Saturday, October 9, 2010
विकास पर जाति-परिवार का छौंका
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Labels: बिहार विधानसभा चुनाव
Tuesday, October 5, 2010
गड्डी विच हिंड्रेस
राजधानी बनने के अपने स्थापना काल से लेकर आज तक दिल्ली की विकास के कई मसौदे बने लेकिन आज तक वह मुकम्मल मुकाम हासिल नहीं हो सका, जिसका इंतजार दिल्लीवासियों को है। विकास के लिए प्रसिद्घ शहर नियोजनकत्र्ता एडवर्ड लुटियन्स व हर्बट बेकर के योजना के बाद तीन मास्टर प्लान दिल्ली देख चुकी है, मगर मास्टर प्लाज-2021 के आगाज को देखकर इसके अंजाम को लेकर सवाल उठने लगे हैं। कुछ साल पूर्व तक दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमति शीला दीक्षित इसे पेरिस सरीखा वल्र्ड क्लास सिटी बनाने की बात करती थीं लेकिन बीते दिनों उनके हवाले से कहा गया कि दिल्ली को दिल्ली ही रहने दें! मुख्यमंत्री का यह बयान काफी कुछ बयां कर जाता है। इसके प्रमुख कारणों में आमतौर पर राजधानी में बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या और सरकारी योजनाओं की खामियों को गिनाया जाता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय दिल्ली की जनसंख्या जहां 7 लाख के करीब थीं, वहीं आज यह डेढ़ करोड़ के करीब पहुंच चुकी है। दिल्ली के विकास के लिए एक के बाद एक तीन मास्टर प्लान आ गये। पहले मास्टर प्लान 1962, फिर 2001 और अब मास्टर प्लान 2021। पहला प्लान वर्ष 1981 तक की जरूरतों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया। उसके बाद वर्ष 2001 तक के विकास के मद्देनजर योजनाएं बनीं और नया मास्टर प्लान भी अगले 20 वर्षों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया। बावजूद इसके, शहर अपनी विकासात्मक लय को प्राप्त नहीं कर पाया। शहर योजनाकारों की बात पर गौर फरमाया जाए तो उनका कहना है कि राजनीतिक दखल की वजह से तकनीकी विशेषज्ञता मात खा रही है। दिल्ली में बसी अनधिकृत कालोनियों ने तमाम योजनओं पर पानी फेर दिया। बढ़ती आबादी के कारण ही विगत की दो योजनाओं विफल हुईं। देश की आजादी के बाद यहां बड़े पैमाने पर प्रवासी आ गए और 1947 के 7 लाख से बढ़कर 1951 में जनसंख्या 17 लाख हो गईं। उसके बाद यह क्रम आगे बढ़ता ही गया। इस संबंध में केंद्रीय शहरी विकास राज्य मंत्री और दिल्ली की कांग्रेसी राजनीति में खासा दखल रखने वाले अजय माकन कहते हैं कि एक लोकतांत्रिक सरकार न तो अवैध कालोनियों में बसे 40 लाख लोगों को बेघर कर सकती है न ही लाखों व्यापारियों के जीविकोपार्जन का सहारा छीन सकती है। इसके अलावा, सरकार दूसरे प्रदेशों से यहां आने वाले पर रोक भी नहीं लगा सकती। लिहाजा, उचित यही है कि जो लोग यहां हैं या आ रहे हैं, उनकी संख्या का सही आकलन कर इन्हें बेहतर सुविधाएं दी जाएं। दिल्ली की विकास के मुतल्लिक जब बात होती है तो कहा जाता है कि पहले मास्टर प्लान में लचीलेपन का अभाव था। खासकर भूमि उपयोग के मामले में। लेकिन आबादी की बाढ़ के आगे कानूनी प्रावधान धरे के धरे रह गये। यही वजह रही कि जब दूसरा मास्टर प्लान आया तो उसमें भूमि उपयोग की छूट दी गई। लेकिन बात उससे बनी नहीं। कानून को ताक पर रखकर मनमर्जी जगहों पर दुकानें खुलती रहीं। यही वजह रही कि अंतिम मास्टर प्लान-2021 आने से पहले शहर में बड़े पैमाने पर तोडफ़ोड़ भी हुई और सीलिंग की कार्रवाई आज भी जारी है। इसकी सफलता की गारंटी की बात करते हुए सरकारी नुमांइदें कहते हैं कि यह मास्टर प्लान केवल नौकरशाहों व विशेषज्ञों द्वारा नहीं बनाया गया। इसको तैयार