आजादी के छह दशक से भी अधिक वर्षों के बाद , भारत के पास दुनिया की दूसरी सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था का दावा है। मगर अमेरिका की कुल आबादी से कहीं अधिक भूख और कुपोषण से घिरे पीडि़तों का आकड़ा भी यहीं पर है। अब चमचमाती अर्थव्यवस्था पर लगा यह काला दाग भला छिपाया जाए भी तो कैसे ? योजना आयोग की नजर में गरीब वही लोग हैं जो गांवों में हर महीने 356 रुपये से कम और शहरों में 539 रुपये से कम खर्च कर पाते हैं। 5 लोगों के औसत ग्रामीण और शहरी परिवारों के लिए यह रकम क्रमश: 1780 रुपये और 2695 रुपये ठहरती है। गांवों से जिनकी वाबस्तगी नहीं है वे लोग भी इस आंकड़े की असलियत से परख सकते हैं। केन्द्र सरकार ने 2010-11 में, भूख से मुकाबला करने के लिए 1.18 लाख करोड़ रूपए खर्च करने का वादा किया है। अगर यूपीए सरकार गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को रियायती तौर से 35 किलो खाद्यान्न दिये जाने पर विचार करती है तो उसे अपने बिल में अतिरिक्त 82,100 करोड़ रूपए का जोड़ लगाना होगा। यह बात राष्टï्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लेकर है। आश्चर्य तो इस बात को लेकर है कि अधिनियमत के नियमन के वक्त किसी का ध्यान गरीबों की संख्या पर नहीं गया। जब यूपीए की अध्यक्षा सोनिया गांधी ने इस ओर ध्यान दिलाया तो नई चर्चा शुरू हुई। वैसे भी अपनी सरकार मंहगाई को कम नहीं करने की बात जब खुलेआम कह रही है तो उसके मंशूबों से ताल्लुक रखने वाली चुप्पियों के भेद भी खुल्लमखुल्ला हो ही जाए। 'राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियमÓ के होहल्ला से पहले, सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश को याद कीजिए, जो गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को 2 रूपए किलो की रियायती दर से 35 किलो खाद्यान्न दिये जाने की बात कहता है। इसके बाद केन्द्र की यूपीए सरकार के 'राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियमÓ का मसौदा देखिए, जो गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को रियायती दर से महज 25 किलो खाद्यान्न की गारंटी ही देता है। मामला साफ है, मौजूदा खाद्य सुरक्षा का मसौदा तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ही कतरने (गरीबों के लिए रियायती दर से 10 किलो खाद्यान्न में कमी) वाला है। अहम सवाल यह भी है कि मौजूदा मसौदा अपने भीतर कितने लोगों को शामिल करेगा ? इसके जवाब में जो भी आकड़े हैं, वो आपस में मिलकर भ्रम फैला रहे हैं। अगर वर्ल्ड-बैंक की गरीबी का बेंचमार्क देखा जाए तो जो परिवार रोजाना 1 यूएस डालर (मौजूदा विनियम दर के हिसाब से 45 रूपए) से कम कमाता है, वो गरीब है। भारत में कितने गरीब हैं, इसका पता लगाने के लिए जहां पीएमओ इकोनोमिकल एडवाईजरी कौंसिल की रिपोर्ट ने गरीबों की संख्या 370 मिलियन के आसपास बतलाई है, वहीं घरेलू आमदनी के आधार पर, सभी राज्य सरकारों के दावों का राष्ट्रीय योग किया जाए तो गरीब रेखा के नीचे 420 मिलियन लोगों की संख्या दिखाई देती है। यानि गरीबों को लेकर केन्द्र और राज्य सरकारों के अपने-अपने और अलग-अलग आकड़े हैं। इसके बावजूद गरीबों की संख्या का सही आंकलन करने की बजाय केन्द्र सरकार का यह मसौदा, केवल केन्द्र सरकार द्वारा बतलाये गए गरीबों को ही शामिल करेगा। आ र्थिक पंडितों का मानना है कि राष्ट्रीय आय में वृध्दि जिस दर से होती है कोई जरूरी नहीं कि उसी दर से देश की गरीबी घटे। लेकिन आर्थिक नियम यह भी कहते हैं