने धुन के बड़े पक्के होते हैं।
प्रवासी पक्षी एक निश्चित पथ पर ही अपनी यात्रा तय करते हैं। हज़ारों किलोमीटर की दूरी तय कर आने वाले ये पक्षी पुन: उसी रास्ते वापस लौट जाते हैं। ये अपना रास्ता नहीं भूलते। इससे स्पष्ट होता है कि इंसान से भी अधिक इनकी स्मरण शक्ति होती है। हां इस पथ में परिवर्तन कुछ खास कारणों से हो सकता है। साधारणतया भौगोलिक आकृतियां जैसे नदी, घाटी, पहाड़, समुद्री तट, आदि इनका मार्ग दर्शन करते हैं। कुछ पक्षी तो अपनी पिछली यात्रा के अनुभव के आधार पर अपने दूसरे साथियों का पथ प्रदर्शन एवं मार्ग दर्शन करते हैं। पर उनका अनुभव शायद ही बड़े काम का होता होगा। क्योंकि पक्षियों की अधिकांश प्रजातियां तो टोली में यात्रा करने से कतराते हैं। वे तो अलग-अलग ही चलते हैं। हां आकाशीय पिंड उनकी इस मराथन यात्रा में उनका पथ-प्रदर्शक होते हैं। पक्षियों के अंदर एक आंतरिक घड़ी भी होती है जो उनके गंतव्य तक पहुंचाने में सहायता प्रदान करती है।
अब पहले की तरह प्रवासी पक्षी नहीं आते। जानकारों का मानना है कि इसके पीछे प्रमुख कारण ग्लोबल वार्मिंग है। मौसम मे परिवर्तन प्रवासी पक्षियों को रास नहीं आता इस कारण वे अब भारत से मुंह मोडऩे लगे हैं जलवायु परिवर्तन से पक्षियों का प्रवास बहुत प्रभावित हुआ है। पहले पूर्वी साइबेरिया क्षेत्र के दुर्लभ पक्षी मुख्यत: साइबेरियन सारस भारत में आते थे। जलस्त्रोतों के सूखने से उनके प्रवास की क्रिया समाप्त प्राय हो गई है। ये सुदूर प्रदेशों से अपना जीवन बचाने और फलने फूलने के लिए आते रहे हैं। पर हाल के वर्षों में इनके जाल में फांस कर शिकार की संख्या बढ़ी है। कई बार तो शिकारी तालाब या झील में ज़हर डाल कर इनकी हत्या करते हैं। माना जाता हा कि उनका मांस बहुत स्वादिष्ट होता है तथा उच्च वर्ग में इसका काफी मांग हाती है। अब वे चीन की तरफ जा रहे हैं। हम एक अमूल्य धरोहर खो रहे हैं। पक्षियों के प्रति लोगों में पर्यावरण जागरूकता को बढ़ावा देना चाहिए। पक्षी विहार से लाखों लोगों को रोजगार मिलता है। इसके अलावा काफी बड़ी संख्या में प्रवासी पक्षियों को दखने पर्यटक आते हैं।
इस प्रवासीय यात्रा की शुरुआत क्यों हुई यह भी रोचक है। एक साधारण सी कहावत है कि "बाप जैसा करता है, वैसा ही करो" – शायद इसी रास्ते पर इसकी शुरुआत मानी जा सकती है। पर यह कोई वैज्ञानिक व्याख्या नहीं कही जी सकती। हां इतना तो माना जा सकता है कि बदलते वातावरण के कारण कुछ विपरीत परिस्थितियां पैदा हो गई होंगी, जिसके कारण पक्षियों के गृह स्थल पर भोजन एवं प्रजनन की सुविधाओं का अभाव हो गया होगा। इस सुविधा की प्राप्ति के लिए पक्षी अपने स्थान बदलने को विवश हो गए होंगे। समय बीतने के साथ यह साहसिक अभियान उनकी आदत में शुमार हो गया होगा। पक्षियों के जीवन यापन, शत्रुओं से सुरक्षा, भोजन एवं प्रजनन की सुविधा में यह प्रवास निश्चित रूप से उनके लिए लाभकारी साबित हुआ।

