Saturday, January 8, 2011

संस्कृति का गुत्थम-गुथ

अंतर्राष्टï्रीय स्तर पर साहित्य के माध्यम से जो कुछ लोग संबंधों में प्रगाढ़ता लाने का काम कर रहे हैं, उनमें एक नाम सुरेश चंद्र शुक्ल का भी है जो भारत और नार्वे के मध्य सांस्कृतिक संबंधों को सघन करने में सतत प्रयत्नशील हैं। इसी कड़ी में शुक्ल जी की नई काव्य संग्रह 'गंगा से ग्लोमा तकÓ है। लेखक की दृष्टिï में 'गंगाÓ भारत की पावन पयस्विनी है और 'ग्लोमाÓ नार्वे की पुनीत सरिता। गंगा जहां भारत की सांस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है और ग्लोमा नार्वे की संस्कृति का प्रतीक है। इस काव्य संग्रह में कवि ने भरसक प्रयास किया है कि वह दोनों संस्कृतियों के संगम-स्थल के रूप में लोगों के सामने आए। अपनी कविताओं को भी शुक्ल जी ने दो खण्डों में विभाजित किया है - 'गंगाÓ और 'ग्लोमाÓ। भारत के वसंत की बात करते हुए कहते हैं, 'महुआ महके / फूल उठे आमों के बीर / खिलते हैं कचनार और कनेर...Ó तो नार्वे की वसंत छटा का वर्णन करते हुए लिखते हैं, 'यहां बरफबारी / क्रिसमस वृक्ष हरे / अमावस की रात / बरफ ने तम हरे...Ó इस काव्य संग्रह में कवि ने लखनऊ, उज्जैन, अमृतसर हैं तो किसान मजदूर, मशाले हैं। वीर क्रांतिकारी हैं तो शांति के विश्वदूत गांधी भी है। 'दूर देश से आई चि_ïी हैÓ, 'उधव के पत्र हैंÓ, 'हिंदी है तो कर्मभूमि ओस्लो हैÓ, 'ग्लोमा हैÓ, 'आकेर नदी हैÓ जैसे कविता विचार को एक नई ऊर्जा प्रदान करती है। साथ ही हृदय को संवेदना से झकझोरती है तो इतिहास की बोधगम्यता भी कराती है। अपने रचनाकर्म के बारे में स्वयं कवि कहते हैं कि मातृभूमि भारत तो मेरी हर सांस में है परंतु नार्वे को भुला पाना मेरे बस की बात नहीं है। इस संग्रह की पूरी कविता पढऩे के बाद यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि शुक्ल जी की कविताओं में वैविध्य है, अपने देश की स्मृति है, नार्वे के प्राकृतिक सौन्दर्य और उनकी यायावरी वृत्ति के कारण विश्व भ्रमण के अनेक प्रसंगों के कलात्मक चित्रण हैं। भाषा और अभिव्यक्ति प्रवाहमान और प्रांजल है। पुस्तक - गंगा से ग्लोमा तक लेखक - सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोकÓ प्रकाशक - विश्व पुस्तक प्रकाशन पश्चिम विहार, नई दिल्ली - 63 मूल्य - 125 रुपए

Thursday, January 6, 2011

गहलोत को गुर्जर न भाए

आराम से दिन कट रहे थे अशोक गहलोत के। दिल्लीवाले उन्हें परेशान नहीं कर रहे थे। काफी दिनों तक दिल्ली में जो अपनी सेवाएं दी है गहलोत ने। लेकिन अपने ही प्रदेश के गुर्जरों ने नाक में दम कर दिया है। गुर्जर आंदोलनकारियों से सीधे टकराव के मूड में नहीं है गहलोत। अभी तक आंदोलन हिंसा से अछूता है। लेकिन इसके कारण सूबे सहित देश का जनजीवन भी प्रभावित हो रहा है। गहलोत आंदोलनकारियों को गांधीवादी अंदाज में समझा भी रहे हैं कि यह भरोसा पाले हैं कि उनकी बात को देर-सवेर मान लेंगे गुर्जर। तभी तो कुछ भरोसेमंद अफसरों को भी लगा दिया है। कई दौर की बातें भी गुर्जर नेता बैंसला से बात हो चुकी है। गृहमंत्री शांति धारीवाला ने शुरू से ही गुर्जरों के आंदोलन पर पैनी नजर टिकाई हुई है। गुर्जर नेता होने के नाते प्रदेश के बिजली मंत्री जितेंद्र सिंह को भी गहलोत भेज चुके हैं। लेकिन, गुर्जर हैं कि मानने को तैयार नहीं। इस आंदोलन ने सूबे के कारोबार को चौपट कर दिया है। प्रशासनिक और राजनीतिक दोनों कामकाज बंद है। रेलवे को करोड़ों की नुकसान हो रही है, सो अलग। आखिर, आज नहीं तो कल इस आंदोलन का ठीकरा तो गहलोत के ही सिर फूटेगा न...

