Wednesday, January 5, 2011

समय पूर्व भंग होगी संसद !

लोकतांत्रिक राजनीति में कुछ भी स्थाई नहीं होता है। न तो जनमत के आधार पर बनी सरकार की अवधि और न ही राजनीति का चरित्र। भारत जैसे बड़े लोकतंत्र में, जहां की राजनीति गठबंधन के युग में हैं और क्षेत्रीय दलों के झंझावातों से दो-चार होती है, वहां कुछ भी संभव है। वर्तमान का सच यह भी है कि जब देश के मौसम को सर्दी ने अपने आगोश में लिया हुआ है तो रोजमर्रा की जिंदगी प्रभावित हो रही है, उन परिस्थितियों में सियासी गलियारों मध्यावधि चुनावों की अटकलों पर भी विचार-विमर्श होने लगा है। कौन किसको किस बिना पर पटकनी दे सकता है, जनता के बीच कौन से सवाल मौजूं होंगे - राजनीतिक दलों के थिंक टैंकरों की टीम इस पर गहन चिंतन करने में जुट गई है। हालांकि, एक पखवाड़े पूर्व तक इसकी कोई संभावना नहीं थी। लेकिन, जैसे ही बिना कोई काम किए संसद सत्र का समापन हुआ और उसके बाद नई दिल्ली के बुराड़ी में कांग्रेस का महाधिवेशन हुआ तो मध्यावधि चुनाव के कयास लगने शुरू हो गए। जिस प्रकार से कांग्रेस महाधिवेशन में कांग्रेस के अंदर और बाहर चर्चाओं का बाजार गर्म हुआ। सरकार के कामकाज और संगठन में कुछेक मुद्दों पर मतभिन्नता दिखी, उसी ने इस संभावना का सूत्रपात किया। अव्वल तो यह कि कांग्रेस महाधिवेशन के महज दो दिन बाद ही राजग के बैनर तले कई दलों ने नेताओं ने जिस प्रकार से सरकार पर हमला बोला, मध्यावधि चुनाव की आहट धीमे से सुनाई पडऩे लगी। गौरतलब है कि अखिल भारतीय कांग्रेस के महाधिवेशन की योजना वर्ष 2009 में लोकसभा चुनावों में मिली विजय का झंडा गाडऩे के लिए एक साल पहले ही बन गई थी, लेकिन तब और अब के बीच परिस्थितियां काफी बदल गई हैं। कांग्रेस के पैरों के नीचे से धरती खिसकने लगी है। कांग्रेस के ही नेताओं के बीच अन्तर्कलह और नाराजगी से मध्यावधि चुनाव की आशंका और बड़े घोटालों की छाया तले यह महाधिवेशन हो रहा है और लगता कांग्रेस चौराहे पर खड़ी है। राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा जोरों पर है कि महज सवा-डेढ़ साल पुरानी एक ऐसी सरकार जिसको जरूरत से ज्यादा बहुमत है, को उखाड़ फेंकने की बातें अनायास नहीं है। जिन लोगों ने दिल्ली में ही संपन्न हुए कांग्रेस के महाधिवेशन को नजदीक से देखा है वे भी यही बता रहे हैं कि आमचुनाव की आहट वहां भी सुनाई दे रही है। प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह की दूसरी पारी कांग्रेस में कईयों को खटक रही है। फिर राहुल गांधी के राजनीतिक रहनुमाओं के प्रचार अभियान भी अनोखे हैं जो उन्हें प्रधानमंत्री बनाने का हौसला प्रदान कर रहे हैं। ऐसा ही एक अभियान यह चल रहा है कि किसी ज्योतिषी ने भविष्यवाणी कर दी है कि 2011 में राहुल न केवल शादीशुदा हो जाएगा बल्कि वह देश का प्रधानमंत्री भी बन सकता है। बस, चाटुकारों की एक टोली राहुल की माँ सोनिया गांधी को इसी बिना पर उत्साहित करने का भरसरक प्रयास कर रहा है। राजनीतिक जानकारों की रायशुमारी में इस दफा मनमोहन सिंह बुरी तरह फंसे दिखाई दे रहे है। भ्रष्टïाचार और घोटालो ने मनमोहन की इस सरकार की कलाई खोल दी है। उदारीकरण के बाद सबसे ज्यादा घोटाला नरसिम्हा राव के समय में हुआ था । उसके बाद घोटालो की यही सरकार दिख रही है। बेशक, मिस्टर क्लीन की छवि लिए उन्होंने अपने कुछ मंत्रियों और मुख्यमंत्री की बलि दी हो, लेकिन भ्रष्टïाचार तो हुआ है। भला, उस कलंक को कैसे धो पाएंगे? यह बात और है की तमाम जन विरोधी नीतिओं के बावजूद इस सरकार में आर्थिक विकास दर बढती जा रही है , लेकिन घोटालो ने यह सावित कर दिया है की मनमोहन अब तक