Saturday, October 9, 2010

विकास पर जाति-परिवार का छौंका

बिहार विधानसभा चुनाव में पहली बार हो रहा है कि जाति के ठेकेदार पर विकास कार्य हावी है। हर कोई बड़ा नेता और राजनीतिक दल विकास की बात कर रहे हैं। जदयू-भाजपा गठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री नीतिश कुमार अपने शासनकाल में हुए विकास कार्यों के बल पर आगे भी विकास कार्य करने का आश्वासन दे रहे हैं तो राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद रेलमंत्री के अपने कार्यकाल में किए गए कार्यों का ब्यौरा दे रहे हैं। लोजपा अध्यक्ष भी अपने केंद्रीय मंत्रालयों के कार्यों की समीक्षा कर, जनता को समझाने की कोशिश कर रह हैं। चूंकि कांग्रेस के पास बिहार में इस कद का नेता नहीं है जो नीतिश-लालू-पासवान के मुकाबले खड़ा हो।
जानकारों की रायशुमारी में राज्य में चुनाव के त्रिकोणीय होने की संभावना है, जहां सत्ताधारी जद यू और भाजपा का गठबंधन जारी है, जबकि इस गठबंधन को सत्ता से उखाड़ फेंकने के लिए राजद के लालू प्रसाद ने लोजपा के रामविलास पासवान से हाथ मिलाया है। कांग्रेस ने राज्य में अकेले दम पर चुनाव लडऩे का फैसला किया है, जबकि पूर्व में वह राजद की कनिष्ठ सहयोगी की भूमिका में रहती थी। अंतिम क्षणों में रूकावटों को दूर करते हुए राजद और लोजपा के बीच गठजोड़ हुआ और यह तय किया गया कि राजद 168 सीटों पर और लोजपा 75 सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करेगी। काबिलेगौर है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि वह चुनाव नहीं लड़ेंगे। क्योंकि वह पहले ही विधान परिषद के सदस्य हैं। राजद-लोजपा गठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार लालू प्रसाद भी विधानसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे। कांग्रेस ने किसी को मुख्यमंत्री के रूप में पेश नहीं किया है।
बेशक, विकास की बात हो रही है और नीतिश-लालू स्वयं चुनाव नहीं लड़कर नजीर पेश करना चाहते हैं, लेकिन उम्मीदवारों के चयन में उसकी जाति और परिवार पर विशेष गौर फरमाया गया। इसी का नतीजा है कि जदयू में भी रोष है और राजद में भी। कांग्रेस में तो यह सर्वव्यापी हो गया। राज्यसभा सदस्य उपेंद्र कुशवाहा तो टिकट में जाति-परिवार को लेकर खासे नाराज हो चले हैं। कुशवाहा का कहना है कि पार्टी में तमाशा हो रहा है। जो संकल्पित और निष्ठावान कार्यकर्ता हैं, उनको दरकिनार किया जा रहा है। उन लोगों को टिकट से वंचित किया जा रहा है जो नीतीश सरकार को बचाये रखने में अहम भूमिका निभा चुके हैं। जदयू में यह असंतोष सिर्फ कुशवाहा के मन में ही नहीं है। असंतोष की यह चिंगारी गोपालगंज के सांसद पूर्णमासी राम के मन में भी है। उनका भी वही आरोप है जो कुशवाहा का है। जदयू की नीतियों के खिलाफ पार्टी के वरीय नेता और मुंगेर से सांसद ललन सिंह ने कांग्रेस पार्टी का प्रचार करना शुरू कर दिय़ा है। मुजफ्फरपुर के सांसद कैप्टन (रिटायर्ड) जय नारायण निषाद टिकट बंटवारे में भेदभाव के चलते पार्टी आलाकमान से बगावत पर उतारू दिख रहे हैं। यही हाल बेगूसराय के सांसद मुनाजिर हसन का भी है। वह भी खुश नहीं हैं।
राजद ने जब से लोजपा के संग हाथ मिलाया है, उसके कई नेता कांग्रेस का दामन थाम चुके हैं। अपने जीजा लालू प्रसाद का साथ छोड़ कांग्रेस का हाथ थामने वाले पूर्व सांसद साधु यादव ने अब अपने समर्थकों को टिकट न मिलने पर बगावत कर दी है, तो टिकट मिलने के बावजूद लवली आनंद ने भी बगावती तेवर अख्तियार कर लिये हैं। विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस की ओर से जारी की गई उम्मीदवारों की पहली सूची में अपने समर्थकों की अनदेखी किए जाने से साधु नाराज हैं। साधु ने राज्य में कांग्रेस चुनाव अभियान समिति के उपाध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया है। साधु ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं पर टिकट बंटवारे में धांधली का आरोप लगाया है। उनका कहना है कि कांग्रेस में जो लोग टिकट बांटने का कार्य कर रहे हैं, वे ऐसे लोगों को टिकट दे रहे हैं जिनका हारना तय है। दूसरे दल के सांसदों द्वारा भेजे गए नामों पर विचार किया जा रहा है, जबकि अच्छे और कर्मठ कार्यकर्ताओं को तरजीह नहीं दी जा रही है। दूसरी ओर हत्या के मामले में बीते तीन वर्षों से जेल में बंद पूर्व सांसद आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद भी अपने समर्थकों को टिकट न दिए जाने से नाराज हैं। कांग्रेस ने लवली को मधेपुरा के आलमनगर सीट से उम्मीदवार बनाया है। गौरतलब है कि करीब 20 वर्षों के बाद राज्य में कांग्रेस ने विधानसभा की सभी 243 सीटों पर चुनाव लडऩे की घोषणा की है।
दूसरी ओर, इस बार विधानसभा चुनाव में कई राजनेताओं के पुत्रों के लिए भी संभावना का द्वार खोल रहा है। छह चरणों में होने वाले विधानसभा चुनाव लोजपा और राजद के 'युवराजÓ इसमें अपनी राजनीतिक विरासत संभालने की ओर कदम बढ़ाएंगे। राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद अपने पुत्र और क्रिकेट खिलाड़ी तेजस्वी यादव को राजनीति के मैदान में उतारने की घोषणा कर चुके हैं। वैसे तेजस्वी का कहना है कि अभी वह राजनीति की 'एबीसीÓ सीखेंगे। उधर, लोजपा के अध्यक्ष रामविलास पासवान के पुत्र एवं फिल्म अभिनेता चिराग विधानसभा चुनाव में भी लोजपा का प्रचार करेंगे। पिछले लोकसभा चुनाव में भी चिराग ने लोजपा के लिए प्रचार किया था, परंतु उस चुनाव में लोजपा को बिहार से एक भी सीट नहीं मिली थी। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो दोनों नेता अपने पुत्रों को राजनीतिक विरासत सौंपने की तैयारी आरंभ कर चुके हैं। तेजस्वी के राजनीति में आने पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहले तो कुछ नहीं बोले परंतु बार-बार पूछने पर उन्होंने बस इतना कहा कि हम लोगों को बिहार की चिंता है और किसी को अपने परिवार की चिंता लगी हुई है। विधानसभा चुनाव में राजद के सांसद एवं लालू प्रसाद के करीबी माने जाने वाले जगदानन्द सिंह के पुत्र सुधाकर सिंह ने भी राजद को त्याग कर भाजपा का दामन थाम लिया है तो राजद के पूर्व सांसद तस्लीमुद्दीन के पुत्र सरफराज भी अपने पिता की तरह जदयू से जुड़ गए हैं।

