अब वह दिन दूर नहीं जब भारतीय रसोई के जान पहचाने व्यंजनों को खान से पहले हमें अमेरिका या पाकिस्तान की इजाजत लेनी पड़ेगी। इसे पेटेंट कानून का दुरुपयोग कहें या सदुपयोग कि आज हर व्यंजन पर कोी न कोी व्यक्ति या देश कब्जा करना चाहता है। कुछ साल पहले दक्षिण भारत के एक प्रमुख होटल ने इडली वड़ा, मसाला डोसा आदि पर पेटेंट प्राप्त किया था। चूंकि एक देश को दिए गए पेटेंट किसी अन्य देश को नहीं दिए जा सकते, इसलिए इडली वड़ा, मसाला डोसा और ऐसे ही दूसरे व्यंजन किसी अन्य देश के पेटेंट कब्जे में नहीं जा सकते। यह सुखद व सराहनीय काम रहा। साथ ही यह उस भारतीय होटल का एक बुद्धिमानी भरा कदम था। अगर अपने देश के व्यंजनों को बचाना है तो अन्य भारतीयों को भी इसका अनुकरण करना चाहिए। वैसे भी हमारे तमाम चीजों पर लोगों की नज़र है। परंपरागत व्यंजनों के मामले में भी, आप संभवत: पहले ही यह सुन चुके होंगे कि जापान ने भारतीय मसालों के पेटेंट हासिल करने के लिए कैसे-कैसे प्रयास किए। नेस्ले ने पहले ही वेज पुलाव का पेटेंट हासिल कर लिया है। इसी दौरान ब्रिटिश शहर बर्मिंघम ने बाल्टी व्यंजनों पर यूरोपीय संरक्षण पाने का आवेदन किया है। इसी तरह पाकिस्तान में जन्मे ब्रिटिश सांसद मोहम्मद सरवर मसालेदार चिकन टिक्का पर पेटेंट हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं। उनका दावा है कि इसका आविष्कार स्काटलैंड के शहर ग्लासगो में 1970 में हुआ था। उन्होंने ब्रिटिश संसद के निचले सदन में प्रस्ताव पेश किया है और यूरोपीय संघ से समर्थन की मांग की है कि ग्लासगो को इस व्यंजन के आविष्कार का मूल अधिकार देने में सहयोग करे। फिलहाल आशा तो यही है कि भारत को चिकन टिक्का पर स्काटिश दावे के खिलाफ वैसी लड़ाई नहीं लडऩी पड़ेगी, जैसी उसे हल्दी पर हक हासिल करने के लिए लडऩी पड़ी। यह ज्यादा चिंता करने वाली बात नहीं है। वास्तव में बड़ा मसला और चिंता का विषय परंपरागत भोजन और व्यंजनों तथा अन्य तमाम वैज्ञानिक उपलब्धियों पर एकाधिकार नियंत्रण के वैश्विक प्रयासों को लेकर किए जा प्रयासों की है। विश्व बौद्धिक संपदा संगठन की आम सभा में भी पेटेंट कानून को सुगम बनाने पर चर्चा हुई। पेटेंट सहयोग संधि के नाम पर डब्लूआईपीओ जो प्रस्ताव आगे बढ़ा रहा है, वह अगर पारित हो गया तो यह सुनिश्चित हो जाएगा कि जिस पेटेंट को तीन देशों द्वारा स्वीकृति प्रदान कर दी जाएगी, वह अंतरराष्ट्रीय पेटेंट के रूप मान्य हो जाएगा। डब्लूआईपीओ जो प्रयास कर रहा है उसका मतलब है दुनिया में एकल पेटेंट कानून लागू करना। ऐसे में पेटेंट राष्ट्रीय संपदा नहीं रह जाएगा। दूसरे शब्दों में, इसका मतलब होगा कि विकासशील देश पेटेंट के लिए मानदंड निर्धारित नहीं कर पाएंगे। नई व्यवस्था के तहत दुनिया में किसी भी तीन स्थानों पर मौजूद पेटेंट कार्यालय की परीक्षण रिपोर्ट के आधार पर पेटेंट दे दिया जाएगा। इस रिपोर्ट को अंतरराष्ट्रीय पेटेंट की मान्यता के तौर पर स्वीकार किया जाएगा। यहां यह स्पष्ट करना बेहद जरूरी है कि वैश्विक पेटेंट का दायरा केवल चिकन टिक्का और बाल्टी तक ही सीमित नहीं रहेगा, बल्कि विकास की तमाम गतिविधियों तक इसका विस्तार रहेगा। हम देश के आर्थिक विकास में इन पेटेंट की अहमियत नहीं समझ रहे हैं। कोई भी यह देख सकता है कि परंपरागत पाककला और ज्ञान पर एकाधिकार पाने के लिए विश्वव्यापी दिलचस्पी प्रदर्शित की जा रही है। केवल तकनीकी श्रेष्ठता ही नहीं, बल्कि हमारा परंपरागत ज्ञान और उत्पाद विकसित देशों के हाथों में जा रहे हैं। खैर यह कोई बड़ा मसला नहीं है। यह प्रस्ताव विकासशील देशों के लिए बहुत घातक है। यह विकासशील देशों को वैज्ञानिक उपलब्धियों से वंचित करने का हथियार बन जाएगा और वैज्ञानिक शोध तथा प्रौद्योगिकी विकास पर विकसित व औद्योगिक देशों का कब्जा हो जाएगा। विकासशील देश इन देशों के लिए काम करने का केंद्र बनकर रह जाएंगे। गौर से देखें तो पेटेंट का यह पूरा खेल भद्दे स्तर तक पहुंच गया है। वैश्विक पेटेंट जल्द ही अंतरराष्ट्रीय मानक बन जाएंगे, मगर फिर भी हैरानी की बात है कि अब भी इस मुद्दे पर कोई सार्वजनिक बहस नहीं छिड़ी है। वैसे भी भारत में पेटेंट कभी भी राजनीतिक मुद्दा नहीं बनता है। पूर्व के उन उदाहरणों से भी हम आंखें फेर रहे हैं जिनमें विशुद्ध भारतीय नीम और हल्दी का पेटेंट कराने के प्रयास किए गए थे। इसके अलावा कई अन्य भारतीय व्यंजनों और खाद्यान्नों को भी एकाधिकार नियंत्रण का लक्ष्य बनाया जा चुका है। अब समय आ गया है, जब हमें विकसित देशों को उनके ही खेल में मात देनी चाहिए। भारत को पेटेंट के खतरों के प्रति सचेत होना चाहिए। मानव संसाधन विकास मंत्रालय तथा विज्ञान एवं तकनीक मंत्रालय को वाणिज्य मंत्रालय के सहयोग से लोगों में जागरूकता उत्पन्न करने तथा भारतीयों को अपनी परंपरागत कला पर पेटेंट हासिल करने के लिए प्रोत्साहित करने का अभियान छेडऩा चाहिए।
Saturday, May 1, 2010
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