कि अगर राष्ट्रीय आय में वृध्दि होती है तो इसका अंश देश की जनता में बंटता है। बंटवारा समान हो या असमान इसकी जवाबदेही आर्थिकी की नहीं होती, सरकार की होती है। सरकार यह जवाबदेही तय करती है कि विकास के साथ समानता भी पनपे। लेकिन विकास और समानता सहचरी हो, यह समस्या भारत के सामने ही नहीं बल्कि उन सारे देशों के सामने है जो आज विकास की दौड में हैं। भारत के सामने यह समस्या कुछ ज्यादा ही विकराल भले ही हो। गरीबी पर सुरेश तेंदुलकर की आई रिपोर्ट कुछ ऐसी ही कहती है। रिपोर्ट के अनुसार भारत का प्रत्येक तीसरा व्यक्ति गरीब है। आर्थिक क्षेत्र में छलांग लगाते भारत के लिए यह रिपोर्ट किसी शर्म से कम नहीं। रिपोर्ट तो आखिर कागजी सुबूत है जो सर्वे के आधार पर तय किए जाते हैं। सर्वे कोई भी हों उसका एक राजनीतिक पहलू अवश्य होता है। तभी तो गरीबी राजनीति के लिए सबसे लोकप्रिय हथकंडा मानी जाती है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि देश में गरीबी एक अलग समस्या है जबकि उसका मापदंड तय करना उससे अलग समस्या। यहां मापदंड से अर्थ उसे तय करने की नीतियों और तरीकों से है। आज अहम सवाल सामने यह है कि देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की वास्तविक संख्या कितनी है? मौजूदा समय में सरकार के पास चार आंकड़े हैं और चारों भिन्न-भिन्न। इसमें देश की कुल आबादी में गरीबों की तादाद 28.5 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक बताई गई है। इन दोनों में से कौन सा आंकडा सही है यह सरकार को ही तय करना है। तीन दशक पहले के आर्थिक मापदंड के अनुसार देश में गरीबी रेखा से नीचे आने वाली आबादी कुल जनसंख्या की 28.5 प्रतिशत है। अभी तक यही आंकडा सरकार दिखाती आई थी, जिसमें गरीबी पिछली गणना से कम दिखती है। इस सरकारी आंकलन को सरकार द्वारा ही गठित तीन समूहों ने खारिज कर दिया है। योजना आयोग द्वारा गठित एसडी तेंदुलकर की रिपोर्ट ने बताया कि वर्ष 2004-05 में गरीबी 41.8 प्रतिशत थी। जबकि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा गठित एनसी सक्सेना समिति के अनुसार देश में 50 प्रतिशत यानी आधी आबादी निर्धन है। समस्या सिर्फ इन आंकड़ों के साथ ही नहीं है। गरीबी की प्रतिशत और गरीबी रेखा का निर्धारण इतना पेंचीदा काम है कि सरकार की विभिन्न समितियां भी इसे साफ नहीं कर पातीं। लेकिन विशेषज्ञों की मानें तो सरकार इसे जानबूझ कर पेंचीदा बनाए रखना चाहती है जिसका सरल उदाहरण विभिन्न समितियों का विभिन्न आंकडे पेश करना है। आश्चर्यजनक रूप से तेन्दुलकर की यह रिपोर्ट सेनगुप्ता कमेटी की उस रिपोर्ट को भी झूठा साबित कर रही है जिसमें उन्होंने देश की अस्सी फीसदी आबादी को 20 रुपये प्रतिदिन पर गुजारा करने की बात कही थी। यानी महीने में 600 रुपये पर। तेन्दुलकर का कहना है कि असल में भारत में 41 प्रतिशत से अधिक आबादी 447 रुपये मासिक पर गुजारा कर रही है जो कि सेनगुप्ता के बीस रुपये प्रतिदिन से काफी कम है। इनसे यही बात साफ होती है कि गरीबी रेखा को लेकर ही जब इतनी दुविधा है तो फिर उसके उन्मूलन पर कार्यान्वयन की स्थिति कैसी होगी। जो गरीब हैं वे और गरीब होंगे।
Tuesday, April 13, 2010
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3 Comments:
bahut acha hai lagi rahayai. ashok mishra Editor rachna kram
achchha subject uthaya hai.aapka samajik sarokaar dikhai de raha hai. keep it up neelam ji
aabe gaadhi
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