Tuesday, October 5, 2010

गड्डी विच हिंड्रेस

राजधानी बनने के अपने स्थापना काल से लेकर आज तक दिल्ली की विकास के कई मसौदे बने लेकिन आज तक वह मुकम्मल मुकाम हासिल नहीं हो सका, जिसका इंतजार दिल्लीवासियों को है। विकास के लिए प्रसिद्घ शहर नियोजनकत्र्ता एडवर्ड लुटियन्स व हर्बट बेकर के योजना के बाद तीन मास्टर प्लान दिल्ली देख चुकी है, मगर मास्टर प्लाज-2021 के आगाज को देखकर इसके अंजाम को लेकर सवाल उठने लगे हैं। कुछ साल पूर्व तक दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमति शीला दीक्षित इसे पेरिस सरीखा वल्र्ड क्लास सिटी बनाने की बात करती थीं लेकिन बीते दिनों उनके हवाले से कहा गया कि दिल्ली को दिल्ली ही रहने दें! मुख्यमंत्री का यह बयान काफी कुछ बयां कर जाता है। इसके प्रमुख कारणों में आमतौर पर राजधानी में बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या और सरकारी योजनाओं की खामियों को गिनाया जाता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय दिल्ली की जनसंख्या जहां 7 लाख के करीब थीं, वहीं आज यह डेढ़ करोड़ के करीब पहुंच चुकी है। दिल्ली के विकास के लिए एक के बाद एक तीन मास्टर प्लान आ गये। पहले मास्टर प्लान 1962, फिर 2001 और अब मास्टर प्लान 2021। पहला प्लान वर्ष 1981 तक की जरूरतों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया। उसके बाद वर्ष 2001 तक के विकास के मद्देनजर योजनाएं बनीं और नया मास्टर प्लान भी अगले 20 वर्षों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया। बावजूद इसके, शहर अपनी विकासात्मक लय को प्राप्त नहीं कर पाया। शहर योजनाकारों की बात पर गौर फरमाया जाए तो उनका कहना है कि राजनीतिक दखल की वजह से तकनीकी विशेषज्ञता मात खा रही है। दिल्ली में बसी अनधिकृत कालोनियों ने तमाम योजनओं पर पानी फेर दिया। बढ़ती आबादी के कारण ही विगत की दो योजनाओं विफल हुईं। देश की आजादी के बाद यहां बड़े पैमाने पर प्रवासी आ गए और 1947 के 7 लाख से बढ़कर 1951 में जनसंख्या 17 लाख हो गईं। उसके बाद यह क्रम आगे बढ़ता ही गया। इस संबंध में केंद्रीय शहरी विकास राज्य मंत्री और दिल्ली की कांग्रेसी राजनीति में खासा दखल रखने वाले अजय माकन कहते हैं कि एक लोकतांत्रिक सरकार न तो अवैध कालोनियों में बसे 40 लाख लोगों को बेघर कर सकती है न ही लाखों व्यापारियों के जीविकोपार्जन का सहारा छीन सकती है। इसके अलावा, सरकार दूसरे प्रदेशों से यहां आने वाले पर रोक भी नहीं लगा सकती। लिहाजा, उचित यही है कि जो लोग यहां हैं या आ रहे हैं, उनकी संख्या का सही आकलन कर इन्हें बेहतर सुविधाएं दी जाएं। दिल्ली की विकास के मुतल्लिक जब बात होती है तो कहा जाता है कि पहले मास्टर प्लान में लचीलेपन का अभाव था। खासकर भूमि उपयोग के मामले में। लेकिन आबादी की बाढ़ के आगे कानूनी प्रावधान धरे के धरे रह गये। यही वजह रही कि जब दूसरा मास्टर प्लान आया तो उसमें भूमि उपयोग की छूट दी गई। लेकिन बात उससे बनी नहीं। कानून को ताक पर रखकर मनमर्जी जगहों पर दुकानें खुलती रहीं। यही वजह रही कि अंतिम मास्टर प्लान-2021 आने से पहले शहर में बड़े पैमाने पर तोडफ़ोड़ भी हुई और सीलिंग की कार्रवाई आज भी जारी है। इसकी सफलता की गारंटी की बात करते हुए सरकारी नुमांइदें कहते हैं कि यह मास्टर प्लान केवल नौकरशाहों व विशेषज्ञों द्वारा नहीं बनाया गया। इसको तैयार करते समय समाज के हर तबके की राय ली गई, यहां तक कि दिल्ली विधानसभा में भी इस पर चर्चा हुई। इसे राजधानी की जमीनी हकीकतों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। हाल ही में दिल्ली सरकार ने बीआरटी कॉरिडोर का निर्माण करके परिवहन व्यवस्था दुरूस्त करने की पहल की थी, लेकिन यह पहल पहले ही चरण में चरमरा गई और सरकार के मुख्य सचिव ने स्वयं स्वीकार किया कि कॉरिडोर के निर्माण में कुछ खामियां रहीं। सरकार की मंशा थी कि सार्वजनिक परिवहन सेवा को दुरूस्त किया जाए, सड़क यात्रा सुगम हो, लेकिन मंशा के ठीक उलट बीआरटी कॉरिडोर बनने के बाद घंटे भर की यात्रा करने में लोगों को तीन-चार घंटे तक गंवाने पड़े। पानी और बिजली जैसी मूलभूत चीजों के मामलें में राज्य सरकार को दूसरे प्रदेशों के रहमोकरम पर रहना होता है। भूमि दिल्ली सरकार के पास है नहीं और न ही वह कोई आवास का निर्माण कर सकती है। इस कार्य के लिए इसे दिल्ली विकास प्राधिकरण पर निर्भर होना पड़ता है। अव्व्ल तो यह है कि दिल्ली विकास प्राधिकरण पर सदा से ही यह आरोप लगता है कि उसने रिहाइश व व्यावसायिक , दोनों की इस्तेमाल के लिए पर्याप्त इंतजाम नहीं किये। यही वजह रही कि अवैध कॉलोनियों का विकास हुआ और रिहाइशी इलाकों में बड़ी तादाद में दुकानें भी खुल गईं। बहरहाल, इसमें दो राय नहीं है कि नियोजनकर्ताओं ने गत दोनों मास्टर प्लान से सबक लेते हुए नये मास्टर का प्रारूप तैयार किया। मिश्रित भूमि उपयोग को इजाजत दी गईं, आवास, बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि के मामलों में वास्तविक बातें भरसक की गईं। मगर, शहर की दिन दूनी- रात चौगुनी की दर से बढ़ती आबादी और अपेक्षाकृत सरकारी सुविधाओं की कमी को देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि यह मास्टर प्लान भी राजधानी की जरूरतों को पूरा कर पाने में सफल हो पाएगा। दिल्ली के विकास की गड्डी उबड़-खाबड़ सड़कों पर फिलहाल हिचकोंले खा रही हैं और इंतजार कर रही है सपाट और सुंदर सड़क का...। हालांकि, सरकार की ओर से व्यापक तौर संशोधनों का प्रावधान कर यह व्यवस्था जरूर कर दी गई है कि समय के साथ इसे नये संाचे में ढ़ाला जा सके। केंद्रीय शहरी विकास राज्य मंत्री अजय माकन का कहना है कि 'मास्टर प्लान 2021 में आवास, बिजली,ा पानी, परिवहन आदि मूलभूत सुविधाओं का पूरा ख्याल रखा गया है। मैं यह विश्वास करता हूं कि नया मास्टर प्लान दिल्ली की अपेक्षाओं पर खरा उतरेगा।Ó कहा जा रहा है कि दिल्ली का यह तीसरा और शायद अंतिम मास्टर प्लान हो, वर्ष 2021 के बाद दिल्ली में इतनी जमीन नहीं बचेगी, जिससे शहरीकरण की योजना बनाई जाए। इस प्लान के अनुसार वर्ष 2021 तक दिल्ली की आबादी 2 करोड़ 30 लाख तक पहुंच जाए।

Monday, October 4, 2010

सदी का पहला दशक और हिन्दी सिनेमा

पिछला दशक भारतीय सिनेमा की किस्मत में भी परिवर्तन लेकर आया। फिल्म की तकनीक से कथा वस्तु, संवाद, गीत-संगीत सबकुछ बदल गया है। या यूं कह लें कि स्तरीय हो गया है। आज भारतीय सिनेमा विश्वपटल पर अपनी एक अलग पहचान रखता है जिसका श्रेय नयी पीढ़ी के फिल्मकारों के साथ आज की युवा पीढ़ी को भी जाता है जो फिल्मों को नए विषयों और सच के साथ स्वीकारने का दमखम रखती है। प्रस्तुत है 20वीं सदी के पहले दशक में सिनेमा के बदलते स्वरूप पर लेख- कुछ साल पहले तक भारतीय सिनेमा में हीरो हीरोइन का रोमांस, मारधाड़ और बदला लेने वाले विषय को ही अलग-अलग रूपों में चरित्रार्थ करके दिखाने का चलन था। कहा जा सकता है कि भारतीय सिनेमा एक ही शैली में ढला हुआ था। इस परंपरा को तोड़ा साल 2000 के बाद आने वाले ऐसे फिल्म निर्माताओं ने जिनके आगमन से भारतीय सिनेमा को एक नयी उड़ान भरने का मौका मिला साथ ही उनके प्रयासों ने आज भारतीय सिनेमा को विश्व-पटल पर ला खड़ा किया है। अंग्रेजी में एक कहावत है चेंज इज द ओनली कांस्टेंट यानि परिवर्तन संसार का नियम है। जब राजनीति में बाबा रामदेव जैसे योग गुरू का पदार्पण हो सकता है, स्वास्थ्य जगत में अचानक होमियोपैथी व आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को बढ़ावा देने की सरकारी मुहीम चलाई जा सकती है तो भला फिल्मों में होने वाले परिवर्तन को कैसे रोका जा सकता है। आज के सिनेमा की प्रासंगिकता का सही आंकलन करने के लिए हिंदुस्तानी सिनेमा के इस सदी के पहले के बीते दो दशकों का जिक्र करना लाजमी हो जाता है। इन दो दशकों पर गौर करने से ही पता चलेगा कि आज हमारा सिनेमा बहुत कुछ बदल चुका है और बहुत कुछ बदल भी रहा है। 80 के दशक के आखरी में सड़कों पर मवालियों की तरह नाचने वाले गोविंदा और मिथुन की फिल्मों से लेकर 90 के दशक की लिजलिजी प्रेम कहानियों, बेतुके संवादों और हिंसा से भरी फूहड़ फिल्मों को आज हम बहुत पीछे छोड़ आए है। उस दौर को याद कीजिए जब अक्सर फिल्मों में एक खास तरह के डायलॉग सुनने को मिलते थे। कुत्ते मैं तेरा ख़ून पी जा जाऊंगा, मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं, ये तो भगवान की देन है या फिर किसी रेप सीन से पहले बोला जाने वाला मशहूर डायलॉग भगवान के लिए मुझे छोड़ दो। आज इन डायलॉग की जगह कॉमेडी में ही रह गई हैं। आज इन्हें सुन कर सिर्फ हंसी आती है। मरते दम तक, जवाब हम देंगे, हमसे न टकराना और आतंक ही आतंक ऐसी न जाने कितनी फूहड़ फिल्में उस दौर में आई थी। एक्शन सीन में हीरो का उल्टे जंप मारना, मशीन गन की हजारों गोलियां खाली हो जाना लेकिन हीरो को एक भी गोली न लगना और न जाने कैसे-कैसे झेलाऊ सीन देखने पड़ते थे। उस पर बीच बीच में जबरन ठूंसे गए सड़क छाप गाने जिनकी धुनें वेस्टर्न म्यूजिक से सीधे उठा ली जाती थी। 1985 से लेकर 1990 के बीच हिंदी फिल्मकारों ने क्या बनाया यह सोचकर भी शर्म आती है। कहा जा सकता है कि वह फिल्में कूड़े से ज़्यादा कुछ नहीं थीं। इसी तरह 90 के बाद की फिल्में बिना सिर पैर के ही थीं। हर दूसरी फिल्म में कॉलेज के लड़कोंं की आवागर्दी के बीच, अमीर और गरीब लड़का-लड़की की प्रेम कहानी होती थी। निहायत ही वाहियात और पकाऊ फिल्मों का था वो दौर। इसी बीच कुछ फिल्मकारों ने फिल्म के नाम पर शादी के वीडियों तक बना डाले जो हिट भी ख़ूब रहे। किसी फिल्म में हीरो हैलिकॉप्टर अपने घर के सामने लैंड कराए और दीवाली मनाने आए तो ऐसी फिल्में आम लोगों से भला कैस जुड़ी होगी। पिछले एक दशक में अजीबो गरीब फिल्में धीरे धीरे गुम होती चली गई और नजर आई भी तो दर्शकों ने ऐसी फिल्मों को और बनाने वालों को नजरअंदाज कर दिया। और फिर आई नई सुबह, एक नए शताब्दी के साथ जब हम नयी दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की कोशिश करने लगे। आज के दौर में भारत बाहरी दुनिया और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया से प्रभावित है तभी तो हमारे फिल्मकार भारत में फिल्म रिलीज करने से पहले विदेश में उसकी जमीन तलाशते हैं। इस नयी प्रतियोगिता के दौर में हमारी फिल्में नयी कहानियों की तलाश में लग गयी हैं और इसी प्रतियोगिता का परिणाम यह है कि अब समाज के हर वर्ग के लिए और हर विषय पर फिल्में बन रही है। आज हिन्दी सिनेमा अन्तर्राष्ट्रीय फिल्मों से टक्कर ले रहा है। इस बदलती सोच का सारा श्रेय सिर्फ निर्माता या निर्देशकों को देना उचित नहीं होगा। इस बदलते परिवेश की जिम्मेदारी काफी हद तक आज के युवा वर्ग को भी जाती है। पहले फिल्मों में जहां आलीशान बंगले और बड़ी बड़ी गाडिय़ां हुआ करती थी वहीं आज कि फिल्में तंग गलियों में सिसकती जिन्दगी की सच्चाई से दर्शकों को रु-ब-रु करवा रही हैं। आज का दर्शक मायाजाल से निकल कर तंग गलियों के सफर का भी खुले दिल से स्वागत करता है। तारे जमी पर, आमीर, 3 इडिअट्स, कुर्बान, थैंक्यू मां जैसी फिल्में बदलती सोच और समाज का सन्देश देती हैं। खासकर पिछले कुछ सालों मे हिंदी सिनेमा काफी बदल गया है। कहानी प्रधान फिल्मों जैसे न्यूयार्क, ओंमकारा, जब वी मेट आदि ने हमारी फिल्म नगरी का पूरा ढांचा बदल दिया है। नयी पीढ़ी के फिल्मकार विशाल भारद्वाज, अनुराग बासु, जोया अख्तर, अनुराग कश्यप, राज कुमार हिरानी, करण जौहर सहित आमीर खान, मणिरत्नम, प्रकाश झा, रामगोपाल वर्मा इत्यादि हमें अच्छी और अनोखी कहानियों वाली फिल्में दें रहे हैं। एक और परंपरा है जो टूटी है और वह है आजकल पकी पकाई फिल्मी जोडिय़ों को लेकर फिल्में बनाने की जगह नयी जोडिय़ों को लिया जा रहा है और दर्शक इन्हें स्वीकार भी रहे हैं। अतिथि तुम कब जाओगे में अजय देवगन और कोंकना सेन शर्मा या इश्किया में विद्या बालन और अरशद वारसी की जोड़ी इस परिक्षण का जीता जगता उदाहरण है। मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता और घिसी पिटी कहानियो का दौर भी अब लगभग अपनी आखिरी सांसे ले रहा है। हालांकि अभी भी अधिकतर फिल्म निर्माता निर्देशक रंगीनियत के चश्मे से चीजों को देखने के लालच को तिलांजलि नहीं दे पाए हैं लेकिन निर्माता-निर्देशकों की एक नयी पौध सिग्नल पर रहने वाले उन भिखमंगों या फिर दो पहिये की गाड़ी से चार पहिये की गाड़ी तक जिन्दगी को धकेलने कि कोशिश करनेवाली मध्यम वर्गीय परिवार की कहानी को भी बेखौफ परोसने कि हिम्मत कर रहे हैं। प्यार की कसमें खा-खाकर अपनी जान तक देने वाले आशिकों की फिल्मों से हटके वर्तमान फिल्में हसीन वादों और सपनों से भी आगे जमीनी हकीकत से रू-ब-रू कराती हैं, जहां जिंदगी इतनी आसान नहीं होती। यही कारण है कि दिलवाले दुल्हिनियां ले जाएंगे व कभी खुशी कभी गम जैसा फिल्में बनाने वाले धर्मा प्रोडक्शन ने भी कुर्बान जैसी प्रयोगात्मक फिल्म बनाने का फैसला किया। लगान, सरकार, फना, रंग दे बसंती, तारे जमीं पर, आमीर, ए वेडनेस डे, फैशन, मिशन इस्तांबुल, कुर्बान, कमीने, अतिथि तुम कब जाओगे, इश्किया, राजनीति, रावण, रेड अलर्ट, लम्हा सहित आने वाली फिल्में नो वन किल्ड जेसिका, डेज इन पेरिस, गुलेल, जिंदगी मिलेगी ना दोबारा जैसी फिल्मों ने भारतीय सिनेमा का पूरा ढांचा ही बदलकर रख दिया। अब वह बीते दौर की बातें हो गई हैं जब हमारे देश में फिल्म निर्माण के क्षेत्र के लिए भी मापदंडों की रचना कर ली गई थी। विषय कैसा भी हो दरिद्रता नहीं दिखनी चाहिए, घर में खाने को न हो किन्तु पात्रों में, विशेषकर परिधानों, आवासों व अन्य स्थानों पर अभाव नहीं दिखाया जाता था। आज भारतीय दर्शक न सिर्फ सच देखना जानता है बल्कि उसे स्वीकारने की क्षमता रखता है। यही कारण है कि आज की फिल्मों में तकनीक से लेकर विषयवस्तु तक और कहानी से पात्र तक सभी आम लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

