Monday, March 29, 2010

दिलीप कुमार की सायरा बानो

दिलीप कुमार की सायरा बानो यह एक इत्तेफाक है कि महान कलाकार दिलीप कुमार की पत्नी सायरा बानो हैं और रहमान यानी दिलीप कुमार की पत्नी का नाम भी सायरा बानो ही है। लेकिन एक बात दोनों में असमान है और वह सायरा का चुनाव। दिलीप साहब ने अपनी सायरा खुद चुनी और रहमान की सायरा को चुना उनकी मां और परिवार ने। एक आम भारतीय लडक़े की तरह उन्होंने अपनी मां पर यह जिम्मेदारी सौंपी। अपनी पसंद उन्होंने एक वाक्य में जाहिर की कि उन्हें ऐसी लडक़ी चाहिए जो भले ही थोड़ी शिक्षित हो, थोड़ी खूबसूरत हो, लेकिन उसमें ढेर सारी इंसानियत और अच्छे व्यवहार का गुण हो। गुजरात के कच्छ प्रांत की सायरा को रहमान की मां ने एक सूफी मंदिर में प्रार्थना करते देखा था। व्यापारिक परिवार की इस कन्या के लिए उसके घर वाले भी योग्य वर की तलाश में थे। सायरा के जीजा जी भी तमिल फिल्मों के एक्टर थे और उनका नाम भी रहमान ही है। और तो और सायरा भी एआर रहमान की फैन में से एक थीं। पहली मुलाकात में तमिल से जुदा भाषा कच्छी बोलने वाली सायरा की भाषा रहमान ने भले ही न समझी हो लेकिन उसमें कुछ ऐसा था जो रहमान को प्रभावित कर गया। 3 घंटे की अपनी पहली ही मुलाकात में रहमान और सायरा, साथ-साथ जिंदगी बिताने का अहम फैसला कर चुके थे। 12 मार्च, 1995 को 27 साल की उम्र में रहमान, सायरा के साथ विवाह सूत्र में बंध गए। आज इनके तीन बच्चे हैं दो बेटियां, खतिजा व रेहाना और एक बेटा रूमी। गरीबों के मसीहा रहमान ने गरीबी को नजदीक से देखा है अत: वह उन तकलीफों से भी वाकिफ हैं जो पैसे के अभाव में झेलनी पड़ती हैं। रहमान आज जरूरत मंदों की हर संभव मदद करते हैं। 2004 से वह विश्व स्वास्थ्य संगठन के ग्लोबल एंबेसडर हैं, जिसमें वह स्टाप टीबी पार्टनरशिप के तहत जुड़े हैं। इसके जरिए विश्व में लोगों को टीबी से बचने के लिए जागरुकता अभियान चलाया जाता है और इसके इलाज के लिए दवाइयां उपलब्ध कराई जाती हैं। भारत में बच्चों के पुर्नवास और शिक्षा-दीक्षा के लिए भी रहमान समय-समय पर चैरिटी करते रहते हैं। भारत में 2004 में आयी सुनामी से पीडि़त लोगों के पुनर्वास के लिए रहमान ने इंडियन ओशन नामक एलबम बनाया और इसकी सारी कमायी पीडि़तों के नाम कर दी। इसके अलावा संगीत के क्षेत्र में भी रहमान उस हर जरूरतमंद और गरीब की मदद करने का प्रयास करते हैं, जो संगीत सीखना चाहते हैं लेकिन पैसों के अभाव में नहीं सीख पाता। धर्म और रहमान एक वक्त था जब रहमान का मन भगवान को मानने से इनकार करता था लेकिन पीर करीमुल्लाह शाह कादरी या पीर कादरी के सानिध्य में आकर उनका अल्लाह पर भरोसा बढ़ा और उन्होंने अल्लाह के चमत्कार से अभिभूत होकर इस्लाम कबूल कर लिया। पीर कादरी के बाद उन्होंने महबूब आलम और मोहम्मद युसुफ भाई से इस्लाम के बारे में सीखा। आज भी यह दोनों रहमान के धार्मिक गुरु और सलाहकार हैं। रहमान ने न सिर्फ इस्लाम धर्म कबूल किया बल्कि इस पर कायम भी रहे। इस्लाम अपनाने के बारे में उनका स्पष्ट मत है इस्लाम अपनाकर मुझे लगा कि मेरा नया जन्म हुआ है। रहमान पर इस्लाम के प्रभाव का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने पहले संगीत संस्थान का नाम सूफी संत मोइनुद्दीन चिश्ती के नाम पर रखा है। हर सवाल का जवाब-एक मुस्कान रहमान ने कभी भी उन चर्चाओं का हिस्सा बनना लाजमी नहीं समझा जिनमें संगीत की बात न हो। आज वह गोल्डन ग्लोब और आस्कर अवार्ड पाने वाले पहले भारतीय बनकर भी उतने ही शांत हैं जितने तब थे जब उनकी फिल्म चिक्कुबक-चिक्कुबकु हिट हुई थी। फिल्म के हिट होने के बाद जब सुरेश पीटर्स , जो उस समय के मशहूर संगीतकार थे, से किसी पत्रकार ने पूछा कि अब तो रहमान आपके बराबर पहुंच गए हैं तो पीटर्स का जवाब था रहमान का दायरा छोटा है और मेरा बड़ा। वह तमिल फिल्मों तक सीमित है और मैं फिल्मों के साथ एलबम आदि पर भी काम करता हूं। तब रहमान ने इस बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी। जल्द ही पीटर्स सहित दुनिया को उनका जवाब, सोनी के वन्दे मातरम् एलबम के रूप में मिला, जो भारत सहित विश्व के 28 देशों में लांच हुआ। रहमान के दायरे को छोटा कहने वाले पीटर्स आज भी वहीं हैं जहां तब थे और रहमान उन बुलंदियों के छू चुके हैं जहां से सुरेश पीटर्स जैसे सैकड़ों लोग बौने ही नजर आते हैं। अगर रहमान उस वक्त पीटर्स की तरह सवाल जवाब में उलझे होते, तो शायद आज उनका यह मुकाम नहीं होता। रहमान के खास अंदाजों में से एक, हर बात को मुस्कुराहट के साथ टालना भी है ताकि वह अपनी सारी ताकत संगीत-सृजन में लगा सकें।

