Monday, December 21, 2009

राजनीति में बहुओं की विरासत

भारतीय राजनीति में बेटियों को पराया मान बहुओं को अपनी राजनैतिक विरासत सौंपने वाले दलों की लंबी फेहरिस्त है। इन बहुओं से उम्मीद की जाती है कि वे भारतीय नारी की पारंपरिक छवि के साथ जनता जर्नादन को लुभाएं। आज के युग में जब आम भारतीय नारी की छवि पुरानी छवि से लगभग अलग है ऐसे में चुनाव प्रचार के दौरान भारतीय बहुओं को इस पारंपरिक छवि में कैद करना कितना सही है? क्यों 21 वीं शताब्दी में भी भारतीय समाज जींस-टीशर्ट पहनने मार्डन बहू को अपनाने से कतराता है खासकर राजनीति में?
पिछले दिनों सौभाग्य से लोगों को फिर एकबार भारतीय बहू का प्रतिनिधित्व करने वाली महिला को देखने का मौका मिला। बड़ी सी बिंदी लगाकर और मांग में ढेर सारा सिंदूर भरकर फिरोजाबाद गलियों में दिखने वाली सुकुमार सी महिला को देखकर कई लोगों ने सोचा कि भारत में अब भी संस्कार जिंदा हैं और हमारी बहुएं इसे संभाले हुए हैं लेकिन फिर भी लोगों को उस बहू की सादगी लुभा न सकी और लोगों ने उसे दरकिनार कर किसी और को चुन लिया। साधारण सी दिखने वाली यह बहू कोई आम बहू न होकर एक राजनीतिक बहू थी जो सर पर पल्ला डाले कभी ससुर के साथ तो कभी पति के साथ गलियों की खाक छान रही थी। इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी, मेनका गांधी, शीला दीक्षित और अमीता सिंह की कामयाबी के बाद इस राह की नई मुसाफिर बनी यह नई बहू जिनपर पति और सपुर की राजनैतिक विरासत संभालने का दारोमदार था। यहां बात हो रही है फिरोजाबाद से चुनाव लडऩे वाली डिंपल यादव की जो पति की खाली की गई सीट को अपनी पार्टी सपा के लिए जीतने का विश्वास लिए मैदान में उतरी थीं पर जनता जनार्दन को डिंपल में वह भरोसा न दिखा जो उन्होंने अखिलेश पर दिखाया था और डिंपल को कांग्रेस के प्रत्याशी राजबब्बर के सामने बड़ी हार का मुंह देखना पड़ा।
भले ही डिंपल अपनी भारतीय बहू की छवि से लोगों को आकर्षित न कर पायी हों पर उनसे पहले ऐसी कई राजनैतिक बहुएं हैं जिन्होंने अपनी इसी छवि के चलते जीत दर्ज की है। इसमें सबसे पहला नाम है भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी का। भले ही इंदिरा को राजनीति पिता से विरासत में मिली हो पर पति फिरोजगांधी की मृत्यु के बाद उनकी सीट रायबरेली से जब खड़ी हुईं तो उनको भी एक भारतीय बहू के तौर पर जनता के बीच जाना पड़ा न कि जवाहरलाल नेहरु की बेटी के तौर पर। चुनाव सभाओं में लोगों को स्व. गांधी का एक अलग रूप देखने को मिला। अपने कटे बालों को सलीके से कॉटन की साड़ी के पल्लू से ढ़ककर, इंदिरा काफी अलग नज़र आ रही थीं। इंदिरा का ज़माना ही ऐसा था जहां भारतीय नारी की एक पारंपरिक छवि थी, जो आदर्शो और संस्कारों में पली बढ़ी थी पर आज के आधुनिक दौर में काफी कुछ बदल चुका है। उनके बाद उनकी बहुओं सोनिया गांधी और मेनका गांधी ने भी उनके पदचिन्हों पर चलकर राजनीति में सफलता प्राप्त की। सोनिया की आज की कामयाबी का कारण ही इंदिरा की छवि को अपनाना है, इससे किसी को कोई इंकार नहीं होगा।