Wednesday, January 5, 2011

समय पूर्व भंग होगी संसद !

लोकतांत्रिक राजनीति में कुछ भी स्थाई नहीं होता है। न तो जनमत के आधार पर बनी सरकार की अवधि और न ही राजनीति का चरित्र। भारत जैसे बड़े लोकतंत्र में, जहां की राजनीति गठबंधन के युग में हैं और क्षेत्रीय दलों के झंझावातों से दो-चार होती है, वहां कुछ भी संभव है। वर्तमान का सच यह भी है कि जब देश के मौसम को सर्दी ने अपने आगोश में लिया हुआ है तो रोजमर्रा की जिंदगी प्रभावित हो रही है, उन परिस्थितियों में सियासी गलियारों मध्यावधि चुनावों की अटकलों पर भी विचार-विमर्श होने लगा है। कौन किसको किस बिना पर पटकनी दे सकता है, जनता के बीच कौन से सवाल मौजूं होंगे - राजनीतिक दलों के थिंक टैंकरों की टीम इस पर गहन चिंतन करने में जुट गई है। हालांकि, एक पखवाड़े पूर्व तक इसकी कोई संभावना नहीं थी। लेकिन, जैसे ही बिना कोई काम किए संसद सत्र का समापन हुआ और उसके बाद नई दिल्ली के बुराड़ी में कांग्रेस का महाधिवेशन हुआ तो मध्यावधि चुनाव के कयास लगने शुरू हो गए। जिस प्रकार से कांग्रेस महाधिवेशन में कांग्रेस के अंदर और बाहर चर्चाओं का बाजार गर्म हुआ। सरकार के कामकाज और संगठन में कुछेक मुद्दों पर मतभिन्नता दिखी, उसी ने इस संभावना का सूत्रपात किया। अव्वल तो यह कि कांग्रेस महाधिवेशन के महज दो दिन बाद ही राजग के बैनर तले कई दलों ने नेताओं ने जिस प्रकार से सरकार पर हमला बोला, मध्यावधि चुनाव की आहट धीमे से सुनाई पडऩे लगी। गौरतलब है कि अखिल भारतीय कांग्रेस के महाधिवेशन की योजना वर्ष 2009 में लोकसभा चुनावों में मिली विजय का झंडा गाडऩे के लिए एक साल पहले ही बन गई थी, लेकिन तब और अब के बीच परिस्थितियां काफी बदल गई हैं। कांग्रेस के पैरों के नीचे से धरती खिसकने लगी है। कांग्रेस के ही नेताओं के बीच अन्तर्कलह और नाराजगी से मध्यावधि चुनाव की आशंका और बड़े घोटालों की छाया तले यह महाधिवेशन हो रहा है और लगता कांग्रेस चौराहे पर खड़ी है। राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा जोरों पर है कि महज सवा-डेढ़ साल पुरानी एक ऐसी सरकार जिसको जरूरत से ज्यादा बहुमत है, को उखाड़ फेंकने की बातें अनायास नहीं है। जिन लोगों ने दिल्ली में ही संपन्न हुए कांग्रेस के महाधिवेशन को नजदीक से देखा है वे भी यही बता रहे हैं कि आमचुनाव की आहट वहां भी सुनाई दे रही है। प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह की दूसरी पारी कांग्रेस में कईयों को खटक रही है। फिर राहुल गांधी के राजनीतिक रहनुमाओं के प्रचार अभियान भी अनोखे हैं जो उन्हें प्रधानमंत्री बनाने का हौसला प्रदान कर रहे हैं। ऐसा ही एक अभियान यह चल रहा है कि किसी ज्योतिषी ने भविष्यवाणी कर दी है कि 2011 में राहुल न केवल शादीशुदा हो जाएगा बल्कि वह देश का प्रधानमंत्री भी बन सकता है। बस, चाटुकारों की एक टोली राहुल की माँ सोनिया गांधी को इसी बिना पर उत्साहित करने का भरसरक प्रयास कर रहा है। राजनीतिक जानकारों की रायशुमारी में इस दफा मनमोहन सिंह बुरी तरह फंसे दिखाई दे रहे है। भ्रष्टïाचार और घोटालो ने मनमोहन की इस सरकार की कलाई खोल दी है। उदारीकरण के बाद सबसे ज्यादा घोटाला नरसिम्हा राव के समय में हुआ था । उसके बाद घोटालो की यही सरकार दिख रही है। बेशक, मिस्टर क्लीन की छवि लिए उन्होंने अपने कुछ मंत्रियों और मुख्यमंत्री की बलि दी हो, लेकिन भ्रष्टïाचार तो हुआ है। भला, उस