Saturday, March 27, 2010

सगीत का सफ़र

एक बार जब रहमान का संगीत का सफ़र शुरू हुआ तो फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा प्रस्तुत है उनके सगीत की बानगी 4 वर्ष की छोटी सी उम्र से संगीत साधना में लीन इस संगीत साधक का संगीतमयी सफर अब उस पड़ाव पर है जहां से आगे सिर्फ आस्कर है। लेकिन यह धारणा आम लोगों की है। रहमान के दृष्टिकोण से देखे तो वह अभी भी संगीत की कोई नई शैली या विद्या सीखने का मन बना रहे होंगे। आज रहमान जिस मुकाम पर हैं उस स्थान पर उनकी जगह कोई और भारतीय संगीतकार या कलाकार होता, तो अपना पीआर बढ़ाने के लिए न जाने कौन-कौन से हथकंडे अपनाता लेकिन रहमान आज भी उतने ही सहज हैं जितने पहले थे। आज रहमान उस मुकाम पर हैं जहां उनके विपरीत बोलने वाले लोगों को बाद में खुद ही सफाई भी देनी पड़ती है। जैसा कि बॉलीवुड के शहंशाह बिग बी को करना पड़ा। उन्हें अपने वह शब्द वापस लेने पड़े, जिनमें उन्होंने स्लमडॉग मिलेनियर को भारत की गंदगी दर्शाने वाली फिल्म करार दिया था। आज अपनी ही बातों से पलट, बिग बी यह कहकर अपना पल्ला झाड़ रहे हैं कि उन्होंने अपने ब्लॉग पर सिर्फ एक बहस छेड़ी थी और जो भी विचार थे वह लोगों की प्रतिक्रिया थी। इस बात पर रहमान ने न तो पहले कुछ बोला था न बाद में कुछ बोले। यह रहमान के संगीत की शक्ति और जादू है कि बिग बी को भी अपने शब्दों पर पछतावा है और वह उस पर सफाई देते फिर रहे हैं। कोई कुछ भी कहे, रहमान हमेशा शांत रहते हैं। एक मुस्कुराहट हमेशा उनके चेहरे पर दिखायी पड़ती है और एक चीज जो हमेशा उनके साथ होती है वह है उनका संगीत। रहमान ऐसी शख्सियत हैं जो संगीत सृजन ही नहीं करते, उसी में सांस भी लेते हैं। उसी के साथ सोते-खाते और हंसते-गाते हैं। शायद यही कारण है कि संगीत के अलावा उन्हें न तो कोई भाषा समझ आती है और न ही विचार। चिकने घड़े की भांति वह अपने ऊपर कुछ ठहरने ही नहीं देते। जिस मुकाम पर आज रहमान हैं वहां आकर किसी में भी अहम का भाव आना स्वाभाविक है पर रहमान आज भी वैसे ही हैं जैसे अपने शुरुआती दौर में थे। वह आज भी नतमस्तक है, संगीत के सामने। जिंगल गानों से फिल्मों तक इलिया राजा के ग्रुप में पियानो वादक के रूप में अपने संगीत सपक्र का आगाज करने वाले रहमान ने अपनी पहली फिल्म रोजा में संगीत देने से पहले बहुत से जिंगल और एड फिल्मों के लिए संगीत बनाया और पुरस्कार भी जीते लेकिन यह सब उनके रास्ते का एक पड़ाव ही थे। इसे किस्मत कहें, रहमान की मेहनत या 1988 में किया गया उनके धर्म परिवर्तन का प्रभाव कि 1992 में मणिरत्नम ने अपनी फिल्म रोजा के लिए रहमान पर भरोसा जताया। मणि का यह भरोसा न तो इत्तेफाक था और न ही अकस्मात ही मन में उपजा विचार। वह तो मणि की अनुभवी नजरों का कमाल था जिसने रहमान नामक हीरे को पहचान लिया था। मणि को यह समझते देर नहीं लगी कि वह रहमान ही हैं जो उनकी तमिल फिल्म में दक्षिण की गर्मी के साथ कश्मीर की ठंडक भी समेट सकते हैं। रहमान भी मणि की सोच पर खरे उतरे और यह करिश्मा कर दिखाया। यह रहमान के संगीत का जादू था कि जब रोजा हिंदी में बनी, तो उनके तमिल फिल्म के लिए बनाये संगीत पर ही हिंदी के बोल दिल है छोटा-सा और ये खुली वादियां, सजे। इन गानों ने भाषा की वह दीवार ढहा दी जो अब तक अभेद्य थी। 25 साल की उम्र का एक कुंवारा युवा अगर रुकमणी-रुकमणी शादी के बाद क्या-क्या हुआ गाने को धुन दे, तो किसी के चेहरे पर शरारती मुस्कान आ ही जाती है और सवाल भी। कई मौकों पर रहमान को इस सवाल पर शर्माते देखा गया और उनकी यही अदा व सादगी लोगों को भा गयी। रोजा से शुरू होकर गोल्डन ग्लोब अवार्ड तक पहुंचने वाले रहमान को कभी किसी ने भी ज्यादा बोलते नहीं सुना। सिर्फ सुना है तो उनका संगीत, जो लोगों के सिर चढक़र बोलता है। क्लासिकल, फोक, जाज, रेज और जितनी भी संगीत की स्टाइल है, रहमान का सब पर समानाधिकार है। रहमान-रत्नम यानी फील गुड 1992 से लेकर अब तक रहमान और मणिरत्नम ने कई पिक्ल्मों की सौगत दी हैं। रोजा, तिरुदा-तिरुदा, बाम्बे, इरुवर, दिल से, सखी, साथिया, युवा आदि फिल्में उनकी गहरी सोच और समझदारी का परिणाम हैं। कॉलीवुड से हॉलीवुड 2002 में एन्ड्रिव लाएड वेबर की फिल्म बाम्बे ड्रीम के जरिए रहमान ने हॉलीवुड में अपनी पहली दस्तक दी। कुछ एलबम और एक चाइनीज फिल्म में संगीत देने वाले रहमान ने शेखर कपूर की एलिजाबेथ और एलिजाबेथ-2 के लिए भी संगीत दिया लेकिन हॉलीवुड में उनकी दस्तक अब जाकर लोगों को सुनाई पडी है वह भी अपनी पूरी झंकार के साथ। गोल्डन ग्लोब और आस्कर जीतकर भारतीयों को गौरवान्वित किया है। गरीबों के मसीहा रहमान ने गरीबी को नजदीक से देखा है अत: वह उन तकलीफों से भी वाकिफ हैं जो पैसे के अभाव में झेलनी पड़ती हैं। रहमान आज जरूरत मंदों की हर संभव मदद करते हैं। 2004 से वह विश्व स्वास्थ्य संगठन के ग्लोबल एंबेसडर हैं, जिसमें वह स्टाप टीबी पार्टनरशिप के तहत जुड़े हैं। इसके जरिए विश्व में लोगों को टीबी से बचने के लिए जागरुकता अभियान चलाया जाता है और इसके इलाज के लिए दवाइयां उपलब्ध कराई जाती हैं। भारत में बच्चों के पुर्नवास और शिक्षा-दीक्षा के लिए भी रहमान समय-समय पर चैरिटी करते रहते हैं। भारत में 2004 में आयी सुनामी से पीडि़त लोगों के पुनर्वास के लिए रहमान ने इंडियन ओशन नामक एलबम बनाया और इसकी सारी कमायी पीडि़तों के नाम कर दी। इसके अलावा संगीत के क्षेत्र में भी रहमान उस हर जरूरतमंद और गरीब की मदद करने का प्रयास करते हैं, जो संगीत सीखना चाहते हैं लेकिन पैसों के अभाव में नहीं सीख पाता।

