Monday, April 26, 2010

खेल अभी बाकी है

शशि थरूर के जाने के बाद ललित मोदी का पत्ता भी आईपीएल से कट ही गया और अब वह और भी फंसते नज़र आ रहे हैं। शशि थरूर का मंत्रिपद तो चला गया पर साथ में लेकर आया है एक बवंडर जो हो सकता है मोदी के साथ आईपीएल को ले डूबेगा शशि थरूर के इस्तीफे के बाद मोदी मामले में केन्द्र सरकार की स्थिति मजबूत हुई है। शायद थरूर ने इस्तीफा दिया भी इसीलिए है ताकि मोदी को नेस्तनाबूद किया जा सके। अब कंाग्रेस अपने प्रिय मंत्री के जाने का बदला तो लेगी ही और कोई परवाह किए बिना मोदी पर शिकंजा कसेगी। बीसीसीआई की ओर से भी यही संकेत मिल रहे हैं। बोर्ड के पास कोई विकल्प है भी नहीं। ललित मोदी पर जिस तरह के और जितनी संख्या में आरोप लग रहे हैं, उन ओरोपों से मोदी का बचना नामुमकिन लग रहा है। बीसीसीआई में भी सभी पदाधिकारी मोदी के खिलाफ मोर्चा ले चुके हैं। दूसरी ओर मोदी को न चाहते हुए भी आईपीएल छोडऩा होगा। वैसे इंडियन प्रीमियर लीग के कमिश्नर ललित मोदी की कार्यशैली, फैसलों और गतिविधियों शुरुआत से ही काफी विवादित रही हैं या यूं कह लें कि मोदी पाक साफ छवि वाले कभी रहे ही नहीं। राजस्थान में वसुंधरा राजे की भाजपा सरकार के कार्यकाल के दौरान अनेक बार ललित मोदी का नाम राजनीति के गलियारों में उछला और अनेक पर्यवेक्षकों ने तो उन्हें उस समय सियासत की धुरी बताया। राजस्थान के ललित मोदी का नाम वर्ष 2005 में सामने आया था जब भाजपा के राजस्थान में सता में आने के बाद वे यकायक राजस्थान क्रिकेट संघ के अध्यक्ष बन बैठे। तब उनके विरोधियों का आरोप था कि तत्कालीन भाजपा सरकार ने क्रिकेट संघ में मोदी की ‘ताजपोशी’ के लिए स्पोर्ट्स कानून बदला है। बावजूद इसके मोदी वर्षों से स्थापित रुंगटा गुट को हटाकर क्रिकेट संघ में अपना प्रभुत्व कायम करने में कामयाब हुए। संवैधानिक सत्ता का हिस्सा न होते हुए भी मोदी को विपक्ष ने हमेशा अपने निशाने पर रखा। जंग इतनी बढ़ी कि मोदी का नाम महज क्रिकेट के प्रशासक के तौर पर ही नहीं, बल्कि क्रिकेट में प्रभावशाली लोगों के कामकाज की शैली का मुहावरा बन गया। यहां तक कि मोदी के राजस्थान के निवासी होने पर भी विवाद हुआ और इस पर सवाल उठाया गया। उनके गृहनगर नागौर में मोदी के विरुद्ध एक प्राथमिकी दर्ज करवाई गई। ये मामला अब तक पुलिस के पास विचाराधीन है। क्रिकेट संघ का अधिकारी बनने के लिए मोदी को राजस्थान का मूल निवासी होना जरूरी था। लेकिन उनके विरोधियों ने उनके नागौर का बाशिंदा होने के दावे पर सवाल उठाए। खेल के मैदान या स्टेडियम परिसर में कोई व्यापारिक गतिविधि नहीं हो सकती है पर मोदी के कार्यकाल के दौरान स्टेडियम में एक होटल बनाकर खड़ा कर दिया गया। वसुंधरा राजे सरकार के कार्यकाल के दौरान राजस्थान क्रिकेट संघ के कर्ताधर्ता रहे ललित मोदी यह पद वंसुधरा की सरकार से कितना प्रभावित था इसका अंदाजा इसी बाज से लगाया जा सकता है कि वंसुधरा की सरकार जाने के बाद मोदी का यह पद भी उनके हाथ से जाता रहा। साथ ही उन्हें तीन मामलों में पुलिस द्वारा दर्ज प्राथमिकी का सामना भी करना पड़ सो अलग। मोदी को एक और पुलिस जाँच का सामना करना पड़ रहा है जिसमें आरोप है कि वर्ष 2007 में एक क्रिकेट मैच के दौरान जयपुर के एसएमएस स्टेडियम में शराब परोसी गई। ये भी आरोप लगा है कि एक अतिथि को तिरेंगे को मेजपोश की तरह इस्तेमाल करते देखा गया। इसके अलावा मोदी पर वंसुधरा सरकार के शासनकाल के दौरान जमीन के सौदों और पर्यटन स्थल आमेर में संपत्तियों की कथित खरीद का आरोप भी है। खैर मोदी के इन सारे कर्मो को बीती ताहि बिसार दई की तर्ज पर लोग और बीसीसीआई भूल चुका था। मोदी की ही बदौलत बीसीसीआई ने आईपीएल जैसी सोने के अंडे देने वाली मुर्गी का ईजाद कर सका और इसके लिए बोर्ड को मोदी का शुक्रगुजार भी था। सरकार भी आईपीएल के तह में जाकर जांच करने के मूड में नहीं थी पर थरूर पर हाथ डालकर मोदी ने सीधे-सीधे कांग्रेस को ललकारा