Monday, February 8, 2010

परछाइयाँ

क्षितिज पर सूरज बनकर बाँटना अपनी किरणें उन बीहड़ अन्धकारों में जहाँ कुलबुलाती हैं ढ़ेरों परछाइयाँ कोटर से बाहर आने को एक किरण की तलाश है उन्हें निश्चित ही तुम्हारी किरण उजाले में आने को उन्हें विवश करेगी खोलेंगी पलकें तो पाएँगी एक समूचा आकाश उनकी प्रतीक्षा में तना है, ब्रह्मïाण्ड के शीश पर पूरी की पूरी चटटान खड़ी है शिखर बनकर, सूरज की लालिमा में दमक रहे हैं उनके मस्तक, परछाइयाँ बाँहें उठाकर अपनी माँगेंगी उनसे मन्नत कुलाँचे भरेंगी हवाएँ गगन में तुम्हारी विजय पताका यशगाथा लेकर रू-ब-रू होगी तब तुमसे तुम्हारी ही शै। - डा. वाजदा खान

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नीलम