Tuesday, September 7, 2010

अब मचेगा बिहार में घमासान

तमाम आशंकाओं का पटाक्षेप करते हुए चुनाव आयोग ने देश के सबसे अधिक राजनीतिक रूप से सशक्त राज्य बिहार में चुनाव के तारीखों की घोषणा करके सियासी घमासान की औपचारिक शुरूआत कर दी। छह चरणों में होने वाला चुनाव की घोषणा चुनाव आयोग के मुख्य आयुक्त कुरैशी ने 6 सितंबर को की। हालांकि सियासी दलों को इस बात का आभास नहीं था कि चुनाव छह चरणों में होगा, वह भी त्योहारों के बीच में। बिहार के मुख्य त्योहार छठ दिन चुनाव की तारीख को लेकर जदयू सहित राजद और लोजपा को संशय है, वह चरण को लेकर नीतिश सरकार को किसी प्रकार की कोई आपत्ति नहीं है। आयोग का तर्क है कि चूंकि प्रदेश में नक्सलवादी गतिविधि बढ़ी है, इसके चलते शांतिपूर्ण मतदान के लिए यह आवश्यक है। अब राजनीतिक दल अपने-अपने सियासी गणित को साधने में लगे हैं। बहरहाल, चुनाव आयोग के तयशुदा कार्यक्रम के तहत पहले चरण में 21 अक्टूबर को मतदान होगा। पहले चरण में 47 सीटों के लिए वोट डाले जाएंगे। जबकि दूसरे चरण का मतदान 25 अक्टूबर को होगा और दूसरे चरण में 47 सीटों के लिए वोट डाले जाएंगे। 28 अक्टूबर को तीसरे चरण का मतदान होगा जिसमें 48 सीटों, 1 नवंबर को 42, नौ नवंबर को 35 सीटों के लिए तथा 20 नवंबर को 26 सीटों के लिए मतदान होगा। कुल 243 सीटों के लिए मतदान के बाद 24 नवंबर को मतगणना की जाएगी। दिल्ली में जैसे ही बिहार के लिए चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा की गई, पटना में चुनावी चाल तैयार किए जाने लगे। कुल 243 सीटों वाले बिहार विधानसभा का चुनाव छह चरणों तक खींचे जाने का अनुमान न तो नेताओं को था और न ही सूबे के नौकरशाहों को। नेता छह चरणों में चुनावों की घोषणा का तो इस्तेकबाल कर रहे हैं, लेकिन दशहरा, दिवाली और बिहार का सबसे पावन पर्व छठ के बीच चुनाव की घोषणा को वे गलत करार दे रहे हैं। चुनावों के बरक्स आयोग की घोषणा के साथ ही विभिन्न दलों के नेताओं ने छठ के ठीक पहले पांचवें चरण के चुनाव की तारीख में तब्दीली करने की मांग कर दी है। सूर्य की उपासना का पर्व छठ नहाय खाय, खरना और सूर्य को एक दिन शाम को और दूसरे दिन सूर्योदय के समय अघ्र्य के साथ तीन दिनों में संपन्न होता है। काबिलेगौर है कि व्रत की तैयारी हफ्ते भर पहले से चलती है इस बीच माना जा रहा है कि विभिन्न दलों के प्रत्याशी चुनाव प्रचार नहीं करने के स्थिति में रहेंगे। जदयू अध्यक्ष शरद यादव का कहना है कि चुनाव आयोग को छठ के ठीक पहले पांचवें चरण के चुनाव की तारीख बदलनी चाहिए। बिहार में छठ पर्व की महत्ता को देखते हुए 9 नवंबर को पांचवें चरण का चुनाव कराना किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं।Ó 5 नवंबर को दिवाली के छह दिनों के बाद छठ का पर्व होने के कारण तारीख आती है 11 नवंबर। माना जा रहा है कि व्रत का त्योहार तीन दिनों तक चलने का स्पष्ट असर चुनाव प्रचार पर पड़ेगा। ज्यादातर प्रत्याशियों को इस बात की भी चिंता सता रही है कि चुनावों के बीच आने वाले पर्व के कारण वोटरों तक अपनी बात असरदार तरीके से कैसे पहुंचाई जाए! राजद, लोजपा, भाजपा और कांग्रेस के कई नेताओं ने अलग-अलग बातचीत में स्वीकार किया कि कुछ चुनाव की कुछ तारीखों पर आयोग से बातचीत कर बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की जाएगी। औसतन हर चरण में 40 सीटों पर चुनाव की तैयारी आयोग ने की है। गौरतलब है कि एस.वाई. कुरैशी के मुख्य चुनाव आयुक्त का पद संभालने के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव होगा। चुनाव आयोग राज्य का पहले ही दौरा कर चुका है और वहां चुनाव की तैयारियों खासकर फोटो पहचान पत्र और मतदाता सूची के संशोधन कार्यो का जायजा ले चुका है। चुनाव की तैयारियों को अंतिम रूप देते हुए चुनाव आयोग ने पिछले दिनों केंद्रीय गृह सचिव जी.के. पिल्लई के साथ सुरक्षा इंतजामों पर चर्चा की थी। पिछली बार यानी वर्ष 2005 में बिहार विधानसभा के चुनाव चार चरणों में कराए गए थे, जबकि 2000 के विधानसभा चुनाव तीन चरणों में हुए थे। 2005 में राज्य में दो बार विधानसभा चुनाव हुए थे। पहली बार फरवरी में मतदान हुआ था और किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने के बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया था। राज्य में अक्टूबर-नवंबर में विधानसभा चुनाव हुए थे, जिसमें नीतीश कुमार के नेतृत्व में जदयू भाजपा गठबंधन पिछले पंद्रह वर्षो से सत्ता में काबिज लालू प्रसाद के नेतृत्व वाली राजद को जबर्दस्त शिकस्त देते हुए सत्तारूढ़ हुआ था। आगामी विधानसभा चुनाव में राज्य में सत्तारूढ़ जदयू भाजपा गठबंधन का मुख्य मुकाबला लालू प्रसाद और रामविलास पासवान के नेतृत्व वाली राजद लोजपा गठबंधन से होगा। लंबे समय से सत्ता से बहार रही कांग्रेस भी इस बार पूरे दमखम से चुनाव मैदान में होगी। पिछले लोकसभा चुनाव की तरह इस बार भी कांग्रेस ने राज्य की सभी सीटों पर अकेले चुनाव लडऩे की घोषणा की है। उधर, वामपंथी पार्टियां माकपा, भाकपा और माकपा माले मिलकर चुनाव लडऩे की तैयारी कर रही हैं। इन दलों के बीच अगले सप्ताह सीटों का तालमेल होने की उम्मीद है। नीतीश कुमार ने मांग की है कि लोग चुनाव की प्रक्रिया में भयमुक्त होकर भाग लें तथा स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव संपन्न हो सके इसके लिए शत-प्रतिशत मतदान केंद्रों पर केंद्रीय सशस्त्र बलों की तैनाती की जाए। गौर करने योग्य यह भी है कि अभी भी बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एवं भाजपा के बीच जो रस्साकशी चल रही है, उसकी जड़ में मुस्लिम वोटों की राजनीति है। जहां एक ओर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का विवादास्पद विज्ञापन एक रणनीति का हिस्सा था, तो वहीं नीतीश कुमार का बाढ़ पीडि़तों के लिए मोदी द्वारा दी गई 5 करोड़ की राशि लौटाना। बिहार में महादलित का कार्ड चलने के बाद नीतीश अब मुस्लिमों को अपने पाले में खींचना चाहते हैं और यह तभी संभव है जब वह भाजपा के कट्टरपंथी चेहरे पर आघात कर आक्रामक रुख अपनाएं। आजकल वह यही कर रहे हैं। बिहार में दलितों और मुस्लिमों के वोटों की संख्या एक-तिहाई के करीब बैठती है। बिहार में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 39 है। नीतीश की निगाह इसी एक-तिहाई वोट बैंक को हासिल करने की है। बिहार में एक पुरानी कहावत है- यहां लोग वोट डालने नहीं जाते बल्कि जाति के लिए वोट डालते हैं। और इसी के इर्द-गिर्द राजनीति घूमती है। बेशक, इन पांच सालों में विकास कार्य के बल पर नीतिश ने एक नई सोच बनाई है। कुर्मी वोट हालांकि बहुत अधिक नहीं हैं, फिर भी जितने हैं नीतीश के साथ हैं। राज्य में अगड़े वोट बंटे हुए हैं। इस तरह नीतीश इस बार बहुत सोच समझ कर अपनी चाल चल रहे हैं। वह एक नया सामाजिक समीकरण बनाना और उसके बल पर सत्ता में पहुंचना चाहते हैं। बहुत हद तक मुस्लिमों का भरोसा भी एक बड़ा कारण होगा। 2005 के विधानसभा चुनाव में नीतीश के जदयू ने 139 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसने 20.46 फीसदी वोटों के साथ 88 सीटों पर जीत हासिल की थी। यदि वह इस बार अकेले दम पर सरकार बनाने का सपना देख रहे हैं तो उन्हें 243 सीटों में से 122 सीटों को जीतना होगा। उत्तर-पूर्वी बिहार के कई इलाकों में नीतीश को भाजपा की दरकार हो सकती है। पूर्णिया, किशनगंज, बेतिया, कटिहार, भागलपुर आदि कई जगहों पर एंटी मुस्लिम फीलिंग ने भाजपा को अपने पैर जमाने में मदद की है। यह ऐसे इलाके हैं जहां भाजपा के साथ रहते नीतीश को मुस्लिम वोट मिलना नामुमकिन है। बिहार में मुस्लिमों के वोट पाने के लिए नीतीश को भाजपा का दामन छोडऩा होगा। बिहार में करीब 60 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम वोट निर्णायक साबित होते हैं। इसी को ध्?यान में रख नीतीश कह रहे हैं कि यदि बिहार में गठबंधन को बचाना है तो भाजपा को नरेंद्र मोदी और वरूण गांधी को बिहार विधानसभा चुनाव से दूर रखना होगा। लेकिन इन इलाकों में यही दो नेता भाजपा के खेवनहार भी बन सकते हैं। गठबंधन पर फैसले को लेकर आज भाजपा के नेता बैठक कर रहे हैं। नीतीश के इस नये समीकरण को गढऩे की राह में मायावती एक बड़ा रोड़ा बन सकती हैं। बसपा ने बीते विधानसभा चुनाव में 4.17 फीसदी वोटों के साथ 4 सीटों पर जीत हासिल की थी। बसपा कितनी सीटें जीतती है, इससे अधिक वह कितनी सीटों पर वोट काटती है, यह बात देखने वाली होगी। राज्सभा के सदस्?य डाक्?टर एजाज अली, जो कि फिलहाल जदयू से निष्?कासित हैं, ने बताया कि बीते लोकसभा चुनाव में जदयू-भाजपा गठबंधन को मुस्लिमों के वोट नहीं मिले थे। राज्?य में मुस्लिम वोटों की संख्?या 16 फीसदी के करीब है। वह कहते हैं कि राज्?य में मुस्लिम वोट एकतरफा पड़ता है। हालांकि बीते चुनाव में यह लालू और पासवान में बंट गया था। वहीं, कांग्रेस बिहार विधानसभा चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंकने को तैयार है। पार्टी महासचिव राहुल गांधी के दौरों को लेकर खासी उत्साहित है। सूबे के हरके हिस्से से राहुल गांधी के कार्यक्रम की मांग हो रही है। प्रदेश अध्यक्ष महबूब अली कैसर ने भी आलाकमान से मांग की है कि राहुल गांधी के ज्यादा से ज्यादा दौरे प्रदेश में हों। प्रदेश अध्यक्ष ने इस बाबत खुद राहुल से भी संपर्क साधा है। इस बीच कांग्रेस ने अपने प्रचार अभियान में कुछ निजी एजेंसियों का भी सहयोग लेने का मन बनाया है और कुछ एजेंसियों को यह जिम्मेदारी दे दी गई है। बिहार विधानसभा के लिये चुनाव 21 अक्टूबर से 20 नवंबर तक कराए जाएंगे। पहला चरण- 21 अक्टूबर (47 सीटें) दूसरा चरण- 24 अक्टूबर (45 सीटें) तीसरा चरण- 28 अक्टूबर (48 सीटें) चौथा चरण- 01 नवंबर (42 सीटें) पांचवां चरण- 09 नवंबर (35 सीटें) छठा चरण- 20 नवंबर (26 सीटें) वोटों की गिनती 24 नवंबर को होगी मुस्लिमों को लुभाने की कोशिशें तेज एशियन डवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा कराए गए इस सर्वे के मुताबिक बिहार में मुस्लिमों की आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर करती है।हालांकि नीतीश कुमार ने राज्य में मुस्लिमों के शैक्षिक एवं आर्थिक उत्थान के लिए तालीमी मरकज और हुनर का प्रोग्राम आदि कार्यक्रम चलाए और कब्रिस्तान की घेराबंदी के लिए विशेष फंड की व्यवस्था की। बिहार में यह मामला दंगे भड़कने का सबसे बड़ा कारण बनता रहा है। बिहार के मुस्लिमों में माइग्रेशन एक बड़ी समस्या बना हुआ है। ग्रामीण इलाकों में प्रति 100 मुस्लिम परिवारों में 63 इस समस्या से जूझ रहे हैं। सर्वे में एक और अहम बात यह सामने आई है कि केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा मुस्लिमों के लिए चलाए जाने वाले कार्यक्रमों का भी उन्हें लाभ नहीं मिल पाता। बिहार का मुस्लिम समाज 43 जातियों में बंटा हुआ है। सर्वे में मुस्लिमों को सबसे गरीब समुदाय बताया गया है।सर्वे के मुताबिक 49.5 फीसदी ग्रामीण मुस्लिम परिवार और 44.8 फीसदी शहरी मुस्लिम परिवार गरीबी रेखा के नीचे रह रहे हैं। 28.04 फीसदी ग्रामीण मुस्लिमों के पास जमीन नहीं है।