है। अब तक कई तहों के बीच ढके छुपे टीम मालिकों को सामने लाने की बात से लेकर मैच फिक्सिंग और कई अनामी कंपंनी के मालिक के तौर पर मोदी का नाम खींचा जा चुका है। थरूर और सुनंदा कोचर के संबंधों पर उंगली उठाने वाले मोदी की रंगीन मिजाजी के किस्से भी अब आम हो चले हैं। पिछले आईपीएल के दौरान दक्षिण अफ्रीका की मॉडल गैब्रिएला से मोदी के संबंधों के किस्से सुने सुनाए जा रहे हैं। यह वही मॉडल है जिसे भारत का वीजा न देने की मोदी ने सिफारिश की थी। इसके अलावा राजस्थान रायल्स में अपने साढू सुरेश चेलाराम को सबसे बड़ी हिस्सेदारी, अपने रिश्तेदार किंग्स इलेवन पंजाब के सह-मालिक मोहित बर्मन को हिस्सेदारी देने के भी आरोप मोदी पर लगे हैं। हैरानी की बात यह नहीं कि ललित मोदी ने बीसीसीआई के पदाधिकारियों और आईपीएल गवर्निंग काउंसिल को बिना बताए अपनी मर्जी से कंपनियों से कॉन्ट्रैक्ट किए-तोड़े और अपने रिश्तेदारों को फाइनेंशल फायदा पहुंचाया बल्कि हैरानी इस पर है कि बीसीसीआई और गवर्निंग काउंसिल को क्यों नहीं मोदी के करतूतों की भनक लगी? यह जाहिर करता है कि बोर्ड वास्तव में किस तरह काम करता रहा है। मोदी अगर ट्वीट करके कोच्चि टीम के शेयरधारकों के नाम नहीं उजागर करते और उन नामों में से एक नाम शशि थरूर की कथित प्रेमिका का नहीं होता, तो चीजें आज भी अपने ढंग और गति से चल रही होतीं। बोर्ड के सदस्य अपने में उसी तरह मशगूल रहते और आईपीएल की छवि भी साफ सुथरी बनी रहती। पर अब ऐसा नहीं है। खबरों के अनुसार आईपीएल ने इस टूर्नामेंट के दौरान कितना कमाया, क्या बेचा, टीमों के पर्दानशीं मालिक अब सभी को ढूढ़ा जा रहा है। अरबों का यह खेल टीवी पर दिखाने के अधिकार, इंटरनेट पर दिखाने के अधिकार, मोबाइल पर दिखाने के अधिकार और न जाने क्या-क्या सामने रहे हैं। वैसे भी ‘ट्वेंटी 20’ क्रिकेट बहुत बड़े व्यवसाय में तब्दील हो गया है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) को टीमों व प्रसारण के अधिकारों से होने वाली अरबों रुपए की आमदनी इसे दुनिया के सबसे महंगे टूर्नामेंटों की जमात में खड़ा करने के लिए काफी है। बॉलीवुड की शीर्ष हस्तियों से लेकर बड़े कारोबारी दिग्गज इससे जुड़ रहे हैं। टूर्नामेंट के लेन देन में लगी अघोषित रकम इससे कई गुना ज्यादा है जो मोदी थरूर विवाद के कारण निशाने पर आ गई है। अनुमान यह है कि आईपीएल में लगा सारा पैसा सफेद नहीं है। इसीलिए प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग और डिपार्टमेंट ऑफ रेवेन्यू इंटेलीजेंस ने सभी टीमों के मालिकों के खातों की जांच शुरू कर दी है। जांच में देखा जा रहा है कि कौन-कौन हैं हिस्सेदार और वह कहां से लाया इतना पैसा? सारे मामले को देखते हुए कहा जा सकता है कि ललित मोदी और शशि थरूर के बीच विवाद की जड़ में राजनीति है, पैसा है और हैं दो महिलाएं भी और इनके बीच फंस सकते हैं कई मंत्री। एनसीपी सांसद और कृषि मंत्री शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले के पति सदानंद सुले, केंद्रीय मंत्री प्रफुल्ल पटेल और महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री छगन भुजबल का नाम तो आईपीएल के हिस्सेदार के तौर पर सामने आ ही रहा है। अभी इस जद में और भी मंत्री व नेता फंसेंगे बशर्ते जांच की कार्यवाही मोदी के इस्तीफे के बाद खत्म न कर दी जाए तो। मोदी हटाए गए ये चर्चा तो गर्म है मगर क्या इतने भर से बात खत्म हो सकती है? क्या आईपीएल के पहले सीजन से लेकर अब तक जो भी सौदे हुए हैं सबकी गहन छानबीन नहीं होनी चाहिए? और बात वहाँ भी क्यों रुके, बात आगे बीसीसीआई तक जानी चाहिए। जिस तरह दुनिया भर में बीसीसीआई सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड है उसमें पारदर्शिता का तो नामोनिशान ही नहीं है जो होना चाहिए। ...वैसे होना तो बहुत कुछ चाहिए मगर जिस तरह से नेताओं के नाम क्रिकेट से जुड़े हुए हैं लगता तो नहीं कि ये जो बात निकली है वो दूर तलक जाएगी।

