Sunday, February 28, 2010

ये है बरसाना की होली.... कही देखी है ऐसी

Saturday, February 27, 2010

अमर की हुई जया

जब से समाजवादी पार्टी ने अमर सिंह को पार्टी से निकाला है, वह अपने मित्राणी जया प्रदा के साथ कभी गुपचुप तो कभी खुलेआम नजर आते हैं। होलियाड सूत्रों ने जानकारी दी है कि जया अमर की हो गई है। हालांकि यह नहीं कहा जा रहा है कि यह स्थायी है अथवा होली के लिए।
हालचाल जानने के लिए जब होलियाड संवाददाता ने उनके घर का रूख किया तो पता चला कि अब इनदिनों आँगन में होली का धूम मचा था लेकिन अमर भाई की लुगाई ओसारे पर से गुम-सुम देख रही थी। लोग सब उनके तरफ इशारा कर के गाए, 'जियरा उदास भौजी सोचन लागी ! आँगन टिकुली हेराय हो..... जियरा.... !!Ó हमको लगा कि भौजी इहो गीत पर आयेगी अंगना में। लेकिन ई का...... भौजी तो नहिए आयी, ऊ का इशारा पाय के अमर भाई अन्दर चले गए। हमलोग समझे कि अच्छा कौनो बात नहीं। भौजी का पहिल-पहिल होली है, सो सरमा रही हैं। कुछ ऐसा ही हाल है इस बार जयप्रदा का। सपा में कितना देवर था, लेकिन अबकी बार अमर सिंह का ही साथ रहा। मुलायम, आजम सरीखें तो बाहर हैं। न कोई मेल, न कोई एसएमएस...एगो गीत पास हुआ। दू गो हुआ। फिर जोगीरा सा...रा....रा....रा....रा.... !! लेकिन न भाई आये ना भौजी। हमलोग सोचे कि का बात है? तभी अन्दर से टेप-रेकट पर फिलमी होली बजे का आवाज़ आया....... 'चाभे गोरी का यार बालम तरसे.... रंग बरसे....!Ó अब तो लोग यही बात पर कहते हैं, 'देखो रे बाबू नया जमाना के ..... ! इसी को कहते हैं 'घर भर देवर, पति से ठ_ा !!Ó
इससे पहले तो कल तक जो पार्टी के हरेक निर्णय के सूत्रधार होते थे, उन्हें अब कोई पहचानता तक नहीं। लेकिन राजनीतिक जुगाड़बाजी के महारथी अमर सिंह को लेकर दूसरे राजनीतिक दलों ने अपने पत्ते खुले रख छोड़े हैं। सियासी हलकों में ऐसी खबरें आ रही हैं कि शरद पवार की राकांपा की ओर उनका झुकाव बढ़ा है। वहीं, भाजपा और बसपा के मित्रों ने भी संपर्क साधा। लेकिन, अमर सिंह ने किसी और के घर में जाने के बजाय अपना ही नया ठौर बना लिया, 'लोकमंचÓ के नाम से। अपने विश्वासी विधायकों और सांसद जयाप्रदा के माध्यम से सपा पर लगातार दबाव की राजनीति भी कर रहे थे। इसके दूसरे पहलू की बात करें तो यह भी विचार करना होगा कि जब अमर सिंह स्वयं कह रहे हैं कि वे 'फिटÓ नहीं हैं, तब अविश्वास का कोई कारण नहीं। हां, यह जरूर पूछा जाएगा कि वे किस रूप में फिट नहीं हैं। शारीरिक, मानसिक, राजनीतिक, व्यावसायिक या फिर समाजवादी पार्टी व मुलायम यादव के आस-पास रोज पैदा हो रहे नए समीकरण में 'विसर्गÓ। सभी जानते हैं कि अमर सिंह राजनीति से अधिक अपने व्यावसायिक हित को ज्यादा तरजीह देते रहे हैं। दूसरे शब्दों में वे राजनीति करते हैं, अपना व्यावसायिक हित साधने के लिए। सन् 2006 के उन दिनों को याद करें जब अमर सिंह की एक सीडी को लेकर पूरे देश में हंगामा बरपा था। भारतीय राजनीति, पत्रकारिता, सामाजिक सरोकार, उद्योग, न्यायिक प्रणाली पर उस सीडी में की गई टिप्पणियों में वर्तमान सरोकारों का एक अकल्पनीय खाका खींचा गया है। मूल्य, आदर्श, सिद्धांत, ईमानदारी, प्रतिबद्धता, समर्पण आदि उक्त सीडी की बातचीत में नग्न और सिर्फ नग्न किए गए थे। अमर सिंह की बातचीत चाहे मुलायम यादव से हो या फिर उद्योगपति अनिल अंबानी, बिपाशा बसु, जयाप्रदा, पत्रकार प्रभु चावला सहित कोलकाता के व्यवसायी और कुछ अन्य लोगों के साथ हो, सभी में देश के विभिन्न क्षेत्रों में भ्रष्टाचार और दलाली की बेशर्म मौजूदगी थी। गनीमत है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर उस सीडी का प्रसार रोक दिया गया, अन्यथा वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था से पूरे देश का विश्वास उठ जाता। सभी जानते हैं कि मुलायम व समाजवादी आंदोलन पर ग्रहण लगा तो अमर के कारण।
हम भी लगले दुहरा दिए, "घर भर देवर, पति से ठ_ा !" फिर पूछे, "लेकिन काकी ! ई कहावत का अरथ का होता है ? काकी देहाती भाषा में जो ई का अरथ कहिन उ आपके समझ में आयेगा कि नहि सो पता नहीं। मगर हम अपने तरफ से समझाने का कोशिश करते हैं। "घर भर देवर, पति से ठ_ा" का मतलब हुआ, 'हंसुआ का ब्याह में खुरपी का गीत'। अवसर है कुछ का और कर रहे हैं कुछ। दूसरा, गाँव घर में आज भी रिश्तों में काफी अनुशासन बरता जाता है। वहाँ पर हर रिश्ते के लिए अलग-अलग भाव, स्नेह, प्रेम और सम्मान है। हंसी मजाक का रिश्ता है देवर से। मान लिया कि कहीं देवर नहीं रहे तो कोई बात नहीं। जब देवर की प्रचुरता है, तब कोई पति से ही ठ_ा मतलब मजाक करे तो कहाबत सही ही है, "घर भर देवर, पति से ठ_ा !"
अब इसका भावार्थ ये हुआ कि 'उचित संसाधन की उपलब्धता के बावजूद जब कोई व्यक्ति, वस्तु या संबंधों का दुरूपयोग करे तो काकी की कहावत याद रहे, "घर भर देवर, पति से ठ_ा !" तो यही था आज का देसिल बयना........ पसंद आया तो दे ढोलक पर ताल....... और बोल, जोगीरा सा....रा.....रा.....रा.....रा............ !!!!
ये है होली स्पेशल

Friday, February 26, 2010

होली आयो रे......

होली आने में अभी चार दिन बाकी हैं, लेकिन पलवल और मथुरा की ओर से आने वाली लोकल ट्रेनों में होली का रंगीन और खुशनुमा एहसास कई दिनों से बिखरा हुआ है। घरों से डयूटी पर जाने के लिए निकले लोग होली के गीतों पर ठुमकते दिखाई देते हैं।इन ट्रेनों के जरिए रोजाना हजारों लोग मथुरा-वृंदावन, कोसी, पलवल, बल्लभगढ़ और फरीदाबाद से ड्यूटी करने के लिए दिल्ली आते हैं। लोकल ट्रेनों में चलने वाली कीर्तन मंडलियां इन दिनों ब्रज के लोकगीत ’रसिया’ के जरिए यात्रियों को होली के आनंद से सराबोर करने में लगी हैं। घर और नौकरी की आपाधापी में व्यस्त लोग इस समय का सही सदुपयोग कर रहे हैं और कीर्तन मंडलियों के सुर में सुर मिलाकर गाते हैं या कुछ ज्यादा जोशीले लोग तो नाचने भी लगते हैं।किसी डिब्बे में ’आज बिरज में होरी रे रसिया’ गूंजता नजर आता है तो किसी डिब्बे में ’आ जइयो श्याम बरसाने में...बुला गई राधा प्यारी’ जैसे रसिया की गूंज सुनाई पड़ती है।हरि संकीर्तन मंडली के राघवेंद्र का कहना है कि वैसे तो उनकी मंडली ट्रेन में रोजाना सुबह शाम भजन गायन कर लोगों को अध्यात्म का ज्ञान कराती है लेकिन होली के नजदीक आ जाने से अब होली के ’रसियाओं’ की ही धूम है। उन्होंने कहा कि उनकी मंडली का प्रमुख रसिया गीत ’होरी खेली बंसी वारे नै अब घर कैसे जाऊ’ है।’प्रभु कीर्तन’ मंडली के राजीव कुमार कहते हैं कि उनकी टोली के लोक गायक जब ’आज है रही बिरज में होली ’ गाते हैं तो उस समय बहुत से यात्री सभी तरह के तनाव को भूलकर ट्रेन के डिब्बे में ही नाच उठते हैं।कुमार ने कहा कि होली के एहसास को और जीवंत बनाने के लिए गीत के दौरान यात्रियों पर पिचकारी से पानी की फुहार भी छोड़ी जाती है जिसका कोई भी बुरा नहीं मानता।ट्रेनों में चलने वाली इन कीर्तन मंडलियों में शामिल ज्यादातर लोग दिल्ली में नौकरी करते हैं। इनमें से कोई मथुरा-वृंदावन से आता है तो कोई पलवल, बल्लभगढ़ या फरीदाबाद से। ये लोग ढोल-मंजीरा भी अपने साथ रखते हैं।इनका कहना है कि सुबह ड्यूटी के लिए घर से जल्दी निकलना होता है और रात को वे देर से घर पहुंचते हैं, इसलिए उन्हें भगवान का ध्यान करने के लिए घर में बिल्कुल वक्त नहीं मिल पाता। इसलिए वे ट्रेन के डिब्बे में ही कीर्तन के जरिए भगवान का ध्यान कर लेते हैं।श्याम कीर्तन मंडली के रवि कुमार ने कहा कि आजकल होली का माहौल है इसलिए वे ब्रज के रसियाओं का गान ही प्रमुखता से कर रहे हैं जिनमें राधा और कृष्ण के प्रेम के साथ-साथ ब्रज मंडल की होली का जिक्र होता है।उन्होंने कहा ’काली दह पै खेलन आयौ री...’ और ’होरी रे रसिया बर जोरी रे रसिया’ जैसे गीत ब्रज की माटी के प्रमुख लोकगीत हैं जो होली की छटा में अद्भुत रंग बिखेरने का काम करते हैं।
फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला होली का त्योहार सभी को प्रेम के रंग से सराबोर कर देता है। यह दिन सभी को रंग-बिरंगे माहौल में झूमने, गाने और इठलाने को विवश कर देता है। यह त्योहार पूरे भारतवर्ष में मनाया जाता है। सभी जगह अलग-अलग नाम व मान्यताओं के साथ खेला जाता है। परंतु इसमें एक समानता रहती है कि यह पूरे देश की धरती को रंग-बिरंगे रंगों से सराबोर कर देती है।
होली मनाने के लिए विभिन्न वैदिक व पौराणिक मत हैं। वैदिक काल में इस पर्व को नवान्नेष्टि कहा गया है। इस दिन खेत के अधपके अन्न का हवन कर प्रसाद बांटने का विधान है। इस अन्न को होला कहा जाता है, इसलिए इसे होलिकोत्सव के रूप में मनाया जाता था। इस पर्व को नवसंवत्सर का आगमन तथा बसंतागम के उपलक्ष्य में किया हुआ यज्ञ भी माना जाता है। कुछ लोग इस पर्व को अग्निदेव का पूजन मात्र मानते हैं। मनु का जन्म भी इसी दिन का माना जाता है। अत: इसे मन्वादितिथि भी कहा जाता है। पुराणों के अनुसार भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था, तभी से यह त्योहार मनाने का प्रचलन हुआ। सबसे ज्यादा प्रचलित हिरण्यकश्यप की कथा है, जिसमें वह अपने पुत्र प्रहलाद को जलाने के लिए बहन होलिका को बुलाता है। जब होलिका प्रहलाद को लेकर अग्नि में बैठती हैं तो वह जल जाती है और भक्त प्रहलाद जीवित रह जाता है। तब से यह त्योहार मनाया जाने लगा है।
होली का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। संस्कृत के अनेक कवियों ने बसंतोत्सव का वर्णन किया है। सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है।
नेपाल, पाकिस्तान, बांगलादेश, श्रीलंका और मारीशस में भारतीय परंपरा के अनुरूप ही होली मनाई जाती है। फ्रांस में यह पर्व १९ मार्च को डिबोडिबी के नाम से मनाया जाता है। मिश्र में १३ अप्रैल को जंगल में आग जलाकर यह पर्व मनाया जाता है। इसमें लोग अपने पूर्वजों के कपड़े भी जलाते हैं। अधजले अंगारों को एक-दूसरे पर फेंकने के कारण यह अंगारों की होली होती है। थाईलैंड में यह त्योहार सौंगक्रान के नाम से मनाया जाता है। इस दिन वृद्धजनों के हाथों इत्र मिश्रित जल डलवाकर आशीर्वाद लिया जाता है। लाओस में इस त्योहार पर सभी एक-दूसरे पर पानी डालते हैं। म्यामार में इसे जलपर्व के नाम से मनाया जाता है। जर्मनी में ईस्टर के दिन घास का पुतला जलाया जाता है। अफ्रीका में यह ओमेना वोंगा के नाम से मनाया जाता है। इस दिन वहां के पूर्ववर्ती अन्यायी राजा का पुतला जलाकर प्रसन्नता मनाई जाती है। पोलैंड में आर्सिना पर लोग एक-दूसरे पर रंग गुलाल उड़ाते हैं। अमेरिका में मेडफो नामक पर्व मनाने के लिए लोग नदी किनारे एकत्रित होते हैं और गोबर और कीचड़ से बने गोलों को एक-दूसरे पर फेंकते हैं। ३१ अक्टूबर को यहां सूर्य पूजा की जाती है, जिसे होवो कहते हैं। इसे भी होली की तरह मनाया जाता है। हालैंड में कार्निवल होली सी मस्ती का पर्व है। बेल्जियम की होली भारत जैसी ही होती है।
- बस्तर में इस दिन लोग कामदेव का बुत सजाते हैं, जिसे कामुनी पेडम कहा जाता है। उस बुत के साथ एक कन्या का विवाह किया जाता है। इसके उपरांत कन्या की चुड़ियां तोड़कर, सिंदूर पौंछकर विधवा का प दिया जाता है। बाद में एक चिता जलाकर उसमें खोपरे भुनकर प्रसाद बांटा जाता है। - गुजरात में भील जाति के लोग होली को गोलगधेड़ों के नाम से मनाते हैं। इसमें किसी बांस या पेड़ पर नारियल और गुड़ बांध दिया जाता है उसके चारों और युवतियां घेरा बनाकर नाचती हैं। युवक को इस घेरे को तोड़कर गुड़, नारियल प्राप्त करना होता है। इस प्रक्रिया में युवतियां उस पर जबरदस्त प्रहार करती हैं। यदि वह इसमें कामयाब हो जाता है तो जिस युवती पर वह गुलाल लगाता है वह उससे विवाह करने के लिए बाध्य हो जाती है। - हिमाचल प्रदेश के कुलु में बर्फ में रंग मिलाकर होली खेली जाती है। यह बर्फीली होली के रूप में विख्यात है। गोवा में यह शिगमोत्सव के नाम से मनाई जाती है। बंगाल में डोल यात्रा अथवा डोल पूर्णिमा के नाम से होली का त्योहार मनाया जाता है। - मध्यप्रदेश के भील होली को भगौरिया कहते हैं। इस दिन युवक मांदल की थाप पर नृत्य करते हैं। नृत्य करते-करते जब युवक किसी युवती के मुंह पर गुलाल लगाता है और बदले में वह भी यदि गुलाल लगा देती है तो मान लिया जाता है कि दोनों विवाह के लिए सहमत हैं। यदि वह प्रत्युत्तर नहीं देती तो वह किसी और की तलाश में जुट जाता है।

