आसमान से आगे.. .. .. जहां और भी हैं चोकिला अय्यर, निरूपमा राव, अरुंधती घोष, सुजाता सिंह, चित्रा नारायण, ये कुछ ऐसे नाम हैं जिनको आम लोग नहीं जानते पर यह वह महिलाएं हैं जो विदेशों में, भारतीय महिलाओं की परंपरागत छवि को, एक नए मुकाम की ओर ले जाने का प्रयास कर रही हैं। पिछले दिनों आई एक खबर ने मन में रोमांच सा भर दिया। खबर थी कि बीएसएफ ने भारत की पहली महिला बाटालियन को सीमा पर तैनात किया है। वही सीमा जिसकी रक्षा जवानों के हाथ हुआ करती थी। अब वहां महिलाएं दुश्मनों से दो-दो हाथ करेंगी। यानी चूडिय़ां पहनने वाली नाजुक कलाइयां अब दोनाली के वार से दुश्मनों के हौसले पस्त करने को तैयार हैं। कुछ ऐसा ही परिवर्तन तब भी हुआ था जब 2001 में चोकिला अय्यर को भारत की पहली विदेश सचिव के तौर नियुक्त किया गया था। भले ही चोकिला की नियुक्ति मात्र एक औपचारिता रही हो पर उनकी नियुक्ति ने भविष्य में, विदेशी नौकरी में आने वाली महिलाओं का मार्ग प्रशस्त करने का काम किया। वैसे तो ज्यादातर कार्यक्षेत्रों में महिलाओं ने काफी पहले ही बाजी मार ली है पर कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जहां अब भी पुरुषों का एकक्षत्र राज माना जाता है। इन्हीं में से एक है फॉरेन सर्विसेज, जहां कुछ समय पहले तक महिलाओं की घुसपैठ कम थी लेकिन अब इस क्षेत्र मेें भी महिलाएं खुद को साबित कर रही हैं। पिछले चार सालों में भारतीय महिलाओं ने फॉरेन सर्विसेज में कामयाबी पाकर, पुरुषों के सबसे मजबूत माने जाने वाले गढ़ में सेंध मारी है। पिछले चार सालों में यानी वर्ष 2005 से 2008 के दौरान इस क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। इस दौरान चुने गए विदेशी सेवा अधिकारियों की संख्या पर गौर करें तो 84 पदों में से 24 पदों पर महिलाओं ने कामयाबी पाई है जो लगभग 29 प्रतिशत है। वहीं 2008 में 25 में 8 पद महिलाओं के हिस्से में आएं हैं जो 32 प्रतिशत है। यानी तेजी से महिलााएं फॉरेन सर्विसेज में भी अपने पर फैला रही हैं। विदेशी सेवा में महिलाओं को मिली कामयाबी आसान नहीं थी। वैसे भी भारत ही नहीं बल्कि विश्व के ज्यादातर देशों में महिलाओं को पुरूषों के मुकाबले कमतर ही माना जाता है। एक वक्त था जब भारत में विदेशी सेवा में जाने के लिए महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग प्रावधान थे। नियमानुसार महिलाओं को शादी करने से पूर्व इस नौकरी को अलविदा कहना पड़ता था साथ ही उन्हें पुरुषों के मुकाबले वेतन भी कम मिलता था। इस नियम को चुनौती दी 1979 में सीबी मुथम्मा ने। उन्होंने फॉरेन सर्विसेज में महिलाओं के साथ किए जा रहे इस लैंगिक भेदभाव के सरकारी फरमान को को खत्म करने की अपील सुप्रीम कोर्ट में की। कोर्ट ने भी उनके ऐतराज को सही माना और महिलाओं के साथ कि ए जा रहे इस भेदभावपूर्ण नियम को खत्म कर दिया। इसके बाद भी महिलाओं को फॉरेन सर्विसेज में आज मिली कामयाबी के लिए काफी इंतजार करना पड़ा और समाज व परिवार से बगावत करनी पड़ी। भारत में माता पिता अपनी बेटियों के लिए नौकरी का मतलब टीचर या प्रोफेसर बनना ही मानते थे। बहुत ज्यादा प्रोगेसिव परिवार हुआ तो बेटी को इंजीनियर या डाक्टर बनते देखना चाहता था। इसके पीछे एकमात्र मंशा