Wednesday, February 8, 2012

कहां प्लेस की जा रही हैं लड़कियां

पिछले आठ वर्षो के दौरान मानव तस्कर छत्तीसगढ़ के जनजातीय इलाके सरगुजा, रायगढ़ और जशपुर से भोली-भाली लड़कियों को नौकरी और प्रशिक्षण के नाम पर भगा कर ले जा रहे हैं। बाद में इन लड़कियों को दिल्ली, मुम्बई, बेंगलुरू और चेन्नई जैसे महानगरों में ले जाकर बेच (प्लेस कर) दिया जाता है। गौरतलब यह है कि ऐसे है आदिवासी इलाके जहां नक्सलियों की कुछ खास दखल नहीं है।

छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों से बड़े पैमाने पर लड़कियों की बिक्री किए जाने और उन्हें देश के महानगरों में बंधुवा बनाए जाने की घटनाओं ने राज्य शासन की नींद उड़ा दी है। राज्य के अलग-अलग हिस्सों से लगातार इस तरह की तरह घटनाएं सामने आ रही हैं। जिस समय एक्टर शाइनी आहूजा का अपनी आदिवासी नौकरानी के साथ रेप का प्रकरण चर्चा में था, उसी समय छत्तीसगढ़ की नाबालिग लड़कियों की मंडी के कहे जाने वाले जशपुर में मुंबई पुलिस का एक दल बंधक बनाई गई लड़की को छोडऩे के लिए आया हुआ था। यह इस बात का बड़ा सबूत है कि छत्तीसगढ़ की आदिवासी लड़कियां न सिर्फ बाहर भेजी जा रही है बल्कि बेची भी जा रही हैं। बावजूद इसके न तो मुख्यमंत्री डा.रमन सिंह इस बात को मानने को तैयार हैं और न ही गृहमंत्री ननकी राम कंवर। पिछले कई सालों से इन इलाकों से प्लेसमेंट एजेंसी के नाम पर अशिक्षित या अर्धशिक्षित गरीब आदिवासी युवतियों को घरों में काम दिलाने के बहाने शहरों में पहुंचा देना कोई मुश्किल काम नहीं है। फिलहाल सिर्फ दिल्ली में तकरीबन 200 प्लेसमेंट एजेंसियां है, जो छत्तीसगढ़ के सरगुजा, जशपुर के अलावा झारखंड के रांची, गुमला, पलामू आदि इलाकों से आदिवासी लड़कियों को घरेलू नौकरानी का काम दिलाने आकर्षित करती हैं। उनके निशाने पर हैं उरांव आदिवासी लड़कियां हैं जिनमें से अधिकांश ने मिशनरियों के प्रभाव में आकर इसाई धर्म अपना लिया है। इनके एजेंट का काम इन लड़कियों के वे रिश्तेदार करते हैं, जो कई साल पहले से ही इन महानगरों में काम कर रहे होते हैं।