Friday, March 26, 2010

दिलीप का रहमान बनना पिता को अकस्मात खोने के गम और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बोझ ने दिलीप के मन से भगवान के लिए श्रद्धा और विश्वास को लगभग खत्म ही कर दिया । उन्हें न तो धर्म पर भरोसा था और न ही पूजा-पाठ में। इसका कारण थी वह मनौतियां जो पूरे परिवार ने उनके पिता की बीमारी के ठीक होने के लिए मानी थीं। उस समय उनका पूरा परिवार कई मंदिरों में भटकता रहा। लेकिन यह सारी मनौतियां असफल साबित हुईं और रहस्यमयी बीमारी ने उनके पिता को हमेशा-हमेशा के लिए उनसे छीन लिया। इन्हीं बातों ने दिलीप के बाल मन से भगवान के प्रति श्रद्धा को निकाल पेंक्का। 1988 में रहमान की एक बहन फिर से उसी बीमारी की चपेट में आ गयी जिसके चलते रहमान ने अपने पिता को खोया था। तब पूरा परिवार एक मुस्लिम पीर कादरी के पास गया और उसकी दुआओं से रहमान की बहन ठीक हो गयी। यही वह पल था जब यह पूरा परिवार हिंदू से मुस्लिम बन गया और तभी अब्दुल रहमान का जन्म हुआ। अब्दुल रहमान बनाम अल्लाह रक्खा रहमान रहमान के माता-पिता दोनों ही ज्योतिष पर काफी भरोसा करते थे। यही कारण था कि धर्म परिवर्तन करने के बाद भी उनकी मां नहीं चाहती थीं कि रहमान के नाम का पहला अक्षर एा बदला जाए। इसीलिए वह चेन्नई के एक ज्योतिषी उलगंथन के पास गयीं ताकि वह उन्हें दिलीप का मुस्लिम नाम चुनने में मदद करें। ज्योतिषी ने नाम सुझाया अब्दुल रहमान और यह भी कहा कि अगर यह लडक़ा ए और आर शब्द को अपने नाम के साथ जोड़े रखेगा तो दुनिया में काफी नाम कमाएगा। साथ ही उन्होंने एआर रहमाना नाम का भी सुझाव दिया। यह 1992 की बात है, जब रहमान ने मणिरत्नम की पहली फिल्म रोजा साइन की थी। रहमान की मां ने मणि से कहा कि अब रहमान की जगह उनका नाम एआर रहमान ही इस्तेमाल किया जाए और इसी के साथ जन्म हुआ एआर रहमान का। रहमान को अब्दुल रहमान से अल्लाह रक्खा बनाया संगीत निर्देशक नौशाद अली ने और तब से लेकर अब तक दुनिया ए.शेखर दिलीप कुमार को अल्लाह रक्खा रहमान के नाम से जानती है। मजबूत नींव पर खड़ी इमारत पिता की मौत ने रहमान के परिवार को विचलित तो किया लेकिन फिर भी उनकी मां करीना बेगम यानी कस्तूरी शेखर ने उनकी संगीत साधना को रुकने नहीं दिया। 11वीं तक की शिक्षा लेने के बाद रहमान ने आगे पढ़ाई तो नहीं की लेकिन उस संगीत साधना में रम गए जिससे उनकी आत्मा तृप्त होती थी। संगीत के मामले में रहमान की किस्मत ने हर कदम पर उनका साथ दिया। शायद यह उनका सौभाग्य ही था कि उनके शुरुआती सफर में ही उन्हें कई जाने-माने और उत्कृष्ट संगीतकारों का सानिध्य मिला। पियानो सीखने से शुरू हुआ उनका संगीतमयी सफर भारतीय शास्त्रीय संगीत, कर्नाटक संगीत, हिंदुस्तानी संगीत से होता हुआ पाश्चात्य संगीत तक पहुंचा। उनकी संगीत कला को साधने में मदद की दक्षिणामूर्ति, एन. गोपालकृष्णनन और कृष्णा नायर ने। वहीं पाश्चात्य संगीत का ज्ञान उन्होंने जैकब जॉन से लिया। इसके अलावा लंदन की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की संगीत अकादमी से मिली स्कॉलरशिप का भी रहमान ने पूरा-पूरा फायदा उठाया और पाश्चात्य संगीत की हर बारीकी को गहराई से परखा और उसे आत्मसात भी किया। यह उनकी वर्षों की तपस्या और संगीत साधना का ही फल है कि आज उनकी उंगलियों पर पारंपरिक भारतीय धुने, सूफियाना संगीत और पाश्चात्य संगीत जैसे रेगे, हिपपॉप और जाज एक साथ थिरकते हैं। संगीत के भूखे तमाम शैलियों को सीखने के बाद भी रहमान की संगीत को और गहराई से जानने की भूख कम नहीं हुई है। शायद यही कारण है कि वह 1997 में सूफी कव्वाली सीखने सरहद पार पाकिस्तान भी चले गए। नुसरत फतेह अली खान को अपना गुरु बना रहमान ने कव्वाली के तमाम गुर सीखे। इसके अलावा गजल में महारत हासिल करने के लिए उन्होंने हरिहरण का सहारा लिया। 1998 में गुलाम मुर्तजा खान व गुलाम मुस्तफा खान ने उन्हें हिंदुस्तानी ख्याल की बारीकियां सिखाई। संगीत की इन अमूल्य धरोहरों के ज्ञाता रहमान को संगीत का वह सागर कहना ज्यादा लाजमी होगा जो विश्वभर की संगीतविद्या की मिलन स्थली है। रहमान स्वयं तो संगीत की हर विधा में पांरगत होना चाहते ही हैं साथ ही उन्हें इस बात की चिंता है कि कैसे इस संगीत को जीवित रखा जाए। इसीलिए उन्होंने मोईनुद्दीन चिश्ती संगीत अकादमी की स्थापना की। इस संस्थान में भारतीय संगीत के साथ-साथ पाश्चात्य संगीत की बारीकियां भी सिखायी जाती हैं। इन तमाम उपलब्धियों के बावजूद संगीत-सागर बन चुके इस संगीत साधक की न तो संगीत को और ज्यादा जानने की भूख कम हुयी है और न ही अपने ज्ञान को लेकर उनमें तनिक भी घमंड आया है।

Thursday, March 25, 2010

सुरों के रहनुमा-रहमान

संगीत भाषाओं से परे है, इस कथन को अर्थवान बनाया रहमान ने। उनके लाजवाब और बेमिसाल संगीत ने न सिर्फ भारत के हर प्रांत को अभिभूत किया, बल्कि विश्व फलक पर भी भारतीय संगीत को नई ऊंचाइयां दी। भारतीय संगीत की अनुगूंज को विदेशों तक पहुंचानेवाले संगीत के इस विरल-संत को सलाम....... संगीत की वह स्वर लहरियां, जो आत्मा को तृप्त करें, वह स्वर लहरियां जिनमें पिरोया हर शब्द, अपने अर्थ के साथ खनके। वह संगीत जिसमें भाषा कभी दीवार न बन पाये। ऐसा संगीत जिसमें निबौलियों की कडवाहट हो और मधु की मिठास भी। तूफान सी तेजी कि पैर खुद-ब-खुद थिरक उठें और बर्फ की ऐसी ठंडक हो, जहां सबकुछ ठहर जाये। पूरब की ढोलक के साथ पच्छिम के सिन्थेसाइजर तक और विशुद्ध कर्नाटक संगीत के साथ पॉप व जाज का प्रयोग अल्लाह का एक ही बंदा कर सकता है और वह है ए. शेखर दिलीप कुमार, जिसे दुनिया आज अल्लाहरक्खा रहमान के रूप में पहचानती है। अल्लाहरक्खा रहमान यानी जीता जागता संगीत। एक ऐसा नाम, जो है तो भारतीय, लेकिन विश्व संगीत का पैरोकार है। आज इस महान हस्ती के बूते भारतीयता और भारतीय संगीत, देश की सीमा लांघ उस फलक तक पहुंच गया है, जहां से आगे सिर्फ और सिर्फ ऑस्कर है। रहमान को हर उस बात पर जवाब देना पसंद है जिसमें संगीत का जिक्र हो। आज तक उनके बारे में लोगों ने या तो उनके संगीत-ज्ञान की चर्चा में कुछ पढ़ा होगा या फिर संगीत की बदौलत मिलने वाले अवाड्र्स के बारे में। इसके अतिरिक्त रहमान को किसी तीसरे विषय पर बात करना पसंद नहीं है और बेमिसाल संगीत के अलावा उनकी यह खूबी भी उन्हें उन तमाम संगीतकारों से जुदा बनाती है जो गलाकाट प्रतियोगिता के इस दौर में वाकयुद्ध को भी पब्लिसिटी स्टंट के रूप में लेने से कोताही नहीं करते। उन तमाम छोटे कद के संगीतकारों के लिए रहमान एक मिसाल हैं। अमूमन संगीतकार यह कहते मिल जाएंगे कि संगीत एक साधना है लेकिन इसका साधक होता कैसा है यह रहमान को देखकर बखूबी समझा जा सकता है। रहमान ने आज जो कुछ भी पाया है उसके पीछे उनकी 40 साल की साधना है। संगीत को 40 साल समर्पित करने वाला विरला ही होता और इसीलिए विरला होता है उसका संगीत भी। नहीं छूटा संगीत का मोह 4 साल की छोटी सी उम्र से रहमान में संगीत के लिए समर्पण दिखायी पडऩे लगा था। उनके पिता शेखर कई संगीतकारों के साथ काम करते थे जिनमें से एक थे संगीतकार सुदर्शनम मास्टर। एक बार रहमान भी अपने पिता के साथ उनके स्टूडियो गए थे जहां छोटा-सा रहमान हारमोनियम पर धुन बजा रहा था। लेकिन अहम बात यह थी कि हारमोनियम की की-बोर्ड कपड़े से ढकी हुई थी। रहमान की इस करामात को सुदर्शनम की पारखी नजरें तुरंत ताड़ गयीं। उन्होंने रहमान के पिता से कहा कि इसपर संगीत की देवी सरस्वती की कृपा है। इसे जल्द ही संगीत की विधिवत शिक्षा दिलवाओ। यह सुदर्शनम की बातों का असर था कि रहमान के पिता ने कुछ समय बाद ही उन्हें धनराज मास्टर के पास संगीत की विधिवत शिक्षा के लिए भेज दिया और वहां आज के रहमान की संगीत शिक्षा की नींव पड़ी। आर्थिक तंगी ए.शेखर दिलीप कुमार को भले ही संगीत की दौलत विरासत के रूप में मिली लेकिन वह उस दौलत से वर्षों तक महरूम रहे जिसे दुनिया लक्ष्मी या धन कहती है और जिसके बिना इस दुनिया में जीवन यापन नामुमकिन है। पिता मलयालम फिल्मों के मशहूर संगीतकार थे। जब तक वह थे तब तक धन की कोई कमी न थी। रहमान का बचपन भी सुखमय होता अगर उन्होंने 9 साल की उम्र में अपने पिता शेखर को एक रहस्यमयी बीमारी के चलते न खोया होता। पिता का साया सर से क्या उठा उनकी तो दुनिया ही लुट गयी। इस घटना ने रहमान से काफी कुछ छीन लिया। इसमें से एक था उनका बचपन। उनका पूरा परिवार बिखरने लगा। पिता तो दुनिया को अलविदा बोल गए और दे गए तमाम कठिनाइयां व जिम्मेदारियां, जिनका सारा बोझ मासूम दिलीप के कंधों पर आ पड़ा। यही कारण है कि रहमान समय से पहले बड़े हो गए। अपने नाजुक कंधों पर उन्होंने अपनी मां और तीन बहनों का बोझ उठा लिया। दुनियादारी देखनी थी, घर का खर्च चलाना था और इसके लिए पिता के वाद्ययंत्र किराए पर दिए ताकि कुछ पैसे आ सकें। पैसों के लिए 11 वर्ष की छोटी सी उम्र में वह दक्षिण के प्रसिद्ध संगीतकार इलिया राजा के ग्रुप में शामिल हो गए। और वहीं से शुरू हुआ उनका संगीत सफर आज भी बदस्तूर जारी है। आगे पढ़िए की कैसे दिलीप को रहमान का नाम मिला