Thursday, August 26, 2010

हां-ना के बाद हो ही गया हाँ...

आखिरकार संसद में सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज बिल अथवा परमाणु दायित्व विधेयक का संशोधित प्रारूप पारित हो ही गया। काफी राजनीतिक ना-नुकुर के बाद सरकार ने मुख्य विपक्षी दल भाजपा को विश्वास में लेकर इसे पारित करा लिया। जानकारों की रायशुमारी तो यही रही कि इस विधेयक का मसौदा खराब ही नहीं था बल्कि सरकार ने इसे ठीक से पेश भी नहीं किया था। मसौदा तैयार करने के लिए जिन अधिकारियों को जिम्मेदारी दी गई थी, उन्होंने अगर अपना काम बेहतर ढंग से किया होता और कांग्रेस पार्टी ने भारतीय जनता पार्टी से पहले ही सलाह मशविरा कर लिया होता तो बाद में बदलाव किए गए , उनमें से कई को मूल मसौदे में ही शामिल कर लिया गया होता। अब सरकार एकमात्र यही दावा कर सकती है कि उसने मसौदा तैयार ही ऐसा किया था कि विपक्ष उसमें सुधार करने के बाद समर्थन घोषित कर सके। दरअसल, कुछ समय से लगातार चर्चा में रहे परमाणु दायित्व बिल को कुछ संशोधनों के साथ लोकसभा में पारित कर दिया गया। प्रधानमंत्री कार्यालय के राज्य मंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने लोकसभा के पटल पर परमाणु दायित्व बिल का मसौदा रखा। सरकार की ओर से इसमें अठारह संशोधन लाए गए, जिन्हें सदन ने मंजूरी दे दी। विधेयक में यह व्यवस्था है कि दुर्घटना की स्थिति में संचालक को प्रभावित लोंगों को 1500 करोड़ रूपए तक का मुआवजा देना होगा। इसमें परमाणु उपकरण आपूर्तिकर्ता को घटिया माल या सेवा देने के लिए जिम्मेदार ठहराने का प्रावधान किया गया है। काबिलेगौर है कि परमाणु दायित्व विधेयक में ताजा संशोधन के तहत किए गए प्रावधानों को किसी दुर्घटना की स्थिति में ऑपरेटर की जवाबदेही कम करने वाला बताया जा रहा है। केबिनेट ने बिल में उस प्रस्ताव को भी शामिल किया था जिसके अंतर्गत रिएक्टर ऑपरेटर क्षतिपूर्ति का दावा तभी कर सकता है जब हादसे को जानबूझकर अंजाम दिया गया हो। बिल के क्लॉज 17 मे संशोधन के मुताबिक परमाणु रिएक्टर में हादसे की क्षतिपूर्ति की जिम्मेदारी न्यूक्लियर ऑपरेटर की होगी और क्षतिपूर्ति का भुगतान नियम 6 के अनुसार ही किया जाएगा। क्षतिपूर्ति भुगतान का अधिकार तीन उपबंधों पर निर्भर होगा। हालांकि अपने स्तर पर सरकार ने परमाणु दायित्व विधेयक में किए गए संशोधन को उचित ठहराने की कोशिश की, जिनकी वजह से सरकार को आलोचना सहनी पड़ी है। लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने कहा कि सरकार ने विधेयक में बदलावों के लिए अपने दिमाग खुले रखे और किसी भी ठोस सुझाव को स्वीकार करने के लिए तैयार रहेगी। इसी संदर्भ में चव्हाण ने राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरूण जेटली से भी मुलाकात की थी। तब चव्हाण ने कहा था, ''मैं बदलावों को स्वीकार करने को तैयार हूं।ÓÓ उन्होंने कहा कि हम, मूल विधेयक, संसदीय स्थायी समिति द्वारा दिए गए सुझाव या कैबिनेट द्वारा मंजूर किए गए सुधार या किसी उपयुक्त सुधार के बारे में चर्चा करने को तैयार हैं। सरकार अनुच्छेद 17 में किसी भी सुधार के लिए वार्ता करने को तैयार है। दरअसल, अनुच्छेद 17 (बी) का विवादास्पद संशोधन इस बात को स्पष्ट करता है कि किसी परमाणु संयंत्र का परिचालक हर्जाने की मांग तभी कर सकता है, जब आपूर्तिकर्ता या उसके किसी कर्मचारी के कारण इरादतन दुर्घटना हुई हो। विधेयक में आपूर्तिकर्ता के दायित्व वाले अनुच्छेद में बदलावों को लेकर नाराज भाजपा और वाम दलों ने सरकार के 'इरादतनÓ शब्द पर अंदेशा जताया और सप्ताह के अंत में संसद में विचार के लिए रखे जाने पर विधेयक का विरोध करने की धमकी भी दी थी। गौर करने योग्य तथ्य यह भी है कि वाम दलों का कहना था कि दो उपबंधों के बीच शब्द 'एंडÓ का जि़क्र होने से हादसा होने की स्थिति में परमाणु उपकरण के विदेशी आपूर्तिकर्ताओं का दायित्व कुछ कम हो जाता है। वहीं दूसरा विवाद मुआवज़े की राशि को लेकर भी था। पहले इसके लिए विधेयक में संचालक को अधिकतम 500 करोड़ रुपयों का मुआवज़ा देने का प्रावधान था लेकिन भाजपा की आपत्ति के बाद सरकार ने इसे तीन गुना करके 1500 करोड़ रुपए करने को मंज़ूरी दे दी। सरकार की ओर से भरोसा दिलाते हुए कहा गया कि वह समय समय पर इस राशि की समीक्षा करेगी और इस तरह से मुआवज़े की कोई अधिकतम सीमा स्थाई रुप से तय नहीं होगी। काबिलेगौर है कि भारत और अमरीका के बीच हुए असैन्य परमाणु समझौते को लागू करने के लिए इस विधेयक का पारित होना ज़रूरी था। इस विधेयक में किसी परमाणु दुर्घटना की स्थति में मुआवज़ा देने का प्रावधान है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता वासुदेव आचार्या और रामचंद्र डोम, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गुरुदास दासगुप्ता और भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी और यशवंत सिन्हा ने इस विधेयक का विरोध किया था। उनका कहना था कि ये विधेयक से संविधान के अनुच्छेद 21 का उलंघन होगा, जिसके तहत जीने के अधिकार जैसे मौलिक अधिकार आते हैं। साथ ही इस विधेयक से पीडि़तों को मुआवज़े की राशि बढ़ाने के लिए अदालत जाने के अधिकार से भी वंचित होना पड़ेगा। भाजपा के वरिष्ठ सांसद यशवंत सिंहा ने तो यहां तक आरोप लगाया था कि सरकार ये विधेयक अमरीका के दवाब में पास कर रही है। ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि इसी वर्ष के मार्च महीने में जब इस विधेयक को पेश करने की कोशिश की गई थी तब समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव और राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने इसका विरोध किया था, लेकिन इस बार ये दोनों सरकार के साथ दिखाई दिए। अलबत्ता, इस समूचे प्रकरण में विधेयक के मसौदे पर हुई बहस से निश्चित तौर पर बेहतर विधेयक तैयार करने और इस पर राजनीतिक आमसहमति बनाने में मदद मिली है। वाम दलों ने तो तथ्यों पर शुतुरमुर्ग जैसी भाव-भंगिमा अख्तियार कर ली और इस मुद्दे पर मनगढंत तथ्यों को लेकर लच्छेदार भाषण दिया है। यह आरोप कि विधेयक अमेरिका को उपहार है, खरा नहीं उतरता है क्योंकि रूस, फ्रांस, कोरिया और परमाणु ऊर्जा के उपकरणों की आपूर्ति करने वाले देश भी आपूर्तिकर्ताओं को ऐसे संरक्षण की मांग कर चुके हैं और भारत के परमाणु ऊर्जा विभाग ने खुद ऑपरेटर को संरक्षण की मांग की थी! वाम दलों की विकृत राय इनकी पुरानी पड़ चुकी राजनीति का हिस्सा है, लेकिन भाजपा की निकट दृष्टि और कांग्रेस पार्टी की दोनों पक्षों की हां में हां मिलाने की नीति के कारण एक अच्छी पहल बदनाम में तब्दील हो गई। जी. बालाचंद्रन सहित परमाणु नीति के कई विशेषज्ञों ने तर्क दिया है कि परमाणु ऊर्जा के असैनिक इस्तेमाल के लिए सितंबर 2009 में हस्ताक्षरित भारत-फ्रांस समझौते में भी कहा गया है कि हर पक्षकार को स्थापित अंतरराष्ट्रीय सिद्धांतों के मुताबिक असैनिक परमाणु दायित्व की व्यवस्था करनी चाहिए। यह मोटे तौर पर वही है जो भारत सरकार ने किया है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से संबद्ध संसद की स्थायी समिति के सदस्यों ने जिन संशोधनों का सुझाव दिया था, वे उसी ढर्रे पर हैं जिनकी उम्मीद विशेषज्ञों ने की थी। विधेयक के मसौदे में ऑपरेटर का दायित्व 500 करोड़ रुपये तक सीमित किया गया था, लेकिन अब इसे बढ़ाकर 1500 करोड़ रुपये करने का प्रस्ताव है। ऑपरेटर के दायित्व की बाबत वियना संधि में ऊपरी सीमा तय नहीं की गई है और भारत पेरिस संधि पर हस्ताक्षर नहीं कर सकता क्योंकि यह केवल आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी )के सदस्यों तक सीमित है। इस तरह से भारत ऑपरेटर का दायित्व किसी भी स्तर पर तय कर सकता है और परमाणु दायित्व पर अंतरराष्ट्रीय परंपरा के मुताबिक चल सकता है।