के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री है। आलम यह है की आज की तारीख में आम चुनाव हो जाय तो इस सरकार और इस में शामिल डालो की खटिया खड़ी हो जाएगी। मामला एक-दो भ्रष्टाचार तक ही सिमित नहीं है, पूरा सिस्टम ही करप्ट जान पड़ता है। भ्रष्टïाचार के इस पूरे खेल में जनता लगातार लुट की शिकार होत जा रही है। महंगाई अपने चरम पर है और उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है। लोगो के बीच में सरकार के प्रति अविश्वास बढ़ता जा रहा है। जनता के इस मूड को राजग जान चुका है, तभी तो वह 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में जेपीसी की मांग पर अड़ी है। बेशक, जेपीसी को लेकर भाजपा और राजग में आंतरिक विरोध हो, लेकिन रणनीतिकार इस मौका को छोडऩा नहीं चाहते। राजग को लगने लगा है कि देश मध्यावदी चुनाव की तरफ बढ़ रहा है और संभावना बन रही है की 2011 कें मध्यतक ऐसी स्थिति आ भी जाए। और यदि ऐसा होता है तो इसके लिए जिम्मेदार यही सरकार होगी । बहरहाल, राहुल गांधी की राह में पहली बाधा तो बिहार ने पैदा कर दी है। उनका जो कद बढ़ता नजर आ रहा था, वह न केवल रूक गया, बल्कि उलट गया। बिहार में उन्होंने तूफानी दौरे किए, लेकिन वे जहां-जहां गए, कांग्रेस हार गई। सदानंद सिंह अपवाद हैं, वे अपने कारणों से जीते। यह कांग्रेस की मुश्किल है, जिन राज्यों को वह ज्यादा महत्व दे रही है, वहां उसका संगठन खड़ा नहीं हो पा रहा है। यह कहा जा रहा था कि उत्तर भारत के आठ राज्यों में अल्पसंख्यक कांग्रेस की ओर मुड़ गए हैं। इस दावे पर अभी प्रश्नचिन्ह है। इसके लक्षण उत्तरप्रदेश में दिखाई पडऩा चाहिए, लेकिन वहां विपरीत परिस्थितियां खड़ी होने लगी हैं। सपा और बसपा उत्तरप्रदेश की राजनीति के केन्द्र में हैं। उधर, आंध्रप्रदेश में कांग्रेस में जगन के विद्रोह के बाद लोकसभा चुनावों की आहट लगने लगी है। जगन केन्द्र की सरकार गिराने की कोशिश में लग गए हैं। ए. राजा यदि गिरफ्तार कराए जाते हंै तो उसकी आँच कनिमोझी से होती हुई करूणानिधि तक भी पहुंचेगी। ऐसे में करूणानिधि वर्तमान यूपीए सरकार को समर्थन देने तक का विचार कर सकते हैं। पहले ही समर्थन की बात कर चुकी अन्नाद्रमुक नेता जयललिता पर भाजपा के रणनीतिकार नजर गड़ाए हुए हैं। हालिया चर्चा यह भी है कि एनडीएक के मैनेजरनुमा राजनेता तृणमूल कांग्रेस की नेत्री व केंद्रीय रेल मंत्री ममता बनर्जी से भी संपर्क में है। आखिर, वह अटल जी के मंत्रिमण्डल में भी सहयोगी रह चुकी है। इन्हीं परिस्थितियों के बीच राजग ने रामलीला मैदान में रैली आयोजित कर अपनी एकजुटतका का एहसास दिलाया। काबिलेगौर यह भी है कि रामलीला मैदान में पहले की तरह इस बार न गडकरी गश खाकर गिरे और न आडवाणी को रैली आधे रास्ते रोकनी पड़ी। साथ में भाजपा के वे सभी मैनेजरनुमा नेता महासंग्राम का ऐलान करते नजर आ रहे थे जो आम आदमी की राजनीति के नाम पर खास लोगों के बीच जगह बनाने को ही अपना कौशल समझते हैं। यह कहने में कोई अतियोक्ति नहीं है कि आज की जो भाजपा दिखती है वह करीब-करीब अटल बिहारी वाजपेयी की देन है। कुर्सियों के चयन से लेकर पार्टियों के साथ तालमेल तक अटल बिहारी की छाप हर जगह दिखाई देती है। अटल का अंश दिखने की कोशिश कर रहे लालकृष्ण आडवाणी उन्हीं के नक्शेकदम पर अब एनडीए के अध्यक्ष हो चले। अटल ने जिस प्रकार से जॉर्ज फर्नांडीस का साथ लिया था, उसी तर्ज पर आडवाणी ने एक समाजवादी शरद यादव को अपना सेकुलर सिपहसालार नियुक्त कर दिया है जो एनडीए के बतौर संयोजक काम कर रहे हैं। अटल ने अगर सत्रह पार्टियों का कुनबा जोड़कर सरकार बनायी और चलायी तो आडवाणी के पास कम