फिरोजबाद उप चुनाव के लिए डिंपल यादव की छवि ने फिर से इंदिरा के जमाने की याद दिला दी। यहां सवाल डिंपल की हार या जीत का नहीं है। सवाल है उनकी बनावटी छवि का जो उन्होंने लोगों के सामने प्रेषित किया है। बनावटी इसलिए क्योंकि आजकल पढ़ी-लिखी आम महिला भी ऐसे नहीं रहती। ऐसा नहीं है कि डिंपल पहली बहू हैं जो अपनी इस बनावटी छवि के साथ लोगों बीच गई हैं। उनके पहले बहुत सी राजनीतिक बहुएं जो पहले भी भारतीय नारी की पारंपरिक छवि को भुना चुकी हैं। करीब एक दशक पहले उत्तरप्रदेश के राजघराने की बहू और कांग्रेसी नेता संजय सिंह की पत्नी अमीता सिंह ने भी अमेठी की बहू को तौर पर अपने पति के लिए वोट मांगा था और संजय की विधानसभा और लोकसभा में जीत की कामयाबी में अमीता का भी बड़ा हाथ था। संजय की जीत और अमीता को अमेठी की बहू के तौर पर मान्यता मिलने से लोग चकित थे क्योंकि उनपर अपने पूर्व पति के हत्या के आरोप थे। अमेठी की जनता अपनी इस बहू की वर्तमान छवि को देखकर उनपर भरोसा जताया था।
वैसे भी अमेठी की जनता अपनी राजनैतिक बहुओं को हमेशा से सर आखों पर बिठाती आयी है। अमीता के बाद जब सोनिया गांधी ने 1999 में सक्रिय राजनीति में आने का फैसला किया और अमेठी से चुनाïव लडऩे का फैसला किया तब भी अमेठी की जनता ने उन्हें सर आंखों पर बिठाया। पीलीभीत और आंवला सीटों से चुनाव जीतने वाली मेनका गांधी को भी जीत अपनी क्षमताओं के लिए कम और गांधी परिवार की बहू होने के नाते ज्यादा मिली। यह सर्वविदित है कि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ऐसे परिवार से आयी थीं जिनका राजनीति में कोई दखल नहीं था। उनकी आज की कामयाबी के पीछे उनके ससुर और कांग्रेस के पूर्व केबिनेट मंत्री उमाशंकर दीक्षित का अहम रोल है। उमाशंकर ने अपनी बहू शीला को अपनी राजनैतिक विरासत सौंपी और शीला ने इसे बखूबी संभाला। एक और बहू है जो राजनीति में अपनी किस्मत आजमा रही है। पर ये किसी राजनैतिक परिवार की बहू न होकर टेलीविजन की बहू हैं। यहां चर्चा स्मृति ईरानी की हो रही है जिन्होंने तुलसी के किरदार के रूप में भारतीय बहू को पुनर्जीवित करने में अहम भूमिका निभाई है। उनकी छवि को भुनाने के लिए भाजपा ने 2000 में उन्हें दिल्ली के चांदनी चौक से टिकट दिया। रील लाइफ की इस बहू को रियल लाइफ में लोगों ने सिरे से नकार दिया। स्मृति अब भी भाजपा की सक्रिय सदस्य हैं और राजनीतिक मसलों पर देर सबेर अपनी राय देती रहती हैं।
स्मृति और डिंपल की भारी हार के बावजूद न तो राजनैतिक बहुओं का सफर रुकेगा और न ही बहुओं की पारंपरिक छवि टूटेगी। इन रानैतिक बहुओं के विषय में तो यही कहा जा सकता है कि इसी बहाने ही सही भारतीय बहुओं की पारंपरिक छवि देर सबेर लोगों की नज़रों के सामने आ जाती है। भले उसका मकसद लोगों की भावनाओं के साथ खेलकर अपना मकसद पूरा करना ही क्यों न हो।

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नीलम