Friday, May 21, 2010

तस्वीरों में राजीव

श्रद्धा सुमन और नमन लाडला था जो नाना और माँ का जीवन था परिवार का बिताये थे हसीं पल जिसके साथ छाया था किसी का कई बार बचा और लड़ा जो हमलों से पर इस बार बच सका साजिशो से कभी करता था जो लोगों को याद आज बस गया है यादों में और छोड़ गया है आँखों में नमी याद करते है उसे हरपल हम भर आँखों में नमी और दिल में श्रद्धा

Thursday, May 20, 2010

खाप पंचायतों का तानाशाही का सफर

एक समय था जब हरियाणा, पश्चिमी उप्र और राजस्थान की विवादित फैसले करने में माहिर खाप पंचायतों ने समाज की कई बुराईयों को खत्म करने का काम किया था। समय के साथ इनके समाज निर्माणक कार्य समाज विरोधी होते गए और इन पंचायतों ने तानाशाही रुख अख्तियार कर लिया। क्यों और कैसे इनके समाज सुधारक काम समाज विरोधी हो गए उसी की पड़ताल करता है आलेख- हरियाणा, पश्चिमी उप्र और राजस्थान में खाप पंचायतें अपने विवादास्पद सामंती फैसलों के चलते हमेशा से सुर्खियों में रही है। जब भी समाज में इनके खिलाफ विद्रोह की आवाज उठती है तो ये खाप पंचायतें अपने फैसलों को सहीं ठहराते के लिए समाज और संस्कृति को बचाने की दुहाई दे दिया करती थीं। उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में जातीय खापों का, पंचायतों और समाज में दबदबा कायम है। हरियाणा, पंजाब और पश्चिम उप्र में इन खापों की तूती बोलती है। इनमें सदियों से जनता के इकरार की मोहर लगती आई है। खापों के फैसले बिना जनसमर्थन के नहीं होते। प्राचीन होने के साथ ही ये सर्वखाप पंचायते समाज का सुरक्षा चक्र बन गई। जिसके कारण इनका वर्चस्व सदियों से आज भी उसी तरह बरकरार है। हालांकि अधिकारिक तौर पर ये मान्यता प्राप्त पंचायतें नहीं है मगर इसके अनुयायियों ने इसे देश की किसी न्यायिक संस्था के समकक्ष बना दिया है। इसे इन पंचायतों का दबदबा ही कहेंगे कि हरियाणा के झज्जर की खाप पंचायत ने सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय को धत्ता बताते हुए एक प्रेमी युगल को गांव से बाहर रहने को मजबूर कर दिया। इसी तरह पिछले दिनों हरियाणा के करनाल की एक खाप पंचायत सुर्खियों में थी। कारण था वह ऐतिहासिक फैसला जो करनाल की एक अदालत ने इससपंचायत के खिलाफ सुनाया था। मामला तीन वर्ष पहले का है। कैथल जिले में खाप पंचायत ने एक खूनी फैसला किया था जिसके तहत वर्ष 2007 में करौंरा गांव निवासी 23 वर्षीय मनोज और 19 वर्षीय बबली को प्रेम विवाह करने पर मौत की सजा सुनाई गई थी और दोनों को बेरहमी से मार दिया गया था। तीन वर्ष के इंतजार के बाद खाप पंचायत के खिलाफ अदालत का यह फैसला एतिहासिक है। ऐतिहौसिक इसलिए क्योंकि आज तक किसी भी खाप पंचायत को किसी अदालत ने सजा नहीं सुनाई हैं। आज भी खाप, कानून और समाज में आए बदलाव और तमाम