Thursday, February 25, 2010

प्रकृति के अद्भुत नजारे

हमेशा से हम 7 वंडर के रूप में ऐसा कृतियों को जानते हैं जो इंसानों ने बनाई है। पर दुनिया में ऐसे कई वंडर हैं जो प्रकृति ने स्वंम बनाया है। फिर भी इन्हें देखकर ऐसा नहीं लगता कि ये खूबसूरत और हैरान कर देने वाली कृतियां इंसानों की बनाई हुई नहीं हैं। सुंदरबन सुंदरबन यानी सुंदर बगीचा, दुनिया का सबसे बड़ा मैंग्रोव वनक्षेत्र है। इसका अधिकतर हिस्सा बांग्लादेश और भारत के पश्चिम बंगाल में फैला हुआ है। इन दोनों देशों का प्रयास है कि यह नेचुरल वंडर दुनिया के सात अजूबों के फेहरिस्त में शुमार हो। रॉयल बंगाल टाइगर का यह घर है। यह स्तनधारियों की 42, रेंगने वाले जंतुओं और उभयचरों की 35, पक्षियों की 270 और मछलियों की लगभग 120 प्रकार की प्रजातियों की शरणस्थली है। चॉकलेट हिल्स वैसे चॉकलेट हिल्स का चाकलेट से कोई लेना देना नहीं है। फिलीपींस के बोहोल प्रांत की इस खूबसूरत कृति की बात ही कुछ ऐसी है कि इसका नाम पड़ गया चॉकलेट हिल्स। इसका कारण है यहां की चॉकलेटी रंगत वाली पहाडिय़ां जिसके चलते इसका यह नाम पड़ा। वैसे तो आम दिनों में इन पहाडिय़ों पर हरी घास फैली रहती है। लेकिन गर्मी यानी सूखे मौसम में यह घास सूखकर चॉकलेट के रंग में नजर आने लगती हैं। और चाकलेट की तरह दिखती है। माउंट डमावैंड ईरान का माउंट डमावैंड एक सक्रिय ज्वालामुखी है। साथ ही यह पूरे एशिया का यह सर्वोच्च ज्वालामुखी पर्वत है। इस जगह पर चमत्कारिक गुणों से भरपूर कई गर्म झरने हैं। स्थानीय लोग ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के लोग बड़े से बड़े घावों और चर्म रोगों के निदान लिए यहां आते हैं। डेड सी सी ऑफ सॉल्ट को मृत सागर इसलिए कहते हैं क्योंकि चालीस से ज्यादा मील में फैली इस झील में जीवन संभव नहीं है। यह जॉर्डन से इजरायल तक फैली है। इसका पानी समुद्र के पानी से आठ गुना या यूं कहें कि इससे कहीं ज्यादा खारा है। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसके पानी में इतना साल्ट है कि कोई भी इसमें डूब नहीं सकता है। कॉक्स बाजार तट बांग्लादेश के डिस्ट्रिक्ट हेडक्वॉर्टर का नाम कॉक्स बाजार है और इसी के समुद्र तट के विशाल क्षेत्र को कॉक्स बाजार तट कहा जाता है। यह दुनिया का सबसे लंबा समुद्र तट है। लगभग 125 किलोमीटर क्षेत्र में फैले इस तट पर सैलानी अक्सर सनबाथ के लिए आते हैं। प्यूर्टो प्रिंसेसा रिवर पार्क जैसे भरात में गंगा, जमुना के साथ एक भूमिगत नदी सरस्वती के रूप में मानी जाती है। वैसे ही प्यूर्टो प्रिंसेसा भी एक भूमिगत नदी है। यह फिलीपींस की सेंट पॉल पहाडिय़ों की श्रृंखला में स्थित है। प्यूर्टो प्रिंसेसा एशिया की सबसे लंबी और दुनिया की दूसरी सबसे लंबी भूमिगत नदी है।

Tuesday, February 23, 2010

कुर्सी के लिए महादलित का दांव

बिहार के मुख्यमंत्री आगामी विधासभा चुनाव से पहले अपनी स्थिति और मजबूत कर लेना चाहते हैं। पिछड़े वर्ग और पसमांदा मुसलमानों में जद यू का आधार मजबूत करने के बाद अब वे राज्य में दलितों के बीच अपना आधार मजबूत करना चाहते हैं। अपनी इसी रणनीति के तहत सबसे पहले नीतिश ने महादलितों की पहचान करने के लिए एक आयोग का गठन किया और बाद में खबर आई कि राज्य में महादलितों की जो पहचान की गयी है उसमें रविदास और दुसाध (पासवान) को बाहर रखा गया है। दिलचस्प यह कि रामविलास पासवान खुद दुसाध समाज से आते हैं और उनको लगता है कि नीतिश सरकार जानबूझकर ऐसा कर रही है ताकि वह दलितों के बीच बंटवारा कर सके। रामविलास पासवान के भाई रामचंद्र पासवान बिहार में दलित सेना के भी अध्यक्ष हैं। अब रामविलास पासवान ने धमकी दी है कि अगर बिहार सरकार महादलित आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं करती है तो वे उसके खिलाफ प्रदेश भर में आंदोलन करेंगे।
अव्वल तो यह कि नीतिश यहीं तक नहीं रुके हैं, जिस दिन रामविलास पासवान ने विरोध स्वरूप एक प्रदर्शन के दौरान यह बात कही उसके अगले ही दिन नीतिश कुमार ने कैबिनेट बैठक में निर्णय लिया कि बिहार की न्यायिक सेवाओं में दलितों के लिए 49 प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित किया जाएगा। बिहार सरकार प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत और अति पिछड़े वर्ग के लिए 22.5 प्रतिशत आरक्षण लागू करेगी। हालांकि यह आरक्षण सिविल जज (जूनियर केटेगरी) पर ही लागू होगा।
गांधी मैदान में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महादलितों को समाज तोडऩे वाली शक्तियों से सावधान करते हुए किसी भी हाल में अपनी एकता को टूटने नहीं देने का आह्वान किया। कुछ लोग आपकी एकता को तोडऩे की कोशिश करेंगे। आप टूटिएगा नहीं। महादलित मिशन ने आपके लिए जो कार्यक्रम बनाए हैं, उसे हर हाल में लागू किया जाएगा। भूमिहीन महादलित को तीन डिसमिल जमीन तो मिलेगी ही, उनका शौचालय सहित घर भी बनाया जाएगा। सरकार ने रेडियो खरीदने के लिए जो राशि दी है, उसे इधर-उधर खर्च नहीं करें। महिलाओं को विशेषकर इसपर ध्यान देने की आवश्यकता है कि राशि कहीं शराब पीने में खर्च न हो जाए। धीरे-धीरे इनकी शराब पीने की आदत भी आप महिलाओं को ही छुड़ानी है। महादलितों के लिए मैं जो काम कर रहा हूं, उसके लिए कुछ लोग मुझे बुरा-भला कह रहे हैं। यह आरोप लगाया जा रहा है कि पासवान जाति के लिए कुछ नहीं हो रहा। साथ ही साथ वोट बैंक को निगाह में रखकर गांधी मैदान में आयोजित विशाल महादलित एकजुटता रैली में उन्होंने नान मैट्रिक को भी विकास मित्र बनाने की घोषणा की। जबकि उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने हर महादलित को बीपीएल सूची शामिल करने की मुख्यमंत्री से अपील की। बकौल सुशील मोदी, नीतीश कुमार अगर पंचायत चुनाव में आरक्षण नहीं लागू करते तो आज अनुसूचित जाति से 1,380 मुखिया नहीं बनते। हमारी सरकार ने महादलितों को जो मान-सम्मान दिया है वह आगे भी जारी रहेगा। महादलित आयोग के अध्यक्ष विश्वनाथ ऋषिदेव ने कहा कि ब्यूरोक्रेट मनमानी कर रहे हैं। महादलितों के लिए भूमि अधिग्रहण का काम करने से बीडीओ-सीओ कतरा रहे हैं।
सच तो यह भी है कि नीतिश कुमार अपनी सरकार के इस निर्णय को ऐतिहासिक बता रहे हैं और उनका कहना है कि इससे एक दशक पुरानी लोगों की मांग पूरी हो गयी है। राजनीतिक हलकों में पूरी कवायद को आगामी विधानसभा चुनाव से जोड़ कर देखा जा रहा है।

Monday, February 22, 2010

बजट से आस

हाथ से निकलता घर का बजट आटे दाल की मंहगाई ने कर दिया सब चौपट अब आशा है की देश के से सुधर जाए घर का बजट बांट जोहते, दिन काटते आंखों में उम्मीद लिए कर रहे इंतजार पूरी होगी आस यही है विश्वास