Tuesday, December 22, 2009

अपनी ढपली अपना राग

भले ही वित्तमंत्री ने जीएसटी लागू करने की तिथि 1 अप्रैल 2010 घोषित की हो पर राज्यों के इस व्यवस्था पर जगजाहिर कड़े ऐतराज और इससे संबंधित संविधान संशोधन में हो रही देरी के चलते इसे तयशुदा तिथि में लागू कर पाना असंभव है। हाल ही में दिल्ली में विभिन्न राज्यों के वित्तमंत्रियों ने एक बैठक में शिरकत की जिसका मकसद जीएसटी यानी वस्तुएं एवं सेवा कर के सभी पहलुओं पर गहन विचार विमर्श करना था। एक अप्रेल, 2010 से पूरे देश में जीएसटी लागू किया जाना प्रस्तावित है। जीएसटी पर चर्चा करना जरूरी है पर अब जबकि इसे लागू करने की तिथि इतने करीब है ऐसे में इसकी रूपरेखा पर अब विचार करना समझ से परे है। जीएसटी की प्रस्तावना 2006-2007 के बजट के दौरान वित्त मंत्री ने रखी थी जिसके तहत जीएसटी को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने का पर विचार विमर्श करना था। तीन साल पहले से शुरू हुई यह कवायद अब तक वैसी की वैसी है। विभिन्न राज्यों के वित्त मंत्री इसपर केवल कागज़ी कार्यवाही करते रहे हैं पर अब तक इसे अमली जामा पहनाने में कामयाबी नहीं मिल पाई है। इसमें हो रही देरी का मुख्य कारण है इसपर राज्यों औक केन्द्र का एकमत न होना। इसके लागू होने में सबसे बड़ी रुकावट बन रहे हैं राज्य और केन्द्र शासित प्रदेश जो अब भी इसी बहस में जुटे हैं कि इसके अंर्तगत किन वस्तुओं और सेवाओं को शामिल किया जाना चाहिए और किसे नहीं।
दूसरी ओर भले ही वित्त मंत्रालय इसे लागू करवाने में तत्परता दिखा रहा हो पर अब तक इसे लागू करने के लिए सबसे संविधान संशोधन की सबसे अहम कार्यवाही के लिए उसने कोई भी कदम नहीं उठाया है। संविधान संशोधन के बिना न तो केन्द्र के पास वस्तुओं का निमार्ण करने वाले राज्यों पर कर लगाने का और न ही राज्यों के पास सेवाओं पर कर लगाने का अधिकार है। ऐसे में जीएसटी के लागू होने के बाद भी इसकी उपयोगिता शून्य ही होगी। संविधान लागू करने से लेकर इसकी सूचना व्यवस्था को सुचारु बनाने का ढांचा तैयार करने में काफी समय लगेगा। इसके साथ ही राज्यों को यह रूपरेखा भी बनानी होगी कि वे अब तक केन्द्र के अधीन आने वाले रेल, दूरसंचार जैसी देशव्यापी सेवाओं से राजस्व वसूलने के लिए क्या रूपरेखा बनाएंगे क्योंकि यह ऐसी सेवाएं हैं जो राज्यों के सीमा से बाहर भी इस्तेमाल होती हैं।
राज्य इसके मॉडल को लेकर भी एकमत नहीं हैं। कुछ राज्य जिनमें गुजरात प्रमुख है, सामान्य जीएसटी की पक्षधर है जिसमें सभी वस्तुओं पर समान जीएसटी देनी होगी, जबकि कई राज्यों के वित्तमंत्रियों वाली अधिकार समिति, जीएसटी के लिए दोहरी व्यवस्था के पक्षधर हैं जिसके तहत व्यापक उपभोग की वस्तु पर कम जीएसटी, दूसरी वस्तुओं पर सामान्य दर तथा मंहगी वस्तुओं पर सबसे ज्यादा जीएसटी देना होगा। राज्यों के अलावा उद्योग जगत में भी जीएसटी के ढांचे को लेकर आम सहमति नहीं है। उद्योग जगत के लोग दोहरी कर प्रणाली का समर्थन नहीं करते।
जब तीन साल पहले वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने जीएसटी लागू करने का प्रस्ताव केन्द्र में रखा था तब इसे आर्थिक सुधार के एक अहम कदम के रूप में देखा जा रहा था। एक ऐसा आर्थिक सुधार जिसकी शुरुआत पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिंम्हाराव ने की थी। अगर जीएसटी लागू हो जाती है तो इसका सबसे बड़ा फायदा उन उद्योगों को मिलेगा जो अब तक विभिन्न स्तरों पर कर चुकाने को बाध्य हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय स्तर के उत्पाद शुल्क, सेवा कर, राज्य स्तर के वैट और स्थानीय स्तर के ऑक्ट्राय व परचेज टैक्स के स्थान पर सिर्फ एक कर देना होगा जो राष्ट्रीय स्तर का होगा। यूपीए सरकार कोशिश कर रही है कि वैट लागू करने के बाद जो विसंगतियां और व्यावहारिक कठिनाइयाँ सामने आई थीं उसकी जीएसटी के संदर्भ मेें पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए। इसीलिए राज्यों को भी अपनी राय रखने का व राज्य की कतिपय समस्याओं के साथ ही जनसाधारण की सुविधाओं को भी ध्यान में रखने की स्वतंत्रता है। तमाम कठिनाईयों के बावजूद यूपीए सरकार जीएसटी लागू करने का हर संभव प्रयास कर रही है। इसके लिए वह इसके लागू होने से राज्यों के होने वाले राजस्व घाटे की भरपाई करने को भी राजी है और राज्यों को 14,000 करोड़ देने का वादा भी कर रही है। बावजूद इसके जीएसटी के लिए सबसे अहम संविधान संशोधन, इसके लिए गठित वित्तमंत्रियों की समिति, राज्यों की आनाकानी और उद्योगों से आमराय न बन पाने के चलते इसके 1 अप्रेल 2010 से लागू होने की संभावना न के बराबर है। हो सकता है कि यूपीए सरकार की कोशिशों से 2011 तक यह व्यवस्था लागू हो जाए।
क्या है जीएसटी
जीएसटी एक दोहरी कर प्रणाली व्यवस्था होगी जिसमें राष्ट्रीय, प्रादेशिक और स्थानीय क रों की जगह एक व्यापक कराधान व्यवस्था होगी। यह देश में लागू राजस्व वसूली के प्रबंधन में एक आमूल चूल परिवर्तन साबित होगी। इसके विभिन्न मुद्दों पर विचार करने के लिए एक अधिकार प्राप्त समिति बनाई गई है जिसके अध्यक्ष पश्चिम बंगाल के वित्तमंत्री डॉ. असीम दासगुप्ता हैं।