विकासवादी विचारधाराओं को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। खाप पंचायतों का इतिहास हरियाणा, पश्चिमी उप्र और राजस्थान के बड़े हिस्से में खापें किसी जाति के अलग-अलग गोत्र की पंचायतें होती हैं। ये एक ही गोत्र के भीतर होने वाले किसी विवाद के निपटारा करती हैं। खाप पंचायतों का स्वरूप आज का नहीं, वरन सैकड़ों साल पुराना है। इस समय देश भर में 465 खापें हैं। जिनमें सर्वाधिक हरियाणा में 69 खाप और दूसरे नम्बर पर पश्चिमी उप्र है जहां करीब 30 खाप अपने पुराने स्वरूप में जीवंत हैं। इन खापों का इतिहास भी बड़ा रोचक रहा है। सर्वखाप का अस्तित्व महाराजा हर्षवर्धन के काल से (सन् 643) है। पश्चिम उप्र में इस महापंचायत का मंत्री मुजफ्फरनगर जिले के सोरम गांव का हुआ करता था। कुछ वर्ष पूर्व तक चौधरी कबूल सिंह इसके मंत्री रहे। मुगल बादशाह बाबर ने सर्वखाप पंचायत का लोहा मानकर सोरम गांव के चौधरी को 1528 में वहां जाकर एक रुपए सम्मान का और 125 रुपए पगड़ी के लिए जीवन भर देते रहे। पहली सर्वखाप पंचायत 1199 में टीकरी मेरठ में हुई थी। इसके बाद दूसरी पंचायत 1248 में नसीरूद्दीन शाह के विरूद्ध। 1255 में भोकरहेडी में, 1266 में सोरम में, 1297 में शिकारपुर में, 1490 में बडौत में और इसके बाद 1517 में बावली में सबसे बड़ी पंचायतें हुई। वह दौर विदेशी अक्रमणकारियों का दौर हुआ करता था और पंचायतों में मुल्क की हिफाजत, गांव-खेड़े की रक्षा आदि विषयों पर गहन मंथन हुआ करता था। काफी समय तक सर्वखाप पंचायतों का आयोजन विदेशी आक्रांताओं से लोहा लेने के लिए होता रहा। जब भी बाहरी अक्रांताओं के आक्रमण हुए सर्वखाप ने उनकों खदेडने के लिए बादशाहों और राजाओं की सहायता की। 1194 में कुतुबुद्दीन ऐबक के विरूद्ध, सन् 1197 में जजिया कर के विरूद्ध, सनड्ढ् 1759 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में सदाशिव राव भाऊ के साथ पश्चिम उप्र और हरियाणा की सर्वखापों ने युद्ध लड़े जीते। सर्वखापों ने गुलामी का वह दौर भी देखा जब देशभक्तों को सरेआम फांसी पर लटका दिया जाता था। आजादी के बाद सर्वखाप पंचायतों का स्वरूप बदला और एक सर्वजातीय सर्वखाप पंचायत 8 मार्च 1950 को सोरम में आयोजित हुई। तीन दिन तक चली इस पंचायत में पूरे देश की सर्वखाप पंचायतों के मुखियाओं ने भाग लिया। इस पंचायत के बाद दूसरी सबसे बड़ी सर्वखाप पंचायत 19 अक्टूबर 1956 को सोरम में ही आयोजित हुई। पंचायत की अध्यक्षता जगदेश सिंह शास्त्री ने की थी। इस महापंचायत में चौधरी रामस्नेही प्रधान काकड़ा, चौधरी बलवीर सिंह, चौधरी लालसिंह पहलवान, शोरो खान साहब मोहम्मद हसन शाहपुर आदि प्रमुख रूप से मौजूद रहे। पंचायत के मुख्य रूप से तत्कालीन आर्य पेशवा राजा महेन्द्र प्रताप सिंह उपस्थित रहे। मुख्य खाड़े, शस्त्र