से कम चार पांच पार्टियों का समर्थन तो है ही। एनडीएक के महासंग्राम रैली में शरद यादव, शिवसेना और अकाली दल के नेताओं ने जो भाषण दिये वह सरकार उखाडऩे का संकेत देते हैं। आखिर में आडवाणी ने इस बात की पुष्टि भी कर दी। आडवाणी के कहने का लबो-लुबाब यही था कि अगले संसद सत्र तक यह महासंग्राम जारी रहेगा। देशभर में ऐसी 12 रैलियां आयोजित की जाएंगी जिसमें तीन तय हो गयी हैं और तय की जा रही हैं। वास्तव में यह लक्ष्य है आमचुनाव का। शरद यादव बोले भी कि इस सरकार को उखाड़ फेंकने की जरूरत है। यह अनायास नहीं है कि आडवाणी कह रहे हों कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी तो जेपीसी देना चाहते हैं लेकिन न जाने उनकी ऐसी क्या मजबूरी है कि वे चाहकर भी जेपीसी नहीं दे पा रहे हैं। इसका मतलब तो यही निकाला जा रहा है कि कांग्रेस के अंदर भी जेपीसी न देने का घनघोर घमासान है। अपना विपक्ष खुद रहनेवाली कांग्रेस के अंदर इस हवा को गर्म किया जा रहा है कि जेपीसी देने से अच्छा है सरकार को बदनाम हो जाने दो। कांग्रेस के वे तुर्रमखां जो संकट के समय बैरमखां बन जाते थे, इस वक्त थोड़े आरामतलब हो गये हैं। नतीजन, सारा संकट पीएमओ और डीएमके की ओर मोड़ दिया गया है। राजा राडिया और प्रधानमंत्री ही घिर रहे हैं और घेरे जा रहे हैं। उल्टे कांग्रेस ने तो महाधिवेशन में भ्रष्टाचार से लडऩे का भी संकल्प ले लिया। सो, जाहिर है कांग्रेस भी जानती है कि एनडीए इस मुद्दे को जितना अधिक हवा देगी पीएम उतने अधिक कमजोर साबित होंगे और उधर पीएम पर दबाव यह कि किसी भी हाल में वे जेपीसी की घोषणा नहीं कर सकते। ऐसे में स्थिति थोड़ी स्पष्ट हो जाती है कि अगर स्पेक्ट्रम घोटाले के नाम पर जेपीसी दी जाती है तो प्रधानमंत्री फंसते हैं और उन्हें कहा जा सकता है कि अब आप आराम करें और अगर जेपीसी नहीं दी जाती है तो रास्ता आम चुनाव की ओर आगे निकलता है जिस पर चलने के लिए सिवाय मनमोहन के पूरी कांग्रेस तैयार है। यदि ऐसी स्थिति बनती है तो लालकृष्ण आडवाणी की महात्वाकांक्षा एक बार फिर से कुलांचे मारने को बेताब है। तभी तो जीवन के सबसे बड़े पद की लालसा लिए आनन फानन में वे एक बार फिर बतौर पीएम इन वेटिंग मैदान में आ डटे हैं। महासंग्राम रैलियों का सिलसिला शुरू करने की योजना भी उन्हीं की है और जेपीसी से कम पर समझौता न करने का विचार भी। वरना इधर मुरली मनोहर जोशी और उधर मनमोहन सिंह दोनों ही पीएसी के जरिए मामला सुलटा लेना चाहते हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि न इधर जोशी की भी वही हैसियत है जो उधर मनमोहन सिंह की। दोनों ही ईमानदार और विद्वान हैं लेकिन दोनों का राजनीतिक बटखरे से तौलनेलायक भी नहीं है। सो, बात जेपीसी पर अटकी है और वहीं अटका दी गयी है। इससे चाटुकार कांग्रेसी राहुल को बतौर पीएम प्रोजेक्ट करके अपना महत्व बढ़ाना चाहते हैं तो इधर आडवाणी जी को पांच साल तक इंतजार किये बिना जीवन के अंतिम पहर में जंग का एक और मैदान साफ नजर आने लगता है।

3 Comments:

Unknown said...

achha vishleshan hai.....

बिपिन बादल said...

कांग्रेस के अंदर और सरकार के बीच मुद्दों को लेकर एका नहीं है, जिसका खामिमाया गाहे-बेगाहे प्रधानमंत्री के सौम्य और ईमानदार छवि को भुगतना पड़ता है।

बिपिन बादल said...

खुद को निर्दोष बताकर प्रधानमंत्री अपनी जिम्मेदारी से कैसे मुक्त हो सकते हैं। जेपीसी की हमारी मांग संवैधानिक है और ऐसा भी नहीं है कि पहली बार जेपीसी से किसी मामले की जांच कराई जानी है। इससे पहले भी चार मौकों पर जेपीसी का गठन हो चुका है। फिर यह सरकार जेपीसी से क्यों भाग रही है।

नीलम