Monday, December 21, 2009

अवसर मिलने पर हो सकती है विकास

भारत की कुल आबादी का लगभग आधी जनसंख्या महिलाओं का है। देश में जिस तरह से विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ी है, उससे आधारभूत संरचनाओं का निर्माण, वातावरण के प्रति संवेदनशीलता पहले के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ी है। इसके साथ लोगों की जीवन स्तर, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों की समझ ज्यादा हुई है। शिक्षा का स्तर पहले के मुकाबले अधिक ऊंचा हुआ। लेकिन अभी तक महिलाओं की जितनी भागीदारी होनी चाहिए, वह अभी तक नहीं हुई है। यदि चारों तरफ नजर दौड़ाई जाए तो किसी भी क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी का प्रतिशत पुरूषों के बराबर शायद ही देखने को मिलता है। चाहे वह राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक का क्षेत्र हो। चाहे सरकारी, सार्वजनिक, निजी या संयुक्त संगठन हो। मीडिया हो मनोरंजन। आज भी महिलाओं को नीतिगत फैसला करने का अधिकार नहीं मिला है। इन सबके बीच कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स, किरण बेदी, इंदिरा नूई, किरण मजूमदार और सोनिया गांधी आदि नाम अपवाद स्वरूप हैं। लेकिन जनसंख्या के हिसाब से ऐसी कितनी महिलाएं देश में हैं। जिनके पास इनके बराबर अधिकार मिला है। संविधान ने महिलाओं को पुरूषों के बराबर अधिकार प्रदान किया है। समान कार्य के लिए समान वेतन का अधिकार भी मिला हुआ है। समानता का अधिकार बिना लिंग भेद किए सबकों समान अवसर देने की वकालत करती है। देश में महिलाओं की साक्षरता का प्रतिशत 2001 की जनगणना के अनुसार 54.16 फीसदी है। जिनमें से अधिकांश महिलाएं घरेलू कार्यो में फंस जाती है। जिससे इनकी प्रतिभाएं दब जाती है। इनकों पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाते है। जिससे इनको देश के विकास में भागीदार बनने का अवसर नहीं मिलता है। बात राजनीति की किया जाए तो देश के लगभग सभी राजनीतिक दल इनको संसद और विधान मंडलों में 33 प्रतिशत आरक्षण देने की बात करते है। लेकिन बात जब इसे संसद से पारित करने की आती है तो कोई न कोई दल इसमें अडंगा लगाकर इसे संसद से पास नहीं होने देते है। इससे भी हास्यास्पद स्थिति तब आती है जब चुनाव के समय भी महिलाओं को टिकट के बंटवारे में भेदभाव करते है। अधिकत्तर महिलाओं को अपेक्षाकृत कमजोर मानी जाने वाली सीटें देकर अपने आंकड़ा को केवल भरने का काम करते है। एक अनुमान के अनुसार अगर श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी पहले की अपेक्षा और अधिक की जाए तो अगले पांच सालों में देश के सकल घरेलू उत्पाद में 35 अरब डाॅलर की बढ़ोत्तरी हो सकती है। महिलाओं को रोजगार के अवसरों में वृद्धि की जाए तो भारत वर्ष 2015 तक पांच प्रतिशत और वर्ष 2025 तक 12 फीसदी और अमीर हो सकता है। रोजगार में महिलाओं की भागीदारी पहले की तुलना में अभी कुछ सुधरी है। वर्ष 2000 में देश के रोजगार में महिलाओं की भागीदारी 26 फीसदी थी जो बढ़कर 2005 में 31 प्रतिशत हो गई। यदि इनकी भागीदारी का ग्रामीण और शहरी क्षेत्र बांटे तो ग्रामीण क्षेत्र में इनकी भागीदारी बढ़ी है। वर्ष 2000 से 2005 के दौरान शहरी क्षेत्र में 20 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्र में 34 प्रतिशत रोजगार में भागीदारी होती है। सांख्यिकी तथा कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में भी इससे संबंधित कुछ और रोचक तथ्य सामने आएं है। संगठन ने अपने सर्वेक्षण में महिलाओं से बातचीत के बाद इस बात को उजागर किया कि अधिकांश घरेलू महिलाओं ने घर में ही रोजगार के पक्षधर हैं। संगठन के अनुसार भारत में 37.9 प्रतिशत महिलाएं घरेलू काम में लगी हैं। जबकि 0.4 प्रतिशत पुरूष इसमें लगे हुए हैं। राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन द्वारा देश के सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में कराए गए सर्वेक्षण के बाद महिलाओं से संबंधित आंकड़ें और तथ्य सामने आएं हैं। सर्वेक्षण के मुताबिक 77 प्रतिशत और 66 प्रतिशत शहरी महिलाओं ने कहा कि हमें अधिक अवसर नहीं मिलते हैं। इसके लिए हमें आसान शर्तें और रियायत ब्याज दरों पर पूंजी की आवश्यकता है। महिलाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में अवसर पाने के लिए प्रशिक्षण की जरूरतों को भी बताया। सर्वेक्षण में कहा गया कि वर्ष 2004-05 के दौरान 15 वर्ष से अधिक आयु की 40 प्रतिशत ग्रामीण तथा 50 प्रतिशत शहरी महिलाएं घरेलू काम में लगी थी। इनमें से 37 फीसदी ग्रामीण और 18 प्रतिशत शहरी महिलाएं उत्पादक कार्यों में लगी हुई थी। सर्वेक्षण के दौरान 72 प्रतिशत ग्रामीण और 68 प्रतिशत महिलाओं ने पार्ट टाइम कार्य करने की इच्छा व्यक्त की। यूचर ग्रुप और युचर कैपिटल द्वारा ‘‘भारत के विकास, आय और उपयोग पर कामकाजी महिलाओं का असर‘‘ सर्वेक्षण से कोई रोचक तथ्य सामने आए है। सर्वेक्षण कुल दो हजार महिलाओं को लिया गया था। जिनमें आधी कामकाज और आधी घरेलू महिलाएं थी। सर्वेक्षण के परिणाम से खुलासा हुआ कि यदि आय में वृद्धि होती है तो उसका कुछ भाग बचत और निवेश में जाता है। रोजगार में महिलाओं की भागीदारी पहले की तुलना में अभी कुछ सुधरी है। वर्ष 2000 में देश के रोजगार में महिलाओं की भागीदारी 26 फीसदी थी जो बढ़कर 2005 में 31 प्रतिशत हो गई। यदि इनकी भागीदारी का ग्रामीण और शहरी क्षेत्र बांटे तो ग्रामीण क्षेत्र में इनकी भागीदारी बढ़ी है। वर्ष 2000 से 2005 के दौरान शहरी क्षेत्र में 20 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्र में 34 प्रतिशत रोजगार में भागीदारी होती है। वित्तीय सेवाओं, घरेलू मद, शैक्षिक सेवाओं, फुटकर माल, ईंधन, यातायात और मनोरंजन आदि क्षेत्रों को कामकाजी महिलाओं को सीधा लाभ मिलता है।