और बाजे प्राचीन काल में खापों के अखाड़े और अपने अस्त्र-शस्त्र हुआ करते थे। अखाड़ों में मुख्य रूप में इस्सोपुर टील, कुरूक्षेत्र, कुटबा, गढ़मुक्तेश्वर, बदायु, मेरठ, मथुरा, दिल्ली, रोहतक, सिसौली, शुक्रताल थे। इन अखाड़ों में सभी प्रमुख खापों की बैठक हुआ करती थी। परंपरागत शस्त्र की बात करे तो उनमें मुख्य रूप से खुकरी, कटारी, तीरकमान, ढाल, तलवार, पेशकब्ज, फरसा, बरछी, बन्दूक और भाला आदि था। बाजों में ढपली, ढोल, तासे, नागफणी, रणसिंघा, शंख और तुरही थे जिसमें रणसिंघा और तुरही आज भी अपने स्वरूप में विद्यमान है और पंचायत के समय बजाई जाती है। देशहित के फैसले आज जो खाप पंचायतों का रुख है वह हमेशा से ऐसा नहीं था। एक समय था जब आज के विवादित निर्णयों के लिए पहचानी जाने वाली ये पंचायतें देश हित के कई बड़े गंभीर-महत्वपूर्ण निर्णयों लिए जानी जाती थीं। पंचायत में कई महत्वपूर्ण फैसले लिए गए। जिसमें दहेज लेने और देने पर दोनों पक्षों को बिरादरी से बाहर करने की बात सर्वसम्मति से पास की गई। इसके अतिरिक्त शादी-ब्याह में कम से कम बराती ले जाने और अनाप-शनाप खर्चे पर रोक लगाने का फरमान भी पास किया गया। सर्वखाप पंचायत के सुधार कार्यों का इतिहास एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। खापों की सामाजिक क्रांति आंदोलन ने ग्रामीण समाज के दृष्टिड्ढकोण को बिल्कुल बदल कर रख दिया। जहां लोग बड़ी-बड़ी बारात ले जाना अपनी शान समझते थे वहां पंचायत के इस फरमान से इस पर प्रतिबंध लग गया। मुजफ्फरनगर, मेरठ, सहारनपुर, बुलंदशहर, मुरादाबाद, अलीगढ़, बदायुं, बिजनौर, मथुरा, रोहतक, गुडगांवा, करनाल जिलों के अतिरिक्त राजस्थान के कई जिलों में इनका विस्तार हुआ और समाज सुधार के आंदोलन की बयार तेज हुई। सर्वखाप पंचायतों में पर्दा प्रथा और जेवर प्रथा भी खत्म करने की बात कही गई। विवादित फैसलों ने बिगाड़ा स्वरूप पंचायतों का दौर जारी रहा। निर्णय लिए जाते रहे। जिनमें कुछ विवादित रहे तो कुछ सामज को हित पहुंचाने वाले। बदलते समय के साथ वर्तमान में सर्वखाप पंचायतों का पूरा स्वरूप ही बदल गया। बावली की वर्ष 2002 और शोरम की 2006 की सर्वखाप पंचायतों के असफल होने के पश्चात ग्रामीण क्षेत्रों में सर्वखाप पंचायतों की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्नड्ढ लग गया। भारतीय ग्रामीण परिवेश में तेजी से आए बदलाव और नई पीढ़ी की युवा सोच के आगे पंचायतों के आदेश बेमानी सिद्ध होने लगे। पढ़ाई और युवाओं में आए क्रांतिकारी बदलाव ने पंचायती फैसलों के खिलाफ बगावती सुर उठाने शुरू कर दिए। मीडिया के माध्यम से ग्रामीण युवाओं ने पंचायती फैसलों का विरोध करना शुरू कर दिया। फलस्वरूप युवाओं के इन फैसलों के विरूद्ध पंचायते हिंसक फैसले देने लगी। इस तरह के विवादित फैसले