Monday, August 23, 2010

रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामना

Tuesday, August 10, 2010

नज़र मछली की आंख पर

राष्ट्रमंडल खेलों में हुे घोटालों और अधूरी तैयारियों को लेकर चर्चा का बाज़ार काफी समय से गर्मा रहा है पर इस बीच मीडिया और आम लोग उन खिलाडिय़ो को भूल ही गए जिनके कंधों पर पदक लाने की जिम्मेदारी है। खेल अब मात्र कुछ दिनों ही दूर हैं। ऐसे में जानते है उन खिलाडिय़ों और खेलों की तैयारियों की पड़ताल जिनके पदक लाने की संभावना प्रबल है। अब वह दिन लद गए जब भारतीय खिलाडिय़ों के लिए खेल में अच्छे प्रदर्शन का उद्देश्य मात्र रेलवे, सेना, बैंक या किसी अन्य सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में नौकरी पाना ही था। पिछले एक दशक में खिलाडिय़ों की इस मानसिकता में जबरदस्त बदलाव आया है। आज उनके लिए खेल नौकरी पाने का सबब कम और देश के लिए पदक जीतने का सबब ज्यादा बन गया है। अभिनव बिन्द्रा, सुशील कुमार और विजेन्दर सिंह को पिछले ओलंपिक में मिली सफलता के चलते इस बार खिलाडिय़ों में दोगुना उत्साह है और यह उत्साह उनकी तैयारी में भी दिखता है। राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी के तहत 18 खेलों के 1126 खिलाडिय़ों को देश विदेश के 192 कोच प्रशिक्षण दे रहे है। इस शिविर में राष्ट्रमंडल खेलों की सभी स्पर्धाओं में पदक जीतने की उम्मीद वाले संभावित खिलाडिय़ों की देश और विदेश में ट्रेनिंग का पूरा खर्च सरकार उठा रही है। किन खेलों के खिलाड़ी पदक ला सकते हैं आइये डालते हैं नज़र पदक जीतने की संभावनाओं पर- शूटिंग इस खेल में भारत ने पिछले कुछ सालों में जो कमाल किया है उसी की बदौलत यह खेल पदक बटोरने में मददगार हो सकता है। कोच मार्सेलो ड्रादी, जंग शाह और सनी थॉमस की निगरानी में निशानेबाज कठिन मेहनत कर रहे हैं। खिलाडिय़ों का यह कड़ा अभ्यास और मेहनत इस खेल के जरिए कम से कम 27 पदक लाने के लिए है। अभिनव बिंद्रा, राज्यवर्धन सिंह राठौड़, समरेश जंग, गगन नारंग, रोजंन सोढ़ी, अंजलि भागवत जैसे अनुभवी खिलाडिय़ों के अलावा कई नए खिलाड़ी भी हैं जिनसे पदक की उम्मीद की जा रही है। कुश्ती पिछले ओलंपिक में विजेन्दर सिंह और सुशील कुमार ने रजत और कांस्य पदक जीतकर इस खेल में पदक जीतने की उम्मीदों को बढ़ा दिया है। इस खेल के लिए पिछले साल के राष्ट्रीय चैंपियनशिप से शीर्ष चार महिला और पुरुष पहलवानों को चुना गया है जिनका प्रशिक्षण शिविर एनआईएस, पटियाला और भारतीय खेल प्राधिकरण केंद्र सोनीपत में आयोजित किया गया है जहां पुरुषों को जगमिंदर और हरगोविंद तथा महिलाओं को पीआर सोंधी प्रशिक्षण दे रहे हैं। वैसे तो राष्ट्रमंडल खेलों में कुश्ती की अधिकांश कैटेगरी में भारत एक प्रबल दावेदार है पर कनाडा और नाइजीरिया के खिलाड़ी कुछ वजन श्रेणियों में भारत को चुनौती दे सकते हैं। इस बार इस खेल के जरिये भारत की झोली में 10 पदक आने की संभावना है। टेबल टेनिस टेबल टेनिस में भारत को मजबूत बनाने के लिए पुणे, पटियाला और अजमेर में नियमित रूप से शिविरों का आयोजन किया जा रहा है। इटली के मास्मिसो कस्टेनटिनी और साई के कोच भवानी मुखर्जी भारतीय टीम को कोचिंग दे रहे हैं। इस खेल में भारतीय खिलाडिय़ों को सबसे बड़ी चुनौती चाइना मूल के खिलाड़ी दे सकते हैं। ïवैसे संभव है कि इस बार चीन राष्ट्रमंडल खेलों को हिस्सा न हो पर चीनी मूल के खिलाड़ी सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और स्कॉटलैंड जैसी टीमों के लिए खेलकर भारत के लिए चुनौती बन सकते हैं। अचंता शरत कमल और शुभाजीत साहा सहित कई महिला खिलाडिय़ों के बूते कोच और खिलाडिय़ों को उम्मीद है कि इस खेल से भारत 4 या 5 पदक मिल सकते हैं।टेनिसभले ही सानिया मिर्जा ने पाकिस्तानी दुल्हन बनने का फैसला कर लिया हो और भले ही उनकी रैकिंग पिछले काफी समय से लगातर गिर रही है मगर फिर भी उनके पदक जीतने की उम्मीद भारत को अब भी है। कोच जयदीप मुखर्जी, नंदन बल, एनरिको पिपर्नो, अरुण कुमार सिंह और नितिन कीर्तने की निगरानी में सानिया मिर्जा, लिएंडर पेस और महेश भूपति के अलावा सोमदेव और युकी भांबरी जैसे युवा टेनिस सितारों की पदक जीतने उम्मीद है। नए खिलाडिय़ों का जोश और पुराने खिलाडिय़ों के अनुभव से भारत इस खेल में 5 पदक लाने की उम्मीद है। हॉकी हालांकि पिछले कुछ समय से पुरुष हॉकी में भारत का दबदबा कुछ कम हुआ है मगर भारत की महिला हॉकी टीम काफी स्ट्रॉग है जिसके पदक जीतने की प्रबल संभावना है। साथ ही पुरुष टीम के भी अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद है। इसके लिए कोच जोस ब्रासा खिलाडिय़ों पर काफी मेहनत कर रहे हैं। दूसरी ओर महिला टीम भी कोच एमके कौशिक की निगरानी में जमकर अभ्यास कर रही है। इस खेल से भारत को कम से कम दो पदक लाने की उम्मीद है। एथलेटिक्स कोलकाता, बंगलौर और पटियाला में भारतीय खेल प्राधिकरण भारतीय एथलीटों को जमकर मेहनत करवा रहा हैं। हालांकि इस खेल में पदक के लिए भारत कभी भी बड़ दावेदार नहीं रहा है मगर फिर भी मेजबान होने के नाते इस बार इस खेल के भाग्य में एक बड़े बदलाव के लिए उम्मीद की जा रही है । डिस्कस थ्रो, शॉट पुट, रिले रेस और ट्रिपल जंप के जरिये भारत को 6 से 8 पदक मिलने की उम्मीद है। बैडमिंटन भारतीय बैडमिंटन टीम के राष्ट्रीय कोच गोपी चंद को आशा है कि इस खेल के जरिए उनके खिलाड़ी भारत की झोली में कम से कम तीन पदल ला सकते हैं। इसके लिए खिलाडिय़ों को गोपीचंद और हदी इडरिस अंतरराष्ट्रीय स्तर की कोंचिग दे रहे हैं ताकि भारतीय खिलाड़ी किसी भी मायने में किसी से कमतर साबित न हों। कोच को उम्मीद है कि सायना नेहवाल तो महिला एकल में स्वर्ण जीतेगी ही साथ ही ज्वाला गुटा और वी दीजू के भी डबल्स में पदक लाने की प्रबल संभावना है। भारोत्तोलन भारतीय भारोत्तोलन संघ और इसके खिलाड़ी हमेशा ही विवादों में रहते हैं। कभी घोटालों को लेकर तो कभी डोपिंग के कलंक तले दबे इस खेल के खिलाड़ी एक बार फिर अपनी किस्मत आजमाएंगे। डोपिंग का डंक इस खेल पर इस कदर हावी है कि इसके खिलाडिय़ों से पदक की उम्मीद कम और डोपिंग टेस्ट में पाक साफ साबित होने उम्मीद ज्यादा की जाती है। भारोत्तोलन के राष्ट्रीय कोच हरनाम सिंह को वी एस राव, रवि कुमार, गीता रानी और युमनाम चानू के पदक जीतने की उम्मीद है। तैराकी नामी कोच प्रदीप कुमार और विदेशी देशों में उपलब्ध सुविधाओं के मिलने से तैरीकी के खिलाड़ी इस बार काफी जोश के साथ मैदान में उतरेंगे। वृंदावल खांडे, संदीप सेजवाल, जे अग्निश्वर यूरोप से उच्च स्तर की कोचिंग लेकर लौटे हैं। हो सकता है भारतीय तैराकी टीम के लिए यह राष्ट्रमंडल खेल एक सुनहरा मौका साबित हो जहां वे अपनी प्रतिभा का सफल प्रदर्शन कर सकें। कोच प्रदीप कुमार को भारतीय तैराकों से चार पदक जीतने की आशा है। मुक्केबाज़ी मुक्केबाजी के लिए खिलाडिय़ों को कोच जीएस संधू प्रशिक्षित कर रहे हैं। भारतीय मुक्केबाजी महासंघ को अपने मुक्केबाजों से 3 पदक जीतने की उम्मीद है। भारतीय मुक्केबाज पटियाला में आयोजित मुक्केबाजी शिविर में प्रशिक्षण ले रहे हैं। कोच जीएस संधू खिलाडिय़ों पर जमकर मेहनत कर रहे हैं क्योंकि वह जानते हैं कि भारत पदक के लिए इस खेल को आशा भरी नज़रों से देख रहा है। तीरंदाजी खेल मंत्रालय ने जिन तीरंदाजों का चयन किया है उन्हें कोलकाता में साई के प्रशिक्षण केन्द्र में मशहूर तीरंदाज लिम्बा राम प्रशिक्षण दे रहे हैं। फिलहाल भारतीय तीरंदाजों के नाम कोई विशेष रिकार्ड नहीं है मगर फिर भी उम्मीद पर दुनिया कायम है। मंगल सिंह और झानू हसदा से पदक की उम्मीद की जा सकती है। स्क्वैश अब तक इस खेल में भारते ने कोई भी मेडल नहीं जीता है। बावजूद इसके इस खेल से भारत को काफी उम्मीदें हैं। भारतीय स्क्वैश टीम के संभावितों खिलाडिय़ों भारतीय स्क्वैश अकादमी, चेन्नई में प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इन खिलाडिय़ों को भारतीय कोच सायरस पोंचा और विदेशी कोच सुब्रमण्यम सिंगारवेलो मिलकर प्रशिक्षण दे रहे हैं। संभव है कि इस खेल में पाकिस्तान, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा आदि देश भारत को सीधी टक्कर देंगे। फिर भी युगल के दोनों पुरुषों और महिला मुकाबलों में पदक जीतने की उम्मीद है। सरकार राष्ट्रमंडल खेलों को सफल बनाने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है। इस बार राष्ट्रमंडल खेल भारतीयों को टीम इंडिया के रूप में एक सूत्र में काम करने की चुनौती और मौका दे रहा है। वर्ष 2000 से भारत का खेलों का ग्राफ लगातार ऊंचा उठता जा रहा है। राष्ट्रमंडल खेलों में भारत चौथे और एशियाई खेलों में सातवें स्थान पर पहुंच चुका है। बावजूद इसके अभी भी हमारे कई लूप पाइंट हैं। ज्ञात रहे कि ऑस्ट्रेलिया और पड़ोसी देश पाकिस्तान में खिलाडिय़ों के लिए प्रायोजक होते हैं। पाकिस्तान में तो हर स्क्वैश और हॉकी खिलाड़ी के लिए एक-एक प्रायोजक होता है पर यह सब भारतीय खिलाडिय़ों की किस्मत में नहीं है। हमारे यहां अभी यह स्थिति नहीं बन पाई है, लेकिन अगले कुछ वर्षो में ऐसा होना चाहिए कि क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों के शीर्ष खिलाडिय़ों के पास भी अपने-अपने प्रायोजक हों ताकि आगे जाकर खेलों में नया बदलाव आ पाए। तो क्या हुआ कि लगभग सवा अरब के आबादी वाला यह देश ओलम्पिक्स मे सिर्फ तीन मेडल लेकर आता हैं मगर खुशी इस बात की है कि इन पदकों ने उम्मीद जगाई है कि हम अन्य खेलों में भी पदक जीत सकते हैं और हमारे खिलाड़ी इस बार के राष्ट्रमंडल खेल में इसे संभव कर दिखाएंगे।