राजनीति में बहुओं की विरासत

भारतीय राजनीति में बेटियों को पराया मान बहुओं को अपनी राजनैतिक विरासत सौंपने वाले दलों की लंबी फेहरिस्त है। इन बहुओं से उम्मीद की जाती है कि वे भारतीय नारी की पारंपरिक छवि के साथ जनता जर्नादन को लुभाएं। आज के युग में जब आम भारतीय नारी की छवि पुरानी छवि से लगभग अलग है ऐसे में चुनाव प्रचार के दौरान भारतीय बहुओं को इस पारंपरिक छवि में कैद करना कितना सही है? क्यों 21 वीं शताब्दी में भी भारतीय समाज जींस-टीशर्ट पहनने मार्डन बहू को अपनाने से कतराता है खासकर राजनीति में?
पिछले दिनों सौभाग्य से लोगों को फिर एकबार भारतीय बहू का प्रतिनिधित्व करने वाली महिला को देखने का मौका मिला। बड़ी सी बिंदी लगाकर और मांग में ढेर सारा सिंदूर भरकर फिरोजाबाद गलियों में दिखने वाली सुकुमार सी महिला को देखकर कई लोगों ने सोचा कि भारत में अब भी संस्कार जिंदा हैं और हमारी बहुएं इसे संभाले हुए हैं लेकिन फिर भी लोगों को उस बहू की सादगी लुभा न सकी और लोगों ने उसे दरकिनार कर किसी और को चुन लिया। साधारण सी दिखने वाली यह बहू कोई आम बहू न होकर एक राजनीतिक बहू थी जो सर पर पल्ला डाले कभी ससुर के साथ तो कभी पति के साथ गलियों की खाक छान रही थी। इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी, मेनका गांधी, शीला दीक्षित और अमीता सिंह की कामयाबी के बाद इस राह की नई मुसाफिर बनी यह नई बहू जिनपर पति और सपुर की राजनैतिक विरासत संभालने का दारोमदार था। यहां बात हो रही है फिरोजाबाद से चुनाव लडऩे वाली डिंपल यादव की जो पति की खाली की गई सीट को अपनी पार्टी सपा के लिए जीतने का विश्वास लिए मैदान में उतरी थीं पर जनता जनार्दन को डिंपल में वह भरोसा न दिखा जो उन्होंने अखिलेश पर दिखाया था और डिंपल को कांग्रेस के प्रत्याशी राजबब्बर के सामने बड़ी हार का मुंह देखना पड़ा।
भले ही डिंपल अपनी भारतीय बहू की छवि से लोगों को आकर्षित न कर पायी हों पर उनसे पहले ऐसी कई राजनैतिक बहुएं हैं जिन्होंने अपनी इसी छवि के चलते जीत दर्ज की है। इसमें सबसे पहला नाम है भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी का। भले ही इंदिरा को राजनीति पिता से विरासत में मिली हो पर पति फिरोजगांधी की मृत्यु के बाद उनकी सीट रायबरेली से जब खड़ी हुईं तो उनको भी एक भारतीय बहू के तौर पर जनता के बीच जाना पड़ा न कि जवाहरलाल नेहरु की बेटी के तौर पर। चुनाव सभाओं में लोगों को स्व. गांधी का एक अलग रूप देखने को मिला। अपने कटे बालों को सलीके से कॉटन की साड़ी के पल्लू से ढ़ककर, इंदिरा काफी अलग नज़र आ रही थीं। इंदिरा का ज़माना ही ऐसा था जहां भारतीय नारी की एक पारंपरिक छवि थी, जो आदर्शो और संस्कारों में पली बढ़ी थी पर आज के आधुनिक दौर में काफी कुछ बदल चुका है। उनके बाद उनकी बहुओं सोनिया गांधी और मेनका गांधी ने भी उनके पदचिन्हों पर चलकर राजनीति में सफलता प्राप्त की। सोनिया की आज की कामयाबी का कारण ही इंदिरा की छवि को अपनाना है, इससे किसी को कोई इंकार नहीं होगा।
फिरोजबाद उप चुनाव के लिए डिंपल यादव की छवि ने फिर से इंदिरा के जमाने की याद दिला दी। यहां सवाल डिंपल की हार या जीत का नहीं है। सवाल है उनकी बनावटी छवि का जो उन्होंने लोगों के सामने प्रेषित किया है। बनावटी इसलिए क्योंकि आजकल पढ़ी-लिखी आम महिला भी ऐसे नहीं रहती। ऐसा नहीं है कि डिंपल पहली बहू हैं जो अपनी इस बनावटी छवि के साथ लोगों बीच गई हैं। उनके पहले बहुत सी राजनीतिक बहुएं जो पहले भी भारतीय नारी की पारंपरिक छवि को भुना चुकी हैं। करीब एक दशक पहले उत्तरप्रदेश के राजघराने की बहू और कांग्रेसी नेता संजय सिंह की पत्नी अमीता सिंह ने भी अमेठी की बहू को तौर पर अपने पति के लिए वोट मांगा था और संजय की विधानसभा और लोकसभा में जीत की कामयाबी में अमीता का भी बड़ा हाथ था। संजय की जीत और अमीता को अमेठी की बहू के तौर पर मान्यता मिलने से लोग चकित थे क्योंकि उनपर अपने पूर्व पति के हत्या के आरोप थे। अमेठी की जनता अपनी इस बहू की वर्तमान छवि को देखकर उनपर भरोसा जताया था।
वैसे भी अमेठी की जनता अपनी राजनैतिक बहुओं को हमेशा से सर आखों पर बिठाती आयी है। अमीता के बाद जब सोनिया गांधी ने 1999 में सक्रिय राजनीति में आने का फैसला किया और अमेठी से चुनाïव लडऩे का फैसला किया तब भी अमेठी की जनता ने उन्हें सर आंखों पर बिठाया। पीलीभीत और आंवला सीटों से चुनाव जीतने वाली मेनका गांधी को भी जीत अपनी क्षमताओं के लिए कम और गांधी परिवार की बहू होने के नाते ज्यादा मिली। यह सर्वविदित है कि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ऐसे परिवार से आयी थीं जिनका राजनीति में कोई दखल नहीं था। उनकी आज की कामयाबी के पीछे उनके ससुर और कांग्रेस के पूर्व केबिनेट मंत्री उमाशंकर दीक्षित का अहम रोल है। उमाशंकर ने अपनी बहू शीला को अपनी राजनैतिक विरासत सौंपी और शीला ने इसे बखूबी संभाला। एक और बहू है जो राजनीति में अपनी किस्मत आजमा रही है। पर ये किसी राजनैतिक परिवार की बहू न होकर टेलीविजन की बहू हैं। यहां चर्चा स्मृति ईरानी की हो रही है जिन्होंने तुलसी के किरदार के रूप में भारतीय बहू को पुनर्जीवित करने में अहम भूमिका निभाई है। उनकी छवि को भुनाने के लिए भाजपा ने 2000 में उन्हें दिल्ली के चांदनी चौक से टिकट दिया। रील लाइफ की इस बहू को रियल लाइफ में लोगों ने सिरे से नकार दिया। स्मृति अब भी भाजपा की सक्रिय सदस्य हैं और राजनीतिक मसलों पर देर सबेर अपनी राय देती रहती हैं।
स्मृति और डिंपल की भारी हार के बावजूद न तो राजनैतिक बहुओं का सफर रुकेगा और न ही बहुओं की पारंपरिक छवि टूटेगी। इन रानैतिक बहुओं के विषय में तो यही कहा जा सकता है कि इसी बहाने ही सही भारतीय बहुओं की पारंपरिक छवि देर सबेर लोगों की नज़रों के सामने आ जाती है। भले उसका मकसद लोगों की भावनाओं के साथ खेलकर अपना मकसद पूरा करना ही क्यों न हो।