पश्चिम उप्र में तो कम हुए लेकिन हरियाणा खासकर दिल्ली से सटे एनसीआर में अधिक सुनाई दिए। हरियाणा में तो बीते पांच सालों के दौरान खाप पंचायतों ने संविधानोत्तर संस्था की छवि बना ली। वर्ष 2009, 23 जुलाई में हरियाणा के जींद में सर्वखाप पंचायत के आदेश पर भीड़ ने एक युवक की नृशंस हत्या कर दी। उसका गुनाह था उसने अपने ही गोत्र की एक लडकी से शादी कर ली थी। गैर सरकारी संगठनों और मीडिया रिपोर्ट की माने तो हरियाणा में वर्ष 2009 में सैकड़ों जोड़ों को समान गोत्र में शादी करने पर मौत की सजा सुनाई गई। हरियाणा की बनवाला खाप ने जून 2007 में कैथल में करौंरा गांव के रहने वाले 23 वर्षीय मनोज और 19 वर्षीय बबली को मौत की सजा सुनाई। वर्ष 2004 में उप्र के मुरादाबाद के भवानीपुर गांव में एक युवक ने दूसरी जाति की लडकी से शादी कर ली। लडकी इलाके के प्रभावशाली व्यक्ति की पुत्री थी। खाप पंचायत ने फैसला सुनाया कि लडके की मां के साथ बलात्कार किया जाए। ऐसा ही हुआ लडके की मां के साथ बलात्कार हुआ और सबूत मिटाने के तौर पर उसे जिंदा जला दिया गया। वर्ष 2007 में हरियाणा के रोहतक में डीजे बजाने पर पाबंदी लगा दी गई। रूहल खाप द्वार लगाई गई यह पाबंदी का कारण तेज आवाज से दुधारू पशुओं पर असर पडना बताया गया। 2007 में ही ददन खाप ने जींद में क्रिकेट खेलने पर प्रतिबंध लगा दिया। खाप पंचायत का तर्क था कि इससे लडके बर्बाद होते हैं, वे लड़ाई करते हैं और मैच पर सट्टा लगाते हैं। हरियाणा के सोनीपत की गोहना तहसील के नूरनखेड़ा गांव निवासी 70 वर्षीय बलराज ने छपरा (बिहार) निवासी 14 वर्षीय आरती से विवाह कर लिया। नूरनखेड़ा गांव की खाप पंचायत ने इस बेमेल फैसले को जायज ठहरा दिया। करीब दो साल पहले मुुजफ्फनगर जिले के हथछोया गांव में सगोत्री प्रेम विवाह करने पर युवक-युवती की हत्या कर दी गई थी। लगभग पांच वर्ष पूर्व लखावटी के पास हुई एक पंचायत में प्रेमी युगल को बिटौडे में जला दिया गया था। इस हत्याकांड की गूंज तत्कालीन सरकार के मुखिया मुलायम सिंह के पास तक पहुंची, लेकिन कार्रवाई के नाम पर महज खानापूर्ति ही हो पाई। इतना सब होने के बाद भी ये पंचायतें बदस्तूर अपने ठर्रें पर चसती रहीं क्योंकि इन खापों को राजनीति संरक्षण प्राप्त हैं। चुनावों के दौरान खाप अपने पंसदीदा उम्मीदवार का चयन करती है और पूरी बिरादरी उसी को वोट देती है। यय जानकार कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि बीते लोकसभा चुनाव के दौरान पश्चिम उप्र में चुनाव लडने वाले चाहे रालोद के चौधरी अजित सिंह रहे हो या फिर भाजपा के हुकुम सिंह। दोनों ही खापों के आगे नतमस्तक नजर आए। हरियाणा के नरवाना जिले की 46 खापों ने एक सुर से बिना किस झिझक हिंदू विवाह अधिनियम को खारिज कर दिया। उन्होंने ऐलान कर दिया कि जो