कलंक को कैसे धो पाएंगे? यह बात और है की तमाम जन विरोधी नीतिओं के बावजूद इस सरकार में आर्थिक विकास दर बढती जा रही है , लेकिन घोटालो ने यह सावित कर दिया है की मनमोहन अब तक के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री है। आलम यह है की आज की तारीख में आम चुनाव हो जाय तो इस सरकार और इस में शामिल डालो की खटिया खड़ी हो जाएगी। मामला एक-दो भ्रष्टाचार तक ही सिमित नहीं है, पूरा सिस्टम ही करप्ट जान पड़ता है। भ्रष्टïाचार के इस पूरे खेल में जनता लगातार लुट की शिकार होत जा रही है। महंगाई अपने चरम पर है और उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है। लोगो के बीच में सरकार के प्रति अविश्वास बढ़ता जा रहा है। जनता के इस मूड को राजग जान चुका है, तभी तो वह 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में जेपीसी की मांग पर अड़ी है। बेशक, जेपीसी को लेकर भाजपा और राजग में आंतरिक विरोध हो, लेकिन रणनीतिकार इस मौका को छोडऩा नहीं चाहते। राजग को लगने लगा है कि देश मध्यावदी चुनाव की तरफ बढ़ रहा है और संभावना बन रही है की 2011 कें मध्यतक ऐसी स्थिति आ भी जाए। और यदि ऐसा होता है तो इसके लिए जिम्मेदार यही सरकार होगी । बहरहाल, राहुल गांधी की राह में पहली बाधा तो बिहार ने पैदा कर दी है। उनका जो कद बढ़ता नजर आ रहा था, वह न केवल रूक गया, बल्कि उलट गया। बिहार में उन्होंने तूफानी दौरे किए, लेकिन वे जहां-जहां गए, कांग्रेस हार गई। सदानंद सिंह अपवाद हैं, वे अपने कारणों से जीते। यह कांग्रेस की मुश्किल है, जिन राज्यों को वह ज्यादा महत्व दे रही है, वहां उसका संगठन खड़ा नहीं हो पा रहा है। यह कहा जा रहा था कि उत्तर भारत के आठ राज्यों में अल्पसंख्यक कांग्रेस की ओर मुड़ गए हैं। इस दावे पर अभी प्रश्नचिन्ह है। इसके लक्षण उत्तरप्रदेश में दिखाई पडऩा चाहिए, लेकिन वहां विपरीत परिस्थितियां खड़ी होने लगी हैं। सपा और बसपा उत्तरप्रदेश की राजनीति के केन्द्र में हैं। उधर, आंध्रप्रदेश में कांग्रेस में जगन के विद्रोह के बाद लोकसभा चुनावों की आहट लगने लगी है। जगन केन्द्र की सरकार गिराने की कोशिश में लग गए हैं। ए. राजा यदि गिरफ्तार कराए जाते हंै तो उसकी आँच कनिमोझी से होती हुई करूणानिधि तक भी पहुंचेगी। ऐसे में करूणानिधि वर्तमान यूपीए सरकार को समर्थन देने तक का विचार कर सकते हैं। पहले ही समर्थन की बात कर चुकी अन्नाद्रमुक नेता जयललिता पर भाजपा के रणनीतिकार नजर गड़ाए हुए हैं। हालिया चर्चा यह भी है कि एनडीएक के मैनेजरनुमा राजनेता तृणमूल कांग्रेस की नेत्री व केंद्रीय रेल मंत्री ममता बनर्जी से भी संपर्क में है। आखिर, वह अटल जी के मंत्रिमण्डल में भी सहयोगी रह चुकी है। इन्हीं परिस्थितियों के बीच राजग ने रामलीला मैदान में रैली आयोजित कर अपनी एकजुटतका का एहसास दिलाया। काबिलेगौर यह भी है कि रामलीला मैदान में पहले की तरह इस बार न गडकरी गश खाकर गिरे और न आडवाणी को रैली आधे रास्ते रोकनी पड़ी। साथ में भाजपा के वे सभी मैनेजरनुमा नेता महासंग्राम का ऐलान करते नजर आ रहे थे जो आम आदमी की राजनीति के नाम पर खास लोगों के बीच जगह बनाने को ही अपना कौशल समझते हैं। यह कहने में कोई अतियोक्ति नहीं है कि आज की जो भाजपा दिखती है वह करीब-करीब अटल बिहारी वाजपेयी की देन है। कुर्सियों के चयन से लेकर पार्टियों के साथ तालमेल तक अटल बिहारी की छाप हर जगह दिखाई देती है। अटल का अंश