Thursday, February 18, 2010

प्रकृति का अनूठा प्रांगण बस्तर

जब चारों ओर हरियाली ही हरियाली नजर आए, हर तरफ उफनती नदियों की कलकल हो, खुले नीले आसमान के नीचे शोर मचाते झरने अपने पूरे उन्माद पर हो, तो वह स्थल सिर्फ और सिर्फ छत्तीसगढ का खूबसूरत स्वर्ग, बस्तर ही हो सकता है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता सजीव रूप देखने का आंकाक्षा हो तो एक बार बस्तर से रूबरू होना लाजमी है क्योंकि यहाँ न सिर्फ प्रकृति अपनी संपूर्ण अठखेलियों के साथ देखी जा सकती है बल्कि यहाँ के आदिवासियों का भोलापन भी लोगों का मन मोह लेगा। तो अगर आप शहरों की भागदौड से आजिज आ चुके हैं तो निःसंदेह आपको बस्तर का हर कोना पसंद आएगा क्या देखें बस्तर का हर कोना अपनी अलग खूबसूरती से महकता है। यहाँ के पेड और हरियाली यहाँ के जंगलों में रहने वाले आदिवासी, उनका हाट (लोकल मार्केट) सबकुछ मनोहारी है। इसके अलावा कुछ ऐसे स्थल भी हैं जो शायद कहीं और देखने को न मिलें। जलप्रपात चित्रकोट जलप्रपात य्ाह स्थान बस्तर के मुख्या जलदलपुर से 38 किमी है। इसे मिनी नियाग्रा भी कहा जाता है। इन्द्रावती नदी द्वारा बनाया गया यह बारिश में तो अपनी संपूर्ण कलाओं के साथ अठखेलियाँ करता ही है साथ ही गर्मियों भी इसकी छटा देखते ही बनती है। तीरथगढ जलप्रपात अगर कोई नदी पूरे वेग से 300 फीट की उंचाई से नीचे गिरे तो नजारा कैसा होगा य्ाह सोच कर ही मन रोमांच से भर जाता है। तीरथगढ का नजारा कुछ ऐसा ही है। यह छत्तीसगढ का सबसे ऊंचा जलप्रपात है। य्ाह जगदलपुर से 35 किमी दक्षिण में पडता है। इसके अलावा मंडवा और चित्रशारा जलप्रपात भी देखा जा सकता है। गुफाएं कोटमसर गुफाएं यह न तो ऐतिहासिक गुफाएं हैं और न ही आपको यहाँ कोई आदिमकाल की चित्र्ाकारी ही देखने को मिलेगी। यहाँ प्रकृति ने स्वंम के लिए चित्रकारी की है जिसका लुत्फ आप भी उठा सकते हैं। तीरथगढ के पास कांगेर वेली नेशनल पार्क में चूने के पत्थर काच कर पानी द्वारा निर्मित ये गुफा किसी को भी अचंभित कर सकती है। 40 फीट लंबी यह गुफा रोशनीविहीन है अतः yahan प्रकृति एक और करामात अंधी मछलियाँ पाई जाती हैं। इसके अलावा कैलाश गुफा और दण्डक गुफाएं भी देखने लाय्ाक हैं। नेशनल पार्क एवं सेंचुरीस अगर आप जंगल में रोमांच ढूढते हैं तो भी आपको बस्तर अवश्य आएगा जंगल को करीब से देखने का इससे बेहतर विकल्प आपको दूसरा नहीं मिल सकता। यहाँ अगर कांगेर वेली और इन्द्रावती जैसे नेशनल हैं तो भैरमगढ पमेडा और विरगिन कुर्चेल वेली जैसी सेंचुरीज भी हैं जहां आप प्रकृति का भरपूर आनंद ले सकते हैं। कैसे जाएं वैसे तो बस्तर जाने के कई मार्ग हैं पर छत्तीसगढ की राजधानी राय्ापुर से य्ाहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। बस्तर के लिए ट्रेन नहीं चलती अतः सडक मार्ग ही य्ाहां पहुंचने का एकमात्र्ा सहारा है। हां अगर आप विशाखापट्टनम होकर आ रहे हैं तो ट्रेन से यहाँ आया जा सकता है। वैसे छत्तीसगढ पर्यटन विभाग के पास य्ाहां के लिए पैकेज टूर का भी आप्शन है तो आप इसे भी आजमा सकते हैं। कहां ठहरें बस्तर के मुख्या शहर जगदलपुर को बेस बना आप पूरा बस्तर आसानी से घूम सकते हैं। य्ाहां छत्तीसगढ पर्यटन विभाग के गेस्ट हाउस और कई निजी होटल काफी कम दाम पर उपलब्ध हैं। क्या खरीदें बस्तर के हाट से आप लोकल वस्तुएं जैसे बांस से बने सामान आदि खरीद सकते हैं। इसके अलावा ब्रांज मेटल की कलात्मक वस्तुएं, कोसा सिल्क क् कपडे और साड़ियाँ, लकडी का सामान, ये सभी यहाँ विशेषता है, खरीदा जा सकता है। कब जाएं वैसे तो बस्तर हर मौसम में जाया जा सकता है पर अक्टूबर नवंबर में यहाँ जाने पर यहाँ के विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरे का आनंद लिया जा सकता है।

Sunday, February 14, 2010

मियां यह मोहब्बत है या कोई कारखाना

किसी विषय पर लिखने के पहले उसकी परिभाषा देने का रिवाज है। हम लिखने जा रहे हैं -प्यार पर। कुछ लोग कहते हैं-प्यार एक सुखद अहसास है। पर यह ठीक नहीं है। प्यार के ब्रांड अम्बेडर लैला मजनू ,शीरी -फरहाद मर गये रोते-रोते। यह सुखद अहसास कैसे हो सकता है? सच यह है कि जब आदमी के पास कुछ करने को नहीं होता तो प्यार करने लगता है। इसका उल्टा भी सही है-जब आदमी प्यार करने लगता है तो कुछ और करने लायक नहीं रहता। प्यार एक आग है। इस आग का त्रिभुज तीन भुजाओं से मुकम्मल होता है। जलने के लिये पदार्थ (प्रेमीजीव), जलने के लिये न्यूनतम तापमान(उमर,अहमकपना) तथा आक्सीजन(वातावरण,मौका,साथ) किसी भी एक तत्व के हट जाने पर यह आग बुझ जाती है। धुआं सुलगता रहता है। कुछ लोग इस पवित्र ‘प्रेमयज्ञधूम’ को ताजिंदगी सहेज के रखते हैं । बहुतों को धुआं उठते ही खांसी आने लगती है जिससे बचने के लिये वे दूसरी आग जलाने के प्रयास करते हैं।

सच तो यह भी है की प्र और एम का युग्म रूप प्रेम कहलाता है। प्र को प्रकारात्मक और एम को पालन करता भी माना जाता है। "ऐं" शब्द दुर्गा सप्तशती के अनुसार पालन करने वाले के रूप में माना जाता है। निस्वार्थ भाव से चाहत भी प्रेम की परिभाषा में सम्मिलित है। एक कहावत में प्रेम शब्द की परिभाषा बताई गयी है,-"प्रेम प्रेम सब कोई कहे,प्रेम ना जाने कोय,ढाई अक्षर प्रेम को पढे से पंडित होय"। ज्योतिष के अनुसार प्रेम का कारक सूर्य है,सूर्य से दर्शन और शनि से परसन की भावना बनती है,सूर्य से रूप का मन के उदय होना,और सूर्य से आत्मा का जुड जाना,प्रेम में सहायक होता है। निश्चल प्रेम का कारक चन्द्रमा भी है,जिसे ज्योतिष में माता के रूप में माना जाता है। भौतिक प्रेम का कारक शुक्र भी है,जिसे संसार की भौतिक सम्पदा और पति के लिये पत्नी के रूप में जाना जाता है। बुध विद्या का कारक है,और विद्या से प्रेम करने के द्वारा बुद्धि का विकास सम्बभव है।

किसी का साथ अच्छा लगना और किसी के बिना जीवन की कल्पना न कर पाना दो अलग बातें है। हमारी आंख से आजतक इस बात के लिये एक भी आसूं नहीं निकला कि हाय अबके बिछुड़े जाने कब मिलें। किताबों में फूल और खत नहीं रखते थे कभी काहे से कि जिंदगी भर जूनियर इम्तहान होते ही किताबें अपनी बपौती समझ के ले जाते रहे।

इससे हटकर आज के संधर्भ में बात करे तो क्या प्रेम का परिणाम संभोग है या कि प्रेम भी गहरे में कहीं कामेच्छा ही तो नहीं? फ्रायड की मानें तो प्रेम भी सेक्स का ही एक रूप है। फिर सच्चे प्रेम की बात करने वाले नाराज हो जाएँगे। वे कहते हैं कि प्रेम तो दो आत्माओं का मिलन है। तब फिर 'मिलन' का अर्थ क्या? शरीर का शरीर से मिलन या आत्मा का आत्मा से मिलन में क्या फर्क है? प्रेमशास्त्री कहते हैं कि देह की सुंदरता के जाल में फँसने वाले कभी सच्चा प्रेम नहीं कर सकते। कामशास्त्र मानता है कि शरीर और मन दो अलग-अलग सत्ता नहीं हैं बल्कि एक ही सत्ता के दो रूप हैं। तब क्या संभोग और प्रेम भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं? धर्मशास्त्र और मनोविज्ञान कहता है कि काम एक ऊर्जा है। इस ऊर्जा का प्रारंभिक रूप गहरे में कामेच्छा ही रहता है। इस ऊर्जा को आप जैसा रुख देना चाहें दे सकते हैं। यह आपके ज्ञान पर निर्भर करता है। परिपक्व लोग इस ऊर्जा को प्रेम या सृजन में बदल देते हैं।

दर्शन कहता है कि कोई आत्मा इस संसार में इसलिए आई है कि उसे स्वयं को दिखाना है और कुछ देखना है। पाँचों इंद्रियाँ इसलिए हैं कि इससे आनंद की अनुभूति की जाए। प्रत्येक आत्मा को आनंद की तलाश है। आनंद चाहे प्रेम में मिले या संभोग में। आनंद के लिए ही सभी जी रहे हैं। सभी लोग सुख से बढ़कर कुछ ऐसा सुख चाहते हैं जो शाश्वत हो। क्षणिक आनंद में रमने वाले लोग भी अनजाने में शाश्वत की तलाश में ही तो जुटे हुए हैं। आखिर प्रेम क्या है?यही तो माथापच्ची का सवाल है। क्या यह मान लें कि प्रेम का मूल संभोग है या कि नहीं। सभी की इच्छा होती है कि कोई हमें प्रेम करे। यह कम ही इच्छा होती है कि हम किसी से प्रेम करें। वैज्ञानिक कहते हैं कि प्रेम आपके दिमाग की उपज है। अर्थात प्रेम या संभोग की भावनाएँ दिमाग में ही तो उपजती है। दिमाग को जैसा ढाला जाएगा वह वैसा ढल जाएगा।आत्मीयता ही प्रेम है :विद्वान लोग कहते हैं कि दो मित्रों का एक-दूसरे के प्रति आत्मीयता हो जाना ही प्रेम है। एक-दूसरे को उसी रूप और स्वभाव में स्वीकारना जिस रूप में वह हैं। दोनों यदि एक-दूसरे के प्रति सजग हैं और अपने साथी का ध्यान रखते हैं तो धीरे-धीरे प्रेम विकसित होने लगेगा।