भी नेता वोट मांगने आएगा पहले उसे नए कानून का वादा करना होगा। हरियाणा के मुख्यमंत्री भुपिंदर सिंह हुड्डा भी इसे एक सामाजिक मसला बताकर इसके दिए फैसले में हस्ताक्षेप से इंकार कर दिया। यह पहला मौका है जब अदालत ने किसी खप के खिलाफ फैसला सुनाया है। हो सकता है यह फैसला भविष्य में इन खापों को अपना रुख नरम करने के लिए प्रेरित करें पर इसकी संभावना कम ही दिखती है क्योंकि सजा पाने वालों को सजा के बाद ही अपने किए का कोई मलाल नहीं हैं।

Saturday, May 15, 2010

कुर्सी के लिए कुछ भी करेगा

लोकतंत्र में जब बहुमत किसी भी दल को नहीं मिलता है और गठबंधन की राजनीति में स्वार्थ टकराता है तो स्थिति कैसी विचित्र हो सकती है, उसका नायाब नमूमा झारखंड से बेहतर मुश्किल है। पिछले एक पखवाड़ें से भी अधिक समय से कभी समर्थन तो कभी समर्थन वापसी को लेकर जिस प्रकार के सियासी दांव चले जा रहे हैं, उसके आधार पर तो यही कहा जा सकता है कि प्रदेश के राजनेता का ध्येय लोककल्याणकारी सरकार का गठन करना नहीं बल्कि अपने लिए एक अदद कुर्सी का इंतजाम भर करना रह गया है।
खबर लिखे जाने तक प्रदेश के राजनीतिक हालात बताते हैं कि सरकार भाजपा-झामुमो गठबंधन की होगी। कई दौर की बैठकों के बाद दोनों दलों ने 50-50 का फार्मूला तो तय कर लिया, लेकिन पहले कौन? इस पर सहमति बननी बाकी है। भाजपा की ओर से कहा जाने लगा कि पहला मुख्यमंत्री उसका और विधानसभा अध्यक्ष झामुमो का। लेकिन, झामुमो की ओर से मांग की गई कि पहले दौर की मुख्यमंत्री हमारा हो। दरअसल, शिबू सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा सत्ता के लालच में फंस गई है। उसने झारखंड में नई सरकार बनाने के लिए अब भाजपा के सामने नई शर्त रख दी है। हर दिन नए पैंतरे आजमाने वाली जेएमएम अब सत्ता में पहले भागीदारी चाहती है। झामुमो की मांग है कि रोटेशन के तहत झारखंड में पहले झामुमो का मुख्यमंत्री हो, जबकि भाजपा पहले अपना सीएम चाहती है। अगर भाजपा का सीएम हो तो, झामुमो का स्पीकर हो। भाजपा को झामुमो को सीएम और स्पीकर दोनों पद देना मंजूर नहीं है। सो, गतिरोध कायम है।
मुख्यमंत्री के नाम पर भी पार्टी में सहमति बन गई है। 28-28 माह सरकार चलाने के जबकि भाजपा खेमे में झामुमो के प्रस्ताव पर भी पार्टी में आम राय बना ली गई है। मुख्यमंत्री के लिए पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा, रघुवर दास व नीलकंठ सिंह मुंडा के नाम पर विचार किया गया है। भाजपा की ओर से आदिवासी होने के नाते अर्जुन मुंडा प्रबल दावेदार माने जा रहे हैं, कारण उन्हें सरकार चलाने का अनुभव भी है और आदिवासी वर्ग से आते हैं। लेकिन झामुमो की ओर से कौन होगा, स्वयं शिबू सोरेन भी पक्के तौर पर नहीं कह पा रहे हैं।