Thursday, April 15, 2010

भारत बना खेत,खंडहरों और हास्पिटालिटी का पर्यटन बाज़ार

पर्यटन के क्षेत्र में भारत अपना लोहा मनवा रहा है। भले ही मुंबई हमले के बाद इस क्षेत्र पर एक असर पड़ा हो लेकिन असर वैसा भी नहीं जो पर्यटन के सभी क्षेत्रों को जमींदोज कर गया हो। पर्यटन के नए-नए क्षेत्रों के विकास के कारण यहां आने वाले विदेशी मेहमानों की संख्या में दिन पर दिन बढ़ोतरी जारी है मेडिकल टूरिज्म पिछले कुछ वर्षों में भारतीय पर्यटन में एक नया आयाम जुड़ा है मेडिकल टूरिम का। वैश्विक वित्तीय सुस्ती भी मेडिकल टूरिम की बढ़ती रफ्तार को मंद नहीं कर पाई है। अमरीका, ब्रिटेन, इटली, जर्मनी जैसे देशों में इलाज महंगा होने के कारण इसके लिए भारत आने वाले मरीजों को मेडिकल टूरिस्ट कहा जाता है। हालांकि फिलहाल भारत में मेडिकल टूरिम इंडस्ट्री अपने शुरुआती चरण में है लेकिन आने वाले दिनों में इसके तेजी से बढऩे की संभावनाएं हैं। कुछ महीनों पहले आई बूमिंग मेडिकल टूरिम इन इंडिया रिपोर्ट के मुताबिक 2012 के अंत तक वैश्विक मेडिकल टूरिम इंडस्ट्री में भारत की हिस्सेदारी 11 लाख पर्यटकों और 2.4 अरब डॉलर की आमदनी के साथ 2.4 फीसदी हो जाएगी। किला, खंडहर का हेरिटेज टूरिज्म भारतीय विरासत की अमूल्य धरोहर को नजदीक से देखने दुनिया के हर कोने से सैलानी आते हैं। देश में शायद ही कोई ऐसा राज्य हो जहां भारतीय विरासत के चिन्ह मौजूद हों। आगरा, जयपुर, दिल्ली, खजुराहो, कोर्णाक, पुरी, हरिद्वार, हैदराबाद जैसे जाने कितने शहर हैं जहां भारतीय विरासत की अमिट छाप है। पिछले साल करीब 53.7 लाख से ज्यादा विदेशी सैलानी भारत आए थे। मुंबई हमले के बाद हालात सुधरने के साथ आने वाले दिनों में पर्यटकों की संख्या बढ़ेगी। कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान ज्यादा से ज्यादा विदेशी सैलानियों को आकर्षित करने के लिए भारत सरकार अमरीका, ब्रिटेन, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में रोड शो का आयोजन करवा रही है। ट्रैवलमस्ती वेडिंग्स यानी वेडिंग टूरिज्म शादी-व्याह के पर्यटन में यादातर युवा सैलानी ही आते हैं। भारत में वेडिंग टूरिम की मांग को देखते हुए दिल्ली के ऑनलाइन पोर्टल ट्रैवलमस्ती डॉट कॉम ने ट्रैवलमस्ती वेडिंग्स के नाम से खास वेबसाइट शुरू की है। कंपनी फिलहाल, ब्रिटेन, अमरीका, दक्षिण अफ्रीका, मध्य एशिया, ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर के पर्यटकों को आकर्षित करने की तैयारी में है। वित्तीय सुस्ती के बावजूद विदेशी सैलानी बड़ी संख्या में भारत रहे हैं। इस पर्यटन में ऐसा देखा जा रहा है कि केरल में कोवलम, मुंबई में अलीबाग, उदयपुर, देवीगढ़, जयपुर, जोधपुर, जैसलमेर जैसे शहरों को सैलानी ज्यादा चुनते हैं। फार्म टूरिज्म की मनमोहक हरियाली कुछ साल पहले तक सिर्फ खेती के सहारे दो जून की रोटी जुटाने की मशक्कत करने वाले किसानों को फार्म टूरिज्म के रूप में कमाई का एक नया जरिया मिल गया है। इसके लिए उन्हें तो अपनी मिट्टी से अलग होना पड़ता है और ही रोजगार के लिए अपने परिवार का साथ छोडऩा पड़ता है। देश में फिलहाल महाराष्ट्र, हरियाणा, गोवा, पंजाब और केरल में फार्म टूरिज्म का तेजी से विस्तार हो रहा है। फार्म टूरिम के तहत सैलानियों को भारतीय गांवों का बेहतरीन नजारा देखने का मौका मिलता है। सैलानी गांव वालों के साथ वक्त बिताते हुए उनकी दिनचर्या को सिर्फ बेहद नजदीक से देखते हैं बल्कि खुद भी उसका पूरा मजा लेते हैं। फार्म टूरिम में एक रात के लिए 3,000-6,000 रुपए चुकाने पड़ते हैं।