करते समय समाज के हर तबके की राय ली गई, यहां तक कि दिल्ली विधानसभा में भी इस पर चर्चा हुई। इसे राजधानी की जमीनी हकीकतों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। हाल ही में दिल्ली सरकार ने बीआरटी कॉरिडोर का निर्माण करके परिवहन व्यवस्था दुरूस्त करने की पहल की थी, लेकिन यह पहल पहले ही चरण में चरमरा गई और सरकार के मुख्य सचिव ने स्वयं स्वीकार किया कि कॉरिडोर के निर्माण में कुछ खामियां रहीं। सरकार की मंशा थी कि सार्वजनिक परिवहन सेवा को दुरूस्त किया जाए, सड़क यात्रा सुगम हो, लेकिन मंशा के ठीक उलट बीआरटी कॉरिडोर बनने के बाद घंटे भर की यात्रा करने में लोगों को तीन-चार घंटे तक गंवाने पड़े। पानी और बिजली जैसी मूलभूत चीजों के मामलें में राज्य सरकार को दूसरे प्रदेशों के रहमोकरम पर रहना होता है। भूमि दिल्ली सरकार के पास है नहीं और न ही वह कोई आवास का निर्माण कर सकती है। इस कार्य के लिए इसे दिल्ली विकास प्राधिकरण पर निर्भर होना पड़ता है। अव्व्ल तो यह है कि दिल्ली विकास प्राधिकरण पर सदा से ही यह आरोप लगता है कि उसने रिहाइश व व्यावसायिक , दोनों की इस्तेमाल के लिए पर्याप्त इंतजाम नहीं किये। यही वजह रही कि अवैध कॉलोनियों का विकास हुआ और रिहाइशी इलाकों में बड़ी तादाद में दुकानें भी खुल गईं। बहरहाल, इसमें दो राय नहीं है कि नियोजनकर्ताओं ने गत दोनों मास्टर प्लान से सबक लेते हुए नये मास्टर का प्रारूप तैयार किया। मिश्रित भूमि उपयोग को इजाजत दी गईं, आवास, बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि के मामलों में वास्तविक बातें भरसक की गईं। मगर, शहर की दिन दूनी- रात चौगुनी की दर से बढ़ती आबादी और अपेक्षाकृत सरकारी सुविधाओं की कमी को देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि यह मास्टर प्लान भी राजधानी की जरूरतों को पूरा कर पाने में सफल हो पाएगा। दिल्ली के विकास की गड्डी उबड़-खाबड़ सड़कों पर फिलहाल हिचकोंले खा रही हैं और इंतजार कर रही है सपाट और सुंदर सड़क का...। हालांकि, सरकार की ओर से व्यापक तौर संशोधनों का प्रावधान कर यह व्यवस्था जरूर कर दी गई है कि समय के साथ इसे नये संाचे में ढ़ाला जा सके। केंद्रीय शहरी विकास राज्य मंत्री अजय माकन का कहना है कि 'मास्टर प्लान 2021 में आवास, बिजली,ा पानी, परिवहन आदि मूलभूत सुविधाओं का पूरा ख्याल रखा गया है। मैं यह विश्वास करता हूं कि नया मास्टर प्लान दिल्ली की अपेक्षाओं पर खरा उतरेगा।Ó कहा जा रहा है कि दिल्ली का यह तीसरा और शायद अंतिम मास्टर प्लान हो, वर्ष 2021 के बाद दिल्ली में इतनी जमीन नहीं बचेगी, जिससे शहरीकरण की योजना बनाई जाए। इस प्लान के अनुसार वर्ष 2021 तक दिल्ली की आबादी 2 करोड़ 30 लाख तक पहुंच जाए।
Posted by सुभाष चन्द्र at 8:14 AM 0 comments
Labels: दिल्ली का विकास
Monday, October 4, 2010
सदी का पहला दशक और हिन्दी सिनेमा
पिछला दशक भारतीय सिनेमा की किस्मत में भी परिवर्तन लेकर आया। फिल्म की तकनीक से कथा वस्तु, संवाद, गीत-संगीत सबकुछ बदल गया है। या यूं कह लें कि स्तरीय हो गया है। आज भारतीय सिनेमा विश्वपटल पर अपनी एक अलग पहचान रखता है जिसका श्रेय नयी पीढ़ी के फिल्मकारों के साथ आज की युवा पीढ़ी को भी जाता है जो फिल्मों को नए विषयों और सच के साथ स्वीकारने का दमखम रखती है। प्रस्तुत है 20वीं सदी के पहले दशक में सिनेमा के बदलते स्वरूप पर लेख- कुछ साल पहले तक भारतीय सिनेमा में हीरो हीरोइन का रोमांस, मारधाड़ और बदला लेने वाले विषय को ही अलग-अलग रूपों में चरित्रार्थ करके दिखाने का चलन था। कहा जा सकता है कि भारतीय सिनेमा एक ही शैली में ढला हुआ था। इस परंपरा को तोड़ा साल 2000 के बाद आने वाले ऐसे फिल्म निर्माताओं ने जिनके आगमन से भारतीय सिनेमा को एक नयी उड़ान भरने का मौका मिला साथ ही उनके प्रयासों ने आज भारतीय सिनेमा को विश्व-पटल पर ला खड़ा किया है। अंग्रेजी में एक कहावत है चेंज इज द ओनली कांस्टेंट यानि परिवर्तन संसार का नियम है। जब राजनीति में बाबा रामदेव जैसे योग गुरू का पदार्पण हो सकता है, स्वास्थ्य जगत में अचानक होमियोपैथी व आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को बढ़ावा देने की सरकारी मुहीम चलाई जा सकती है तो भला फिल्मों में होने वाले परिवर्तन को कैसे रोका जा सकता है। आज के सिनेमा की प्रासंगिकता का सही आंकलन करने के लिए हिंदुस्तानी सिनेमा के इस सदी के पहले के बीते दो दशकों का जिक्र करना लाजमी हो जाता है। इन दो दशकों पर गौर करने से ही पता चलेगा कि आज हमारा सिनेमा बहुत कुछ बदल चुका है और बहुत कुछ बदल भी रहा है। 80 के दशक के आखरी में सड़कों पर मवालियों की तरह नाचने वाले गोविंदा और मिथुन की फिल्मों से लेकर 90 के दशक की लिजलिजी प्रेम कहानियों, बेतुके संवादों और हिंसा से भरी फूहड़ फिल्मों को आज हम बहुत पीछे छोड़ आए है। उस दौर को याद कीजिए जब अक्सर फिल्मों में एक खास तरह के डायलॉग सुनने को मिलते थे। कुत्ते मैं तेरा ख़ून पी जा जाऊंगा, मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं, ये तो भगवान की देन है या फिर किसी रेप सीन से पहले बोला जाने वाला मशहूर डायलॉग भगवान के लिए मुझे छोड़ दो। आज इन डायलॉग की जगह कॉमेडी में ही रह गई हैं। आज इन्हें सुन कर सिर्फ हंसी आती है। मरते दम तक, जवाब हम देंगे, हमसे न टकराना और आतंक ही आतंक ऐसी न जाने कितनी फूहड़ फिल्में उस दौर में आई थी। एक्शन सीन में हीरो का उल्टे जंप मारना, मशीन गन की हजारों गोलियां खाली हो जाना लेकिन हीरो को एक भी गोली न लगना और न जाने कैसे-कैसे झेलाऊ सीन देखने पड़ते थे। उस पर बीच बीच में जबरन ठूंसे गए सड़क छाप गाने जिनकी धुनें वेस्टर्न म्यूजिक से सीधे उठा ली जाती थी। 1985 से लेकर 1990 के बीच हिंदी फिल्मकारों ने क्या बनाया यह सोचकर भी शर्म आती है। कहा जा सकता है कि वह फिल्में कूड़े से ज़्यादा कुछ नहीं थीं। इसी तरह 90 के बाद की फिल्में बिना सिर पैर के ही थीं। हर दूसरी फिल्म में कॉलेज के लड़कोंं की आवागर्दी के बीच, अमीर और गरीब लड़का-लड़की की प्रेम कहानी होती थी। निहायत ही वाहियात और पकाऊ फिल्मों का था वो दौर। इसी बीच कुछ फिल्मकारों ने फिल्म के नाम पर शादी के वीडियों तक बना डाले जो हिट भी ख़ूब रहे। किसी फिल्म में हीरो हैलिकॉप्टर अपने घर के सामने लैंड कराए और दीवाली मनाने आए तो ऐसी फिल्में आम लोगों से भला कैस जुड़ी होगी। पिछले एक दशक में अजीबो गरीब फिल्में धीरे धीरे गुम होती चली गई और नजर आई भी तो दर्शकों ने ऐसी फिल्मों को और बनाने वालों को नजरअंदाज कर दिया। और फिर आई नई सुबह, एक नए शताब्दी के साथ जब हम नयी दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की कोशिश करने लगे। आज के दौर में भारत बाहरी दुनिया और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया से प्रभावित है तभी तो हमारे फिल्मकार भारत में फिल्म रिलीज करने से पहले विदेश में उसकी जमीन तलाशते हैं। इस नयी प्रतियोगिता के दौर में हमारी फिल्में नयी कहानियों की तलाश में लग गयी हैं और इसी प्रतियोगिता का परिणाम यह है कि अब समाज के हर वर्ग के लिए