दिल्ली की ज्यादातर प्लेसमेंट एजेंसियों के संचालक उत्तरप्रदेश, बिहार और झारखंड के संदिग्ध प्रवृति के लोग हैं। पहले ये खुद छत्तीसगढ़ जाकर लड़कियों को तलाश कर ले जाते थे लेकिन पिछले दो साल से जब इनके खिलाफ अंचल में आवाज उठने लगी है तो उन आदिवासी लड़की लड़कों का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो इन गांवों से पहले से ही निकलकर दिल्ली पहुंच चुके हैं। इन प्लेसमेंन्ट एजेंसियों ने स्वयंसेवी संगठनों और सरकारी विभागों की आंख में धूल झोंकने के लिए बहुत से नियम कायदे बना रखे हैं। जिनमें से एक यह भी है कि नाबालिग लड़कियों को काम पर नहीं रखा जायेगा। पर अब तक देखने में यही आया है कि उनके निशाने पर 8 से 14 साल की लड़कियां ही हैं। प्लेसमेंट एजेंसियां चलाने वाले ऐसी लड़कियां लाने वाले दलालों को आने-जाने का खर्च और 5 से 15 हजार रूपये तोहफे के तौर पर देते हैं। रोजगार की तलाश में ये युवतियां बड़े शहरों में पहुंचने के बाद असामाजिक तत्वों के चंगुल में फंस जाती हैं। वैसे तो गाहे बगाह कुछ लोगों कुछ लोगों को इस मामले में गिरफ्तार भी किया जाता है पर लड़कियों को बहला-फुसला कर बाहर ले जाने का सिलसिला थम नहींरहा है। लड़कियों को भारत के दिल्ली, मुम्बई, बेंगलुरू और चेन्नई जैसे महानगरों में तो प्लसमेंट दिया ही जाता है साथ ही इन लड़कियों को घरेलू काम कराने के बहाने से कुवैत और जापान तक भी ले जाया जाता है।
मानव व्यापार के मुद्दे ने 2007 में भी जोर पकड़ा था, जब मिशनरियों द्वारा संचालित कुनकुरी की स्वयंसेवी संस्था ने अपने सर्वेक्षण में 3718 युवतियों के गायब होने का खुलासा किया था। संस्था ने बताया था कि इन युवतियों को दिल्ली एवं अन्य महानगरों में बेचा गया। आदिवासी क्षेत्रों में लड़कियों को उठाने वाले दलालों के गिरोह भी सक्रिय हैं। वर्ष 2007 में तत्कालीन भाजपा विधायक राजलिन बेकमेन एवं राकपा के नोबेल वर्मा ने इस मामले को विधानसभा में भी उठाया था। पर मामला आया गया हो गया। छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाकों में मानव तस्करी का व्यवसाय अनवरत जारी है और सरकार इसके विरुद्ध आदिवासी क्षेत्रों में किसी भी कानून को सख्ती से लागू कर पाने में असफल रही है। दिल्ली और राज्य के कई स्वयंसेवी संगठनों की आवाज भी सरकार को इस मामले में कदम उठाने के लिए राजी नहींकर पा रही हैं।
राज्य के बिलासपुर, जशपुर, रायगढ़ और सरगुजा जिले में लड़कियों के अपहरण के कई मामले दर्ज हैं, जिनमें लगातार वृद्धि हो रही है पर यह ऐसे इलाके हैं जहां नक्सलियोंं की दखल कुछ कम हैं। इस तरह तो यही बात सामने आता है कि जिन क्षेत्रों में नक्सलियों का जोर है वहां की आदिवासी लड़कियों ज्यादा सुरक्षित हैं। गौर करने वाली बात यह है कि आज जिन आदिवासी इलाकों से लड़कियां गायब हो रही हैं वह ऐसे इलाके हैं जहां नक्सलियों का दखल कम है या न के बराबर है। आज जितनी भी प्लसमेंट एजेसियां छत्तीसगढ़ में अपना शिकार ढूढ़ रही हैं वह सब ऐसे इलाकों का ओर रूख नहींकरती जहां नक्सलियों का बोलबाला है। राज्य के बस्तर, दंतेवाड़ा, बीजापुर, कांकेर आदि जिलों में जहां नक्सलियों का राज चलता है वहां न तो प्लसमेंट एंजेसियां पूर्ण रूप से सक्रिय हैं और न ही मिशनरी।
प्रदेश भाजपा सरकार मानव तस्करी को रोक पाने में असफल है। परिणाम यह है कि मासूम, भोली-भाली आदिवासी बालाओं की खरीद-बिक्री छत्तीसगढ़ के आदिवासी जिलों में बेरोकटोक जारी है। शासन-प्रशासन इस ओर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं है। इस मामले को लेकर कई बार विधानसभा में भी सरकार से प्रश्न पूछे जा चुके हैं, लेकिन सरकार हमेशा इस पर गोलमोल जवाब देकर टाल देती है। सरकार की उदासीनता का ही परिणाम है कि आज यह संख्या 20 हजार का आंकड़ा पार कर चुकी है। सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहींझारखंड और उड़ीसा जैसे गरीब राज्यों के सीमावर्ती गांवों की आदिवासी बालाओं को प्लेसमेंट एजेंसी के नाम पर दलाल सुनहरे भविष्य का सपना दिखाते हैं और उन्हें बड़े शहरों में ले जाकर बेच देते हैं। कई समाजसेवी संगठनों का आरोप है कि ऐसे मामलों में एक ओर तो दूरदराज के क्षेत्रों से पुलिस थाने तक पहुंच पाना आदिवासियों के वश की बात नहीं है और अगर कोई पुलिस तक पहुंच भी जाता है तो पुलिस रिपोर्ट दर्ज करने से आनाकानी करती है।
अब फिर एक बार विधानसभा में यह मामला उठा है जो शायद हर बार तरह फिर विधानसभा खत्म होते-होते ठंडा पड़ जाएगा। ये समाज की एक बुराई है, जिसके पीछे दो ही कारण प्रमुख हैं एक तो गरीबी दूसरी सरकार की उदासीनता। भले ही इन दिनों छत्तीसगढ़ में न जाने कहां-कहां से लोग आ रहे हैं और रोजगार पा रहे हैं, पर जो मूल छत्तीसगढ़ी हैं, वे कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक मजदूरी करते पाए जाते हैं। यह दोहरापन आखिर क्यों? उन्हें अपने ही राज्य में रोजगार क्यों नहीं मिल पाता? क्यों विवश हैं वे और क्यों विवश है सरकार जो उनकी बेटियों को बिकता देखकर भी मौन है। फिर इसमें पुलिस की भूमिका भी सवालों के घेरे में है कि आखिर क्यों वह इन एंजेसियों पर नजर नहींरखती है। शायद भाजपा सरकार और प्रदेश की पुलिस किसी बड़ी घटना के इंतजार कर रही है। 

                                                                                                         इतवार वीकली में प्रकाशित

नीलम