Tuesday, April 13, 2010

भूखों की बढ़ती संख्या

आजादी के छह दशक से भी अधिक वर्षों के बाद , भारत के पास दुनिया की दूसरी सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था का दावा है। मगर अमेरिका की कुल आबादी से कहीं अधिक भूख और कुपोषण से घिरे पीडि़तों का आकड़ा भी यहीं पर है। अब चमचमाती अर्थव्यवस्था पर लगा यह काला दाग भला छिपाया जाए भी तो कैसे ? योजना आयोग की नजर में गरीब वही लोग हैं जो गांवों में हर महीने 356 रुपये से कम और शहरों में 539 रुपये से कम खर्च कर पाते हैं। 5 लोगों के औसत ग्रामीण और शहरी परिवारों के लिए यह रकम क्रमश: 1780 रुपये और 2695 रुपये ठहरती है। गांवों से जिनकी वाबस्तगी नहीं है वे लोग भी इस आंकड़े की असलियत से परख सकते हैं। केन्द्र सरकार ने 2010-11 में, भूख से मुकाबला करने के लिए 1.18 लाख करोड़ रूपए खर्च करने का वादा किया है। अगर यूपीए सरकार गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को रियायती तौर से 35 किलो खाद्यान्न दिये जाने पर विचार करती है तो उसे अपने बिल में अतिरिक्त 82,100 करोड़ रूपए का जोड़ लगाना होगा। यह बात राष्टï्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लेकर है। आश्चर्य तो इस बात को लेकर है कि अधिनियमत के नियमन के वक्त किसी का ध्यान गरीबों की संख्या पर नहीं गया। जब यूपीए की अध्यक्षा सोनिया गांधी ने इस ओर ध्यान दिलाया तो नई चर्चा शुरू हुई। वैसे भी अपनी सरकार मंहगाई को कम नहीं करने की बात जब खुलेआम कह रही है तो उसके मंशूबों से ताल्लुक रखने वाली चुप्पियों के भेद भी खुल्लमखुल्ला हो ही जाए। 'राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियमÓ के होहल्ला से पहले, सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश को याद कीजिए, जो गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को 2 रूपए किलो की रियायती दर से 35 किलो खाद्यान्न दिये जाने की बात कहता है। इसके बाद केन्द्र की यूपीए सरकार के 'राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियमÓ का मसौदा देखिए, जो गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को रियायती दर से महज 25 किलो खाद्यान्न की गारंटी ही देता है। मामला साफ है, मौजूदा खाद्य सुरक्षा का मसौदा तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ही कतरने (गरीबों के लिए रियायती दर से 10 किलो खाद्यान्न में कमी) वाला है। अहम सवाल यह भी है कि मौजूदा मसौदा अपने भीतर कितने लोगों को शामिल करेगा ? इसके जवाब में जो भी आकड़े हैं, वो आपस में मिलकर भ्रम फैला रहे हैं। अगर वर्ल्ड-बैंक की गरीबी का बेंचमार्क देखा जाए तो जो परिवार रोजाना 1 यूएस डालर (मौजूदा विनियम दर के हिसाब से 45 रूपए) से कम कमाता है, वो गरीब है। भारत में कितने गरीब हैं, इसका पता लगाने के लिए जहां पीएमओ इकोनोमिकल एडवाईजरी कौंसिल की रिपोर्ट ने गरीबों की संख्या 370 मिलियन के आसपास बतलाई है, वहीं घरेलू आमदनी के आधार पर, सभी राज्य सरकारों के दावों का राष्ट्रीय योग किया जाए तो गरीब रेखा के नीचे 420 मिलियन लोगों की संख्या दिखाई देती है। यानि गरीबों को लेकर केन्द्र और राज्य सरकारों के अपने-अपने और अलग-अलग आकड़े हैं। इसके बावजूद गरीबों की संख्या का सही आंकलन करने की बजाय केन्द्र सरकार का यह मसौदा, केवल केन्द्र सरकार द्वारा बतलाये गए