Saturday, February 13, 2010

नक्सली ककहरा

किसी भी समाज की व्यवस्था पर सबसे अच्छी चोट बच्चों का गलत इस्तेमाल करके पहुंचायी जा सकती है। यही कारण है कि पहले जिन सरकारी स्कूलों के भवन को नक्सलियों ने तोड़ दिया था आज वहीं आदिवासी बच्चे नकसली ककहरा पढ़ रहे हैं। कैसे नक्सली बस्तर जिले के आंतरिक क्षेत्रों में चलने वाले इन प्राथमिक स्कूलों में बच्चों को गणित, विज्ञान व पर्यावरण के साथ हथियारों का प्रशिक्षण और लोगों के साथ विद्रोह की मूल बातें सिखा रहे हैं? प्रस्तुत है इसी की पड़ताल करता - आज पढ़िए क्या कर रही है प्रदेश की भाजपा सरकार बस्तर के कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां प्रदेश की भाजपा सरकार के शासन को नक्सली चुनौती देते हैं। इन क्षेत्रों में सरकारी स्कूल तो हैं पर यहां पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं हैं। कुछ समय पहले ही जब बस्तर जिला शिक्षा अधिकारी डी सौमैय्या ने अपने साथी अफसरों के साथ बकावंड एवं बस्तर ब्लाक की शालाओं का अचानक निरीक्षण किया था तो पाया था कि वहां की अधिकतर शालाएं बंद थी। जो शालाएं खुली भी थी वहां पढऩे वाले बच्चों का आभाव था। इसी तरह ग्राम कचनार में निरीक्षण दौरान पहुंचने पर देखा गया कि वहां की पूर्व माध्यमिक शाला में ताला लगा हुआ था। जिसके चलते वहां पदस्थ हेडमास्टर सुखराम गौरे, शिक्षाकर्मी वर्ग दो कीर्ति देवांगन एवं नेत्र प्रभा जोशी का वेतन भी रोका गया था। बोरपदर के मीडिल व प्रायमरी स्कूलों, चोलनार, नेगानार, पंडानार की प्राथमिक शालाओं में भी निरीक्षण के दौरान असमानता पायी गई। जाहिर है कि ये इस क्षेत्र के वह गांव हैं जो शहर के पास हैं। भीतरी इलाकों की शालाओं में तो शायद ही कभी कोई शिक्षक जाता होगा। ऐसा नहीं है कि नक्सलियों ने अपनी मुहिम को तेज और असरकारी बनाने के लिए पहली बार बच्चों का इस्तेमाल किया है। ह्युमन राइट्स वॉच यानी एचआरडब्ल्यु की (॥क्रङ्ख)की 2008 की रिपोर्ट में प्रकाशित किया था कि नक्सली अपने अभियान के लिए बच्चों के 'बाल संघम बना रहे हैं जिसमें छह और 12 वर्ष की आयु के बीच के बच्चों को माओवादी विचारधारा का पाठ पढ़ाया जा रहा है तथा हथियार चलाने का प्रशिक्षिण भी दिया जा रहा है। इसके लिए बच्चों को अलग-अलग दलों के रूप में बांटा जाता है। जिनमे 'चैतन्य नाट्य मंच, 'संघम, 'जन मिलिट्रीज और 'दलम के तौर पर पहचाना जाता है। 'संघम, 'जन मिलिट्रीज और 'दलम में नक्सली बच्चों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण देते हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि शुरुआत में इन बच्चों को नक्सली अपने मुखबिरों के रूप में इस्तेमाल करते हैं और जब यह बच्चे घातक हथियारों को चलाने में माहिर हो जाते हैं तब इन्हें हिंसक वारदातों का हिस्सा बना लिया जाता है। चूंकि बच्चों पर जल्दी किसी को शक नहीं होता अत: नक्सली इन बच्चों को राइफल के प्रशिक्षण के साथ विस्फोटकों से विभिन्न प्रकार के बारूदी सुरंगें बनाना भी सिखाते हैं ताकि समय आने पर इन्हें आसानी से इस काम में लगाया जा सके। कई बार माओवादी सुरक्षा बलों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष में इन बच्चों को ढाल के रूप में भी प्रयोग करते हैं। ये बच्चे स्कूल की यूनिफार्म में पुलिस को चकमा देकर, हथियारों की तस्करी भी करते हैं। कुछ समय पहले नक्सलियों और पुलिस के बीच हुए संघर्ष में पुलिस ने सात नक्सलियों को गोली मार दी थी। उनमें से कुछ स्कूल की वर्दी में थे। छत्तीसगढ़ में माओवादियों ये स्कूल दक्षिण बस्तर, दन्तेवाड़ा, बीजापुर और नारायणपुर जिलों में फैले विशाल वन क्षेत्र में अपना पैर पसार चुके हैं और अब इनकी नज़र शहर के स्कूलों पर है। सरकारी अनुमान के अनुसार बस्तर के तीन सौ से ज्यादा स्कूलों पर माओवादी कब्जा कर चुके हैं और यहां अपना स्कूल चला रहे हैं। ये वह स्कूल हैं जो आदिवासी कल्याण विभाग द्वारा चलाए जा रहे थे। वैसे भी आदिवासी कल्याण विभाग आदिवासी छात्रों को पढऩे के लिए प्रेरित करने में असक्षम रहा है। आदिवासी कल्याण विभाग के ही आंकड़ों पर गौर करने से पता चलता है कि दंतेवाड़ा में पहली कक्षा में लगभग 19,000 से अधिक छात्र एक शिक्षा सत्र में स्कूलों में दाखिला लेते हैं पर पांचवीं कक्षा तक पहुंचने-पहुंचते उनकी संख्या 7,000 से नीचे आ जाती है। इसके बाद आठवीं कक्षा में 4,000 बच जाते हैं और 10 वीं तक तो मात्र 2,300 छात्र ही पहुंचते हैं। इसी तरह बीजापुर जिले के 7,100 छात्र को पहली कक्षा में दाखिला लेते हैं जो आठवीं और दसवीं तक मात्र 1,500 और 1,200 ही रह जाते हैं। नारायणपुर की स्थिति तो इससे भी बदतर है। यहां 5000 छात्रों में से मात्र 1,000 छात्र ही 10 वीं कक्षा तक पहुंच पाते हैं। अब चूंकि यहां माओवादियों के स्कूल चलते हैं इसलिए क्षेत्र के आदिवासी छात्र, सरकार की शिक्षा से संबंधित तमाम सुविधाओं वंचित हैं। यह हाल सिर्फ छत्तीसगढ़ का नहीं है ऐसी ही स्थिति आंध्र प्रदेश और उड़ीसा के कई अंदरूनी हिस्सों के स्कूलों की भी है। ऐसे में नक्सली, आदिवासियों के बच्चों को अपनी पाठशाला में पढ़ाने के बहाने बुलाते हैं। कभी बहला फुसलाकर तो कभी जबरदस्ती भी। माओवादियों के इस कदम का आदिवासी ग्रामीणों ने विरोध भी किया है। पिछले दिनों माओवादी के इन प्रयासों के विरोध की कई घटनाएं सामने आयी हैं। नक्सलियों का यह कार्य, सरकार द्वारा चलाए जा रहे उस अभियान के बदले की कार्यवाही है जिसे पूरा देश सलवा जुड़ूम के नाम से जानता है। नक्सलियों से जूझने के लिए सन् 2005 में शुरू किये गए सलवा जुड़ूम आंदोलन को सरकार का साथ मिला, लेकिन इसके बाद नक्सली और आक्रामक हो गए। बाद में सलवा जुड़ूमियों पर भी हत्या, लूटपाट और बलात्कार के आरोप लगे। बस्तर इलाके के 600 से ज्यादा गांव खाली हो गए। इनकी आबादी करीब 3 लाख बताई जाती है। इनमें से 60 हजार लोग सरकार के बनाए गये राहत शिविरों में रहते हैं, लेकिन बाकी आदिवासी कहां गये इसकी कोई खबर किसी को नहीं है। एक अंदाजें के अनुसार बड़ी संख्या में इन्होंने आंध्रप्रदेश व उड़ीसा की ओर भी पलायन किया, लेकिन उन्हें वहां से भी खदेड़ा जाता रहा। इन पलायन करने वालों के खेत-खलिहान उजड़ गए, बच्चों का स्कूल व पेट भर खाना छूट गया। अब खाली हाथ हो चुके आदिवासियों के सामने नक्सली बनने के अलावा कोई चारा नहीं है क्योंकि सरकार इन्हें चावल तो दे सकती है पर नक्सलियों से सुरक्षित नहीं रख सकती। इसका प्रमाण है सलवा जुड़ूम अभियान के बाद नक्सलियों के कई हमले जिसमें सैकड़ो आदिवासी मारे जा चुके हैं। एक ओर तो राज्य में इतने अधिक इंजीनियरिंग कालेज खोले जा चुके हैं कि पीईटी दिलाने वाले सारे छात्रों को जगह मिल जा रही है। राज्य में 4 नये मेडिकल कालेज खुल चुके हैं जो रमन सरकार की कामयाबियों की फेहरिस्त में एक सुनहरा अध्याय बन चमक रहे हैं। वहीं दूसरी ओर आदिवासी इलाकों में डॉक्टरों की भारी कमी है और स्वास्थ्य सेवा जैसी मूलभूत सुविधा का बुरा हाल है। राज्य की कुपोषण की दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। राज्य की औसत साक्षरता 64 प्रतिशत से अधिक है लेकिन आदिवासी इलाकों में यह 50 फीसदी तक ही सिमटी हुई है। स्कूली शिक्षा का बजट 9 सालों में 345 करोड़ से बढ़कर 2555 करोड़ हो गया पर आज भी आदिवासी इलाको के सैकड़ों स्कूल अभी भी शिक्षक विहीन हैं और स्कूल भवन जर्जर हैं। ऐसे में अगर आदिवासियों को सब्ज बाग दिखाकर नक्सली उनके बच्चों को अपना हथियार बना रहे हैं तो इसमें कहीं न कहीं राज्य सरकार भी दोषी है। विडंबना यही है राज्य की भाजपा सरकार 1 रुपए किलो चावल और 25 पैसे किलो का नमक बांटकर अपने कर्तव्यों से मुक्त होना चाहती है। जिस आदिवासी क्षेत्र में मिली भारी जीत के कारण भाजपा दोबारा सत्ता में आ पायी उनके कल्याण के नाम पर फाइलों में योजनाएं बनती और बिगड़ती हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो नक्सलियों द्वारा स्कूलों के भवनों पर कब्जा करने और वहां अपने स्कूल चलाने की खबर पर सरकार यूं खामोश न बैठी रहती। इस मामले पर सुरक्षा बलों ने बार-बार सरकार को आगाह किया लेकिन रमन सरकार पर इसका कोई खास प्रभाव नहीं दिखा। अगर इन खबरों का सरकार पर थोड़ा भी असर होता तो आज नक्सली धड़ल्ले से आदिवासियों के बच्चों को अपनी मुहिम का हिस्सा नहीं बना रहे होते।

Friday, February 12, 2010

नक्सली ककहरा

किसी भी समाज की व्यवस्था पर सबसे अच्छी चोट बच्चों का गलत इस्तेमाल करके पहुंचायी जा सकती है। यही कारण है कि पहले जिन सरकारी स्कूलों के भवन को नक्सलियों ने तोड़ दिया था आज वहीं आदिवासी बच्चे नकसली ककहरा पढ़ रहे हैं। कैसे नक्सली बस्तर जिले के आंतरिक क्षेत्रों में चलने वाले इन प्राथमिक स्कूलों में बच्चों को गणित, विज्ञान व पर्यावरण के साथ हथियारों का प्रशिक्षण और लोगों के साथ विद्रोह की मूल बातें सिखा रहे हैं? प्रस्तुत है इसी की पड़ताल करता यह आलेख- अब नक्सली यह समझ चुके हैं कि सिर्फ आतंक फैला कर वे आदिवासियों को ज्यादा दिनों तक बहका नहीं सकते हैं। उनका विश्वास फिर से हासिल करने का सबसे बेहतर तरीका है उनकी भावनाओं पर चोट करना और उन्हें कमजोर बनाकर अपनी ओर आकर्षित करना। शायद यही कारण है कि पहले जो सरकारी स्कूल नक्सलियों के कोप का शिकार बनकर उजाड़ हो गए थे आज वहीं नक्सली, आदिवासी बच्चों की भर्ती, उनकी शिक्षा का खासा ध्यान रख रहे हैं। खास बात यह है कि इन स्कूलों में बच्चे क, ख, ग, घ.. .. .. का ककहरा सीखने के बजाय नक्सली ककहरा सीखने पर मजबूर हैं। नक्सलियों के इस ककहरे में बच्चों को वही सब सिखाया जाता है जो आगे चलकर उन्हें नक्सली बनाने के लिए जरूरी है। इन प्राथमिक विद्यालयों में भाकपा (माओवादी) द्वारा प्रकाशित दंडकारण्य समिति की पाठ्यपुस्तकों का इस्तेमाल किया जाता है। इन पाठ्यपुस्तकों के विभिन्न अध्यायों में क्षेत्र के भूगोल और स्वास्थ्य के मुद्दों पर अध्याय हैं। साथ ही क्षेत्र में फैलने वाली सामान्य बीमारियों जैसे मलेरिया और पीलिया के बारे में भी जानकारी है। यह सब तो मात्र लोगों को दिखाने के लिए है। इन पुस्तकों का खास मकसद बच्चों में व्यवस्था के खिलाफ ज़हर भरना है। नक्सलियों के इस मकसद का पहला कदम है इस पुस्तक का कवर जिसमें 19 वीं सदी में आदिवासियों द्वारा पर्लकोट विद्रोह में इस्तेमाल किए गए नारे 'आज पढ़े, आज लड़े, जनता को आगे ले जाएंÓ का उपयोग किया गया है। दंडकारण्य समिति की इन पाठ्यपुस्तकों का खुलासा तब हुआ जब पुलिस द्वारा नक्सल विरोधी अभियान के तहत छापे के कार्यवाही के दौरान इन्हें जब्त किया गया। जब्ती की इन कार्यवाहियों में दक्षिण बस्तर से बंदूक भी बरामद हुई हैं। इस बात को पुलिस ने भी स्वीकारा है कि नक्सली इन बंदूकों का इस्तेमाल स्कूलों में उपस्थित बच्चों को, हथियारों का प्रशिक्षण देने के लिए करते थे। क्या कर रही है प्रदेश की भाजपा सरकार पढ़िए अगली बार