और हर विषय पर फिल्में बन रही है। आज हिन्दी सिनेमा अन्तर्राष्ट्रीय फिल्मों से टक्कर ले रहा है। इस बदलती सोच का सारा श्रेय सिर्फ निर्माता या निर्देशकों को देना उचित नहीं होगा। इस बदलते परिवेश की जिम्मेदारी काफी हद तक आज के युवा वर्ग को भी जाती है। पहले फिल्मों में जहां आलीशान बंगले और बड़ी बड़ी गाडिय़ां हुआ करती थी वहीं आज कि फिल्में तंग गलियों में सिसकती जिन्दगी की सच्चाई से दर्शकों को रु-ब-रु करवा रही हैं। आज का दर्शक मायाजाल से निकल कर तंग गलियों के सफर का भी खुले दिल से स्वागत करता है। तारे जमी पर, आमीर, 3 इडिअट्स, कुर्बान, थैंक्यू मां जैसी फिल्में बदलती सोच और समाज का सन्देश देती हैं। खासकर पिछले कुछ सालों मे हिंदी सिनेमा काफी बदल गया है। कहानी प्रधान फिल्मों जैसे न्यूयार्क, ओंमकारा, जब वी मेट आदि ने हमारी फिल्म नगरी का पूरा ढांचा बदल दिया है। नयी पीढ़ी के फिल्मकार विशाल भारद्वाज, अनुराग बासु, जोया अख्तर, अनुराग कश्यप, राज कुमार हिरानी, करण जौहर सहित आमीर खान, मणिरत्नम, प्रकाश झा, रामगोपाल वर्मा इत्यादि हमें अच्छी और अनोखी कहानियों वाली फिल्में दें रहे हैं। एक और परंपरा है जो टूटी है और वह है आजकल पकी पकाई फिल्मी जोडिय़ों को लेकर फिल्में बनाने की जगह नयी जोडिय़ों को लिया जा रहा है और दर्शक इन्हें स्वीकार भी रहे हैं। अतिथि तुम कब जाओगे में अजय देवगन और कोंकना सेन शर्मा या इश्किया में विद्या बालन और अरशद वारसी की जोड़ी इस परिक्षण का जीता जगता उदाहरण है। मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता और घिसी पिटी कहानियो का दौर भी अब लगभग अपनी आखिरी सांसे ले रहा है। हालांकि अभी भी अधिकतर फिल्म निर्माता निर्देशक रंगीनियत के चश्मे से चीजों को देखने के लालच को तिलांजलि नहीं दे पाए हैं लेकिन निर्माता-निर्देशकों की एक नयी पौध सिग्नल पर रहने वाले उन भिखमंगों या फिर दो पहिये की गाड़ी से चार पहिये की गाड़ी तक जिन्दगी को धकेलने कि कोशिश करनेवाली मध्यम वर्गीय परिवार की कहानी को भी बेखौफ परोसने कि हिम्मत कर रहे हैं। प्यार की कसमें खा-खाकर अपनी जान तक देने वाले आशिकों की फिल्मों से हटके वर्तमान फिल्में हसीन वादों और सपनों से भी आगे जमीनी हकीकत से रू-ब-रू कराती हैं, जहां जिंदगी इतनी आसान नहीं होती। यही कारण है कि दिलवाले दुल्हिनियां ले जाएंगे व कभी खुशी कभी गम जैसा फिल्में बनाने वाले धर्मा प्रोडक्शन ने भी कुर्बान जैसी प्रयोगात्मक फिल्म बनाने का फैसला किया। लगान, सरकार, फना, रंग दे बसंती, तारे जमीं पर, आमीर, ए वेडनेस डे, फैशन, मिशन इस्तांबुल, कुर्बान, कमीने, अतिथि तुम कब जाओगे, इश्किया, राजनीति, रावण, रेड अलर्ट, लम्हा सहित आने वाली फिल्में नो वन किल्ड जेसिका, डेज इन पेरिस, गुलेल, जिंदगी मिलेगी ना दोबारा जैसी फिल्मों ने भारतीय सिनेमा का पूरा ढांचा ही बदलकर रख दिया। अब वह बीते दौर की बातें हो गई हैं जब हमारे देश में फिल्म निर्माण के क्षेत्र के लिए भी मापदंडों की रचना कर ली गई थी। विषय कैसा भी हो दरिद्रता नहीं दिखनी चाहिए, घर में खाने को न हो किन्तु पात्रों में, विशेषकर परिधानों, आवासों व अन्य स्थानों पर अभाव नहीं दिखाया जाता था। आज भारतीय दर्शक न सिर्फ सच देखना जानता है बल्कि उसे स्वीकारने की क्षमता रखता है। यही कारण है कि आज की फिल्मों में तकनीक से लेकर विषयवस्तु तक और कहानी से पात्र तक सभी आम लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
Posted by नीलम at 6:14 PM 0 comments
Labels: सदी की फ़िल्में हिंदी फिल्म