Tuesday, March 23, 2010

क्या पशुबलि समीचीन है?

शाक्त और तंत्र विधान में बलि का विधान है। समय के साथ बलि के रूप - मान्यता में परिवर्तन आता गया। लेकिन सवाल आज भी मौजूं है कि पशुबलि देना कहां तक तर्कसंगत है।नवरात्र का समय है। कई पूजा विधान है। आदिशक्ति को प्रसन्न करने के लिए। मनचाहा आशीर्वाद व आकांक्षा के लिए। इसमें एक विधान पशुबलि भी है। पिछले कुछ समय से इस पर काफी बहस-मुहाबिसे होते हैं कि पशुबलि उचित है या अनुचित?
दरअसल, हिन्दुओं के अनेक सम्प्रदायों में एक शाक्त सम्प्रदाय भी है जो शक्ति के पुजारी माने जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि शक्ति की प्रतीक देवी के हाथ में अस्त्र-शस्त्र होते हैं। वह रक्तपान करती है। भारत में देवी के हजारों मंदिर हैं, जिनमें आसाम का कामाख्या मंदिर अति प्रसिद्ध है। शक्ति के पुजारी होने के नाते ये लोग मांसाहार करते हैं, जिसका स्वाभाविक स्रोत पशु हैं। पशु बलि के बाद उसका मस्तक देवी को चढ़ा दिया जाता है तथा शेष को पकाकर सब प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। इन मंदिरों की एक विशेषता यह भी है कि यहां क्षत्रिय पुजारी ही होते हैं। यद्यपि अब कई क्षत्रियों ने यह पूजा ब्राह्मणों को सौंप दी है। ऐसे विभिन्न मंदिरों में बलि की अलग-अलग प्रथाएं हैं। कबूतर और मुर्गे से लेकर बकरे और भैंसे तक की बलि यहां दी जाती है।
वेद हिंदू जाति का प्राचीनतम धर्मगं्रंथ है। इसकी सौ शाखाओं में (ऋगवेद की सौ शाखाओं में) ऐतरेय ब्राह्मïण एक है। इस ब्राह्मïण ग्रंथ के अनुसार, राजा हरिश्चन्द्र नि:संतान थे। उन्होंने नारद ऋषि के कथानुसार पुत्र प्राप्ति होने पर वरूणदेव को उक्त पुत्र की बलि देने की प्रतिज्ञा की। पुत्रप्राप्ति के बाद वरूणदेव ने यज्ञ करने को कहा। तब राजा ने पशुत्व के स्थिर अंगवाला होने तक का बहाना बनाकर छह वर्षों तक यज्ञ नहीं किया। छह वर्ष के बाद ऋषि विश्वामित्र के आचार्यत्व में यज्ञ आरंभ हुआ। बालक रोहित यह जानकर जंगल भाग गया। उधर, वरूण के शाप से राजा जलोदर रोग से ग्रसित हो गए। पिता को मरणासन्न जानकर रोहित जंगल से लौटा, किंतु इंद्रदेव ब्राह्मïण का रूप धारणकर उसे रोकते रहे। एक दिन जंगल में रोहित को अजीगर्त ऋषि मिले।
रोहित ने एक सौ गाय देकर अजीगर्त के मध्यमपुत्र शुन:शेप को बलि देने के लिए प्राप्त किया तथा पिता के समक्ष उपस्थित होकर यज्ञ आरंभ करवाया। यज्ञ में बलि देने के लिए स्तूप में बांधने के लिए किसी के तैयार न होने पर अजीगर्त ने ही सौ गाय लेकर नियोक्ता का काम किया। पुन: विशसिता (काटनेवाला) कोई न मिला तो एक सौ गाय लेकर अजीगर्त ही विशसिता बने। रोहित को बचने का कोई उपाय न मिला तो उसे देवी-देवताओं की स्तुति की। अंत में प्रसन्न होकर वरूण देव ने उसे मुक्त कर दिया। तब उसका नाम देवरात (देवताओं द्वारा बचाया हुआ) पड़ा और उसी को 'हेाताÓ बनाकर यज्ञ पूरा हुआ तथा हरिश्चन्द्र भी रोगमुक्त हो गये।
इस कथा से यह स्पष्टï होता है कि वैदिक काल से ही बलिप्रथा प्रचलित है तथा बलि से मनोकामना की पूर्ति होती है। साथ ही यह भी स्पष्टï होता है कि स्तुति प्रार्थना से देवता प्रसन्न होते हैं। अत: पशुबलि रूप भेंट के बदले फल-फूल, मोदक आदि नैवेद्यरूप में अर्पण कर स्तुति-प्रार्थना से देवता को प्रसन्न किया जा सकता है। पहले भी शास्त्रानुसार कहा गया है, 'पशुमारणकर्म दारूणंतथापित न त्यजति श्रोत्रिय:Ó। इस उक्ति से भी स्पष्टï होता है कि पशुमारण कर्म दर्दनाक एवं दुष्कर है। भगवान बुद्घ ने वैदिक यज्ञविधि पशुबलि की दयामुक्त हृदय से निंदा की है-
'निन्दसि यज्ञविधेरहहश्रुतिजातम्। सदयहृदयदर्शितपशुघातम्।।
केशव घृतबुद्घशरीर। जय जगदीश हरे।Ó - जयदेव कवि
हिन्दू समाज सदा से परिवर्तनशील रहा है। आवश्यकता पडऩे पर उसने जहां नयी प्रथाओं को अपनाया है, वहीं उन्हें बंद भी किया है। इसलिए इस निर्मम बलि प्रथा के विरोध में लम्बे समय से हिन्दू समाज के भीतर से ही आवाजें उठ रही हैं। अनेक मंदिरों में यह प्रथा बंद हो गयी है। ऐसे स्थानों पर बलि के पत्थर और शस्त्र आज भी देखे जा सकते हैं। श्रद्धालु अब वहां नारियल छोड़कर प्रतीक रूप में अपनी बलि सम्पन्न मान लेते हैं। जैसे-जैसे इसके विरोध के स्वर तीव्र होंगे, वैसे-वैसे यह प्रथा कम होती जाएगी पर पूरी तरह यह कब बंद होगी, कहना कठिन है? एक बात यह भी समझनी जरूरी है कि धार्मिक या सामाजिक प्रथाएं कानून से शुरू या बंद नहीं होतीं। सरकार ने बालविवाह और दहेज के विरोध में कानून बनाये हैं। पर क्या ये बंद हो गयीं? इन विवाहों में शासन-प्रशासन और सब राजनीतिक दलों के नेता तथा समाज के प्रतिष्ठित लोग भाग लेते हैं। अंधविश्वास और कुरीतियां समाज की मान्यता से चलती हैं और समाज की मान्यता से ही समाप्त भी होती हैं। इसके लिए समाज को लगातार जागरूक बनाने की आवश्यकता होती है।