Thursday, February 11, 2010

बाज़ार और हिंदी

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक हिंदी दुनिया में तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा थी परंतु आज स्थिति यह है कि वह दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा बन गई है तथा यदि हिंदी जानने-समझने वाले हिंदीतरभाषी देशी-विदेशी हिंदी भाषा प्रयोक्ताओं को भी इसके साथ जोड़ लिया जाए तो हो सकता है कि हिंदी दुनिया की प्रथम सर्वाधिक व्यवहृत भाषा सिद्ध हो। हिंदी के इस वैश्विक विस्तार का बड़ा श्रेय भूमंडलीकरण और संचार माध्यमों के विस्तार को जाता है। यह कहना ग़लत न होगा कि संचार माध्यमों ने हिंदी के जिस विविधतापूर्ण सर्वसमर्थ नए रूप का विकास किया है, उसने भाषासमृद्ध समाज के साथ-साथ भाषावंचित समाज के सदस्यों को भी वैश्विक संदर्भों से जोड़ने का काम किया है। यह नई हिंदी कुछ प्रतिशत अभिजात वर्ग के दिमाग़ी शगल की भाषा नहीं बल्कि अनेकानेक बोलियों में व्यक्त होने वाले ग्रामीण भारत की नई संपर्क भाषा है। इस भारत तक पहुँचने के लिए बड़ी से बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी हिंदी और भारतीय भाषाओं का सहारा लेना पड़ रहा है। हिंदी के इस रूप विस्तार के मूल में यह तथ्य निहित है कि गतिशीलता हिंदी का बुनियादी चरित्र है और हिंदी अपनी लचीली प्रकृति के कारण स्वयं को सामाजिक आवश्यकताओं के लिए आसानी से बदल लेती है। इसी कारण हिंदी के अनेक ऐसे क्षेत्रीय रूप विकसित हो गए हैं जिन पर उन क्षेत्रों की भाषा का प्रभाव साफ़-साफ़ दिखाई देता है। ऐसे अवसरों पर हिंदी व्याकरण और संरचना के प्रति अतिरिक्त सचेत नहीं रहती बल्कि पूरी सदिच्छा और उदारता के साथ इस प्रभाव को आत्मसात कर लेती है। यही प्रवृत्ति हिंदी के निरंतर विकास का आधार है और जब तक यह प्रवृत्ति है तब तक हिंदी का विकास रुक नहीं सकता। बाज़ारीकरण की अन्य कितने भी कारणों से निंदा की जा सकती हो लेकिन यह मानना होगा कि उसने हिंदी के लिए अनुकूल चुनौती प्रस्तुत की। बाज़ारीकरण ने आर्थिक उदारीकरण, सूचनाक्रांति तथा जीवनशैली के वैश्वीकरण की जो स्थितियाँ भारत की जनता के सामने रखी, इसमें संदेह नहीं कि उनमें पड़कर हिंदी भाषा के अभिव्यक्ति कौशल का विकास ही हुआ। अभिव्यक्ति कौशल के विकास का अर्थ भाषा का विकास ही है। यहाँ यह भी जोड़ा जा सकता है कि बाज़ारीकरण के साथ विकसित होती हुई हिंदी की अभिव्यक्ति क्षमता भारतीयता के साथ जुड़ी हुई है। यदि इसका माध्यम अंग्रेज़ी हुई होती तो अंग्रेज़ियत का प्रचार होता। लेकिन आज प्रचार माध्यमों की भाषा हिंदी होने के कारण वे भारतीय परिवार और सामाजिक संरचना की उपेक्षा नहीं कर सकते। इसका अभिप्राय है कि हिंदी का यह नया रूप बाज़ार सापेक्ष होते हुए भी संस्कृति निरपेक्ष नहीं है। विज्ञापनों से लेकर धारावाहिकों तक के विश्लेषण द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि संचार माध्यमों की हिंदी अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत की छाया से मुक्त है और अपनी जड़ों से जुड़ी हुई है। अनुवाद को इसकी सीमा माना जा सकता है। फिर भी, कहा जा सकता है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं ने बाज़ारवाद के खिलाफ़ उसी के एक अस्त्र बाज़ार के सहारे बड़ी फतह हासिल कर ली है। अंग्रेज़ी भले ही विश्व भाषा हो, भारत में वह डेढ़-दो प्रतिशत की ही भाषा है। इसीलिए भारत के बाज़ार की भाषाएँ भारतीय भाषाएँ ही हो सकती हैं, अंग्रेज़ी नहीं। और उन सबमें हिंदी की सार्वदेशिकता पहले ही सिद्ध हो चुकी है। बाज़ार और हिंदी की इस अनुकूलता का एक बड़ा उदाहरण यह हो सकता है कि पिछले पाँच-सात वर्षों में संचार माध्यमों पर हिंदी के विज्ञापनों के अनुपात में सत्तर प्रतिशत उछाल आया है। इसका कारण भी साफ़ है। भारत रूपी इस बड़े बाज़ार में सबसे बड़ा उपभोक्ता वर्ग मध्य और निम्नवित्त समाज का है जिसकी समझ और आस्था अंग्रेज़ी की अपेक्षा अपनी मातृभाषा या राष्ट्रभाषा से अधिक प्रभावित होती है। इस नए भाषिक परिवेश में विभिन्न संचार माध्यमों की भूमिका केंद्रीय हो गई है। हम देख सकते हैं कि इधर हिंदी पत्रकारिता का स्वरूप बहुत बदल गया है। अनेक पत्रिकाएँ यद्यपि बंद हुई हैं परंतु अनेक नई पत्रिकाएँ नए रूपाकार में शुरू भी हुई हैं। आज हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में हिंदी और हिंदीतर राज्यों का अंतर मिटता जा रहा है। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का पाठक वर्ग तो संपूर्ण देश में है ही, उनका प्रकाशन भी देशभर से हो रहा है। डिजिटल टेकनीक और बहुरंगे चित्रों के प्रकाशन की सुविधा ने हिंदी पत्रकारिता जगत को आमूल परिवर्तित कर दिया है। फ़िल्म के माध्यम से भी हिंदी को वैश्विक स्तर पर सम्मान प्राप्त हो रहा है। आज अनेक फ़िल्मकार भारत ही नहीं यूरोप, अमेरिका और खाड़ी देशों के अपने दर्शकों को ध्यान में रखकर फिल्में बना रहे हैं और हिंदी सिनेमा ऑस्कर तक पहुँच रहा है। दुनिया की संस्कृतियों को निकट लाने के क्षेत्र में निश्चय ही इस संचार माध्यम का योगदान चमत्कार कर सकता है। यदि मनोरंजन और अर्थ उत्पादन के साथ-साथ सार्थकता का भी ध्यान रखा जाए तो सिनेमा सर्वाधिक प्रभावशाली माध्यम सिद्ध हो सकता है। इसमें संदेह नहीं कि सिनेमा ने हिंदी की लोकप्रियता भी बढ़ाई है और व्यावहारिकता भी। यहाँ यदि मोबाइल और कंप्यूटर की संचार क्रांति की चर्चा न की जाए तो बात अधूरी रह जाएगी। ये ऐसे माध्यम हैं जिन्होंने दुनिया को सचमुच मनुष्य की मुट्ठी में कर दिया है। सूचना, समाचार और संवाद प्रेषण के लिए इन्होंने हिंदी को विकल्प के रूप में विकसित करके संचार-तकनीक को तो समृद्ध किया ही है, हिंदी को भी समृद्धतर बनाया है। इसी प्रकार इंटरनेट और वेबसाइट की सुविधा ने पत्र-पत्रिकाओं के ई-संस्करण तथा पूर्णत: ऑनलाइन पत्र-पत्रिकाएँ उपलब्ध कराकर सर्वथा नई दुनिया के दरवाज़े खोज दिए हैं। आज हिंदी की अनेक पत्रिकाएँ इस रूप में विश्वभर में कहीं भी कभी भी सुलभ हैं तथा अब हर प्रकार की जानकारी इंटरनेट पर हिंदी में प्राप्त होने लगी है। इस तरह हिंदी भाषा ने 'बाज़ार' और 'कंप्यूटर' दोनों की भाषा के रूप में अपना सामर्थ्य सिद्ध कर दिया है। भविष्य की विश्वभाषा की ये ही तो दो कसौटियाँ बताई जाती रही हैं!

Wednesday, February 10, 2010

प्रभाष जोशी पर लिखी किताब का लोकार्पण इसी महीने

हिंदी पत्रकारिता के शिखर पुरुष प्रभाष जोशी पर लिखी गई एक नई किताब का लोकार्पण इसी महीने होने जा रहा है। मध्यप्रदेश फाउंडेशन द्वारा नई दिल्ली के इंडिया हेबीटेट सेंटर में पुस्तक लोकापर्ण समारोह का आयोजन किया जाएगा। प्रसिद्घ गीतकार-गजलगो जावेद अख्तर व भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान बिशन सिंह बेदी पुस्तक का लोकार्पण करेंगे। इसके अलावा, अन्य महत्वपूर्ण शख्सियतों के नाम भी तय किए जा रहे हंै।
'प्रभाष जोशी : याद, संवाद, विवाद और प्रतिवादÓ नामक पुस्तक का संपादन इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया के चर्चित, वरिष्ठ पत्रकार आलोक तोमर व कृपाशंकर ने किया है। राजेंद्र यादव, मस्तराम कपूर, अच्युतानंद मिश्र, श्रवण गर्ग, रामशरण जोशी, पुण्य प्रसून वाजपेयी, रवींद्र त्रिपाठी, ओम थानवी, राम बहादुर राय, राजकिशोर, सुरेंद्र किशोर, गोबिन्द सिंह, दयानंद पाण्डेय, प्रियदर्शन, अरूण त्रिपाठी, रवीश कुमार, अरूण प्रकाश, दिलीप मंडल, अजीत कुमार, अपूर्व जोशी, अली अनवर, रजी अहमद, फजल इमाम मलिक, नंदिता मिश्र, संदीप जोशी, लीलाबाई जोशी, प्रभात रंजन दीन, सुधीर सक्सेना, गुरदयाल सिंह, विभा रानी, सुभाष चंद्र, मनीष चौहान, अजय सेतिया, सोपान जोशी, यशवंत सिंह सरीखे 60 से अधिक लोगों के लेख इसमें सग्रहित हैं। इसके अलावा स्वयं प्रभाष जोशी के कुछेक शिलालेख भी हैं, जो उनके सरोकारों को स्मरण कराते हैं। 'शिल्पायनÓ प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक 278 पृष्ठों की है।

इस परिवार को पहचानते हैं...