गरीबों को ही शामिल करेगा। आ र्थिक पंडितों का मानना है कि राष्ट्रीय आय में वृध्दि जिस दर से होती है कोई जरूरी नहीं कि उसी दर से देश की गरीबी घटे। लेकिन आर्थिक नियम यह भी कहते हैं कि अगर राष्ट्रीय आय में वृध्दि होती है तो इसका अंश देश की जनता में बंटता है। बंटवारा समान हो या असमान इसकी जवाबदेही आर्थिकी की नहीं होती, सरकार की होती है। सरकार यह जवाबदेही तय करती है कि विकास के साथ समानता भी पनपे। लेकिन विकास और समानता सहचरी हो, यह समस्या भारत के सामने ही नहीं बल्कि उन सारे देशों के सामने है जो आज विकास की दौड में हैं। भारत के सामने यह समस्या कुछ ज्यादा ही विकराल भले ही हो। गरीबी पर सुरेश तेंदुलकर की आई रिपोर्ट कुछ ऐसी ही कहती है। रिपोर्ट के अनुसार भारत का प्रत्येक तीसरा व्यक्ति गरीब है। आर्थिक क्षेत्र में छलांग लगाते भारत के लिए यह रिपोर्ट किसी शर्म से कम नहीं। रिपोर्ट तो आखिर कागजी सुबूत है जो सर्वे के आधार पर तय किए जाते हैं। सर्वे कोई भी हों उसका एक राजनीतिक पहलू अवश्य होता है। तभी तो गरीबी राजनीति के लिए सबसे लोकप्रिय हथकंडा मानी जाती है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि देश में गरीबी एक अलग समस्या है जबकि उसका मापदंड तय करना उससे अलग समस्या। यहां मापदंड से अर्थ उसे तय करने की नीतियों और तरीकों से है। आज अहम सवाल सामने यह है कि देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की वास्तविक संख्या कितनी है? मौजूदा समय में सरकार के पास चार आंकड़े हैं और चारों भिन्न-भिन्न। इसमें देश की कुल आबादी में गरीबों की तादाद 28.5 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक बताई गई है। इन दोनों में से कौन सा आंकडा सही है यह सरकार को ही तय करना है। तीन दशक पहले के आर्थिक मापदंड के अनुसार देश में गरीबी रेखा से नीचे आने वाली आबादी कुल जनसंख्या की 28.5 प्रतिशत है। अभी तक यही आंकडा सरकार दिखाती आई थी, जिसमें गरीबी पिछली गणना से कम दिखती है। इस सरकारी आंकलन को सरकार द्वारा ही गठित तीन समूहों ने खारिज कर दिया है। योजना आयोग द्वारा गठित एसडी तेंदुलकर की रिपोर्ट ने बताया कि वर्ष 2004-05 में गरीबी 41.8 प्रतिशत थी। जबकि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा गठित एनसी सक्सेना समिति के अनुसार देश में 50 प्रतिशत यानी आधी आबादी निर्धन है। समस्या सिर्फ इन आंकड़ों के साथ ही नहीं है। गरीबी की प्रतिशत और गरीबी रेखा का निर्धारण इतना पेंचीदा काम है कि सरकार की विभिन्न समितियां भी इसे साफ नहीं कर पातीं। लेकिन विशेषज्ञों की मानें तो सरकार इसे जानबूझ कर पेंचीदा बनाए रखना चाहती है जिसका सरल उदाहरण विभिन्न समितियों का विभिन्न आंकडे पेश करना है। आश्चर्यजनक रूप से तेन्दुलकर की यह रिपोर्ट सेनगुप्ता कमेटी की उस रिपोर्ट को भी झूठा साबित कर रही है जिसमें उन्होंने देश की अस्सी फीसदी आबादी को 20 रुपये प्रतिदिन पर गुजारा करने की बात कही थी। यानी महीने में 600 रुपये पर। तेन्दुलकर का कहना है कि असल में भारत में 41 प्रतिशत से अधिक आबादी 447 रुपये मासिक पर गुजारा कर रही है जो कि सेनगुप्ता के बीस रुपये प्रतिदिन से काफी कम है। इनसे यही बात साफ होती है कि गरीबी रेखा को लेकर ही जब इतनी दुविधा है तो फिर उसके उन्मूलन पर कार्यान्वयन की स्थिति कैसी होगी। जो गरीब हैं वे और गरीब होंगे।