Wednesday, March 17, 2010

अंधेरे में हीरातराश

कभी लाखों लोगों का जीवन संवारने वाले गुजरात के हीरा उद्योग पर, मंदी की ऐसी मार पड़ी कि मंदी का असर कम होने के बाद भी अब लाखों लोगों के सामने रोजी रोटी की समस्या भी मुंह बाये खड़ी है। हीरा तराशने वाले हाथ आज वैकल्पिक रोजगार तलाश रहे हैं ताकि इनके घरों में चूल्हा जल सके। हालात की मार से बेमौत मरते इन कामगारों पर न तो राज्य सरकार को रहम आता है और न ही केन्द्र सरकार को। जीवन क्या है? चलता फिरता एक खिलौना है दो आंखों में, एक से हंसना, एक से रोना है जो जी चाहे, वह हो जाए, कब ऐसा होता है हर जीवन, जीवन जीने का एक समझौता होता है विदर्भ के किसानों की भुखमरी के चलते आत्महत्या का सिलसिला अभी थमा भी नहीं है कि गुजरात के कई जिलों में भी कमोबेश यही स्थिति उत्पन्न हो गयी है। पिछले कई महीनों से यहां लाखों लोगों के घरों में चूल्हा तक नहीं जला। जलेगा तब जब इनके पास पैसे होंगे और पैसे तब होंगे जब रोजगार होगा। पर न तो इनके पास पुराना रोजगार है और न आय का कोई नया जरिया। दूसरों के जीवन में चमक और सौभाग्य सदा के लिए भरने वाले इन लोगों का जीवन आज अंधकारमय है। बात हो रही है मंदी की मार से ठप्प पडे गुजरात हीरा उद्योग के बेरोजगार कारीगरों और उनके परिवार की। आर्थिक मंदी की मार गुजरात के हीरा उद्योग पर भी पड़ी है। यहां की 6547 हीरे की इकाइयों में 4317 बंद हो चुकी हैं और यहां काम करने वाले सभी कारीगर बेरोजगार हो चुके हैं जिनकी संख्या लगभग 7 लाख सेज्यादा है। राज्य के लगभग नौ जिले इससे प्रत्यक्ष प्रभावित हैं। सूरत, अहमदाबाद, अमरेली, भावनगर, राजकोट, महसेना, पाटन, जूनागढ और बनासकंठा तो इससे प्रभावित हैं पर अन्य क्षेत्रों से आने वाले कामगार और उनके परिवार भी आज दाने-दाने को मोहताज हैं। इन लाखों लोगों की रोजी रोटी की समस्या न तो राज्य सरकार ने सुलझाने का प्रयास किया और न ही केन्द्र ने। दरअसल आर्थिक मंदी का सबसे ज्यादा असर ज्वेलरी उद्योग पर ही पड़ा है। ऐसे में गुजरात का हीरा उद्योग भी इससे अछूता न रह सका। अमेरिका और ब्रिटेन के आयातकर्ताओं के ऑर्डर निरस्त होने के चलते मजदूरों के साथ-साथ छोटी इकाईयों के मालिकों के सामने भी रोजी-रोटी की समस्या आ खड़ी हुई है। फिलहाल हालात में कुछ सुधार जरूर हुआ हैे पर अब भी अधिकांश मजदूरों के घरों में चूल्हा जलना भी मुश्किल है। इसीलिए ये मजदूर अब अपने इस पुश्तैनी काम को छोडक़र, दूसरे कामों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इस उद्योग से जुड़े कारीगरों ने ऐसे दिन देखे हैं कि ये खुद तो दूसरा काम तलाश ही रहे हैं साथ ही अपने बच्चों को किसी भी कीमत पर इस उद्योग से नहीं जोडऩा चाहते हैं। अगर सरकार ने जल्द ही इसपर ध्यान न दिया तो हीरो तराशने की यह कला अपनी अगली पीढ़ी के पास जा ही नहीं पायेगी और कई कालाओं की तरह एक दिन विलुप्त हो जाएगी।

Saturday, March 13, 2010

गठित होगा मानवाधिकार आयोग

आदिवासी और ग्रामीण लोग अपेक्षाकृत कुछ अधिक सीधे-सरल होते हैं। बहुत जल्द ही किसी के समझाने पर समझ जाते हैं। इसका लाभ कभी नक्सलियों को मिलता रहा है तो कई बार सरकारी मशीनरी इसका दुरूपयोग करती है। किसी भी सूरत में ग्रामीणों को उत्पीडऩ का शिकार होना पड़ता है। ऐसी कई घटनाएं हो चुकी है। अब जाकर प्रदेश में मानवाधिकार आयोग गठन का मार्ग प्रशस्त हो पाया है।
झारखण्ड में जल्द ही यह सुनिश्चत करने के लिए मानवाधिकार आयोग का गठन किया जाएगा कि नक्सल-विरोधी अभियानों के नाम पर ग्रामीणों का उत्पीडऩ न हो। राज्य सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, कि राज्य में मानवाधिकार आयोग का गठन जरूरी है क्योंकि नक्सल-विरोधी अभियानों में मानवाधिकारों के उल्लंघन के कई मामले आ चुके हैं। मानवाधिकार आयोग अधिनियम 1993 के तहत हर राज्य को आयोग का गठन करना है। झारखण्ड के गठन के नौ वर्ष बाद भी यहां मानवाधिकार आयोग का गठन नहीं हो सका है। राज्य कैबिनेट ने आयोग गठित करने के सरकार के प्रस्ताव को हरी झंडी दे दी। राज्य सरकार जल्द ही इस आयोग की कार्यप्रणाली और इसके होने वाले अध्यक्ष के बारे में फैसला करेगी।
दरअसल, जब से यूपीए सरकार ने माओवाद/नक्सलवाद के खिलाफ बड़ी सैन्य कार्रवाई का ऐलान किया है, अंग्रेजी समाचार चैनलों पर रोज़ शाम को होनेवाली चर्चाओं में भी नक्सलवाद/माओवाद एक प्रिय विषय बन गया है। इसमे कोई बुराई नहीं है लेकिन सरकार की घोषणा के बाद चैनलों की इस अतिसक्रियता से यह तो पता चलता ही है कि उनका अजेंडा कौन तय कर रहा है. यही नहीं, लगभग हर दूसरे-तीसरे दिन होनेवाली इन चर्चाओं में कुछ खास बातें गौर करनेवाली हैं. पहली बात तो ये कि बिना किसी अपवाद के सभी चैनलों पर एंकर सहित उन पत्रकारों/नेताओं/पुलिस अफसरों की भरमार होती है जो नक्सलवाद/माओवाद को न सिर्फ देश के लिए बड़ा खतरा मानते हैं बल्कि उससे निपटने के लिए सैन्य कार्रवाई को ही एकमात्र विकल्प मानते और उसका समर्थन करते हैं।
हालांकि ऐसी सभी चर्चाएं आमतौर पर एकतरफा होती हैं लेकिन उनपर यह आरोप न लग जाए, इसलिए एकाध मानवाधिकारवादी या बुद्धिजीवी को भी कोरम पूरा करने के वास्ते बुला लिया जाता है। फिर उसपर सवालों की बौछार शुरू कर दी जाती है लेकिन उसे जवाब देने का मौका नहीं दिया जाता है। चूंकि सवाल पूछने का हक एंकर के पास होता है, इसलिए चर्चा का एजेंडा भी वही तय करता है। वह कुछ सवालों को ही घुमा-फिराकर बार-बार पूछता है जैसे मानवाधिकारवादी माओवादी हिंसा की निंदा क्यों नहीं करते या क्या पुलिस का मानवाधिकार नहीं है या माओवादी न संविधान मानते हैं न सरकार और न ही हथियार डालने के लिए तैयार हैं तो उनसे बातचीत कैसे हो सकती है या क्या माओवादियों के लिए बातचीत अपनी ताक़त बढाने का सिर्फ एक बहाना नहीं है?
कहा तो यहां तक जा रहा है कि केंद्र जल्द ही नक्सलियों के खिलाफ बड़ा अभियान चलाने वाली है। इस अभियान की कामयाबी आदिवासियों की भागीदारी पर निर्भर है। अगर आदिवासी सरकार का साथ देंगे तो अभियान कामयाब होगा वरना नक्सलियों को नेस्तनाबूद करने का मंसूबा धरा का धरा रह जाएगा। साफ है केंद्र सरकार नक्सलियों के खिलाफ अभियान में आदिवासियों का इस्तेमाल करेगी आदिवासियों से नक्सलियों की गतिविधियों के बारे में जानकारी ली जाएगी। यही नहीं अगर नक्सलियों के संहार में कोई निर्दोष मारा जाता है और मानवाधिकार संगठन खड़े हो जाते हैं तो केंद्र द्वारा आदिवासियों के मुकदमे माफ करने का उस वक्त ढाल का काम करेगा। सवाल सरकार की मंशा को लेकर इसलिए भी हैं क्योंकि उसका ये फैसला जनकल्याणकारी सरकार से ज्यादा एक सांमतवादी शासक का है। जो अपने फैसले अपने फायदे नुकसान के हिसाब से करता है. ये फैसला इसलिए नहीं किया गया कि केंद्र को आदिवासियों की चिंता है। अगर होती तो ये फैसला काफी पहले ले लिया जाना चाहिए था।