धीरुभाई अम्बानी... अनिल, मुकेश अम्बानी और कोकिला बेन

Tuesday, February 9, 2010

ग्रह भी कराते है प्रेम विवाह

जब किसी लड़का और लड़की के बीच प्रेम होता है तो वे साथ साथ जीवन बीताने की ख्वाहिश रखते हैं और विवाह करना चाहते हैं। कोई प्रेमी अपनी मंजिल पाने में सफल होता है यानी उनकी शादी उसी से होती है जिसे वे चाहते हैं और कुछ इसमे नाकामयाब होते हैं। ज्योतिषशास्त्री इसके लिए ग्रह योग को जिम्मेवार मानते हैं। देखते हैं ग्रह योग कुण्डली में क्या कहते हैं।

ज्योतिषशास्त्र में "शुक्र ग्रह" को प्रेम का कारक माना गया है । कुण्डली में लग्न, पंचम, सप्तम तथा एकादश भावों से शुक्र का सम्बन्ध होने पर व्यक्ति में प्रेमी स्वभाव का होता है। प्रेम होना अलग बात है और प्रेम का विवाह में परिणत होना अलग बात है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार पंचम भाव प्रेम का भाव होता है और सप्तम भाव विवाह का। पंचम भाव का सम्बन्ध जब सप्तम भाव से होता है तब दो प्रेमी वैवाहिक सूत्र में बंधते हैं। नवम भाव से पंचम का शुभ सम्बन्ध होने पर भी दो प्रेमी पति पत्नी बनकर दाम्पत्य जीवन का सुख प्राप्त करते हैं। ऐसा नहीं है कि केवल इन्हीं स्थितियो मे प्रेम विवाह हो सकता है। अगर आपकी कुण्डली में यह स्थिति नहीं बन रही है तो कोई बात नहीं है हो सकता है कि किसी अन्य स्थिति के होने से आपका प्रेम सफल हो और आप अपने प्रेमी को अपने जीवनसाथी के रूप में प्राप्त करें। पंचम भाव का स्वामी पंचमेश शुक्र अगर सप्तम भाव में स्थित है तब भी प्रेम विवाह की प्रबल संभावना बनती है । शुक्र अगर अपने घर में मौजूद हो तब भी प्रेम विवाह का योग बनता है।

शुक्र अगर लग्न स्थान में स्थित है और चन्द्र कुण्डली में शुक्र पंचम भाव में स्थित है तब भी प्रेम विवाह संभव होता है। नवमांश कुण्डली जन्म कुण्डली का शरीर माना जाता है अगर कुण्डली में प्रेम विवाह योग नहीं है और नवमांश कुण्डली में सप्तमेश और नवमेश की युति होती है तो प्रेम विवाह की संभावना 100 प्रतिशत बनती है। शुक्र ग्रह लग्न में मौजूद हो और साथ में लग्नेश हो तो प्रेम विवाह निश्चित समझना चाहिए । शनि और केतु पाप ग्रह कहे जाते हैं लेकिन सप्तम भाव में इनकी युति प्रेमियों के लिए शुभ संकेत होता है। राहु अगर लग्न में स्थित है तो नवमांश कुण्डली या जन्म कुण्डली में से किसी में भी सप्तमेश तथा पंचमेश का किसी प्रकार दृष्टि या युति सम्बन्ध होने पर प्रेम विवाह होता है। लग्न भाव में लग्नेश हो साथ में चन्द्रमा की युति हो अथवा सप्तम भाव में सप्तमेश के साथ चन्द्रमा की युति हो तब भी प्रेम विवाह का योग बनता है। सप्तम भाव का स्वामी अगर अपने घर में है तब स्वगृही सप्तमेश प्रेम विवाह करवाता है। एकादश भाव पापी ग्रहों के प्रभाव में होता है तब प्रेमियों का मिलन नहीं होता है और पापी ग्रहों के अशुभ प्रभाव से मुक्त है तो व्यक्ति अपने प्रेमी के साथ सात फेरे लेता है। प्रेम विवाह के लिए सप्तमेश व एकादशेश में परिवर्तन योग के साथ मंगल नवम या त्रिकोण में हो या फिर द्वादशेश तथा पंचमेश के मध्य राशि परिवर्तन हो तब भी शुभ और अनुकूल परिणाम मिलता है।

Monday, February 8, 2010

परछाइयाँ

क्षितिज पर सूरज बनकर बाँटना अपनी किरणें उन बीहड़ अन्धकारों में जहाँ कुलबुलाती हैं ढ़ेरों परछाइयाँ कोटर से बाहर आने को एक किरण की तलाश है उन्हें निश्चित ही तुम्हारी किरण उजाले में आने को उन्हें विवश करेगी खोलेंगी पलकें तो पाएँगी एक समूचा आकाश उनकी प्रतीक्षा में तना है, ब्रह्मïाण्ड के शीश पर पूरी की पूरी चटटान खड़ी है शिखर बनकर, सूरज की लालिमा में दमक रहे हैं उनके मस्तक, परछाइयाँ बाँहें उठाकर अपनी माँगेंगी उनसे मन्नत कुलाँचे भरेंगी हवाएँ गगन में तुम्हारी विजय पताका यशगाथा लेकर रू-ब-रू होगी तब तुमसे तुम्हारी ही शै। - डा. वाजदा खान

Sunday, February 7, 2010

रास्ता नहीं मिलता....

आम आदमी को महगाई की मार आखिर कब तक सहनी होगी इस बात का जवाब किसी के पास नहीं है। सरकार पहले तो चुनाव के कार्य में व्यस्त रही और अब मंत्रिमंडल के गठन में। आम आदमी पहले भी महगाई की चक्की में पिस रहा था और अब भी पिस रहा है। केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार अब भी ब्यान दे रहे है कि लगातार मानसून के कमजोर होने से कृषि उत्पादन में आई कमी ही महगाई का कारण है। जल्द ही महगाई पर उनका कोई काबू नहीं है। अभी आने वाले समय में भी महगाई इसी प्रकार से जनता को परेशान करती रहेगी। उनके इस प्रकार से ब्यान से लोगों की बेचैनी और बढ़ गई है। लोगों का कहना है कि अगर सरकार ही इस समस्या से अपना पल्ला झाड़ लेती है तो इस समस्या से निजात दिलाने का जिम्मा कौन लेगा।
सच तो यही है कि सबको रोटी देने की जिम्मेवारी अमूमन केंद्रीय कृषि एवं खाद्य मंत्रालय की होती है, जिसका जिम्मा शरद पवार के कंधों पर है। सौ दिनी एजेंडे को छोड़ भी दिया जाए तो इसका अनुभव उनके पास पांच वर्ष से अधिक का है। फिर भी उनके मंत्रालय की नाकामी के कारण देश की जनता त्राहि-माम कर रही है। हाल तो इसकदर बेहाल है कि वह अपनी जिम्मेदारी में प्रधानमंत्री की सहभागिता को लपेट लेते हैं और कहते हैं कि मूल्य वृद्घि में प्रधानमंत्री सहित कैबिनेट की स्वीकृति होती है। लो कर लो बात...। सौ दिनी एजेंडे में स्मरणीय यह भी है कि पहली बार कृषि मंत्री शरद पवार ने देश में भरोसा पैदा करने की जगह संसद के परिसर से लेकर कृषि मंत्री की कुर्सी पर बैठ कर कहा कि चावल-चीनी के दाम आने वाले वक्त में बढ़ सकते हैं । दाल की कमी हो सकती है । इस दौर में कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य सत्यव्रत चतुर्वेदी ने भी सूखे और महंगाई के मद्देनजर शरद पवार पर देश को गुमराह करने का आरोप लगाया। लेकिन प्रधानमंत्री अपनी टीम के वरिष्ठ मंत्री को लेकर न दुखी हुए न ही उन्होंने कोई प्रतिक्रिया दी । बात हवा में उड़ा दी गयी। ग्लोबल हंगर इंडेक्स, 2009 के आंकड़ों के मुताबिक विश्व में भूखे और कुपोषित लोगों के सूचकांंक में भारत 65वें नंबर पर है। 23।9 फीसदी भूखी और कुपोषित जनता के साथ भारत 84 देशों की इस ग्लोबल हंगर सूची में 65वें स्थान पर है। इस रिपोर्ट को अंतर्राष्टï्रीय खाद्यान्न नीति एवं अनुसंधान संस्थान और कंसर्न वल्र्डवाइड ने मिल कर तैयार किया है। स्याह सच यह भी है कि जिस देश के कुछ मंत्री और नौकरशाह मिलकर एक वर्ष में करोड़ो रुपए का बोतलबंद पानी, चाय और काफी गटक जाते हैं, जहां मंत्रियों की गाडिय़ों और यात्राओं पर सालाना सैकड़ों करोड़ों रुपए खर्च हो जाते हैं, जहां भारी-भरकम योजनाओं तो बनती है लेकिन फलितार्थ नहीं हो पाती, जहां गोदामों में लाखों टन अनाज चूहे साफ कर जाते हैं और उस पर भी आयोग गठित होने की बात होती है, जहां बंदरगाह पर अनाज सड़ जाता है, वहां लोगों को खाना नहीं मिलता। इस विरोधाभास को समझना आसान नहीं है?
सरकार चूंकि कांग्रेस के नेतृत्व में है और सरकार का मुखिया विश्वविख्यात अर्थशास्त्री हैं, सो जिम्मेदारी केंद्रीय कृषि मंत्री से कमत्तर जिम्मेवारी उनकी भी नहीे है। काबिलेगौर है कि कांग्रेस ने अपने आर्थिक प्रस्ताव में कहा कि मूल्यों में वृद्धि के कुछ कारणों में जलवायु परिवर्तन का भी योगदान रहा है लेकिन हमें विश्वास है कि सरकार की नीतियां कुछ आवश्यक खाद्य वस्तुओं के मूल्यों को नियंत्रित करने में सफल होंगी। पार्टी ने अपने राजनीतिक संकल्प में कहा कि बाहरी ताकतों द्वारा प्रायोजित आतंकवादी ताकतों के कारण बढ़ते खतरे पर यह अधिवेशन चिंता व्यक्त करता है। आज यह लोगों के लिए गंभीर चिंता का विषय बन गया है। हम उन देशों की निंदा करते हैं जो आतंकवादियों को संरक्षण प्रदान करते हैं और उनको बढ़ावा देते हैं। यह अधिवेशन आतंकवाद को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय से तत्काल हस्तक्षेप करने का आह्वान करता है। नए राज्यों की मांग के संबंध में पार्टी का मानना है कि पृथक तेलंगाना राज्य बनाए जाने के लिए केंर्द सरकार की सहमति की घोषणा से राजनीतिक संकट पैदा हो गया है जिसके फलस्वरूप यह राज्य विभिन्न राजनीतिक दलों का अखाड़ा बन गया है। राकांपा किसी भी मामले में जल्दबाजी में निर्णय लिए जाने के दृष्टिकोण से सहमत नहीं है।
दूसरी ओर समस्या यह भी है कि आर्थिक विकास दर से रीझे चंद बुद्धिजीवियों द्वारा देश में ऐसा माहौल बना दिया गया है कि मनमोहन जैसी मन मोहने वाली सरकार का कोई जोड़ नहीं। चूंकि विपक्ष बिखराव से ग्रस्त है और संप्रग सरकार की आलोचना करना वर्जित कृत्य करार दिया गया है इसलिए कोई भी इस ओर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं कि विदेश नीति से लेकर अर्थनीति तक के प्रत्येक मोर्चे पर केंद्रीय सत्ता कितनी विफल है। महंगाई चरम सीमा को छूने के बाद भी जिस तरह थमने का नाम नहीं ले रही उससे केंद्रीय सत्ता को चिंतित होना चाहिए, लेकिन ऐसे संकेत तक नहीं नजर आते कि उसके लिए यह चिंताजनक मसला है। दालों, चीनी एवं अन्य खाद्य सामग्री के बेतहाशा बढ़ते मूल्यों के लिए उसके पास न केवल तरह-तरह के बहाने मौजूद हैं, बल्कि यह दो टूक जवाब भी कि महंगाई का सामना करने के अलावा और कोई उपाय नहीं। खाद्य पदार्थो की कमी के लिए कभी कम उत्पादन को जिम्मेदार बनाया जाता है, कभी अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेजी को और कभी राज्य सरकारों के उस रवैये को जिसके तहत जमाखोरों और कालाबाजारियों के खिलाफ कार्रवाई करने में आनाकानी की जा रही है। यदि महंगाई का कारण जमाखोरी है तो फिर कम पैदावार और अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेजी का रोना क्यों रोया जाता है? सवाल यह भी है कि यदि महंगाई के लिए ये सभी कारक जिम्मेदार हैं तो फिर केंद्रीय सत्ता किस मर्ज की दवा है? यथार्थ यह है कि केंद्रीय सत्ता इतनी नाकारा है कि वह न तो कम पैदावार का अनुमान लगा सकी, न समय रहते दालों-चीनी आदि का आयात कर सकी। कहने को एक कृषि एवं खाद्य मंत्रालय है, लेकिन उसे न तो कृषि से मतलब है और न ही खाद्य संकट की चिंता करने से। देश यह भी महसूस कर रहा है कि मनमोहन का शरद पवार पर कोई जोर नहीं और शरद पवार को मनमोहन सिंह की कोई परवाह नहीं। शरद पवार जितने निरंकुश हैं, मनमोहन सिंह अपने निरंकुश मंत्रियों पर लगाम लगाने में उतने ही अक्षम हैं। वह किसी सेमिनार, सभा, सम्मेलन में भाषण देने के लिए ही अधिक स्वतंत्र-सक्षम नजर आते हैं। कोई नहीं जानता-शायद मनमोहन सिंह भी नहीं कि उन समस्याओं से निपटने के लिए क्या किया जा रहा है जो राष्ट्र के समक्ष मुंह बाए खड़ी हैं।
दूसरी ओर समस्या यह भी है कि आर्थिक विकास दर से रीझे चंद बुद्धिजीवियों द्वारा देश में ऐसा माहौल बना दिया गया है कि मनमोहन जैसी मन मोहने वाली सरकार का कोई जोड़ नहीं। चूंकि विपक्ष बिखराव से ग्रस्त है और संप्रग सरकार की आलोचना करना वर्जित कृत्य करार दिया गया है इसलिए कोई भी इस ओर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं कि विदेश नीति से लेकर अर्थनीति तक के प्रत्येक मोर्चे पर केंद्रीय सत्ता कितनी विफल है। महंगाई चरम सीमा को छूने के बाद भी जिस तरह थमने का नाम नहीं ले रही उससे केंद्रीय सत्ता को चिंतित होना चाहिए, लेकिन ऐसे संकेत तक नहीं नजर आते कि उसके लिए यह चिंताजनक मसला है। दालों, चीनी एवं अन्य खाद्य सामग्री के बेतहाशा बढ़ते मूल्यों के लिए उसके पास न केवल तरह-तरह के बहाने मौजूद हैं, बल्कि यह दो टूक जवाब भी कि महंगाई का सामना करने के अलावा और कोई उपाय नहीं। खाद्य पदार्थो की कमी के लिए कभी कम उत्पादन को जिम्मेदार बनाया जाता है, कभी अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेजी को और कभी राज्य सरकारों के उस रवैये को जिसके तहत जमाखोरों और कालाबाजारियों के खिलाफ कार्रवाई करने में आनाकानी की जा रही है। यदि महंगाई का कारण जमाखोरी है तो फिर कम पैदावार और अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेजी का रोना क्यों रोया जाता है? सवाल यह भी है कि यदि महंगाई के लिए ये सभी कारक जिम्मेदार हैं तो फिर केंद्रीय सत्ता किस मर्ज की दवा है? यथार्थ यह है कि केंद्रीय सत्ता इतनी नाकारा है कि वह न तो कम पैदावार का अनुमान लगा सकी, न समय रहते दालों-चीनी आदि का आयात कर सकी। कहने को एक कृषि एवं खाद्य मंत्रालय है, लेकिन उसे न तो कृषि से मतलब है और न ही खाद्य संकट की चिंता करने से। देश यह भी महसूस कर रहा है कि मनमोहन का शरद पवार पर कोई जोर नहीं और शरद पवार को मनमोहन सिंह की कोई परवाह नहीं। शरद पवार जितने निरंकुश हैं, मनमोहन सिंह अपने निरंकुश मंत्रियों पर लगाम लगाने में उतने ही अक्षम हैं। वह किसी सेमिनार, सभा, सम्मेलन में भाषण देने के लिए ही अधिक स्वतंत्र-सक्षम नजर आते हैं। कोई नहीं जानता-शायद मनमोहन सिंह भी नहीं कि उन समस्याओं से निपटने के लिए क्या किया जा रहा है जो राष्ट्र के समक्ष मुंह बाए खड़ी हैं।