Sunday, December 20, 2009

मजबूर मासूमियत

''हाल बेहाल, हाथों में कंपकपाहट, चेहरे पर सूखे हुए आंसू के निशान और कांपती जुबां पर साहब भूखी हूं कुछ पैसे दे दोÓÓ यही हाल हो रहा है महानगरों में सिग्नल्स,रेलवे स्टेशनों, बस स्टैंड पर रहने वाले बच्चों का । उनका कसूर बस इतना है कि वह किसी बड़े घर में पैदा नहीं हुए और ना ही ऐसे घर में जहां उनकी जरूरतों को पूरा किया जा सके। जिंदगी से उन्हें कुछ नहीं मिला सिवाय सड़कों की खाक छानने के। भागदौड़ भरी जिंदगी में जब कुछ पल के लिए सिग्नलों पर रईसजादों की गाडिय़ा रूकती हैं तो ना जाने ऐसे कितने मासूम पांव जाकर उन गाडिय़ों के पास रूक जाते हैं और उभरती है उससे कुछ दर्द भरी आवाज । यह कोई फिल्म की कहानी नही है बल्कि ये हाल है एक ऐसे देश का जो अपने आपको 2020 तक विकसित करने की बात करता है। रेलवे स्टेशनों ,बस स्टैंडों और सिग्नलों पर रहने वालें लड़के-लड़कियों की व्यथा एक जैसी ही है ये इनके लिए एक ऐसा दलदल है जिसमें वह बुरी तरह फंस चुके है । ऐसे नजारे महानगरों के लिए आम हो चुके है । ऐसे जगहों पर रहने वाली लड़कियों की व्यथा तो और भी शर्मसार करने वाली है। हर कोई इन मासूम लड़कियों को सार्वजनिक सम्पत्ति के रूप में देखता है। यह वही देश है जहां की पहंचान उसकी सभ्यता और संस्कृति से होती थी और जहां महिलाओं को देवी का दर्जा मिला था। इन स्थलों पर भीख मांगने वाली इन लड़कियों को भीख मिले ना मिले पर गाडिय़ों में सवार लोगों की बुरी नजर से उन्हें हर रोज रूबरू होना पड़ता है। किस्सा यहीं खत्म नहीं होता है बल्कि हर सुबह एक नए हालात पैदा कर रही हैं। आए दिन सिग्नल पर रहने वाली लड़कियों के साथ सरेआम अभद्रता हो रही है, लेकिन हर इंसान इसे देखकर नजर अंदाज कर रहा है। उनकी आंखें तो खुली हैं पर जुबां खामोश हैं क्योकि कही ना कहीं वह भी इस अध्याय का हिस्सा हैं। कुछ मनचलें जहां इन लड़कियों को छेड़ कर मजे लेते हैं वही अपनी प्रौढ़ अवस्था में पहुंच चुके लोग भी इन लड़कियों को छेडऩे से बाज नहीं आते। इन स्थानों पर गुजर-बसर करने वाले बच्चों के सिर पर ना तो छत है ना पैरों तले जमीं इन्हें खुद नहीं पता आज यहां तो कल कहां। शायद इन बच्चों का एहसास ही मर चुका है या फिर वह अपनी समस्या किसी ऐसे संस्था तक पहुंचाने में असमर्थ है जो उनकी मदद कर सकें। आखिर कहां गए वह लोग जो गरीबों के नाम पर वोट बटोरते हैं या कहां काम कर रही हैं वह स्वयं सेवी संस्थाए जिनके पास ऐसे ही मजबूर लोगों की मदद के लिए लाखों-करोड़ो रूपए बाहर से आ रहे हैं? क्या इन स्थानों से उन ठेकेदारों की गाडिय़ां नहीं गुजरती और यदि गुजरती है तो उन्हें वह मासूम बच्चें क्यों नहीं दिखाई देते, जो हर रोज जिल्लत भरी जिंदगी जीने को मजबूर हैं। यूं तो सरकार और स्वयं सेवी संस्थाएं इन बेसहारा बच्चों के लिए कई कायदे- कानून बनाए पर वह कहीं ना कही कागजों तक ही सीमित रह गए । एक बार फिर केन्द्र सरकार इन एक योजना ला रही है जिससे ये बेसहारा बच्चें नए साल के आगमन पर अपने साथ कुछ अच्छा होने की सोच सकते हैं हालांकि ये भी मात्र कल्पना से ज्यादा नहीं हैं जब तक कि इस योजना को अमली जामा ना पहना दिया जाएं। तमाम राजनीतिक भविष्यवाणियों और आर्थिक आकलन के बीच महिला और विकास मंत्रालय ने लावारिस बच्चों के लिए 'आंगनबाड़ी केन्द्र योजनाÓ बनाई है जिसके तहत आंगनबाड़ी केन्द्र खुद रेलवे स्टेशनों, बस स्टैंडों पर रहने वाले बच्चों के पास आएंगा और उन्हें पेट भर खाना,मेडिकल सुविधा के साथ-साथ पढ़ाई- लिखाई की भी सुविधा मुहैया कराएंगा। यूं तो केंद्र सरकार ये योजना इसी साल लागू करने वाली है लेकिन हर योजना की तरह सरकार की यह योजना भी सिर्फ पेपरों में ही सिमट कर ना रह जाएं और एक बार फिर ये बेसहारा बच्चे बेसहारा ही ना रह जाएं जिन्हेें चाहिए तो सिर्फ सिर पर छत और पेट भरने के लिए रोटी। जिस देश में करोड़ो रूपए चुनाव प्रचार में पानी की तरह बहा दिए जाते हैं वहां क्या कुछ पैसे ऐसे लोगों पर नहीं लगाए जा सकते जिनको चाहिए सिर्फ और सिर्फ दो जून की रोटी।