दिखने की कोशिश कर रहे लालकृष्ण आडवाणी उन्हीं के नक्शेकदम पर अब एनडीए के अध्यक्ष हो चले। अटल ने जिस प्रकार से जॉर्ज फर्नांडीस का साथ लिया था, उसी तर्ज पर आडवाणी ने एक समाजवादी शरद यादव को अपना सेकुलर सिपहसालार नियुक्त कर दिया है जो एनडीए के बतौर संयोजक काम कर रहे हैं। अटल ने अगर सत्रह पार्टियों का कुनबा जोड़कर सरकार बनायी और चलायी तो आडवाणी के पास कम से कम चार पांच पार्टियों का समर्थन तो है ही। एनडीएक के महासंग्राम रैली में शरद यादव, शिवसेना और अकाली दल के नेताओं ने जो भाषण दिये वह सरकार उखाडऩे का संकेत देते हैं। आखिर में आडवाणी ने इस बात की पुष्टि भी कर दी। आडवाणी के कहने का लबो-लुबाब यही था कि अगले संसद सत्र तक यह महासंग्राम जारी रहेगा। देशभर में ऐसी 12 रैलियां आयोजित की जाएंगी जिसमें तीन तय हो गयी हैं और तय की जा रही हैं। वास्तव में यह लक्ष्य है आमचुनाव का। शरद यादव बोले भी कि इस सरकार को उखाड़ फेंकने की जरूरत है। यह अनायास नहीं है कि आडवाणी कह रहे हों कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी तो जेपीसी देना चाहते हैं लेकिन न जाने उनकी ऐसी क्या मजबूरी है कि वे चाहकर भी जेपीसी नहीं दे पा रहे हैं। इसका मतलब तो यही निकाला जा रहा है कि कांग्रेस के अंदर भी जेपीसी न देने का घनघोर घमासान है। अपना विपक्ष खुद रहनेवाली कांग्रेस के अंदर इस हवा को गर्म किया जा रहा है कि जेपीसी देने से अच्छा है सरकार को बदनाम हो जाने दो। कांग्रेस के वे तुर्रमखां जो संकट के समय बैरमखां बन जाते थे, इस वक्त थोड़े आरामतलब हो गये हैं। नतीजन, सारा संकट पीएमओ और डीएमके की ओर मोड़ दिया गया है। राजा राडिया और प्रधानमंत्री ही घिर रहे हैं और घेरे जा रहे हैं। उल्टे कांग्रेस ने तो महाधिवेशन में भ्रष्टाचार से लडऩे का भी संकल्प ले लिया। सो, जाहिर है कांग्रेस भी जानती है कि एनडीए इस मुद्दे को जितना अधिक हवा देगी पीएम उतने अधिक कमजोर साबित होंगे और उधर पीएम पर दबाव यह कि किसी भी हाल में वे जेपीसी की घोषणा नहीं कर सकते। ऐसे में स्थिति थोड़ी स्पष्ट हो जाती है कि अगर स्पेक्ट्रम घोटाले के नाम पर जेपीसी दी जाती है तो प्रधानमंत्री फंसते हैं और उन्हें कहा जा सकता है कि अब आप आराम करें और अगर जेपीसी नहीं दी जाती है तो रास्ता आम चुनाव की ओर आगे निकलता है जिस पर चलने के लिए सिवाय मनमोहन के पूरी कांग्रेस तैयार है। यदि ऐसी स्थिति बनती है तो लालकृष्ण आडवाणी की महात्वाकांक्षा एक बार फिर से कुलांचे मारने को बेताब है। तभी तो जीवन के सबसे बड़े पद की लालसा लिए आनन फानन में वे एक बार फिर बतौर पीएम इन वेटिंग मैदान में आ डटे हैं। महासंग्राम रैलियों का सिलसिला शुरू करने की योजना भी उन्हीं की है और जेपीसी से कम पर समझौता न करने का विचार भी। वरना इधर मुरली मनोहर जोशी और उधर मनमोहन सिंह दोनों ही पीएसी के जरिए मामला सुलटा लेना चाहते हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि न इधर जोशी की भी वही हैसियत है जो उधर मनमोहन सिंह की। दोनों ही ईमानदार और विद्वान हैं लेकिन दोनों का राजनीतिक बटखरे से तौलनेलायक भी नहीं है। सो, बात जेपीसी पर अटकी है और वहीं अटका दी गयी है। इससे चाटुकार कांग्रेसी राहुल को बतौर पीएम प्रोजेक्ट करके अपना महत्व बढ़ाना चाहते हैं तो इधर आडवाणी जी को पांच साल तक इंतजार किये बिना जीवन के अंतिम पहर में जंग का एक और मैदान साफ नजर आने लगता है।

