सहमी हुई सुबह
सूरज की रोशनी से
भयाक्रांत थी
कौन जाने किस पल
एक धमाका हो
जो कई जिस्मानी साबूत के साथ
प्रगतिशील सभ्यता की पोल खोल दे
और चांद पर चढऩेवाले
इनसानी मंसूबों को
अंदर तक नंगा कर दे।
सामाजिक चेतना, मानवीय संवेदना और इंसानी जटिल प्रवृतियों की अभिव्यक्ति
Posted by सुभाष चन्द्र at 12:18 PM
1 Comment:
itni aachi kawita like leti to pahle kyu nahi likhti thi.
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