अब सवाल यह भी उठता है कि आखिर क्यों हुआ झारखंड में सियासी झमेला ? यह संकट उस वक्त शुरू हुआ, जब भाजपा ने 28 अप्रैल को झामुमो से समर्थन वापस लेने का फैसला किया। हालांकि, इस फैसले को रोककर रखा गया था। इसके एक दिन पहले ही राज्य के मुख्यमंत्री और सांसद शिबू सोरेन ने लोकसभा में भाजपा की ओर से लाए गए कटौती प्रस्ताव के खिलाफ वोट दिया था। प्रत्यक्ष तौर पर आम जनता यही कह रही है।
दूसरी तरफ, कांग्रेस रणनीतिकार लगातार एक-एक पल पर नजर गड़ाए हुए हैं। सूत्रों के हवाले से यह कयासबाजी भी की जा रही है कि सुबोधकांत सहाय मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब संजोए हुए हैं। कहा जा रहा है कि इसी रणनीति के तहत शिबू सोरेन से जुड़े तमाम पुराने मामलों के फाइल खंगाले जा रहे हैं। संभवत: इसी वजह से झामुमो को लगातार अपने बयान बदलने को मजबूर होना पड़ रहा है।
गौर करने योग्य यह भी है कि झारखंड के 82 सदस्यीय विधानसभा में इस नए गठबंधन के 45 सदस्य हैं। झामुमो और भाजपा के 18-18 विधायक हैं, आजसू के पांच और जदयू के दो विधायक हैं। इनके साथ दो निर्दलीय विधायक भी हैं। बहरहाल, यह भी खबर है कि झामुमो के कुछ विधायक इस नए समझौते से खुश नहीं हैं लेकिन पार्टी नेतृत्व को विश्वास है कि वह उन्हें मना लेगी।
चूंकि यह प्रदेश प्राकृतिक संसाधनों से लैस है। सो, प्रदेश में कार्यरत खनन माफिया भी अपने-अपने समर्थकों के बल पर सरकार गठन की प्रक्रिया को प्रभावित कर रहे हैं। आखिर, व्यापारियों को सरकार से पचासों काम कराने को होते हैं। तभी तो सियासी हलको में यह खबर उठने लगी है कि झारखंड का झमेला सुलझाने में राजनीतिक दल नाकाम हो चुकी है और अब खान माफिया यह तय करने में अपनी पूरी ताकत लगा रहा है कि अपने हित सुरक्षित करने के लिए वह किसकी सरकार बनाने में मदद करे। ऐसी स्थिति में इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि प्रदेश में सरकार झामुमो-भाजपा गठबंधन की बनें अथवा झामुमो-कांग्रेस गुट का, पैसे का बोलबाला होगा। विधायकों की खरीद-फरोख्त एक बार फिर होगी। ऐसे में इस सच को भी नहीं झुठलाया जा सकता है कि जो व्यापारी वर्ग सरकार बनाने में मदद करेगा, वह किसी प्रकार का अनैतिक आर्थिक लाभ नहीं उठाएगा। ऐसे में अपने गठन के नौ वर्ष बाद भी स्थायीत्व की बाट जोहता प्रदेश लूट-खसोट का नया केंद्र बनकर उभरेगा।
पुत्रमोह में शिबू हुए फेल
राजनीति में वंशवाद की बात करने वाले हरेक नेता अपने पुत्रों को अपेक्षित मुकाम दिलाने में पास रहे हैं, लेकिन झारखंंड के वर्तमान मुख्यमंत्री शिबू सोरेन अपने पुत्रमोह के कारण बार-बार फेल होते जा रहे हैं। हालिया झमेला भी उसी की परिणति है। बड़े भाई दुर्गा सोरेन के असमय गुजर जाने के बाद हेमंत सोरेन की राजनीतिक महत्वाकांक्षा बढ़ती गई। इस बार उसे लगने लगा कि वह अपने पिता का राजनीतिक वारिस