Thursday, February 4, 2010

निवेश के फंडे

कहां करें निवेश भले ही नवंबर-दिसंबर के दौरान शेयरों में ज्यादा उतार-चढ़ाव रहता है पर स्लोडाउन के बुरे दौर के बाद इस बार अबतक शेयर बाजार में कुछ ज्यादा घट-बढ़ देखने को मिल रही है। यह घट बढ़ अगले महीने भी जारी रह सकती है। ऐसे दौर में निवेशक को चाहिए कि रिस्क कम लें और समझदारी से शॉर्ट टर्म रणनीति बनाकर कारोबार करें। 1.पकड़ें कम उतार चढ़ाव को ऐसे दौर में जब एक दिन शेयरों में मंदी के भारी झटके लग रहे हैं और दूसरे दिन शेयर नई ऊंचाइयां चढ़ते दिख रहे हैं ऐसे में निवेशकों को उन शेयरों में हाथ आजमाना चाहिए, जिनमें उतार-चढ़ाव कम हुआ है। इन शेयरों को गिरने पर खरीद लेना चाहिए। जब ये शेयर चढ़ें, तो बेच दें। इन शेयरों को खरीदने का फायदा यह होगा कि इन शेयरों के ज्यादा गिरने का रिस्क आपको नहीं डराएगा। कुछ समय तक गिरने के बाद इन शेयरों का बढऩा तय है। ऐसे में आप इन्हें बेचकर मुनाफा कमा सकते हैं। 2. पड़े बड़े प्रॉफिट के चक्कर में निवेशकों को तभी झटका लगता है जब लोग बड़े प्रॉफिट के चक्कर में पड़ते हैं। ज्यादा बढऩे की चाहत में लोग कई बारे शेयरों को होल्ड करके रख लेते हैं। अचानक पता चलता है कि मुनाफा वसूली की वजह से शेयर बुरी तरह गिर गए। ऐसे में जरूरी है कि शॉर्ट टर्म मुनाफा कमाया जाए। वसूली करते समय प्रॉफिट माजिर्न कम करें। इसलिए जरूरी है कि शेयरों को निचले स्तर पर खरीदें और 5 से 10 पर्सेंट के प्रॉफिट पर बेच दें। 3. रखें ध्यान मुनाफा कमाने के लिए शेयर बाजार में होने वाले झटकों पर ध्यान रखना जरूरी है, न कि बड़े चढ़ाव पर। जब भारी झटके लगें, तो देखें कि कौन-कौन से शेयर कितने गिरे हैं। शेयरों की गिरावट की तुलना उनकी पिछली गिरावट से करें। शेयरों के निचले स्तर का पता लगाएं। जो शेयर ज्यादा गिरे हैं और पहले की तुलना में निचले स्तर पर पहुंच गए हैं, उन्हें खरीदना फायदेमंद है। 4. करें 60 परसेंट इनवेस्ट यह हर व्यापार की सीख होती है कि कहीं भी अपनी सारी की सारी जमा पूंजी न लगा दें। यही फंडा निवेश का भी है। शेयरों में अपनी पूंजी का 60 परसेंट ही लगाएं। ज्यादा प्रॉफिट के लालच में अपनी सारी पूंजी शेयरों में लगाना बेवकूफी होगी। आपने जिन शेयरों में अपनी पूंजी लगाई है, अगर दुर्भाग्य से वे गिर गए तो भविष्य में भारी नुकसान हो सकता है। 5.बड़े शेयरों पर नज़र शेयर बाजार में ऐसे मौके भी आते हैं, जब बड़ी कंपनियों के शेयर बुरी तरह गिरते हैं। अगर आप थोड़ा रिस्क लेकर अपने बजट का 30 परसेंट तक शेयरों में लगा सकते हैं तो आपको बड़े शेयरों पर नजर रखनी चाहिए। जब भी 10 से 15 परसेंट की गिरावट आए, तुरंत खरीद लें। ऐसा तब होता है, जब तकनीकी करेक्शन का दौर चलता है या विदेशी इनवेस्टर भारी मुनाफे के लिए शेयरों को गिराने का खेल खेलते हैं। ये आपको कम कीमत पर ज्यादा मुनाफा देंगे।

Wednesday, February 3, 2010

निवेश के फंडे

निवेश के मामले में कोई कितनी भी सलाह दे ले पर सच यही है कि इसके प्रतिमान हर दिन बदलते हैं लेकिन कुछ खास बातों का ध्यान रखा जाए तो इसे एक सेफ गेम की तरह खेला जा सकता है। इससे इस क्षेत्र में जीत के चांस बढ़ जाते हैं। जरूरत है थोड़े से धैर्य और सजगता की। वित्तीय जगत के विशेषज्ञ शेयर के चुनाव के लिए पीई रेश्यो, कैशफ्लो और फंडामेंटल एनालिसिस के बुनियादी तथ्यों के विश्लेषण पर ज्यादा जोर देते हैं। यह निवेश के लिए जरूरी और कारगर तथ्य तो है पर इसके अलावा भी कुछ बातें हैं जिसके बिना निवेश करने की समग्र तस्वीर अधूरी है। बाजार के बदलते मूल्य और इसका मनोविज्ञान हमेशा ही शेयर के सही मूल्य को प्रतिबिंबित नहीं करता है। कई बार देखा गया है कि शेयर के मूल्य निवेशकों की आशंका से कहीं ज्यादानीचे गिर जाते हैं और निवेशकों का धैर्य भी टूटने लगता है। बाजार मे शेयर के गिरते मूल्य देखकर ऐसे निवेशक घबरा जाते हैं जिन्होंने सस्ते मूल्य में कंपनी का शेयर खरीद रखा था और गिरते मूल्यों की निराशा फैलने पर इसे सस्ते मूल्यों में बेचना शुरू कर देते हैं जो सही नहीं है क्योंकि शेयर के दाम का घटना बढऩा बाजार के स्वभाव का हिस्सा होता है। अगर निवेशक उसके मुताबिक थोड़ा सा धैर्य रख लें तो प्राय: परिस्थितियां उनके अनुकूल हो सकती हैं। इसके लिए जरूरी है कुछ खास बातों का तथ्यात्मक विश्लेषण करना। इसके साथ ही कंपनी की गुणवत्ता का विश्लेषण करना भी जरूरी है। कंपनी के बारें में यह जानना जरूरी है कि क्या कंपनी पहले से ही लाभ प्रदाता इकाई है? अगर कंपनी के शेयर मूल्य तेजी से बढ़ या घट रहे हैं तो उसका कारण क्या है? कंपनी कौन से नए उत्पाद ला रही है। इसके साथ ही अगर बाज़ार की अर्थव्यवस्था के विभिन्न पहलुओं पर नजर नहीं डाली गई तो कई बार बाहर से बेहतर दिखने वाली कंपनी के अचानक औंधेमुंह गिरने की आशंका बनी रहती है। किसी बेहतर कंपनी के मूल्यांकन की कई शर्ते होती हैं जैसे कंपनी का बिजनेस मॉडल सर्वश्रेष्ठ है या नहीं, कंपनी की ओर से लगातार नए और बेहतर उत्पाद लॉन्च किए जा रहे हैं या नहीं और इनकी वजह से कंपनी के विपणन में बढ़ोतरी हो रही है या नहीं आदि। साथ ही अपने आसपास के बाजार और मौसम पर ध्यान रखना जरूरी है। इसके अलावा निवेशकों को ऐसी कंपनी की तलाश करनी चाहिए जिसमें जारी किए गए शेयर वापस खरीदने का भी प्रावधान हो। इससे स्टॉक काअर्निंग पर शेयर तो बढ़ता ही है साथ ही यह इस बात की आश्वासन भी होता है कि कंपनी में किया गया निवेश ही सबसे बेहतर है। बहुत से स्टॉक चक्रीय क्रम पर भी कार्य करते हैं। इन्हें सीजनल स्टॉक कहा जाता है। इनमें वर्ष के कुछ खास महीनों में ट्रेडिंग वाल्यूम काफी रहता है और कुछ महीनों में यह काफी कम हो जाता है। लेकिन अगर निवेशक इस विचलन से अनजान है तो इस निवेश से घाटा भी हो सकता है। इसलिए बेहतर यह है कि निवेश का समय जानने के लिए ट्रेडिंग पैटर्न पर पांच वर्ष के चार्ट पर नजर डाल लें। ऐसे में इसके सभी पक्षों का गहराई से मूल्यांकन करने के बाद ही निवेश करना चाहिए। तो इस बात को दरकिनार करिये कि निवेश के लिए बुद्धिमान होना जरूरी है। सही निर्णय लेने के लिए जरूरी है कि निवेशक भय और लालच जैसी भावनाओं पर नियंत्रण रखे। सच यो यह है कि निवेश के लिए सामान्य बुद्धिमत्ता जरूरी है विशिष्टता नहीं। साथ अगर आप थोड़ी सजगता दिखाएं तो मार्केट में निवेश का फंडा समझते आपको देर नहीं लगेगी। अगली बार पढ़े कहां करें निवेश