Tuesday, January 4, 2011

कारगर होगी महिलाओं की फौज?

बिहार की पंचायती संस्थाओं में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की राज्यव्यापी नीतीश-पहल को पूरे देश ने देखा और उसका गुणात्मक परिणाम भी जाना। गत विधानसभा चुनाव में जिस प्रकार से महिलाओं का मतदान प्रतिशत बढ़ा, वह कहीं न कहीं इस महिला आरक्षण का ही प्रतिफल है। तभी तो प्रदेश में अगले वित्तीय वर्ष के प्रारंभ में ही करीब 3800 महिला मुखिया निर्वाचित होने के लिए तैयार हैं। दरअसल, बिहार में अगले वर्ष अप्रैल महीने में ग्राम पंचायतों के लिए चुनाव होने हैं। राज्य में कुल 8,463 ग्राम पंचायतों में होने वाले चुनाव में 3,784 ग्राम पंचायतों में मुखिया का पद महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिया गया है। राज्य निर्वाचन विभाग के अधिकारी के अनुसार, इन 3,784 महिला मुखियाओं में से सामान्य वर्ग की 2,611 मुखिया होंगी, जबकि 595 मुखिया पिछड़े वर्ग से आएंगी। इसके अतिरिक्त अनुसूचित जाति की महिलाओं को 561 सीटों पर और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं को 17 सीटों पर चुना जाना तय है। निर्वाचन आयोग ने स्पष्ट कर दिया है कि राज्य में स्थानीय निकाय के सभी पदों पर आरक्षण की वही स्थिति रहेगी जो वर्ष 2006के स्थानीय निकाय के चुनाव में थी। एक अधिकारी के अनुसार पूर्वी चम्पारण में सबसे ज्यादा महिला मुखिया चुनी जाएंगी। वहीं शेखपुरा में सबसे कम मुखिया महिला होंगी। पूर्वी चम्पारण जिले के 27 प्रखंडों में मुखिया के कुल 410 पद हैं, जिनमें 184 पद महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। इसी तरह पटना जिले में जहां 147 महिला मुखिया होंगी, वहीं भोजपुर में 104, बक्सर में 63, नालंदा और गोपालगंज में 108-108, कैमूर में 66, गया में 145, जहांनाबाद में 42, अरवल में 29, औरंगाबाद में 94 महिला मुखिया होंगी। शेखपुरा जिले में सबसे कम मात्र 20 महिला मुखिया होंगी। जानकारों की राय में बिहार में विकास पुरूष के नाम से अवतरित नीतीश कुमार ने महिलाओं को पंचायत में आरक्षण देकर देर से ही सही लेकिन एक सधा हुआ कदम उठाया। महिलाएं पंचायत प्रमुख, मुखिया, प्रधान, सरपंच और पंचायत से संबंधित कई पदों पर पहुंच गईं। लोगों को लगा बिहार में नारी शक्ति मजबूत हो गई है। कई जगहों पर यह सच साबित हुआ भी, लेकिन कई स्थानों पर ऐसा नहीं हुआ। सैकड़ों ऐसे मामले हैं