है और प्रदेश का अगला मुख्यमंत्री भी। इस महत्वाकांक्षा को कुछ विधायकों ने हवा भी दे डाली। सो, हेमंत ने झामुमो कार्यकारिणी की बैठक बुलाई, साथ ही पार्टी के थिंक टैंकरों को भी। लेकिन, ऐन मौके पर कटौती प्रस्ताव के दौरान गुरूजी के मतदान ने सारा समीकरण ही बिगाड़ कर रख दिया। पुत्रमोह के कारण ही भाजपा के साथ फिर से साझेदारी करने की बात के बावजूद भी किसी ठोस पड़ाव पर नहीं पहुंच चुके हैं।

Saturday, May 1, 2010

जागो भारत जागो

अब वह दिन दूर नहीं जब भारतीय रसोई के जान पहचाने व्यंजनों को खान से पहले हमें अमेरिका या पाकिस्तान की इजाजत लेनी पड़ेगी। इसे पेटेंट कानून का दुरुपयोग कहें या सदुपयोग कि आज हर व्यंजन पर कोी न कोी व्यक्ति या देश कब्जा करना चाहता है। कुछ साल पहले दक्षिण भारत के एक प्रमुख होटल ने इडली वड़ा, मसाला डोसा आदि पर पेटेंट प्राप्त किया था। चूंकि एक देश को दिए गए पेटेंट किसी अन्य देश को नहीं दिए जा सकते, इसलिए इडली वड़ा, मसाला डोसा और ऐसे ही दूसरे व्यंजन किसी अन्य देश के पेटेंट कब्जे में नहीं जा सकते। यह सुखद व सराहनीय काम रहा। साथ ही यह उस भारतीय होटल का एक बुद्धिमानी भरा कदम था। अगर अपने देश के व्यंजनों को बचाना है तो अन्य भारतीयों को भी इसका अनुकरण करना चाहिए। वैसे भी हमारे तमाम चीजों पर लोगों की नज़र है। परंपरागत व्यंजनों के मामले में भी, आप संभवत: पहले ही यह सुन चुके होंगे कि जापान ने भारतीय मसालों के पेटेंट हासिल करने के लिए कैसे-कैसे प्रयास किए। नेस्ले ने पहले ही वेज पुलाव का पेटेंट हासिल कर लिया है। इसी दौरान ब्रिटिश शहर बर्मिंघम ने बाल्टी व्यंजनों पर यूरोपीय संरक्षण पाने का आवेदन किया है। इसी तरह पाकिस्तान में जन्मे ब्रिटिश सांसद मोहम्मद सरवर मसालेदार चिकन टिक्का पर पेटेंट हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं। उनका दावा है कि इसका आविष्कार स्काटलैंड के शहर ग्लासगो में 1970 में हुआ था। उन्होंने ब्रिटिश संसद के निचले सदन में प्रस्ताव पेश किया है और यूरोपीय संघ से समर्थन की मांग की है कि ग्लासगो को इस व्यंजन के आविष्कार का मूल अधिकार देने में सहयोग करे। फिलहाल आशा तो यही है कि भारत को चिकन टिक्का पर स्काटिश दावे के खिलाफ वैसी लड़ाई नहीं लडऩी पड़ेगी, जैसी उसे हल्दी पर हक हासिल करने के लिए लडऩी पड़ी। यह ज्यादा चिंता करने वाली बात नहीं है। वास्तव में बड़ा मसला और चिंता का विषय परंपरागत भोजन और व्यंजनों तथा अन्य तमाम वैज्ञानिक उपलब्धियों पर एकाधिकार नियंत्रण के वैश्विक प्रयासों को लेकर किए जा प्रयासों की है। विश्व बौद्धिक संपदा संगठन की आम सभा में भी पेटेंट कानून को सुगम बनाने पर चर्चा हुई। पेटेंट सहयोग संधि के नाम पर डब्लूआईपीओ जो प्रस्ताव आगे बढ़ा रहा है, वह अगर पारित हो गया