शाक्त और तंत्र विधान में बलि का विधान है। समय के साथ बलि के रूप - मान्यता में परिवर्तन आता गया। लेकिन सवाल आज भी मौजूं है कि पशुबलि देना कहां तक तर्कसंगत है।नवरात्र का समय है। कई पूजा विधान है। आदिशक्ति को प्रसन्न करने के लिए। मनचाहा आशीर्वाद व आकांक्षा के लिए। इसमें एक विधान पशुबलि भी है। पिछले कुछ समय से इस पर काफी बहस-मुहाबिसे होते हैं कि पशुबलि उचित है या अनुचित?
दरअसल, हिन्दुओं के अनेक सम्प्रदायों में एक शाक्त सम्प्रदाय भी है जो शक्ति के पुजारी माने जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि शक्ति की प्रतीक देवी के हाथ में अस्त्र-शस्त्र होते हैं। वह रक्तपान करती है। भारत में देवी के हजारों मंदिर हैं, जिनमें आसाम का कामाख्या मंदिर अति प्रसिद्ध है। शक्ति के पुजारी होने के नाते ये लोग मांसाहार करते हैं, जिसका स्वाभाविक स्रोत पशु हैं। पशु बलि के बाद उसका मस्तक देवी को चढ़ा दिया जाता है तथा शेष को पकाकर सब प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। इन मंदिरों की एक विशेषता यह भी है कि यहां क्षत्रिय पुजारी ही होते हैं। यद्यपि अब कई क्षत्रियों ने यह पूजा ब्राह्मणों को सौंप दी है। ऐसे विभिन्न मंदिरों में बलि की अलग-अलग प्रथाएं हैं। कबूतर और मुर्गे से लेकर बकरे और भैंसे तक की बलि यहां दी जाती है।
वेद हिंदू जाति का प्राचीनतम धर्मगं्रंथ है। इसकी सौ शाखाओं में (ऋगवेद की सौ शाखाओं में) ऐतरेय ब्राह्मïण एक है। इस ब्राह्मïण ग्रंथ के अनुसार, राजा हरिश्चन्द्र नि:संतान थे। उन्होंने नारद ऋषि के कथानुसार पुत्र प्राप्ति होने पर वरूणदेव को उक्त पुत्र की बलि देने की प्रतिज्ञा की। पुत्रप्राप्ति के बाद वरूणदेव ने यज्ञ करने को कहा। तब राजा ने पशुत्व के स्थिर अंगवाला होने तक का बहाना बनाकर छह वर्षों तक यज्ञ नहीं किया। छह वर्ष के बाद ऋषि विश्वामित्र के आचार्यत्व में यज्ञ आरंभ हुआ। बालक रोहित यह जानकर जंगल भाग गया। उधर, वरूण के शाप से राजा जलोदर रोग से ग्रसित हो गए। पिता को मरणासन्न जानकर रोहित जंगल से लौटा, किंतु इंद्रदेव ब्राह्मïण का रूप धारणकर उसे रोकते रहे। एक दिन जंगल में रोहित को अजीगर्त ऋषि मिले।
रोहित ने एक सौ गाय देकर अजीगर्त के मध्यमपुत्र शुन:शेप को बलि देने के लिए प्राप्त किया तथा पिता के समक्ष उपस्थित होकर यज्ञ आरंभ करवाया। यज्ञ में बलि देने के लिए स्तूप में बांधने के लिए किसी के तैयार न होने पर अजीगर्त ने ही सौ गाय लेकर नियोक्ता का काम किया। पुन: विशसिता (काटनेवाला) कोई न मिला तो एक सौ गाय लेकर अजीगर्त ही विशसिता बने। रोहित को बचने का कोई उपाय न मिला तो उसे देवी-देवताओं की स्तुति की। अंत में प्रसन्न होकर वरूण देव ने उसे मुक्त कर दिया। तब उसका नाम देवरात (देवताओं द्वारा बचाया हुआ) पड़ा और उसी को 'हेाताÓ बनाकर यज्ञ पूरा हुआ तथा हरिश्चन्द्र भी रोगमुक्त हो गये।
इस कथा से यह स्पष्टï होता है कि वैदिक काल से ही बलिप्रथा प्रचलित है तथा बलि से मनोकामना की पूर्ति होती है। साथ ही यह भी स्पष्टï होता है कि स्तुति प्रार्थना से देवता प्रसन्न होते हैं। अत: पशुबलि रूप भेंट के बदले फल-फूल, मोदक आदि नैवेद्यरूप में अर्पण कर स्तुति-प्रार्थना से देवता को प्रसन्न किया जा सकता है। पहले भी शास्त्रानुसार कहा गया है, 'पशुमारणकर्म दारूणंतथापित न त्यजति श्रोत्रिय:Ó। इस उक्ति से भी स्पष्टï होता है कि पशुमारण कर्म दर्दनाक एवं दुष्कर है। भगवान बुद्घ ने वैदिक यज्ञविधि पशुबलि की दयामुक्त हृदय से निंदा की है-
'निन्दसि यज्ञविधेरहहश्रुतिजातम्। सदयहृदयदर्शितपशुघातम्।।
केशव घृतबुद्घशरीर। जय जगदीश हरे।Ó - जयदेव कवि
हिन्दू समाज सदा से परिवर्तनशील रहा है। आवश्यकता पडऩे पर उसने जहां नयी प्रथाओं को अपनाया है, वहीं उन्हें बंद भी किया है। इसलिए इस निर्मम बलि प्रथा के विरोध में लम्बे समय से हिन्दू समाज के भीतर से ही आवाजें उठ रही हैं। अनेक मंदिरों में यह प्रथा बंद हो गयी है। ऐसे स्थानों पर बलि के पत्थर और शस्त्र आज भी देखे जा सकते हैं। श्रद्धालु अब वहां नारियल छोड़कर प्रतीक रूप में अपनी बलि सम्पन्न मान लेते हैं। जैसे-जैसे इसके विरोध के स्वर तीव्र होंगे, वैसे-वैसे यह प्रथा कम होती जाएगी पर पूरी तरह यह कब बंद होगी, कहना कठिन है? एक बात यह भी समझनी जरूरी है कि धार्मिक या सामाजिक प्रथाएं कानून से शुरू या बंद नहीं होतीं। सरकार ने बालविवाह और दहेज के विरोध में कानून बनाये हैं। पर क्या ये बंद हो गयीं? इन विवाहों में शासन-प्रशासन और सब राजनीतिक दलों के नेता तथा समाज के प्रतिष्ठित लोग भाग लेते हैं। अंधविश्वास और कुरीतियां समाज की मान्यता से चलती हैं और समाज की मान्यता से ही समाप्त भी होती हैं। इसके लिए समाज को लगातार जागरूक बनाने की आवश्यकता होती है।
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