Wednesday, August 4, 2010

अपने-अपने जिद्द के शिकार

छह दशक से भी अधिक का समय बीत चुका है। भारत-पाकिस्तान के बीच जितने मुद्दों पर मतभेद थे, वे आज भी बरकरार है। साथ में मुद्दों की संख्या में इजाफा ही हुआ है। लेकिन उसका हल नहीं निकल पा रहा है। महज औपचारिकतावश मंत्री और सचिव स्तर की वार्ताओं का आयोजन तो नियमित अंतराल पर होता रहा है, लेकिन नतीजा वह ढाक के तीन पात।
आखिर क्यों? जबाव मिलता है अमेरिका के रूप में। विशेषज्ञ मानते हैं कि जब से दक्षिण एशियाई देशों में अमेरिकी की दिलचस्पी बढ़ी है, तभी से यह क्षेत्र पहले से अधिक अशांत हो गया है। यह सर्वविदित ही है कि पाकिस्तान के स्थापना काल से ही अमेरिका उसे प्रश्रय देता रहा है और वहां के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप भी। नतीजन, पाकिस्तान अमेरिकी हाथों कठपुतली बन चुका है। अब, भारत के मामले में भी ऐसा ही कहा जा रहा है। ऐसे आरोप लगने शुरू हो गए हैं कि भारत की विदेश व आर्थिक नीतियां अमेरिका प्रभावित हैं। संसद के अंदर और बाहर विपक्ष ऐसे आरोप लगाता रहा है। सरकार की ओर से पुरजोर खंडन के बावजूद आम जनता आश्वस्त नहीं हो पा रही है।
भाजपा प्रवक्ता राजीव प्रताप रूडी कहते हैं 'अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन कह रही हैं कि अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन और तालिबान प्रमुख मुल्ला उमर पाकिस्तान में हैं, लेकिन इसके बाद भी वह पाकिस्तान को असैन्य सहायता दे रही हैं। आतंकी संगठनों के साथ पाकिस्तान के संबंध के पुख्ता सबूत के बावजूद अमेरिका भारत और पाकिस्तान के साथ समान व्यवहार कर रहा है।Ó रूडी का यह भी कहना है कि अक्टूबर 2008 में असैन्य परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर करते समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि अमेरिका भारत के साथ काम करेगा। 'अब अमेरिका पाकिस्तान की मदद करने में लगा हुआ है। असैन्य परमाणु दायित्व विधेयक अमेरिका के साथ घनिष्ठ रिश्ता बनाए रखने का संप्रग का एक दूसरा प्रयास है और भाजपा सरकार के इस कदम का कड़ा विरोध करती है। भाजपा का मानना है कि प्रधानमंत्री ने देश की विदेश नीति को गिरवी रख दी है।
दूसरी ओर, दक्षिण एशियाई देशों के जानकार आनंद स्वरूप वर्मा का मानना है कि जबसे भारत, श्रीलंका, नेपाल, बांगलादेश, भूटान यानि दक्षिण एशिया के देशो में अमेरिका की दिलचस्पी बढ़ी है इसी के साथ यहां शांति खत्म हुई है। गौरतलब है कि वर्ष 1997 में पैट्रिक ख्रयूज की एक रिर्पोट आयी जिसमें कहा गया की आने वाले समय में चीन अमेरिका का सबसे बड़ा दुश्मन होगा। यह रिर्पोट काफी चर्चा में रही। रिर्पोट का कहना था कि एशिया के देश अमेरिका की मिलेटरी को कम आंक रहे हैं और अमेरिका के खिलाफ एक आयडिओलॉजी पनप रही हैं। उसी समय डिफेंस मिनिस्टर डोनाल्ड रम्सफील्ड ने कहा कि यूरोप पर उतना ध्यान देने की जरूरत नहीं है जितना की साऊथ एशिया में।
अमेरिकी की यही नीति दिनानुदिन आगे बढ़ती जा रही है। अमेरिका अब देख रहा है कि पाकिस्तान कमजोर हो चुका है। चीन आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है। भारत भी उसी राह पर आगे बढ चला है। ऐसे में भारत के साथ दोस्ती गाढी जाए। साथ ही भारत-पाक के रिश्ते में उलझाव को बरकरार रखा जाए। जिससे पाकिस्तान तो अमेरिकापरस्त है ही भारत भी उसकी ओर मुंह ताकता रहे। इस क्षेत्र में जब दो सिपाही हो जाएंगे तो चीन अमेरिकी का कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा।
सामरिक मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्मï चेलानी के अनुसार, आम तौर पर किसी भी दो पड़ोसी देशों के बीच नियमित तौर पर राजनयिक बातचीत होनी चाहिए, मगर पाकिस्तान के फौजी हुक्मरान परमाणु बम की आड़ में लगातार भारत के खिलाफ सरहद पार से दहशतगर्दी को बढ़ावा देते रहे हैं। भारत-पाक वार्ता में कुछ भी सामान्य नहीं। अपनी ही नीतियों से अचानक भारत का यू-टर्न, जिसे उचित ही पाकिस्तान ने भारत की कूटनीति का नरम रुख माना। इससे वहां की सेना और खुफिया एजेंसी उत्साहित हुईं। साथ ही भारत सरकार के रुख में बदलाव केंद्र सरकार की इच्छा के बगैर हुआ, जिस लेकर जनता के सवालों पर कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया। असल में भारतीय रुख में बदलाव और प्रधानमंत्री के बयान के बाद सीमा पार से आतंकवादियों घुसपैठ की घटना बढ़ी है। अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी घटाए बिना पाकिस्तान वहां अपना सैन्य और राजनीतिक प्रभाव नहीं बढ़ा सकता। इसके बगैर वह अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की रणनीति 'पैसे लो और आगे बढ़ोÓ को एक तार्किक परिणति तक नहीं पहुंचा सकता। अफगान समाज के लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष तबकों में भारत मजबूत भूमिका निभा रहा है।
इसके अलावा, भारत के निर्णय को देखकर लगता है जैसे वह अमेरिका की अफ-पाक रणनीति की सहायता के लिए लिया गया हो। अमेरिका ने अफगान तालिबान से तालमेल बढ़ाने के सार्वजनिक संकेत देकर यह स्पष्ट किया है कि उसकी पाक सेना और खुफिया तंत्र पर निर्भरता बढ़ी है। अफगान तालिबान के साथ कामयाब बातचीत के लिए अमेरिका सबसे पहले तालिबान को कमजोर करना चाहता है। इसीलिए अमेरिकी सैनिकों की अफगानिस्तान के मारजाह में चल रही कार्रवाई में आक्रामकता दिख रही है। चूंकि अमेरिका अफगान तालिबान के कमांडरों पर दबाव बनाने और उन्हें वार्ता की मेज पर लाने के लिए पाकिस्तानी फौज और खुफिया एजेंसियों से सहायता की उम्मीद कर रहा है इसलिए उसने पाकिस्तान को खुश करने के लिए भारत को इस्लामाबाद के साथ वार्ता की मेज पर आने का मशविरा दिया। दुश्मन के साथ बेहतर राजनीतिक सौदेबाजी के लिए अमेरिका की यह शुरू से रणनीति रही है कि पहले दबाव बनाओ फिर बातचीत करो।
चिंता की खास वजह यह भी है पाकिस्तान की मौजूदा हालात का लाभ उठाने की जगह भारत अमेरिका का सहारा ले रहा है। भारत अपनी आर्थिक और सैन्य ताकत के प्रयोग के प्रति भी अनिच्छुक है। पाकिस्तान के साथ वार्ता शुरू करने से पता चलता है कि वह अपने कूटनीतिक दांव का इस्तेमाल भी नहीं करना चाहता। पाकिस्तान के विरुद्ध भारत न सिर्फ कूटनीतिक कवायद से बच रहा है, बल्कि नतीजे के लिए बाहरी ताकतों की ओर देख रहा है। इनमें अमेरिका से लेकर सऊदी अरब तक शामिल हैं। बाहरी ताकतों के भरोसे रहना भारत के लिए जोखिम भरा रहा है। जहां तक अमेरिका की दक्षिण एशिया संबंधी नीति का सवाल है तो वह शुरू से ही संकीर्ण रही है।
पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त रह चुके जी. पार्थसारथी फरमाते हैं कि जब तक दोनों देश के विदेशमंत्री अथवा सचिव यह मिलकर तय नहीं कर लेते कि सारे द्विपक्षीय मुद्दों पर मतभेद कहां हैं, तब तक कोई भी वार्ता सफल नहीं हो सकती। आपसी असहमति की पहचान करके भरोसे की तलाश की जा सकती है। सीधे भरोसा खोजने जाएंगे तो नाउम्मीदी ही हाथ लगेगी। और जाहिरतौर पर इसका लाभ कोई तीसरा देश लेगा।
यह तीसरा देश कोई और नहीं बल्कि अमेरिका है। जो अपने सामरिक और आर्थिक हितों से वशीभूत होकर भारत-पाक संबंधों में दिलचस्पी ले रहा है। जिस प्रकार से बीते दिनों अमेरिकी राष्टï्रपति बाराक ओबामा ने भारत-पाक संबंधों को सुधारने का ठेका चीन को देने का ऐलान किया , यह सीधे-सीधे भारतीय सार्वभोमिकता में दखल है। जानकार मानते हैं कि बाराक ओबामा की भारत पर दादागिरी की हिम्मत एटमी करार के कारण ही पैदा हुई है। यह अधिकार तो संयुक्त राष्ट्र को भी नहीं है कि वह बिना हमारी सहमति के किसी तीसरे देश को बिचौला बनने का अधिकार दे। जिस भारतीय कश्मीर का एक हिस्सा चीन ने हड़प रखा है, उस कश्मीर का विवाद निपटाने के लिए चीन को कहना निश्चित रूप से अमेरिका का भारत विरोधी कदम है। हाल ही में चीन की ओर से कश्मीरी नागरिकों को भारतीय पासपोर्ट की बजाए सादे कागज पर वीजा दिया जाना और अब चीन का कश्मीर में मध्यस्थ बनने की कोशिश भारत विरोधी अंतरराष्ट्रीय साजिश की ओर इशारा करते हैं।