Friday, April 9, 2010

कवर से कवरेज

मार्केटिंग के इस युग में फिल्मी कलाकरों को भी अपनी मार्केटिंग खुद ही करनी पड़ती है। उनकी इसी मार्केटिंग का एक जरिया है मैग्जीन के कवर पर छपना। इसके जरिये एक ओर तो यह कलाकार अपनी नई छवि से लोगों को परिचित करवाते हैं, वहीं दूसरी ओर उनको भुला चुके लोगों के बीच एकाएक नए रूप में आकर अपनी यादें ताजा भी कर देते हैं। आजकल मैग्जीन का कवर बनना कलाकार और मैग्जीन दोनों के लिए फायदेमंद है। बदलते जमाने में बॉलीवुड के कलाकार भारत की दहलीज लांघकर इंटरनेशनल ब्रांड बन रहे हैं और भारत की मैग्जीन के कवर पर छपने वाले यह कलाकार अंतरराष्ट्रीय मैग्जीन में भी अपना स्थान बना रहे हैं, वह भी ग्लैमर और स्टाइल के साथ। ये फैशन और लाइफ स्टाइल मैग्जीन कलाकारों के लिए स्टेटस सिंबल की तरह है। किसी को अपनी इमेज चेंज करनी हो या किसी को अपनी डूबती नैया को उबारना हो या पिक्र अपने सेक्सी लुक से जमाने को दीवाना बनाना हो तो इसके लिए मैग्जीन के कवर पेज से बेहतर कुछ भी नहीं है। पूरी की पूरी कहानी एक ही पेज में बयां हो जाती है, वह भी बिना कलम चलाए। ऐश्वर्या राय, प्रियंका चोपडा, करीना कपूर, बिपाशा बासु ने मैग्जीन के कवर पर छपने की जिस पंरपरा की शुरुआत की थी, सोहा अली खान, कैटरीना कैफ, नेहा धूपिया ने उसी पंरपरा को आगे बढाने में एक अहम भूमिका निभाई है पर अब तो मैग्जीन का कवर एक हथियार में तब्दील हो चुका है, जिसका उपयोग युवा अभिनेत्रियां खुद को चर्चित करने के लिए करती हैं। यह अभिनेत्रियां फिल्मों में आने से पहले ही मैग्जीन के कवर पर हॉट पोज में छपकर लोगों के साथ-साथ मीडिया को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेती हैं। ऐसी हीरोइनों की लिस्ट काफी लंबी है, जिन्होंने कवर पेज के जरिए खुद को मशहूर बनाया। कैटरीना कैफ- हालांकि कैटरीना को बॉलीवुड का हिस्सा बने अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है पर कई बडे ब्रांड में ऐश्वर्या के स्थान पर उनको लिया जाना उनकी ब्रांड वैल्यू को बखूबी बयां करता है। किसी भी मैग्जीन के कवर पर स्थान बनाने वालों में कैटरीना पहले स्थान पर हैं क्योंकि अपने छोटे से कॅरियर में फैशन और लाइफ स्टाइल की ज्यादातर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मैगजीन के कवर पर कैटरीना स्थान बना चुकी हैं। इनमें मैग्जीमा, कॉस्मोपॉलीटन, हेलो और कौल आदि प्रमुख हैं। करीना कपूर- कई पिक्ल्मी मैग्जीन के कवर पर छपने वाली करीना को वैसे तो पकेटो सेशन करवाने में कोई खास दिलचस्पी नहीं है, मगर पिक्र भी गाहेद्ब्रबगाहे वह भी अंतरराष्ट्रीय पर्तिकाओं के कवर पर आती रही हैं। इनमें से प्रमुख है ञहेलोञ और ञटाइम आउटञ। जिनमें से हेलो और टाइम आउट प्रमुख हैं। टाइम आउट एक न्यूज मैग्जीन है और इसके कवर पर छपना किसी भी भारतीय के लिए किसी सपने के सच होने जैसा ही है ऐश्वर्या राय-ऐश्वर्या राय एक ऐसी भारतीय कलाकार हैं, जिन्होंने बॉलीवुड और हॉलीवुड दोनों जगह अपनी सफलता का परचम लहराया है। इंटरनेशनल मैग्जीन टाइम के कवर पर छपकर ऐश्वर्या राय ने भारतीय कलाकारों को एक नया मुकाम दिया था। यह उपलब्धि इस लिहाज से भी थी क्योंकि इससे पहले टाइम के अधिकांश संस्करणों में विश्व की प्रसिद्ध राजनीतिक हस्तियां ही अपना स्थान बनाया करती थी। यह पहला मौका था जब बॉलीवुड की एक न्यू कमर उसके कवर पर आयी थी। देश की तमाम मैगजीन के कवर पर छपने वाली ऐश्वर्या एक और इंटरनेशनल मैग्जीन इस्टाइल के कवर पर भी छप चुकी हैं। शादी के बाद फिलहाल ऐश्वर्या ने ऐसे कवर से तौबा कर ली है। नेहा धूपिया-कई छोटी-मोटी मैगजीन के कवर पर छपने के बाद नेहा धूपिया ने पुरुषों की मैगजीन द मैन में छपकर लोगों को स्तब्ध कर दिया। वैसे नेहा हमेशा से अपनी सेक्सी छवि के लिए ही पहचानी जाती रही हैं, पर उन्हें इस रूप में देखना लोगों के लिए नया अनुभव था। इस कवर ने नेहा को भुला चुके लोगों के दिमाग में फिर से उनकी यादें ताजा कर दी हैं। सोहा अली खान-बॉलीवुड के कलाकारों के व्यत्तिक्त्व को बदलने वाली सबसे प्रमुख मैग्जीन है मैग्जीम पिछले दिनों सोहा अली खान की बिकनी में फोटो छापकर इस मैग्जीन ने बरबस लोगों का ध्यान इसकी ओर खींच लिया। सोहा के इसके कवर पर छपने से एक ओर तो सीधी-साधी भारतीय बाला सोहा की इमेज में जबरदस्त बदलाव आया, वहीं इस कवर ने मैग्जीन को लोगों में चर्चित बनाने का भी काम किया।