यही हुआ करती थी कि लड़कियां अपने पैरों पर खड़ी तो हो जाएं पर नौकरी के साथ ही अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियां भी आसानी से निभा सकें। वैसे अब से 30 साल पहले महिलाएं खुद भी साफ्ट पोस्टिंग चाहती थी ताकि उन्हें ज्यादा काम न करना पड़े। उनकी यह मानसिकता पिछले 15-20 सालों में बदली है। ऐसे में नौकरी के लिए विदेश जाने के नाम पर महिलाओं को कितने मोर्चों पर जूझना पड़ा होगा, सोचा जा सकता है। खैर जो बीत गयी, वह बात गई। आज महिलाएं हर वो उंचाई छूने की ख्वाहिश रखती हैं जो कभी उनकी पहुंच से बाहर थी। नित नवीन करियर की राहें तलाशने वाली आज की नारी के लिए फॉरेन सर्विसेज एक आकर्षक और चुनौतीभरा करियर है। जहां उन्हें कई नई उंचााइयांं छूने का मौका मिलता है। यही कारण है कि आज अधिक से अधिक संख्या में महिलाएं फॉरेन सर्विसेज की ओर रुख कर रही हैं। आज आलम यह है कि अरब देशों में, जहां पश्चिमी देश भी महिलाओं को भेजने से कतराते हैं, भारतीय महिलाएं पूरी दबंगता से कार्य कर रही हैं। लेबनान में भारतीय राजदूत, नेनगछा लाह्युम ने अपनी बालकनी में बम फटते देखा था लेकिन तब भी उन्होंने एकबार भी यह नहीं कहा कि उन्हें कहीं और पोङ्क्षस्टग दे दी जाए। दीपा गोपालन वाधवा कतर में काम कर रही हैं। एक ऐसा देश जहां महिलाओं को, ऊंचे ओहदे पर आसानी से स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रत्यक्ष न सही, अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही, दीपा इस देश की महिलाओं को प्रेरित करने का काम कर रही हैं। घाना की भारतीय उच्चायुक्त रुचि घनश्याम पहली महिला थी जिन्हें इस्लामाबाद में नियुक्त किया क्या था वह भी तब, जब महिला अधिकारी की स्थिति शो पीस से ज्यादा नहीं थी। रुचि, घाना से पहले नेपाल और न्यूयार्क में भी अपनी सेवाएं दे चुकी हैं। इसी तरह मीरा शंकर जर्मनी में कार्य कर रही हैं। उन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ के अगले स्थायी भारतीय सदस्त के रूप में देखा जा रहा है। चीन में निरुपमा राव इस प्रयास में हैं कि एशिया के ये दो बड़े देश भारत और चीन कैसे अपने तनाव को कम करके एकसाथ, एकमंच पर आ सकें ताकि एशिया, विश्व के सामने अपनी मजबूत दावेदारी सिद्ध कर सके। इसी तरह लीबिया में मणिमेखलई मुरुगेसन, आस्ट्रेलिया में सुजाता सिंह, न्यूयार्क में नीलम देव, शंघाई में रीवा गांगुली आदि भारतीय दूतावासों में नियुक्त हैं। इन महिलाओं ने उस सोच को बदलने का काम किया है जिसके चलते उन्हें मात्र सजी धजी गुडिय़ा के रूप में देखा जाता। अपने कड़े फैसलों और कार्य करने के जज्बे के चलते आज उन्हें दुनिया के ऐसे देशों में भी नियुक्त करने में किसी को कोई ऐतराज नहीं होता जो महिलाओं के लिहाज से सुरक्षित नहीं माने जाते हैं। आज भारतीय महिलाएं विदेशों में भी पूरी तरह कामयाब हैं। फिर चाहे वह शांत मुल्क न्यूयार्क, आस्ट्रेलिया या स्वीटजरलैंड हो या नित नए खतरों से जूझता लीबिया, कतर या लेबनान ही क्यों न हो। कमजोर मानी जाने वाली नारी का यह नया अवतार, नि:संदेह आने वाली पीढि़ का पथप्रदर्शक बनेगा।
Friday, December 25, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
0 Comments:
Post a Comment