सोना हुआ बालिग

काफी पहले से विशेषज्ञ, सोने की खरीदी को एक अच्छे निवेश के रूप में मान्यता दे चुके हैं। पिछले महीने सोना 16,000 के आंकड़े को पार कर गया। फैशन के तौर पर महिलाओं की पहली पसंद सोना, अब फटाफट पैसे बनाने के विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है क्योंकि आज के दौर में आसमान छूती सोने की कीमतें, निवेश का सबसे सुरक्षित माध्यम है।
अगर आप कम दाम पर सोना खरीदने की हसरत पाले बैठें हैं तो अपनी इस हसरत को किनारे रख दें तो ही बेहतर है। विशेषज्ञों की माने तो दीपावली के अवसर पर बालिग हुआ सोना, फिलहाल नीचे उतरने के मूड में नहीं है। अक्टूबर में सोने का दाम पिछले साल का रिकार्ड भले ही न तोड़ पाया हो पर यह दीपावली पर 16000 का आकड़ा पार कर गया। विशेषज्ञों की माने तो आने वाले महीनों में यह 18 हजार के आंकड़े को भी पार कर जाएगा और आने वाले चार पांच महीने तक इसके नीचे गिरने के आसार नहीं हैं। फैशन के साथ-साथ, स्टेटस सिंबल बन चुका सोना अब निवेश के मामले में प्रॉपर्टी को भी पीछे छोड़ चुका है। आज का सबसे बड़ा सच यही है कि सोना, निवेश का सबसे उत्तम और कारगर तरीका बन चुका है। मंदी के दौर में निवेशक सोने पर निवेश करने को सबसे सुरक्षित मानते हैं क्योंकि सोने के बढ़ते अन्तर्राष्ट्रीय मूल्य के चलते इसपर, किसी देश विशेष की आर्थिक, राजनीतिक या गृहसंकट का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता।
भारतीय संदर्भ में सोने के भाव को देखें तो 70 के दशक में एक लाख रुपए के सोने का मालिक आज 80 लाख का मालिक है। कहना गलत न होगा कि सोने के दाम पिछले 40 सालों में 80 गुना बढ़े हैं। जब 2006 में सोना 7,700 प्रति 10 ग्राम हुआ था तब विशेषज्ञों ने सोना खरीदने की सिफारिश की थी जिसे लोगों ने सिरे से नकार दिया था। उनका मानना था कि सोना इतने मंहगें दाम पर टिक ही नहीं पाएगा पर उनकी सोच को धता बता सोना, लगातार और मंहगा होता चला गया। जहां 2007 में यह 9, 200 रुपए प्रति 10 ग्राम था वहीं जनवरी 2008 में दस हजारी होकर 10,700 रुपए प्रति 10 ग्राम बिका और इसके बाद लगातार सोने के भाव बढ़ते ही गए। इतिहास में पहली बार सोने ने 13 हजार, फिर 14 हजार, फिर 15 हजार का आंकड़ा पार कर लिया। हद तो तब हो गई जब 2008 के अक्टूबर-नवंबर आते-आते इसके दाम 17,000 प्रति 10 ग्राम पहुंच गया जो अपने आप में एक रिकार्ड था। तब जाकर लोगों ने माना कि विशेषज्ञों की सोना खरीदने की सलाह देना कोई गफलत नहीं थी। हालांकि 2009 में पूरे साल सोना 15,000 के आसपास रहा पर दीपावली में इसकी कीमतों ने फिर छलांग लगाई और एक बार फिर सारे रिकार्ड तोड़ कर यह 16,000 के आकड़े को पार कर गया।
भारत में सोने और चांदी की इस रिकार्ड तोड़ कीमत का कारण इसके प्रति भारतीयों की दीवानगी है। यह दीवानगी उतनी ही पुरानी है जितनी भारतीय सभ्यता। हमेशा से भारत में सोने और चांदी की मांग अन्य धातुओं की तुलना में ज्यादा रही है। जिसकी आपूर्ति पहले दक्षिण अफ्रीका और आस्ट्रेलिया किया
करते थे पर अब इस लिस्ट में भारत का पड़ोसी देश चीन और पेरू भी शामिल हो गया है। आपको बता दें कि विश्व के परिदृश्य पर एक छोटे से देश के तौर पर पहचाना जाने वाला पेरू 175 टन सोने और 3500 टन चांदी का उत्पादन करता है जबकि सोने और चांदी का इतना बड़ा बाजार होने के बावजूद, भारत आज भी पुराने ढर्रे पर चल रहा है। सोने के चढ़ते भाव का कारण डॉलर के यूरो के सामने दिन पर दिन कमजोर होने को माना जा रहा है। मंदी के दौर में लोगों को सोने में निवेश करना ज्यादा सुरक्षित लग रहा है। जहां एक ओर अन्य किसी भी प्रकार के निवेश को मुद्रास्फीति की दर प्रभावित करती है वहीं सोने की स्थिति, अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में चढ़ते दाम और बढ़ती मांग के चलते कभी डावांडोल नहीं होती है।
किसी भी वस्तु का मूल्य सामान्य तौर पर उसकी मांग और आपूर्ति पर निर्भर करता है। सोने के बढ़ते दाम का एक कारण, मांग की तुलना में आपूर्ति का कम होना है। विश्व स्वर्ण परिषद की माने तो पिछले कुछ सालों में पूरे विशमव में, सोने का खनन 2500 टन के आसपास हुआ है जिममें से 2000 टन का इस्तेमाल गहनों के लिए किया गया और 500 टन दंत उद्योग, खुदरा निवेशकों और मुद्रा कोष में गया। अब मांग पर ध्यान दें। फिलहाल बाजार में सोने की मांग लगभग 3000 टन है, जो 2000 टन की आपूर्ति होने के बावजूद, मौजूदा मांग से 1000 टन कम है। यही कारण है कि सोने के दाम दिन पर दिन आसमान छू रहें हैं। सोने के बढ़ते दामों में केन्द्रिय बैंकों और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की भी महती भूमिका होती है। इसके अलावा डॉलर का यूरो के सामने कमजोर पडऩा भी सोने का भाव बढ़ा रहा है।
भारत में सोना खरीदने का मतलब सोने के गहने खरीदना ही होता है क्योंकि भारतीय महिलाओं को सोने के गहनों में खासी चिहचस्पी होती है। यह एक स्टेटस सिंबल है जो किसी परिवार की सम्पन्नता और समाज में उसकी स्थिति को परिलक्षित करने के तरीके के तौर पर देखा जाता है। इसलिए भारत में सोना, गहनों के रूप में ज्यादा बिकता है। भारत में भले ही सोने को लेकर एक सॉफ्ट कार्नर और अलग सा भाव हो पर विशेषज्ञों की माने तो स्वर्ण में निवेश का सबसे सही तरीका, ठोस स्वर्ण या सिक्के खरीदना है। सोने के सिक्कों को खरीदने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसे बेचते समय किसी भी प्रकार की कटौती नहीं होती। साफ है कि सोने का जो बाजार भाव उस समय होगा, वह बिना किसी काट छांट के निवेशक को मिलेगा।
एक वक्त था जब सोने और डालर की कीमत लगभग समान थी। लोग सोने को डॉलर और डॉलर को आसानी से सोने में बदल सकते थे। बैंक, डॉलर की तरह सोने का भी आदान प्रदान किया करते थे। बाद में यह चलन बंद हो गया पर आज भी सोने और डॉलर का नाता अटूट है। यानी कहीं न कहीं डॉलर और सोने में संबंध अब भी है। तभी तो विश्व बाजार में डॉलर की गिरती कीमतें, सोने और चांदी के भाव बढ़ाने के लिए काफी है।

