हाथ से निकलता घर का बजट आटे दाल की मंहगाई ने कर दिया सब चौपट अब आशा है की देश के से सुधर जाए घर का बजट बांट जोहते, दिन काटते आंखों में उम्मीद लिए कर रहे इंतजार पूरी होगी आस यही है विश्वास
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सामाजिक चेतना, मानवीय संवेदना और इंसानी जटिल प्रवृतियों की अभिव्यक्ति
2 Comments:
अच्छी कविता है....
काश....बजट भी ऐसा हो....
bahut achchhi kavita hai.per sapat hai. thoda painepan aur chuteele hone ki jarurat hai.phir bhi prayas achchha hai.budget ka kya ye to sarkari cheez hai
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