Thursday, March 11, 2010

खत्म हुआ वनवास

इस बार का महिला दिवस भारतीय महिलाओं के लिए नई सौगात लेकर आया है। 14 साल के वनवास के बाद आखिरकार महिला आरक्षण विधेयक संसद में पारित हो गया। इस विधेयक के पारित होने के कवायदें तभी से लगाई जा रही थीं जबसे कांग्रेस सत्ता में आयी थी। इसके पारित होने की संभावना इसलिए भी बढ़ गई थी क्योंकि कांग्रेस के बड़े नेताओं को अक्सर यह कहते सुना गया है कि सोनिया गांधी महिला आरक्षण को लेकर काफी गंभीर हैं और इसे हर हाल में पास करवाना चाहती हैं क्योंकि स्व. राजीव गांधी राजनीति में युवाओं के साथ-साथ महिलाओं की भी भागीदारी चाहते थे। चूंकि कांग्रेस इस बार इतनी ताकतवर है कि अपने बूते पर यह आरक्षण विधेयक पास करवाने का दमखम रखती है। शायद इसीलिए कांग्रेस यह सुनहरा मौका अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी। १५ वीं लोकसभा में महिला राजनीतिज्ञों का वह सपना साकार होता दिख रहा है जिसके लिए उन्होंने १4 वर्षों का लंबा इंतजार किया है। इस बार संसद में १० फीसदी का आकड़ा पार करने वाली महिला सांसदों के महिला आरक्षण विधेयक पारित करवाने के सपने को अमली जामा पहनाया है सत्तारूढ़ कांग्रेस ने और इसका बेमन से ही सही, समर्थन किया भाजपा और वामपंथियों ने। 9 मार्च 2010 को 15वीं लोकसभा में मौजूद महिला सांसद अपने लिए रचे जा रहे इस नए इतिहास की साक्षी बनी हैं। एक ओर महिला आरक्षण विधेयक का समर्थन करने का दावा करने वाली कांग्रेस और सोनिया गांधी ने यह साबित कर दिखाया है कि इस बार वह इतनी शक्तिशाली है कि वह अपने बूते बिल पास करवा सकती है यानी यह बिल पास करवाने के लिए कांग्रेस को किसी को बहुत ज्यादा किसी का मोहताज नहीं होना पड़ा। इस विधेयक के पास होने का दूसरा सुखद पहलू यह है कि इस बार संसद में महिलाओं का दबदबा पहले की तुलना में बढ़ा है। साथ ही कांग्रेस की इस विधेयक को पारित करवाने की पीछे जो सबसे अहम बात है वह है कांग्रेस को मिलने वाले इसके दूरगामी फायदे। अगर यह विधेयक पारित हो जाता है, तो लगभग १८० पुरूष सांसदों को अपनी सीटें गवांनी पड़ेगी। यानी इसका सीधा सा मतलब होगा कि धर्म और जातिगत आरक्षण जैसे मुद्दों पर राजनीति करने वाले दलों को दूसरे मुद्दे तलाशने होंगे। कांग्रेस चूंकि खुद को धर्म-निरपेक्ष दल के रूप में परिलक्षित करती आयी है अत: उसकी दिली तमन्ना तो यही होगी कि धर्म और जाति के मुद्दे छोटे पड़ जाएं। इससे होगा यह कि अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की स्थिति और भी मजबूत होगी। ज्ञात रहे कि महिला कांग्रेस की मांग पर कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में भी महिलाओं को सरकारी नौकरी में ३३ प्रतिशत आरक्षण देने की बात कही है। राजीव गांधी के युवाओं को आगे बढ़ाने के फंडे को अपनाकर कांग्रेस फिर से सत्ता में आई है। अब बारी है राजीव के दूसरे सपने, महिलाओं को सत्ता में भागीदारी देने को, पूरा करने की। संभावना यही है कि भले ही कुछ समय और लगे पर कांग्रेस यह सुनहरा अवसर अपने हाथों से जाने नहीं देगी। यानी अब वह दिन दूर नहीं जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, भारत में भी महिला सांसदों की संख्या उस आकड़ें तक पहुंचेगी जहां से हम अपने सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए गर्व से कह सकेंगे कि हमारी महिलाएं भी किसी अन्य देश की महिलाओं से किसी भी मायने में कमतर नहीं हैं।

Tuesday, March 9, 2010

बदल रही है सोच

कल 8 मार्च था यानी महिला दिवस। एक ऐसा दिन जब विश्वभर की मीडिया आधी आबादी पर केन्द्रित सा हो जाता है। कभी तोड़ती पत्थर के जरिए, तो कभी अंतरिक्ष में महिला की चहलकदमी जैसी खबरों के इर्द गिर्द महिलाओं की सम्पूर्ण स्थिति को बांधने का प्रयास किया जाता है। नरजंदाज हो जाती है वह उपलब्धियां जो देखने में तो छोटी हैं पर इसका असर गंभीर है, सतसैंया के दोहों की तरह जो देखने में तो छोटे होते हैं पर घाव गंभीर करते हैं। भारतीय महिलाओं की अंतरिक्ष में चहल कदमी को तो हर कोई नोटिस कर लेता है पर समाज में हो रहे उन छोटे-छोटे बदलावों को नज़रअंदाज कर दिया जाता है जिनकी बदौलत समाज को एक नई दिशा मिल रही है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर जिक्र उन चंद महिलाओं का जो चांद पर नहीं गईं पर धरती पर रहकर समाज की सोच को बदलने का प्रयास किया है। 8 मार्च आधी आबादी का दिन है। एक ऐसा दिन जब समाज में महिलाओं की स्थिति पर गर्मागर्म चर्चा होती है। इस दिन समाज सुधारकों और बुद्धिजीवियों के साथ साथ तमाम मीडिया भी औरतों की समाज में स्थिति का आकलन करने में लग जाता है। पर इस आंकलन में या तो उन महिलाओं का जिक्र होता है जिन्होंने समाज में ऐसा कोई कार्य किया हो जो अपने आप में विरल होता है या फिर उस महिला का जो नौ माह के गर्भ के बावजूद, चौथे माले पर, अपने सर पर ईंट लादकर ले जाने को मजबूर होती है। कहने का तात्पर्य यह कि या तो औरतों की बड़ी बड़ी उपलब्धियों को गिनाया जाता है या 21वीं सदी में भी नारकीय जीवन बिताने को मजबूर स्त्री आकर्षण का केन्द्र होती है। इन सब कवायदों में लोगों के साथ साथ मीडिया भी औरतों की इन छोटी छोटी उपलब्धियों को भूल जाता है जो सही मायने में समाज में हो रहे परिवर्तनों की धुरी है। यह वह उपलब्धियां हैं जिनकी बदौलत भारतीय समाज में स्त्रियों ने छोटे छोटे मगर मजबूत कदमों से एक ऐसी नींव तैयार की है जिस पर खड़ी इमारत नि:संदेह मजबूत और दमदार होगी। वर्षों से चली आ रही रूढिय़ों को तोडक़र महिलाओं ने समाज में अपनी स्थिति को मजबूत तो किया ही है साथ ही विश्व को भी अपनी ताकत से रू-ब-रू करवाया है। भारत में धर्म चाहे हिन्दू हो या इस्लाम, कट्टर ही माना जाता है और अगर इसके रूढिग़त चले आ रहे नियमों को कोई तोडऩे का प्रयास करे तो क्या होता है यह बताने की आवश्यकता नहीं है। पर महिलाओं ने अब पीढिय़ो से चली आ रहा घर्मगत पुरुष प्रधान कार्यो को भी अपने जिम्मे ले लिया है। क्या कोई भगवा भेषधारी अपनी बनाई रूढिय़ों को तोड़ सकता है? क्या कभी महिला भी महंत हो सकती है। इस असंभव को संभव किया है साध्वी देव्यागिरी ने। देव्यागिरि के महंत के पद पर आसीन होने के साथ ही न सिर्फ लखनऊ के 100 साल पुराने मनकमलेश्वर शिव मंदिर की बल्कि सदियों से चली आ रही पुरुष महंत की परंपरा चरमराकर रह गई। अब देव्या उस गद्दी की अधिकारी हैं जिसको पुरुषों की आदत पड़ चुकी थी। भगवा भेषधारी देव्या ने वह कर दिखाया जो बड़े बड़े समाज सुधारक भी आज तक नहीं कर सके। ऐसा नहीं है कि परिवर्तन केवल हिंदू समाज में ही हुए हैं। मुस्लिम समुदाय में भी महिलाओं ने वह कर दिखाया है जिसकी कल्पना तक करना आसान नहीं था। सबसे पहले वह रूढि़ टूटी जिसके चलते औरतों को मस्जिद में नमाज अता करने पर पाबंदी थी। लखनऊ की मुस्लिम महिलाओं ने मस्जिद में नमाज अता करने का साहस कर दिखाया। भले ही उनके इस कदम को पूरे मुस्लिम समुदाय ने इस्लाम से बगावत का दर्जा दिया औैर फतवे भी जारी किए लेकिन दुनिया यह जान गई कि अब मुस्लिम महिलाएं रूढि़वादी मौलवियों द्वारा बनवाई गई गैरजरूरी इबारतों को पढऩे में कोई दिलचस्पी नहीं रखती। इसके बाद 2008 में नेशनल प्लानिंग कमीशन की डॉ. सईदा हमीद और समाजसेवी नाइश हसन ने तो मुस्लिम समुदाय को चौंकाकर रख दिया। डॉ. सईदा ने बतौर पहली महिला काजी, समाजसेवी संस्था तहरीक की अध्यक्ष, नाइश हसन और इमरान का निकाह पढ़वाया। और तो और यह निकाह भी आम मुस्लिम निकाहों से जुदा था क्योंकि रस्मों में भी काफी फेरबदल किया गया था। इन दोनों महिलाओं का यह कदम भले ही फौरी तौर पर कोई परिवर्तन न ला पाए लेकिन इन्होंने समाज को एक नई दिशा की राह तो दिखाई ही है। सदियों से हिन्दू समाज में महिलाएं पति की मृत्यु पर सती होती थीं या रुदाली बन उनकी मृत्यु पर क्रंदन करती थीं। हमेशा से पुरुषों के इर्द गिर्द घूमने वाले भारतीय समाज के पुरुषों को तब गहरा धक्का लगा जब एक महिला ने उनसे वह अधिकार छीन लिया जिस पर एक तरह से उनका एकाधिकार था। पिता के दाह संस्कार का पैदायशी हक पाने वाला पुरुष समाज एक महिला डॉ. बंदिता पुकन से हार गया। बंदिता ने वह कर दिखाया जिसके बारे में कोई भारतीय स्त्री सोच भी नहीं सकती थी। पेशे से मैकेनिकल इंजीनियर आसाम की डॉ. बंदिता पुकन ने 1993 में अपने पिता का अंतिम संस्कार किया। एक ऐसी विधि जिस पर अब तक पुरुषों का एकाधिकार था। उनके इस फैसले का काफी विरोध हुआ पर अंतत: जीत बंदिता की हुई। पुरोहितों ने फैसला किया कि चूंकि बंदिता का कोई भाई नहीं है अत: उन्हें पूरा हक है अपने पिता का दाह संस्कार करने का और इसी के साथ लिख दी गई एक नई इबारत जो आज भी बदस्तूर जारी है। इसके बाद तो हर स्त्री चाहे वह पत्नी हो या पुत्री, उसे यह अधिकार प्राप्त हो गया कि वह अपने संबन्धी का अंतिम संस्कार कर सके। 19 सितम्बर, 2007 को सामाजिक रूढिय़ों में जकड़ा माना जाने वाला का बिहार के नवादा जिले में शर्मिला देवी और मीना देवी ने अपने पिता उल्लास महतो का अंतिम संस्कार किया। सुखद यह था कि इन्होंने यह सब अपने भाईयों की उपस्थिति में किया। इसी तरह आरा की 50 वर्षीय महिला गीतू अवनिाश ने अपने पति अविनाश कुमार की मृत्यु के बाद श्राद्ध करवाया, जो अब तक पुत्र या पुरुष रिश्तेदार करवाता था। गीतू ने यह कार्य अपने देवर और उसके दो बेटों की उपस्थिति में किया। इसी तरह गुजरात के बडोदरा के राजपिपला की हेमा गोहिल ने अपनी छोटी बहन के साथ अपने पिता मोती सिंह परमार का अंतिम संस्कार किया। सवर्णों के लिए यह एक ऐसा साहसिक कदम था जिस पर हिन्दू खासकर पुरुषों को सख्त एतराज था। 2 जुलाई 2007 को इलाहाबाद की माया मुक्ति उपाध्याय ने इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए अपने ससुर का अंतिम संस्कार किया। 16 सितम्बर, 2007 को ओडि़सा के सबंलपुर की 49 साल की शांति बेहरा, ने अपने पति की अंतिम यात्रा में शामिल होकर उस रूढि़ को तोड़ा जिसके चलते यह हक केवल पुरुषों के पास था। किसी दूरदराज गांव में परिवर्तन की लहर लाकर, तो कभी दहेज रूपी दानव का मुकाबला करने के लिए अपनी बारात वापस भेज कर, कहीं लोगों को शराब के ठेके तोडऩे को मजबूर करती यह महिलाएं परिवर्तन की नई परिभाषा गढ़ रही हैं वह भी बिना किसी शोर शराबे और प्रदर्शन के। यहां तो चंद इबारतों का ही जिक्र है। इसके अलावा अनगिनत महिलाएं हैं जो हर दिन हर पल एक नई जमीन तैयार कर रही है। वे यह जानती भी नहीं है कि उनका यह कदम समाज में बड़े एक परिवर्तन का सूचक है। यह वह महिलाएं हैं जिनको कोई नहीं जानता लेकिन यह वहीं है जो समाज को धीरे धीरे ही सही, बदल रही हैं। महिला दिवस पर इन महिलाओं को शत शत नमन।