Saturday, December 19, 2009

आधी आबादी का दिवास्वप्न

कांग्रेस ने जिन लोकलुभावन वादों के साथ 15 वीं लोकसभा में बड़ी सफलता पाई थी उन्हीं में से एक था संसद में महिलाओं को आरक्षण देना। कांग्रेस को चुनाव में मिली सफलता को देख, महिला राजनीतिज्ञों ने फिर से महिला आरक्षण विधेयक के पास होने का सपना देखना शुरू कर दिया था। यह वही सपना था जिसके सच होने का इंतजार महिलाएं 13 वर्षों से कर रही हैं। कांग्रेस ने भी जीत के बाद भरोसा दिलाया था कि महिला आरक्षण विधेयक पर 100 दिनों में कोई अहम फैसला ले लिया जाएगा पर नतीजा आज भी शून्य ही है। संसद में पहली बार 10 फीसदी का आकड़ा पार करने वाली महिलाओं ने महिला आरक्षण विधेयक पारित करवाने का प्रयास तो बहुत किया विपरीत इसके विधेयक, अब भी विचाराधीन ही है।
जब 15 वीं लोकसभा में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी और महिला आरक्षण विधेयक पर मुहर लगाने का समर्थन दल की महिलाओं ने किया तो कांग्रेस को भी लगा कि वह इस विधेयक को पास करवा कर इतिहास रच सकती है। उसे भरोसा था कि कुछ 'छोटे-मोटेÓ निर्णय तो वह आसानी से ले ही सकती है। उसकी इस सोच को और पुख्ता किया इस बार संसद में पहुंचने वाली महिलाओं की संख्या ने। पहली बार महिला सांसदों की संख्या ने 10 फीसदी के आंकडे को पार किया है। इस बार संसद में 52 महिला सांसदों की धमक है, जो अब तक की सर्वाधिक संख्या है। एक ओर जहां कांग्रेस में राणी नराह, तेजस्वनी रमेश, प्रिया दत्त, मीनाक्षी नटराजन, जैसे अनुभवी चेहरे हैं वहीं श्रुति चौधरी, मौसम नूर व ज्योति मिर्धा जैसे युवा चेहरे भी हैं जो कुछ भी कर गुजरने के जज्बे के साथ ससंद में पहुंचे हैं। महिला विधेयक का पुरजोर समर्थन करने वाली भाजपा की सुषमा स्वराज भी संसद में हैं। साथ ही विभिन्न दलों से जयाप्रदा, शताब्दी रॉय, अनु टंडन, किरण महेश्वरी भी अपने क्षेत्रों की दिग्गज मानी जाती हैं। यानी कुल मिलाकर संसद में महिलाओं की संख्या भले ही इस बार बहुत ज्यादा न हो पर इस बार संसद में दखल देने वाली महिलाएं दमदार हैं इसमें कोई शक नहीं है। 15 वीं लोकसभा में इसके पारित होने की संभावना इसलिए भी बढ़ गई थी क्योंकि इसके पारित होने का सीधा और दूरगामी फायदा कांग्रेस को होना लगभग तय है। अगर यह विधेयक पारित हो जाता है, तो लगभग 180 पुरूष सांसदों को अपनी सीटें गवांनी पडेंगी। यानी इसका सीधा सा मतलब होगा कि धर्म और जातिगत आरक्षण जैसे मुद्दों पर राजनीति करने वाले दलों को दूसरे मुद्दे तलाशने होंगे। कांग्रेस चूंकि खुद को धर्म-निरपेक्ष दल के रूप में परिलक्षित करती आयी है अत: उसकी दिली तमन्ना तो यही होगी कि धर्म और जाति के मुद्दे छोटे पड़ जाएं। इससे होगा यह कि अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की स्थिति और भी मजबूत होगी। साथ ही कांग्रेस के बडे नेताओं को अक्सर यह कहते सुना गया है कि सोनिया गांधी महिला आरक्षण को लेकर काफी गंभीर हैं और इसे हर हाल में पास करवाना चाहती हैं क्योंकि वह इसे पारित करवाकर स्वर्गीय राजीव गांधी के सपने को हकीकती जामा पहनाना चाहती थीं। ज्ञात रहे कि स्व. गांधी ने राजनीति में युवाओं की अधिक सा अधिक भागीदारी का सपना देखा था। इसीलिए उन्होंने वोट डालने की उम्र 18 वर्ष करवाई थी। आज कांग्रेस युवाओं को हर दिशा में आगे बढ़ाकर कर स्वर्गीय गांधी के उसी सपने को साकार कर रही है। स्वर्गीय गांधी ने एक और सपना देखा था, अधिक से अधिक महिलाओं को राजनीति में लाने का। पर स्वर्गीय गांधी का यह सपना अब भी सपना ही है।
