लोकतंत्र में जब बहुमत किसी भी दल को नहीं मिलता है और गठबंधन की राजनीति में स्वार्थ टकराता है तो स्थिति कैसी विचित्र हो सकती है, उसका नायाब नमूमा झारखंड से बेहतर मुश्किल है। पिछले एक पखवाड़ें से भी अधिक समय से कभी समर्थन तो कभी समर्थन वापसी को लेकर जिस प्रकार के सियासी दांव चले जा रहे हैं, उसके आधार पर तो यही कहा जा सकता है कि प्रदेश के राजनेता का ध्येय लोककल्याणकारी सरकार का गठन करना नहीं बल्कि अपने लिए एक अदद कुर्सी का इंतजाम भर करना रह गया है।
खबर लिखे जाने तक प्रदेश के राजनीतिक हालात बताते हैं कि सरकार भाजपा-झामुमो गठबंधन की होगी। कई दौर की बैठकों के बाद दोनों दलों ने 50-50 का फार्मूला तो तय कर लिया, लेकिन पहले कौन? इस पर सहमति बननी बाकी है। भाजपा की ओर से कहा जाने लगा कि पहला मुख्यमंत्री उसका और विधानसभा अध्यक्ष झामुमो का। लेकिन, झामुमो की ओर से मांग की गई कि पहले दौर की मुख्यमंत्री हमारा हो। दरअसल, शिबू सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा सत्ता के लालच में फंस गई है। उसने झारखंड में नई सरकार बनाने के लिए अब भाजपा के सामने नई शर्त रख दी है। हर दिन नए पैंतरे आजमाने वाली जेएमएम अब सत्ता में पहले भागीदारी चाहती है। झामुमो की मांग है कि रोटेशन के तहत झारखंड में पहले झामुमो का मुख्यमंत्री हो, जबकि भाजपा पहले अपना सीएम चाहती है। अगर भाजपा का सीएम हो तो, झामुमो का स्पीकर हो। भाजपा को झामुमो को सीएम और स्पीकर दोनों पद देना मंजूर नहीं है। सो, गतिरोध कायम है।
मुख्यमंत्री के नाम पर भी पार्टी में सहमति बन गई है। 28-28 माह सरकार चलाने के जबकि भाजपा खेमे में झामुमो के प्रस्ताव पर भी पार्टी में आम राय बना ली गई है। मुख्यमंत्री के लिए पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा, रघुवर दास व नीलकंठ सिंह मुंडा के नाम पर विचार किया गया है। भाजपा की ओर से आदिवासी होने के नाते अर्जुन मुंडा प्रबल दावेदार माने जा रहे हैं, कारण उन्हें सरकार चलाने का अनुभव भी है और आदिवासी वर्ग से आते हैं। लेकिन झामुमो की ओर से कौन होगा, स्वयं शिबू सोरेन भी पक्के तौर पर नहीं कह पा रहे हैं।
अब सवाल यह भी उठता है कि आखिर क्यों हुआ झारखंड में सियासी झमेला ? यह संकट उस वक्त शुरू हुआ, जब भाजपा ने 28 अप्रैल को झामुमो से समर्थन वापस लेने का फैसला किया। हालांकि, इस फैसले को रोककर रखा गया था। इसके एक दिन पहले ही राज्य के मुख्यमंत्री और सांसद शिबू सोरेन ने लोकसभा में भाजपा की ओर से लाए गए कटौती प्रस्ताव के खिलाफ वोट दिया था। प्रत्यक्ष तौर पर आम जनता यही कह रही है।
दूसरी तरफ, कांग्रेस रणनीतिकार लगातार एक-एक पल पर नजर गड़ाए हुए हैं। सूत्रों के हवाले से यह कयासबाजी भी की जा रही है कि सुबोधकांत सहाय मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब संजोए हुए हैं। कहा जा रहा है कि इसी रणनीति के तहत शिबू सोरेन से जुड़े तमाम पुराने मामलों के फाइल खंगाले जा रहे हैं। संभवत: इसी वजह से झामुमो को लगातार अपने बयान बदलने को मजबूर होना पड़ रहा है।
गौर करने योग्य यह भी है कि झारखंड के 82 सदस्यीय विधानसभा में इस नए गठबंधन के 45 सदस्य हैं। झामुमो और भाजपा के 18-18 विधायक हैं, आजसू के पांच और जदयू के दो विधायक हैं। इनके साथ दो निर्दलीय विधायक भी हैं। बहरहाल, यह भी खबर है कि झामुमो के कुछ विधायक इस नए समझौते से खुश नहीं हैं लेकिन पार्टी नेतृत्व को विश्वास है कि वह उन्हें मना लेगी।
चूंकि यह प्रदेश प्राकृतिक संसाधनों से लैस है। सो, प्रदेश में कार्यरत खनन माफिया भी अपने-अपने समर्थकों के बल पर सरकार गठन की प्रक्रिया को प्रभावित कर रहे हैं। आखिर, व्यापारियों को सरकार से पचासों काम कराने को होते हैं। तभी तो सियासी हलको में यह खबर उठने लगी है कि झारखंड का झमेला सुलझाने में राजनीतिक दल नाकाम हो चुकी है और अब खान माफिया यह तय करने में अपनी पूरी ताकत लगा रहा है कि अपने हित सुरक्षित करने के लिए वह किसकी सरकार बनाने में मदद करे। ऐसी स्थिति में इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि प्रदेश में सरकार झामुमो-भाजपा गठबंधन की बनें अथवा झामुमो-कांग्रेस गुट का, पैसे का बोलबाला होगा। विधायकों की खरीद-फरोख्त एक बार फिर होगी। ऐसे में इस सच को भी नहीं झुठलाया जा सकता है कि जो व्यापारी वर्ग सरकार बनाने में मदद करेगा, वह किसी प्रकार का अनैतिक आर्थिक लाभ नहीं उठाएगा। ऐसे में अपने गठन के नौ वर्ष बाद भी स्थायीत्व की बाट जोहता प्रदेश लूट-खसोट का नया केंद्र बनकर उभरेगा।
पुत्रमोह में शिबू हुए फेल
राजनीति में वंशवाद की बात करने वाले हरेक नेता अपने पुत्रों को अपेक्षित मुकाम दिलाने में पास रहे हैं, लेकिन झारखंंड के वर्तमान मुख्यमंत्री शिबू सोरेन अपने पुत्रमोह के कारण बार-बार फेल होते जा रहे हैं। हालिया झमेला भी उसी की परिणति है। बड़े भाई दुर्गा सोरेन के असमय गुजर जाने के बाद हेमंत सोरेन की राजनीतिक महत्वाकांक्षा बढ़ती गई। इस बार उसे लगने लगा कि वह अपने पिता का राजनीतिक वारिस है और प्रदेश का अगला मुख्यमंत्री भी। इस महत्वाकांक्षा को कुछ विधायकों ने हवा भी दे डाली। सो, हेमंत ने झामुमो कार्यकारिणी की बैठक बुलाई, साथ ही पार्टी के थिंक टैंकरों को भी। लेकिन, ऐन मौके पर कटौती प्रस्ताव के दौरान गुरूजी के मतदान ने सारा समीकरण ही बिगाड़ कर रख दिया। पुत्रमोह के कारण ही भाजपा के साथ फिर से साझेदारी करने की बात के बावजूद भी किसी ठोस पड़ाव पर नहीं पहुंच चुके हैं।
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