Wednesday, July 21, 2010

कहा है महंगाई

भले ही महंगाई को लेकर समूचा विपक्ष सड़क पर है, लेकिन संसद के भीतर पक्ष और विपक्ष में एका है। आखिर, मामला सांसदों के वेत्तन-भत्ते की बढ़ोत्तरी का जो है जो देश की महगाई के साथ दिन दूनी और रात चोगुनी गति से बढ रहा है एक रुपये में दो कप चाय या कॉफी। मसाला डोसा दो रुपये में। एक रुपये में मिल्क शेक, शाकाहारी भोजन मात्र 11 रुपये में और शाही मांसाहारी भोजन मात्र 36 रुपये में। आप सोच रहे होंगे कि यह किस जमाने की बात हो रही है। सच मानिए यह आज की बात है। हमारे सांसदों को यह सुविधा हमारी सरकार संसद के अंदर दे रही है। संसद की कैैंटीन का यही मीनू कार्ड है सब कुछ तो मुफ्त है सांसदों पर हर महीने 21 करोड़ 14 लाख, 70 हजार रुपये खर्च किया जाता है। इसमें से करीब 14 हजार रुपये तो ऑफिस का ही खर्च है। इसके अलावा संसदीय क्षेत्र के लिए मासिक भत्ता 10 हजार मिलता है। संसद के तीन सत्र होते हैं और प्रत्येक सत्र के लिए इन्हें दैनिक भत्ते के तौर पर 1000 रुपये मिलते हैं। हर सांसद और उनके पति या पत्नी को रेलवे की तरफ से मुफ्त एसी-1 की सुविधा भी उपलब्ध है। पति या पत्नी के साथ बिजनेस क्लास में देश में कहीं भी 40 हवाई यात्राएं मुफ्त हैं। इन्हें दिल्ली में बंगला या फ्लैट दिया जाता है, जिसका किराया मात्र दो हजार रुपये होता है। पचास हजार यूनिट बिजली मुफ्त और साथ में पानी फ्री। बंगलों में एसी, फ्रिज, टीवी की सुविधा के साथ-साथ सोफा की सफाई, पर्दों की धुलाई मुफ्त की जाती है। सांसदों को तीन फोन लाइनों की पात्रता है और हर साल 170,000 लोकल कॉल फ्री हैं। 25 से भी अधिक बार बढ़ चुका है वेतन संवैधानिक तौर पर भारतीय संसद का गठन 1952 में हुआ। उसके दो साल बाद 1954 में सांसदों का वेतन-भत्ता कानून बना। उसके बाद से करीब 25 बार से भी अधिक सांसदों के वेतन-भत्ते और अन्य सुविधाओं में बढ़ोतरी हो चुकी है। सांसद वेतन वृद्धि मामले में विदेशी सांसदों को मिलने वाले वेतन एवं अन्य भत्तों का तर्क देते हैं, लेकिन यह बात भूल जाते हैं कि अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस सहित यूरोप तथा अन्य विकसित देशों के जनजीवन और भारतीय जनजीवन में कितना अंतर है। भारत में आज भी 84 करोड़ लोग मात्र 20 रुपये प्रतिदिन पर गुजारा करते हैं और एक-तिहाई जनता कुपोषण का शिकार है। अब 3जी का भी मजा लेंगे लोकसभा सचिवालय का कहना है कि सांसदों के वेतन भत्ते पर विचार के लिए गठित संयुक्त समिति ने उन्हें 3-जी सुविधा देने के मुद्दे पर विचार किया है। वर्तमान में सदस्यों के लिए सालाना 50,000 मुफ्त कॉल की सुविधा है। 3-जी पैकेज पर और इस सुविधा के अतिरिक्तइस्तेमाल पर आने वाला खर्च इसी मुफ्त कॉल में समायोजित किया जाएगा। लोकसभा सचिवालय के अनुसार, एमटीएनएल, बीएसएनएल द्वारा दी जा रही नई सुविधा सदस्यों के लिए वैकल्पिक होगी। सदस्यों को 3-जी सुविधा पर काम करने वाले हैंडसेट का खर्च खुद वहन करना होगा।

Tuesday, July 6, 2010

पादरी बनना हो तो पसर्नल जबाव दें...