जीत की खुशी में कांग्रेस ने 100 दिनों में इसपर फैसला करने का दावा कर डाला लेकिन फिर एक बार इतिहास दोहराया गया और इस विधेयक को सदन में प्रस्तुत करने के निर्णय के साथ ही, विरोधी सुर एकजुट हो, फिर से इसे हाशिए पर ले जाने में कामयाब रहे। न तो आरक्षण के विधेयक पर चर्चा हुई और न ही अब कोई इसकी सुध ही ले रहा है। यूपीए सरकार के सौ दिन कब पूरे हुए, किसी को कानों कान खबर न लगी। तीमाही के कामकाज का ब्योरा दे कांगेस ने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। राजनीतिक दलों की चिरस्थायी विशेषता को अपनाकर यूपीए सरकार भी अपने उन वादों को भूल चुकी है। इन्ही वादों में संसद में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का वादा कहीं खो-सा गया।
आज ग्राम पंचायतों में महिलाओं को मिलने वाले आरक्षण का ही परिणाम है कि शहरी महिलाओं की तुलना में आज ग्रामीण महिलाएं ज्यादा मुखर नजर आती हैं। एक सवाल जो हर किसी को परेशान करता है कि जब ग्राम पंचायतों में 33 फीसदी आरक्षण का नियम लागू है तो लोकसभा में क्यों नहीं? जवाब है इसके पास होने के बाद होने वाला नुकसान जो लगभग हर राजनीतिक दल को झेलना पडेगा। अगर यह विधेयक पारित हो जाता है, तो लगभग 180 पुरूष सांसदों को अपनी सीटें गवानी पड़ेगी। यानी इसका सीधा सा मतलब होगा कि धर्म और जातिगत आरक्षण जैसे मुद्दों पर राजनीति करने वाले दलों को दूसरे मुद्दे तलाशने होंगें जो आसान काम नहीं है। इसके पास होने से समाजवादी पार्टी, बसपा, आरजेडी जैसी बड़ी पार्टियों सहित क्षेत्रिय पार्टियों को भी नए मुद्दे तो तलाशने ही होंगे। साथ ही महिलाओं की संख्या बढऩे से उनके का तेवर भी झेलने होंगे।
वैसे तो पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा के शासनकाल में महिला बिल पर सबसे पहले विचार किया गया, पर यह विचार सदन में दबकर ही रह गया। बाद में इसे पुख्ता तौर पर जोर-शोर से उठाया एनडीए के शासनकाल में, भाजपा ने। भाजपा के इस विधेयक पर विपक्षी दलों ने तो असहमति जतायी ही, इसके घटक दलों ने भी सदन में इसका जमकर विरोध किया। वह दिन था और आज का दिन है भाजपा की बोतल से निकले इस 'जिन्न' पर राजनीति तो जमकर हुई पर इन 13 वर्षों के लंबे अंतराल में इस पर आजतक कोई फैसला नहीं हुआ है। हुआ बस इतना कि हर दल अपने हिसाब से इस पर राजनीति करते रहे। किसी ने इस आरक्षण को 33 फीसदी से 10 फीसदी करने की बात कही, तो किसी ने 12 और कुछ दलों ने तो इस आरक्षण में भी 'आरक्षण कोटे' की भी राय दे डाली। और तो और जो पार्टियां डंके की चोट पर इस विधेयक का समर्थन करती थी उनकी पिछले चुनावों के प्रत्याशियों की फेहरिस्त में से महिलाओं के नाम सिरे से गायब रहे। जिनमें भाजपा प्रमुख है।
राजीव गांधी ने युवाओं को आगे बढाने के फंडे को अपनाकर कांग्रेस फिर से सत्ता में आई है। अब बारी है राजीव के दूसरे सपने, महिलाओं को सत्ता में भागीदारी देने को, पूरा करने की। संभावना यही है कि भले ही कुछ समय और लगे पर कांग्रेस यह सुनहरा अवसर अपने हाथों से जाने नहीं देगी। यानी अब वह दिन दूर नहीं जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, भारत में भी महिला सांसदों की संख्या 10 फीसदी का आकड़ा पार करेगी। लेकिन 13 सालों का यह यह लंबा इंतजार कब खत्म होगा, यह कहना अभी भी मुश्किल ही है।

Friday, December 18, 2009

ये तो षुरूआतहै

आज पहला दिन है; केवल टेस्टिंग

नीलम