तो यह सुनिश्चित हो जाएगा कि जिस पेटेंट को तीन देशों द्वारा स्वीकृति प्रदान कर दी जाएगी, वह अंतरराष्ट्रीय पेटेंट के रूप मान्य हो जाएगा। डब्लूआईपीओ जो प्रयास कर रहा है उसका मतलब है दुनिया में एकल पेटेंट कानून लागू करना। ऐसे में पेटेंट राष्ट्रीय संपदा नहीं रह जाएगा। दूसरे शब्दों में, इसका मतलब होगा कि विकासशील देश पेटेंट के लिए मानदंड निर्धारित नहीं कर पाएंगे। नई व्यवस्था के तहत दुनिया में किसी भी तीन स्थानों पर मौजूद पेटेंट कार्यालय की परीक्षण रिपोर्ट के आधार पर पेटेंट दे दिया जाएगा। इस रिपोर्ट को अंतरराष्ट्रीय पेटेंट की मान्यता के तौर पर स्वीकार किया जाएगा। यहां यह स्पष्ट करना बेहद जरूरी है कि वैश्विक पेटेंट का दायरा केवल चिकन टिक्का और बाल्टी तक ही सीमित नहीं रहेगा, बल्कि विकास की तमाम गतिविधियों तक इसका विस्तार रहेगा। हम देश के आर्थिक विकास में इन पेटेंट की अहमियत नहीं समझ रहे हैं। कोई भी यह देख सकता है कि परंपरागत पाककला और ज्ञान पर एकाधिकार पाने के लिए विश्वव्यापी दिलचस्पी प्रदर्शित की जा रही है। केवल तकनीकी श्रेष्ठता ही नहीं, बल्कि हमारा परंपरागत ज्ञान और उत्पाद विकसित देशों के हाथों में जा रहे हैं। खैर यह कोई बड़ा मसला नहीं है। यह प्रस्ताव विकासशील देशों के लिए बहुत घातक है। यह विकासशील देशों को वैज्ञानिक उपलब्धियों से वंचित करने का हथियार बन जाएगा और वैज्ञानिक शोध तथा प्रौद्योगिकी विकास पर विकसित व औद्योगिक देशों का कब्जा हो जाएगा। विकासशील देश इन देशों के लिए काम करने का केंद्र बनकर रह जाएंगे। गौर से देखें तो पेटेंट का यह पूरा खेल भद्दे स्तर तक पहुंच गया है। वैश्विक पेटेंट जल्द ही अंतरराष्ट्रीय मानक बन जाएंगे, मगर फिर भी हैरानी की बात है कि अब भी इस मुद्दे पर कोई सार्वजनिक बहस नहीं छिड़ी है। वैसे भी भारत में पेटेंट कभी भी राजनीतिक मुद्दा नहीं बनता है। पूर्व के उन उदाहरणों से भी हम आंखें फेर रहे हैं जिनमें विशुद्ध भारतीय नीम और हल्दी का पेटेंट कराने के प्रयास किए गए थे। इसके अलावा कई अन्य भारतीय व्यंजनों और खाद्यान्नों को भी एकाधिकार नियंत्रण का लक्ष्य बनाया जा चुका है। अब समय आ गया है, जब हमें विकसित देशों को उनके ही खेल में मात देनी चाहिए। भारत को पेटेंट के खतरों के प्रति सचेत होना चाहिए। मानव संसाधन विकास मंत्रालय तथा विज्ञान एवं तकनीक मंत्रालय को वाणिज्य मंत्रालय के सहयोग से लोगों में जागरूकता उत्पन्न करने तथा भारतीयों को अपनी परंपरागत कला पर पेटेंट हासिल करने के लिए प्रोत्साहित करने का अभियान छेडऩा चाहिए।

जलती चुभती गर्मी

गर्मी ने सबको हैरान परेशां कर रखा है चाहे जानवर हो या इंसान प्यास बुझाने के नए नए तरीके अजमाते रहते है और हा ठंडी चीज़े इन्हें भी भाती है आखिर कहा मिलेगा थोडा सुकून

नीलम