Saturday, March 6, 2010

बाज़ार की जरुरत

सदियो से बाजार इंसान की जरूरतों को पूरा करता रहा है। पिछले डेढ़-दो दशको में भारत में बाजार के स्वरूप में काफी तेजी से बदलाव हुआ है। बड़े शहरों से लेकर छोटे शहरों तक में साप्ताहिक बाजारों और भव्य शॉपिंग मॉल के बाद अब टेली शॉपिंग, आनलाइन शॉपिंग और टीवी शॉपिंग ने बाज़ार को लोगों के बेडरुम तक पहुंचा दिया है। शॉपिंग का एक खास फंडा यह है कि इसके लिए लोगों को तैयार होकर बाजार तक जाना पड़ता था। कई बार लोग थकावट की वजह से या किसी अन्य कारण से बाजार तभी जाते हैं जब इसका बहुत ज्यादा जरूरत हो। बाजार इस पर लगातार सोच रहा था कि कैसे लोगों तक आसानी से पहुंचा जाए। यानी किस तरह व्यक्ति अपने घर से बाहर निकले बगैर ही शॉपिंग कर सके। इस अवधारणा को अमली जामा पहनाया टेलिफोन और इंटरनेट ने। इनके आने से शुरू हुआ टेली-शॉपिंग और ऑॅनलाइन शॉपिंग का सिलसिला। अब लोगों के लिए यह जरूरी नहीं रह गया कि वे शॉपिंग करने के लिए तैयार होकर बाहर जाएं। अब वे टेलीफोन पर या ऑॅनलाइन ही चीजो का ऑॅर्डर करने लगे। भारत में ऐसी शॉपिंग को लेकर कई दिक्कतें भी आयीं जैसे इस तरह की शॉपिंग में माल बेचने वाला और माल दोनो अदृश्य थे। तो उपभोक्ता इस तरह की शॉपिंग पर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं कर पाये। साथ ही आज भी बड़ी संख्या में भारतीय जनसंख्या नेट सेवी नहीं है। तो बाज़ार ने सिका तोड़ निकाला टेलीविजन के माध्यम से । आज इसकी पहुंच बेहद बढ़ चुकी थी। लगभग हर घर में टीवी पहुंच चुका था और आम दर्शक टीवी पर भरोसा करने लगा था। इससे बाजार में एक नयी अवधारणा आई-टीवी शॉपिंग। इसके मूल में यही था कि व्यक्ति जब चाहे शॉपिंग कर सके। कुल मिलाकर अब आपको शॉपिंग के लिये अपनी गाड़ी का पेट्रोल जला कर बाजार जाने और दुकान दुकान घूम कर पाँव थकाने की कोई जरूरत नहीं है। इंटरनेट ने समस्त बाजार को आपके घर में ही ला कर रख दिया है। बस अपने कम्प्यूटर पर आन लाइन होइये या टीवी पर प्रोडक्ट का एड देखिए और हर चीज की दुकान आपके घर में ही हाजिर है। विदेशो में तो लोग अपना कीमती समय जरा भी नहीं गंवाते और सभी कामों को आनलाइन ही कर लेते हैं किन्तु भारत में अभी तक पूर्ण रूप से ऐसा नहीं हुआ है किन्तु यह जरूर है कि हम भी अब आनलाइन काम करने की दौड़ में शामिल हो चुके हैं और आनलाइन शॉपिंग का चलन यहाँ भी बढ़ता जा रहा है। इस शॉपिंग के जहां फायदे है वहीं घाटे भी हैं तो शॉपिंग करने से पहले कंपनी की विश्वसनीयता को को जांच परख कर ही शॉपिग करें।

Thursday, March 4, 2010

जीवन का नया रंग-ग्रामीण पर्यटन

आजकल रूरल टूरिज्म यानी ग्रामीण पर्यटन अपने पूरे शबाब पर है। चाहे गुजरात के गांव हों या हिमाचल प्रदेश के या फिर राजस्थान, केरल और सिक्किम के इन सभी राज्यों के कुछ चुनिंदा गांवों में पर्यटकों का दिल से स्वागत किया जाता है। यहां लोग गांव को करीब से देखने के सपने को साकार कर सकते हैं। इसके अन्तर्गत लोग ग्रामीणों के बीच गांवों में रहकर उनके जीवन का आनंद ले सकते हैं। पर्यटकों के सपनें को पूरा करने का बीड़ा उठाया है कई सरकारी एवं गैर सरकारी संगठन ने जो इन दिनों रूरल टूरिज्म की व्यवस्था कराने में व्यस्त है। आजकल पर्यटक विभिन्न स्थानों और संस्कृतियों के बारे में जानने की चाहत रखते है। भारत की विविधता को गांवों के माध्यम से प्रस्तुत कर, पर्यटकों की इसी इच्छा को पूरा करने का प्रयास कर रहा है भारत का पर्यटन मंत्रालय और इसमें उसका साथ दे रहा है संयुक्त राष्ट्र का विकास कार्यक्रम। इसके तहत फिलहाल 36 गांवों को चुना गया है जिसमें से प्रमुख हैं- नामथांग सिक्किम में रांगपो टाउन के निकट नामथांग में पर्यटक बौद्ध परंपराओं की झांकी देख सकते हैं। यहां पर टूरिस्ट को इनटरटेन करने का जिम्मा लिया है हेल्प टूरिज्म नामक संस्था ने जो यहां रूरल टूरिज्म उपलब्ध करती है। नामथांग में पर्यटक ग्रामीणों के घर में रुककर वहां के जीवन को गहराई से अनुभव कर सकते है। सामथर सामथर को पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने में अहम भूमिका निभाने का श्रेय जाता है सेवानिवृत्त जनरल जिमी सिंह को जो वहां के ग्रामीणों को घर बैठे रोजगार दिलाना चाहते थे और इसीलिए उन्होंने सामथर को एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया। पश्चिम बंगाल में कलिमपोंग से 80 किमी दूर सामथर गांव में पर्यटक भूटिया, लेपचा समुदायों की संस्कृति को करीब से जान सकते है। वहां का प्राकृतिक सौंदर्य भी पर्यटकों का मन मोह लेता है। यहां भी भूटिया, लेपचा एवं अन्य नेपाली ग्रामीणों के घरों में पर्यटकों के ठहरने की व्यवस्था है। लाहुल स्पीति हिमाचल प्रदेश में यह कार्य कर रही है इको स्फीयर नामक स्वंम सेवी संस्था जो स्पीति घाटी में रूरल टूरिज्म उपलब्ध कराती है। यहां पर्यटन के लिहाज से मई से लेकर अक्टूबर मध्य तक का समय उपयुक्त है। यहां पर्यटक याक पर सवारी एवं ट्रेकिंग का मजा ले सकते है। पर्यटकों को अपने घरों में ठहराने से स्थानीय निवासी भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। होदका होदका में शाम-ए-सरहद नामक एक रिसार्ट बनाया गया है, जो गांव में मिट्टी से बने अन्य घरों की भांति है। गुजरात के कच्छ इलाके में भुज के निकट स्थित यह गांव पर्यटकों को लुभाने में बेहद कामयाब रहा है। यहां पर्यटन के बढ़ावा देने में स्थानीय समुदाय ने भी अहम भागीदारी निभाई है। मिट्टी से बने घर यहां पर्यटकों को विशेष रूप से आकर्षित करते है। घूमने लायक यहां और भी बहुत कुछ है। कच्छ के रन में रेगिस्तान घूमने के अलावा यहां के प्रवासी पक्षियों को भी निहारा जा सकता है। ऐसे ही और भी गांव है जिसकी जानकारी पर्यटकों को भारत के पर्यटन विभाग से मिल सकती है। तो देर किसी बात की अपने बचपन के गांव देखने के सपने को कर डालिए झटपट पूरा।

Tuesday, March 2, 2010

ऐसा भी क्या लिखना?

तस्लीमा नसरीन अच्छा लिखती हैं और उनके पर पर मेरी अच्छी या बुरी टिप्पणी का कई फर्क नहीं पड़ता है पर पिछले रविवार उनके लेख की प्रतिक्रिया के चलते जो भी हुआ वह मुझे नागवार हैं। एक खबर के अनुसार कर्नाटक के एक कन्नड़ अख़बार में रविवार को बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन एक लेख के विरोध करने के लिए करीब 1500 लोग सडक़ों पर उतर आए। इस लेख में कुछ ऐसी बाते हैं जिससे एक समुदाय विशेष के आहत हुए। ये जुलूस उस समय हिंसक हो गया जब लोगों ने गाडिय़ों पर पत्थर फेकने शुरू कर दिए। करीब 20 वाहनों को नुक्सान पहुँचाने पर पुलिस ने स्थिति पर काबू पाने के लिए गोलियां चलाई, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई। माना क़ि तसलीमा जी की लेखनी की तारीफ हर जगह होती है और उनकी रचना पुरस्कृत भी होती रहती हैं पर ऐसा भी क्या लिखना क़ि किसी की जान पर बन आए। माना क़ि कट्टरता के खिलाफ आवाज बुलंद करना जरूरी है पर उस आवाज़ में इतनी तल्खी ना हो कि इन्सानिय ही कहीं खो जाए। ऐसे लिखने से तो ना लिखना ही बेहतर है। क्या आप मुझसे सहमत हैं?

नीलम