धार्मिक कुर्सी पर बैठे लोगों का चरित्र जब संदेहास्पद हो जाता है तो उनकी जगह दूसरों को आने में कठिनाई आती हो। ऐसा ही मामला नए पादरी को बनने में आ रही है, जहां उन्हें नितांत व्यक्तिगत सवालों के जबाव देने पड़ रहे हैं। ईसाई धर्म में पादरियों को कैसा सम्मान प्राप्त है, कहने की आवश्यकता नहीं है। पादरी बनना अपने आप में एक गौरव का विषय है। लेकिन पिछले कुछ समय से पादरी के चाल-चरित्र के कारण लोग पादरियों को संदेह की नजरों से देखने लगे तो कई चर्च पर कालिख लगी। लिहाजा, खोई गरिमा को फिर से पाने के लिए और अपने नैसर्गिक महत्व को बरकरार रखने के लिए चर्च प्रसाशसन पादरियों की नियुक्ति में कोई हिल-हवाला नहीं रखना चाहता। सो, नितांत व्यक्तिगत सवालों के जबाव सुनकर भी संतुष्टï होना चाहता है।
अमूमन हर साक्षात्कार में कोई न कोई ऐसा सवाल जरूर होता है, जो अभ्यर्थी को को परेशान करता है। पर रोमन कैथलिक चर्च में पादरी बनने के इच्छुक अभ्यर्थी से साक्षात्कार में कुछ ऐसे सवाल पूछे जा रहे हैं, जिससे उनके दिमाग के तार हिल जा रहे हैं। अभ्यर्थी को एक फॉर्म दिया जा रहा है, जिसमें कुछ इस तरह के सवाल पूछे जा रहे हैं। पिछली बार कब आपने सेक्स किया था? अभी तक आपको सेक्स का कैसा अनुभव रहा है? क्या आप पॉरनॉग्रफ़ी पसंद करते हैं? इन सवालों के मनमाफिक जवाब मिलने के बाद अगले राउंड में अभ्यर्थी से कुछ और पर्सनल और कठिन सवाल पूछे जा रहे हैं। अब इन सवालों की बानगी देखिए- क्या आप बच्चों को पसंद करते हैं? क्या आप अपनी उम्र के लोगों की तुलना में बच्चों को ज्यादा पसंद करते हैं?
दरअसल, पिछले दिनों पादरियों द्वारा बच्चों के यौन शोषण के कई मामले आने के बाद चर्च नेता ऐसे कदम उठा रहे हैं ताकि वे लोग पादरी न बन पाएं, जो बाद में चर्च की छवि खराब कर दें। इसी बात को ध्यान में रखकर पादरी बनने के इच्छुक अभ्यर्थी से ऐसे सवाल पूछे जा रहे हैं। पर बहुत से सवाल ऐसे जिनसे कुछ और चीजों का निर्धारण किया जा रहा है। इनसे यह पता किया जा रहा है कि अभ्यर्थी गे है या नहीं। वेटिकन के गाइडलाइंस के मुताबिक गे अभ्यर्थी को पादरी बनने से रोका जाना चाहिए। हालांकि यहां पर ऐसी कोई सीमा रेखा नहीं है, पर ज्यादातर गे कैंडिडेट्स को सलेक्ट नहीं किया जा रहा है। कुछ तो गे कैंडिडेट्स तो ऐसे हैं , जो अब तक कुंवारे हैं, पर उन्हें मौका नहीं दिया जा रहा है।
दरअसल, 2002 में यौन शोषण का बवाल होने के बाद से ही चर्चों की यह पहली कोशिश रहती है कि किसी भी तरीके से कोई गे कैंडिडेट्स पादरी नहीं बन सके। इस इंटरव्यू में यह सवाल भी पूछा जा रहा है कि आप अपने यौन इच्छाओं को काबू में कैसे रख पाएंगे, इस बारे में आपकी रणनीति क्या है? इन सवालों से यह साफ है कि पिछले कुछ सालों में पादरियों द्वारा बच्चों के यौन शोषण मामलों से हुए बदनामी के बाद चर्च अब सावधान हो गए हैं और पादरियों के चयन में वह कोई ढील देने के लिए तैयार नहीं है, ताकि आगे से ऐसी बदनामी न हो।
गौरतलब यह भी है कि पोप जॉन पॉल-2 ने भी 2003 में ऐलान किया कि जहां तक धार्मिक जीवन या प्रीस्टहुड में उन लोगों के लिए कोई जगह नहीं है जो बच्चों को नुकसान पहुंचाते हैं। 50 और 60 के दशकों में कैथलिक बिशप्स, पादरियों द्वारा यौन शोषण को आध्यात्मिक समस्या मानते थे। ऐसी समस्या जिसका समाधान भी आध्यात्मिक ही होता था। आध्यात्मिक समाधान यानी प्रार्थना। 60 के दशक से ही डॉक्टरों की सलाह के मुताबिक बिशप्स ने इस बारे में अपना नजरिया बदलना शुरू कर दिया। इस दृष्टिकोण के मुताबिक जिन पादरियों ने बच्चों का यौन शोषण किया है, सही मनोवैज्ञानिक उपचार पाने के बाद वे ठीक हो जाते हैं और उन्हें फिर से धर्म सेवा में ले लिये जाने में कोई नुकसान नहीं है।

Friday, June 25, 2010

अप्रवासी भारतीय-पूरा होगा सपना

लाखों प्रवासी भारतीयों (एनआरआई)को मतदान का अधिकार देने की लंबित मांग जल्द पूरी हो सकती है। जीओएम ने इस मुद्दे पर तैयार मसौदे को मंजूरी दे दी है। अब केंद्रीय कैबिनेट इस पर विचार करेगी। प्रवासी भारतीयों की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदारी से दोतरफा संवाद को बढ़ावा मिलेगा और भारत के विकास में उनकी सक्रिय भागीदारी में सहयोग मिलेगा। इस साल प्रवासी भारतीय दिवस को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि वह विदेशों में रह रहे भारतीयों की वोट देने और भारत सरकार में भागीदारी की इच्छा को जानते हैं और इसके लिए उनकी सरकार हर संभव प्रयास भी कर रही है। उनके इसी तथ्य को अमली जामा पहनाने का लगभग पूरा हो गया है जिसके तहत जल्द ही अप्रवासी भारतीयों को भारत में वोट करने का अधिकार मिल जाएगा। वर्तमान कानून के मुताबिक प्रवासी भारतीयों का नाम मतदाता सूची से हटा दिया जाता है अगर वह एक बार में 6 महीने से ज्यादा के लिए देश से बाहर रहता है। गौरतलब है कि सरकार ने 2006 में राज्यसभा में विधेयक को पेश किया था, जिसमें लोक प्रतिनिधित्व विधेयक में संशोधन का प्रस्ताव दिया गया था, ताकि प्रवासी भारतीयों को मतदान का अधिकार दिया जा सके। इसके बाद विधेयक को संसद की स्थायी समिति को भेजा गया और बाद में इसे जीओएम को भेजा गया था। इस मामले पर विचार करने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मंत्री समूह का गठन किया था। इसकी बैठक 10 जून को ए.के. एंटनी की अध्यक्षता में हुई थी। इसमें रवि, गृहमंत्री पी. चिदंबरम, विधि मंत्री वीरप्पा मोइली और मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल मौजूद थे। प्रवासी मामलों के मंत्रालय द्वारा करीब 4 साल पहले तैयार मसौदा लोक प्रतिनिधित्व (संशोधन)विधेयक को रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी की अध्यक्षता वाले जीओएम ने मंजूरी दे दी। इसे जल्द ही इसे कैबिनेट के सामने पेश किए जाने की संभावना है। प्रवासी भारतीय मामलों के मंत्री व्यालार रवि ने कहा कि रक्षा मंत्री की अध्यक्षता वाले जीओएम ने विधेयक को मंजूरी दे दी है। हम इसे कैबिनेट के सामने पेश करने वाले हैं और इसके बाद इसे संसद में पेश किया जाएगा। राज्यसभा सदस्य रवि ने कहा कि प्रवासी भारतीयों को मताधिकार प्रदान करने संबंधी विधेयक संसद के मानसून सत्र में पारित होने की संभावना है। यह संसद के अगले सत्र में पारित हो जाएगा। प्रवासी भारतीय मामलों के मंत्री व्यालार रवि ने कहा कि प्रवासी भारतीय डाक के जरिए वोट नहीं दे सकेंगे। डाक के जरिए मतपत्र भेजने का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि इसमें जाली मतदान की आशंका रहती है। इसलिए वोट डालने के लिए उन्हें देश में सशरीर मौजूद रहना होगा। देश के बाहर, खासकर खाड़ी मुल्कों में लाखों की संख्या में रहने वाले भारतीयों को मताधिकार देने की मांग उठ रही थी, स्वाभाविक तौर पर यह उचित मांग है। लेकिन कठिनाई उनके नाम तलाशने में होगी, क्योंकि छह महीने से अधिक समय तक देश से बाहर रहने पर मतदाता सूची से उनका नाम हटा दिया जाता है।

Saturday, June 12, 2010

शनि अमावस्या शुभ हो

आज शनि अमावस्या है तो क्यों शनिदेव से अपने बुरे कर्मों के लिए माफ़ी मांग लें शनि मंत्र स्तोत्र सर्वबाधा निवारक वैदिक गायत्री मंत्र ' भगभवाय विद्महे मृत्युरुपाय धीमहि, तन्नो शनि: प्रचोदयात्।' प्रतिदिन श्रध्दानुसार शनि गायत्री का जाप करने से घर में सदैव मंगलमय वातावरण बना रहता है। वैदिक शनि मंत्र शन्नोदेवीरमिष्टय आपो भवन्तु पीतये शंय्योरभिस्रवन्तुन: शनिदेव को प्रसन्न करने का सबसे पवित्र और अनुकूल मंत्र है इसकी दो माला सुबह शाम करने से शनिदेव की भक्ति प्रीति मिलती है। 'पौराणिक' शनि मंत्र ह्रीं नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्। छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥ यह बहुत ही सटीक फल देने वाला शनि मंत्र है। इसका यदि सवा कराड़ जाप स्वयं करे या विद्वान साधकों से करवाएं तो जातक राजा के समान सुख प्राप्त करता है। शनि ग्रह पीड़ा निवारण मंत्र सूर्यपुत्रे दीर्घ देहो विशालाक्ष: शिवप्रिय: मंदचार: प्रसन्नात्मा पीड़ां हरतु में शनि: सूर्योदय के समय, सूर्य दर्शन करते हुए इस मंत्र का पाठ करना शनि शांति में विशेष उपयोगी होता है। कष्ट निवारण शनि मंत्र नीलाम्बर: शूलधर: किरीटी गृघ्रस्थितस्त्रसकरो धनुष्मान्। चर्तुभुज: सूर्यसुत: प्रशान्त: सदाऽस्तुं मह्यं वरंदोऽल्पगामी॥ इस मंत्र से अनावश्यक समस्याओं से छुटकारा मिलता है। प्रतिदिन एक माला सुबह शाम करने से शत्रु चाह कर भी नुकसान नहीं पहुंचा पायेगा। सुख-समृध्दि दायक शनि मंत्र कोणस्थ:पिंगलो वभ्रु: कृष्णौ रौद्रान्त को यम: सौरि: शनैश्चरौ मंद: पिप्पलादेन संस्तुत: इस शनि स्तुति को प्रात:काल पाठ करने से शनिजनित कष्ट नहीं व्यापते और सारा दिन सुख पूर्वक बीतता है। शनि पत्नी नाम स्तुति शं शनैश्चराय नम: ध्वजनि धामिनी चैव कंकाली कलहप्रिया। कंटकी कलही चाऽथ तुरंगी महिषी अजा॥ शं शनैश्चराय नम: यह बहुत ही अद्भुत और रहस्यमय स्तुति है यदि आपको कारोबारी, पारिवारिक या शारीरिक समस्या हो। इस मंत्र का विधिविधान से जाप और अनुष्ठान किया जाये तो कष्ट आपसे कोसों दूर रहेंगे। यदि आप अनुष्ठान कर सकें तो प्रतिदिन इस मंत्र की एक माला अवश्य करें घर में सुख-शांति का वातावरण रहेगा। शं शनैश्चराय नम:

Wednesday, June 2, 2010

बदलते मापदण्ड

गदहा
अगर किसी ने मुझे गदहा कहा
तो मुझे खुद पे गर्व होगा
आखिर किसी ने मेरे
सीधेपन और सहिष्णुता की पहचान तो की।
कुत्ता
किसी को कुत्ता कहाना
उसकी वफादारी को सही आंकना है
अब तो मानव
कुत्ता कहलाने के कहलाने के भी काबिल नहीं रहा
वह तो खिलानेवाले को ही
काटने दौड़ता है सबसे पहले
साँप
साँप
दूध और डंडा में
अंतर नहीं समझता है
जो भी सामने आए
उसी पर दंश छोड़ता है
इसीलिए इसकी तुलना
आदमी से की जाने लगी है।
आदमी
सबसे बड़ा अपमान मुझे
आदमी कहलाना लगता है
जो अंदर और बाहर
जहर ही जहर रखता है
सियार, चील और घ्डिय़ाल
की बिसात की क्या
यह गिरगिट से भी ज्यादा रंग बदलता है।

Friday, May 21, 2010

तस्वीरों में राजीव

श्रद्धा सुमन और नमन लाडला था जो नाना और माँ का जीवन था परिवार का बिताये थे हसीं पल जिसके साथ छाया था किसी का कई बार बचा और लड़ा जो हमलों से पर इस बार बच सका साजिशो से कभी करता था जो लोगों को याद आज बस गया है यादों में और छोड़ गया है आँखों में नमी याद करते है उसे हरपल हम भर आँखों में नमी और दिल में श्रद्धा

नीलम