Saturday, April 3, 2010

शिक्षा अधिकार कानून कितना कारगर

संविधान में शिक्षा को मौलिक अधिकार के रुप में शामिल किए जाने के करीब आठ साल बाद अब जाकर केंद्र सरकार ने देश के 6 से 14 साल के सभी बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का रास्ता खोल दिया है। वहीं दूसरी ओर निजी स्कूलों का अपने हितों की रक्षा के नाम पर इस कानून का पुरजोर विरोध करना, कानून को संशय में डाल रहा है। वैसे तो वर्ष 2002 में 86वें संशोधन में शिक्षा को मूलभूत अधिकार के रूप में शामिल कर लिया गया था पर 2009 में शिक्षा का अधिकार बिल पास हो सका और अब लगभग आठ साल बाद शिक्षा का अधिकार का यह कानून एक अप्रैल से लागू हो गया है। कानून तो लागू हो गया पर इसे अमल में लाने की राहें उतनी आसान नहीं, जितनी दिखती हैं। दरअसल इसका असली इम्तिहान तो इसके लागू होने के बाद ही शुरू होगा। वैसे तो इस कानून की कई खासियते हैं जैसे 6 से 14 के आयु वर्ग के बच्चों को अनिवार्य शिक्षा, 40 छात्रों के पीछे एक शिक्षक, स्कूल में लाइब्रेरी, क्लासरुम, खेल का मैदान, पूरे शिक्षा सत्र के दौरान कभी भी प्रवेश के साथ-साथ अब निजी स्कूलों को भी 25 फीसदी सीट गरीब बच्चों के लिए आरक्षित करनी होगी। लेकिन केंद्र के नए मॉडल रूल के मुताबिक, राज्यों में पहली से पांचवीं कक्षा के बच्चों के लिए उनके रहने के स्थान के एक किलोमीटर की दूरी पर स्कूल होना चाहिए। छठी से आठवीं कक्षा के लिए तीन किमी के दायरे में स्कूल बनाना होगा पर सरकारी आंकड़ों की मानें तो आठ फीसदी के करीब आबादी ऐसी है जिसे तीन किमी के भीतर अपर प्राइमरी स्कूल की सुविधा तक मुहैय्या नहीं है। मानव संसाधन मंत्रालय के तहत एजूकेशन कंसलटेंट्स इंडिया लिमेटेड के सर्वेक्षण की ही मानें तो देश में 6 से 13 साल के बीच के 81 लाख से ज्यादा बच्चे ऐसे हैं जो स्कूलों से बाहर हैं। इनमें से 74 फीसदी से अधिक ऐसे हैं जो कभी स्कूल की दहलीज तक नहीं पहुंचे। 25 प्रतिशत से कुछ ज्यादा पढ़ाई बीच में छोड़ देने वालों की कतार में हैं। स्कूल तक नहीं पहुंचने वाले बच्चों में सबसे ज्यादा मुस्लिम वर्ग के 7.67 फीसदी हैं, जबकि अनुसूचित जाति वर्ग के 5.96 और जनजाति वर्ग के 5.60 फीसदी बच्चे हैं। यह सरसरी तौर पर किए गए सर्वेक्षण के सरकारी आकड़े है। स्थिति इससे काफी गंभीर है। साथ ही चूंकि यह शिक्षा का अधिकार कानून छह से 14 साल के बच्चों के लिए है। लिहाजा यह तादाद इस आंकड़े से कहीं ज्यादा है। फिलहाल तो इन बच्चों को स्कूल तक लाना सबसे बड़ी चुनौती होगी। वैसे इस कानून को लेकर केंद्र सरकार कितनी संजीदा है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस कानून के लागू होने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्र