Tuesday, February 2, 2010

मिनटों में मालामाल

कैसे कमाते हैं ये कलाकर मिनटों में लाखों? पढि़ए आगे.. .. .. .. हर कलाकार की प्रतिमिनट की कीमत बालीवुड में उसकी औकात पर निर्भर करती है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो कलाकार जितना हिट है, उसकी कीमत भी उसी हिसाब से लगाई जाती है। कार्यक्रमों में शिरकत करने की रकम कलाकार की बालीवुड में कामयाबी और लोगों के बीच उसकी प्रसिद्धी पर निर्भर करती है। कुछ कलाकार काफी चूजी हैं जो खास कार्यक्रमों में ही जाते है। इनमें सलमान खान, ऋतिक रोशन और संजय दत्त शामिल हैं। जहां ऋतिक रोशन 1.25 करोड़ प्रति आधे घंटे का लेते हैं वहीं सलमान खान की हर छोटी से छोटी प्रेजेंस की कीमत कम से कम 1 करोड़ रुपए है। संजय के पैसे तो इनसे कुछ कम, करीब 75 लाख के आसपास है पर वह शादी जैसे कार्यक्रमों में नहीं जाते हैं। इनके बाद नंबर आता है जान अब्राहम का जो प्रति आधा घंटा के हिसाब से 75 लाख रुपए के आसपास लेते हैं। इसी तरह शाहिद कपूर 50 लाख, अभय देओल 35 लाख, अक्षय कुमार 30 लाख, इरफान खान 20 लाख, अनिल कपूर 15 लाख, तुषार कपूर 10 लाख, डीनो मोरिया 4 लाख रुपए लेते हैं। हीरोइनें भी इस मामले में किसी से पीछे नहीं हैं। हीरोइनों में सबसे ज्यादा 75 लाख रुपए ऐश्वर्या राय को मिलते हैं। वहीं नवोदित कलाकार दीपिका पादुकोण और सोनम कपूर को 50 लाख मिलते हैं। इसके बाद रानी मुखर्जी आती हैं जिन्हें 35 लाख मिलते हैं। कैटरीना कैफ रिबन काटने का भी कम से कम 30 लाख लेती हैं। इसी तरह विद्या बालन 35 लाख, कोंकणा सेनशर्मा व चित्रांगदा 25 लाख, अमीषा पटेल व सेलीना जेठली 10 लाख, मनीषा कोइराला 6 लाख, नेहा धूपिया 5 लाख लेती हैं। कुछ कलाकार ऐसे भी हैं जो 1 लाख से 50 हजार रुपए में भी कार्यक्रमों में शिरकत करते हैं। कुछ हीरोइनें किसी पार्टी में डांस नहीं करती पर कुछ ऐसी भी अभिनेत्रियां हैं जिनको उनके आयटम नंबर के लिए ही बुलाया जाता है। इनमें पहला नाम बिपाशा बसु का है जो किसी कार्यक्रम में शिरकत करने का तो 25 लाख लेती हैं पर किसी कार्यक्रम में उनके डांस के लिए 1.5 करोड़ मिलते हैं। इसी तरह लारा दत्ता भी किसी कार्यक्रम में उपस्थिति का 25 लाख और डांस का 1.5 करोड़ लेती हैं। मल्लिका शेरावत भी डांस के लिए लगभग 1 करोड़ चार्ज करती हैं। कुछ लोग कपल को बुलाना पसंद करते हैं तो उनके लिए भी ढेरों च्वाइस हैं। इसमें सबसे पहला नंबर आता है जॉन अब्राहम और बिपाशा बसु का जिनको लगभग 1 करोड़ रुपए मिलते हैं। सैफ अली खान व करीना कपूर को साथ देखने की कीमत 80 लाख रुपए है, तो शिल्पा शेट्टी और राज कुंद्रा को इनसे कुछ कम, 40 से 50 लाख में बुलाया जा सकता है। सोनम कपूर और अनिल कपूर की बाप-बेटी की जोड़ी को 60 लाख मिलते हैं। ऐसा नहीं है कि स्टारडम के हर कीमती पलों का इस्तेमाल सिर्फ हीरो या हीरोइन ही करते हैं। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हास्य कलाकार, गायक, संगीतकार, लेखक सहित इंडस्ट्री का कोई भी व्यक्ति बिना फायदे के किसी कार्यक्रम में शिरकत नहीं करता। आज के दौर में कार्य का क्षेत्र चाहे कोई भी हो, आज की युवा पीढ़ी, युवावस्था में जमकर मेहनत कर, अपने भविष्य की सुरक्षित करने में भरोसा करती है। इसी तरह आज के ये कलाकार भी अपनी स्टारडम के हर मिनट का इस्तेमाल कर, लाखों कमा लेना चाहते हैं ताकि उनका भविष्य पैसे के आभाव में न बीते। कलाकरों के मिनट दर मिनट का हिसाब - एश्वर्या राय 2.50 लाख - जॉन अब्राहम 2.50 लाख - संजय दत्त, शाहीद कपूर, सोनम कपूर, दीपिका पादुकोण 1.66 लाख - अभय देओल, रानी मुखर्जी, विद्या बालान 1.16 लाख - अर्जुन रामपाल और मेहर जेसिया 1.16 लाख.... - आसीन 1 लाख - कोंकणा सेन शर्मा, बिपाशा बसु, लारा दत्ता, चित्रागंदा सिंह 83,300 - अनिल कपूर 50,000 - मल्लिका शेरावत, इरफान खान, आफताब शिवदासानी 66,600 - मनीषा कोइराला 50,000 - सेलिना जेटली, अमृता राव, अमीषा पटेल, तुषार कपूर, महिमा चौधरी 33,000 - मिनिशा लाम्बा 16,600 - डीनो मोरिया, नेहा धूपिया, मुग्धा गोडसे रुपए 13,300

Monday, February 1, 2010

मिनटों में मालामाल

पुराने कलाकारों की नज़र में भांड का दर्जा पाने वाले आज के फिल्मी कलाकार, प्रति मिनट लाखों कमा रहे हैं। आज के दौर के ये कलाकार पैसों के लिए, किसी को भी अपना रिश्तेदार बताने से भी नहीं चूकते। ये अपने इन कीमती पलों की कीमत लगाकर, अपना भविष्य सुरक्षित कर रहे हैं जिसकी पुराने कलाकारों ने कभी फिक्र नहीं की और जिसके चलते उन्हें अपने आखिरी दिन गरीबी में काटने पड़े। पेश है मिनटों में लाखों कमाने वाले आज के इन कलाकारों की कमाई की एक झलक- पिछले दिनों एक शादी में बिपाशा बसु और जॉन अब्राहम ने शिरकत की। जब पत्रकारों ने उनसे पूछा कि वे इस शादी में क्यों शिरकत कर रहे हैं तो उन्होंने मुस्कुराकर कहा कि यह उनके पुराने पारिवारिक मित्र की शादी है। बाद में पता चला कि उसमें शिरकत करने के लिए दोनों एक पैकेज के तहत आए थे जिसके लिए उन्हें एक मोटी रकम दी गई थी। इसी तरह कुछ समय पूर्व कैटरीना कैफ भी दिल्ली में अपने एक तथाकथित रिश्तेदार के यहां एक कार्यक्रम में कुछ पलों के लिए आयी थीं जिसके लिए उन्होंने 57 लाख रुपए लिए थे। वैसे भी अब वह दिन लद गए जब फिल्मी कलाकार किसी दोस्त या रिश्तेदार की शादी में शिरकत कर, उसके पूरे परिवार पर अहसान जताया करते थे। अब तो ये कलाकार पैसों के संगी हैं। इन नए कलाकारों का अपने प्रतिपल की कीमत तय करने के पीछे का कारण वह सत्य है जिसे पुराने कलाकारों ने अनदेखा कर दिया था। खुद को दुनिया से अलग और महत्वपूर्ण दिखाने के चक्कर में इन पुराने कलाकारों ने कभी भी लोगों के बीच जाने को प्राथमिकता नहीं दी और खुद को बस एक्टिंग के दायरे में समेटे रखा। बाद में उनका यह व्यवहार, उस कटु सत्य के रूप में लोगों के सामने आया जिससे आज के कलाकार खुद को सुरक्षित रखना चाहते हैं। फिल्मी दुनिया की विशेषता है कि 'जो दिखता है वही बिकता हैÓ। जब तक कलाकार हिट हैं लोगों के बीच उनकी पूछपरख तो होती ही है, वे लाखो के आसामी भी होते हैं। जैसे ही उनका शरीर काम करना बंद करता है जब उनके पास न तो शोहरत बचती है और न ही पैसे। ऐसे कई कलाकार हैं जिनका बुढ़ापा या बीमारी पैसों के आभाव में बीता है। अपने जमाने की श्रेष्ठ अभिनेत्रियों में से एक मधुबाला जब कैंसर से पाडि़त थी और काम करने में अक्षम थीं, तब अगर किशोर कुमार उनका सहारा नहीं बनते तो उनकी मौत शायद और भी दर्दनाक होती। किशोर कुमार ने मधुबाला से सिर्फ इसलिए शादी की थी ताकि वह मधुबाला के इलाज में उनकी मदद कर सकें। पर सबकी किस्मत मधु जैसी नहीं होती है। ये बात जगजाहिर है कि अपने जमाने के जाने माने कलाकार संजीव कुमार ने अपने आखिरी दिन, पैसों के आभाव में बिताएं हैं। इनके अलावा भी ऐसे कई कलाकार हैं जिन्होंने अपने आखिर दिनों में तंगी देखी है। तंगी के इसी दौर से अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए ये कलाकार अपनी प्रसिद्धी के हर पल को 'कैशÓ कर लेना चाहते हैं। अपने वरिष्ठों की ऐसी दशा देखकर नए कलाकारों ने उनसे प्रेरणा ली। आज के कलाकार यह जानते हैं कि फिल्मी दुनिया 'चार दिन की चांदनीÓ है। यह कोई सरकारी नौकरी तो है नहीं कि आगे चलकर सरकार पेंशन देगी। इसीलिए ये लोग अपनी प्रसिद्ध को भुनाने का कोई भी मौका अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते। यही कारण है कि शादी से लेकर बच्चे के जन्म की खुशी में भी ये कलाकार किसी को भी अपना रिश्तेदार बता सकते हैं। बशर्ते उनकी इस 'मेहरबानीÓ के लिए, लोग मोटी रकम देने का दमखम रखते हों। 'पैसा फेंक तमाशा देखÓ की तर्ज पर लोगों की पार्टियों में शिरकत करने वाले, नई पीढ़ी के इन कलाकारों को भले ही पुराने कलाकार 'भांडÓ की संज्ञा दें पर इन पार्टियों से मिलने वाले पैसों के सामने उन्हें ये आरोप छोटे प्रतीतहोते हैं। आज के कलाकार खुद को किसी उद्योगपति से कमतर नहीं मानते। जब फिल्म इंडस्ट्री, उद्योग क ा रूप अख्तियार कर चुकी हैं तो इसमें काम करने वाले कलाकार अगर खुद को उद्योगपति और अपने हर काम को बिजनेस मानकर कर रहे हैं तो इसमें किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए। अब चूंकि स्टार उद्योगपति की तर्ज पर काम कर रहे हैं तो उन्हें अपने हर उस पल के लिए पैसे चाहिए जो वे फिल्मों के अलावा लोगों के बीच जाकर बिताते हैं। उनके इन कामों में किसी पार्टी में डांस करने से लेकर फीता काटने तक और किसी के बच्चे के बर्थडे पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना तक शामिल है। अगली बार पढि़ए कि आखिर क्यों इन कलाकारों को मिनटों के लाखों मिलते हैं?

नीलम