जहां लोग-बाग जब महिला मुखिया से मिलने जाते हैं, तो मिलने आते हैं -मुखिया पति। कई दफा तो सरकारी बैठकों में महिलाओं के जगह उनके पति पहुंचते हैं। ऐसे में सामाजिक विकास की बात करने वाले यह सवाल भी खड़ा करने लगे हैं कि क्या इस पुरुष प्रधान समाज में महिला अपने फैसले लेने के लिए आजाद है? क्या यह सच नहीं है राबड़ी के फैसले लालू लेते रहे हैं? राजनीति प्रेक्षकों के अनुसार, पंचायतों में महिला आरक्षण वाली वोट-नीति से राज्य स्तर पर नीतीश कुमार ने की तो और राष्टï्रीय स्तर पर सोनिया गांधी ने अपने लिए महिला पक्षधरता का झंडा बनाया। जहाँ तक पंचायती संस्थाओं में इस आरक्षण व्यवस्था के ज़रिए महिलाओं के सशक्तिकरण की बात है, तो इस बाबत बिहार का अनुभव बहुत निराशाजनक है। आरक्षित पदों पर निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों में से अधिकतर को उनके पारिवारिक पुरुषों ने कठपुतली या रबड़ स्टांप बनाकर महिला सशक्तीकरण की ज़मीन ही खिसका दी है। कहीं-कहीं तो बड़ी हास्यास्पद स्थिति है। बिहार में पंचायत में महिलाओं को आरक्षण मिलने के बाद भी उनका काम-काज पुरुष ही करते हैं। मुखिया-पति या सरपंच-पति का ऐसा बोलबाला है कि गाँव के लोगों में वहां के महिला प्रतिनिधियों की कोई पहचान तक नहीं रह गई है, और कहीं-कहीं ऐसा भी हुआ है कि जो सीधी-सादी और कुछ पढ़ी-लिखी घरेलू महिला थीं, उन्हें उनके घर वालों ने मुखिया या और कोई प्रतिनिधि बनवाकर पंचायती संस्थाओं में चल रहे भ्रष्टाचार के खेल में माहिर बना दिया है। इसके साथ ही यह भी सच है कि बिहार के हालिया विधानसभा चुनाव में 1962 के बाद सबसे ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला है। इस दफा 32 महिलाएं विधायक बनी। खास बात यह है कि चुनाव में उतारे गए उम्मीदवारों में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 8.74 प्रतिशत ही थी। साढे पांच करोड़ मतदाताओं के बीच पचास प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाली बिहार की महिलाओं में से बहुत कम ही पुरूषों के दबदबे वाली राज्य की राजनीति में जगह बना पाई हैं। अगर पांच मुख्य पार्टियों सत्ताधारी जेडीयू और बीजेपी, विपक्षी आरजेडी, एलजेपी और कांग्रेस के साथ वामपंथियों के उम्मीदवारों की फेहरिस्त पर नजर डाले तो कुल 90 महिलाओं को टिकट दिया गया। इससे जाहिर होता है कि महिलाओं की तरक्की की राह में कितने रोड़े हैं।

नीलम