के नाम संदेश दिया। यह पहला मौका था जब आजाद भारत में प्रधानमंत्री ने किसी कानून को लेकर देश को संबोधित किया। इतना तो तय है कि इस कानून की खामियों से प्रधानमंत्री भी अवगत हैं शायद इसीलिए अपने संबोधन में वह इन खामियों की दुखती रग को छुए बिना नहीं रह सके। वैसे भी अभी से शिक्षा अधिकार कानून सवालों के घेरे में है। एक तरफ इसकी आंच सरकारी स्कूलों पर आने वाली है वहीं दूसरी ओर देश भर में इसके लागू होने के साथ ही इस कानून को लेकर दिल्ली के ही कई पब्लिक स्कूलों ने कड़े तेवर अपना लिए हैं। राजधानी के पब्लिक स्कूल संगठनों ने साफ कर दिया है कि शिक्षा अधिकार बिल को आधार बनाकर वह अपनी शिक्षा प्रणाली में किसी भी प्रकार का बदलाव नहीं करेंगे फिर चाहे इसके लिए उन्हें सडक़ों पर ही क्यों न उतरना पड़े। अभी तो विरोध केवल राजधानी तक सीमित है पर शिक्षा के व्यवसाय बनाने वालों की पूरे देश में कोी कमी नहीं और वे भी इस बिल का पुरजोर विरोध करेंगे। वैसे तो मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल और सरकार इस कानून के लेकर काफी सख्त दिख रहीं है और सभी निजी और अल्पसंख्यक स्कूलों को यह निर्देश जारी कर दिया गया है कि उन्हें अपने यहां 25 फीसदी सीट गरीब बच्चों के लिए आरक्षित करनी ही होगी। जो भी इसका उल्लंघन करेगा, उसे दंडित किया जाएगा। पर फिर भी आज के ये शिक्षा व्यवसायी इतने भी कमजोर नहीं है जिन्हें आसानी से इसके लिए राजी किया जा सके। इस कानून के लागू होने से इन विरोधों के अलावा भी ऐसी कई चुनौतियां हैं जिसका सामना सरकार को करना पड़ेगा। इस कानून को अमल में लाते हुए बच्चियों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की जरूरतों पर खास ध्यान देना होगा और इन्हें स्कूलों तक लाना सबसे बड़ी चुनौती होगी। साथ ही सेक्स वर्कर्स व विस्थापितों के बच्चों और कामकाजी बच्चों को भी स्कूल तक पहुंचाने में सरकार को काफी मशक्कत करनी होगी। खासतौर पर काम करने के लिए दूसरी जगहों पर गए बच्चों को कैसे समीपवर्ती स्कूल के दायरे में लाया जाएगा, यह स्पष्ट होना अब भी बाकी है। फिलहाल केंद्र सरकार अपनी पीठ थपथपाकर इस कानून को शिक्षा के क्षेत्र में केंद्र सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि बता रही है जबकि संविधान में पहले से ही यह प्रावधान है और 2002 में हुए 86वें संशोधन में भी शिक्षा के अधिकार की बात कही गई थी। लेकिन सरकार इसपर अब जाकर यह कानून ला पायी है। इन आठ सालों में बच्चों की पूरी एक पीढ़ी इस अधिकार से बाहर हो गई। खैर जो हुआ सो हुआ। अब तो यही आशा की जा सकती है कि यह कानून भलीभांति लागू हो जाए जिसकी संभवना फिलहाल तो कम है।

नीलम