राजस्थान की पांच सदी पुरानी थवाई कला इतिहास और विरासत के पन्नों से निकल कर अब रिकॉर्ड बनाने की ओर अग्रसर है। एक ही परिवार के कंधों पर इस विरासत को संभालने का जिम्मा है। राजस्थान की थेवा कला भी कमाल की है। एक ही परिवार के सदस्यों को सर्वाधिक राष्ट्रीय पुरस्कार पाने के लिए लिम्का बुक ऑफ वल्र्ड रिकाड्र्स -2011 में शामिल होने का गौरव है। प्रतापगढ़ के एकमात्र राज सोनी परिवार को थेवा कला को बचाए रखने और नए स्वरूप में ढालने का सौभाग्य हासिल है। राजस्थान में राज्याश्रय में पलने वाली हस्तकलाओं ने सारे विश्व में अपना डंका बजाया। प्रतापगढ़ प्रदेश की ऐसी ही विश्व प्रसिद्ध कला नगरी है। अखिल भारतीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक गौरव प्राप्त प्रतापगढ़ सिर्फ एक कला के कारण लोगों की निगाहों का केंद्र है। लोग दूरदराज से खास तौर पर थेवा के आभूषण और वस्तुएं लेने प्रतापगढ़ चले आते हैं।राज सोनी परिवार ने आठ राष्ट्रीय और दो राज्य स्तरीय अवार्ड प्राप्त कर अपनी परंपरागत थाती थेवा कला को नए स्वरूप में ढालने का सौभाग्य हासिल किया है। यह अपने आप में अनूठा है कि इन्साइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका में उल्लिखित थेवा कला के मर्मज्ञ सिर्फ प्रतापगढ़ में ही बसते हैं। रामायण में उल्लेख रामायण में जिन 64 कलाओं का उल्लेख है। उनमें वर्णित थवाई कला ही आज की थेवा कला है। कर्नल टॉड और गौरी शंकर ओझा ने भी राजस्थान के इतिहास में इसका उल्लेख किया हैं। 19वीं सदी में हेनर की भारत यात्रा के दौरान थेवा कला से काफी प्रभावित हुए थे। उनके यात्रा वृतांत में भी इसका उल्लेख है। पीढिय़ों की धरोहर सदियों पूर्व मालवा से नाथू सोनी देवगढ़ में आ बसे थे। देवगढ़ तब प्रतापगढ़ रियासत की राजधानी था। कला पारखी राजा ने सोनी परिवार को ‘राज सोनी’ का दर्जा दिया। 1775 में तत्कालीन नरेश सांवतसिंह ने इस परिवार को तीन सौ बीघा जमीन जागीर स्वरूप दी। प्रतापगढ़ में करीब दस पीढिय़ां इसी कला की बदौलत अपना जीवन यापन करती रही हैं। राजकीय संरक्षण के दिनों में राज सोनी परिवार ने इस कला में निखार लाने का प्रयास किया और इससे न सिर्फ प्रतापगढ़ या राजस्थान को ही बल्कि भारत को भी गौरवान्वित करके अनूठी पहचान भी बनाई। बारीक कारीगिरी हाथी, घोड़े, शेर, शिकारी, फूल, पत्ती, राधा-कृष्ण, इतिहास और प्रकृति से जुड़े सैकड़ों विषय जब सोने और कांच की जड़ाऊ नक्काशी के बीच दिखाई देते हैं तो एकबारगी आंखें चुंधिया जाती हैं। लोग थेवा की आकर्षक, कलात्मक वस्तुओं और आभूषणों को देखते हैं तो यह सोच कर दंग रह जाते हैं कि आखिर कांच के भीतर सोने की यह कारीगरी की कैसे जाती है? अब तो थेवा कला में छोटी डिब्बियां, ऐश-ट्रे, इत्रदान, सिगरेटकेस, टाइपिन कफलिंक्स, अंगूठी, बटन, पेंडुलम, पायल, बिछिया, बॉक्स आदि जाने कितनी चीजें बड़े ही कौशल से बनाई जाती हैं। थेवा की रचना प्रक्रिया अनोखी है। सोने, चांदी, कांच और कलाकारी के मिश्रण से बनती हैं थेवा की चीजें। थेवा कला का चित्रकला से गहरा नाता है। इसलिए थेवा कलाकार का चित्रकला में पारंगत होना जरूरी है। परंपरागत चित्रों का अंकन थेवा की खास शैली है। शिकार के विविध पक्ष, रासलीला, पशु-पक्षी, राधाकृष्ण की लीलाएं फूल-पत्तियां, ढोलामारू आदि का सूक्ष्म चित्रांकन नींव के वे पत्थर हैं जो सुंदर थेवा कलाकृति का आधार बनते हैं। सोने के पतले पतर पर सबसे पहले टांकल (कलाकारों की विशिष्ट कलम) से आकृति उकेरी जाती है। पारंपरिक भाषा में इसे कंडारना कहते हैं। कंडारने के लिए टांकली को डंडी के सहारे बहुत हलके हाथ से चलाते हैं और चित्र की खुदाई हो जाती है। कंडारने के बाद आकृति के आसपास से फालतू सोना हटा दिया जाता है। इस प्रक्रिया को जाली बनाना कहते हैं। डिजाइन चीजों के आधार पर तय किए जाते हैैैं। थेवा कलाकारों ने विभिन्न उपादानों में रासलीला के विभिन्न दृश्यों, महाराणा प्रताप के जीवन चरित्र, शिकार, विवाह आदि की पूरी प्रक्रिया को अपनी कला के जरिए सजीव किया है। चित्र उकेरने और जाली बनाने के लिए यदि सोने के पतर पर सीधे ही काम किया जाए तो उसके टूटने का खतरा रहता है, इसलिए इसे चांदी के फ्रेम में घड़ कर, चांदी की तह से लकड़ी के तख्ते पर राल (गोंद का एक रूप) की मदद से चिपका देते हैं ताकि कलाकार को ठोस आधार मिल सके। ठोस धरातल मिलने पर कंडारने और जाली बनाने में कोई परेशानी नहीं होती। चांदी का फ्रेम और परत भी इसी उद्देश्य से लगाते हैं ताकि सोने की नाजुक और पतली परत सुरक्षित रहे। कलाकार चित्र बनाने में सारा हुनर लगा देता है, क्योंकि आगे चल कर यही वस्तु के सौंदर्य को सही आकार देता है। जाली का डिजाइन बनने के बाद असली प्रक्रिया शुरू होती है। यहां तक का काम तो कोई भी सोनी आसानी से कर सकता है, परंतु जालीदार सोने की परत को कंाच पर फिट करने का काम बहुत सावधानी का होता है। यह प्रक्रिया भी गुप्त है। अब लकड़ी के तख्ते की राल को गरम करके चंादी-सोने के पतर को उतार लेते हैं। एसिड में डुबो कर सोने की परत का इंप्रेशन कांच पर लिया जाता है। कांच बेल्जियम का होता है। इसके बाद गुप्त पद्धति से कांच को सोने और चंादी के फ्रेम के बीच फिट कर दिया जाता है। पंरपरा सिमटा दायरा थेवा कला एक ही परिवार की धाती है। परिवार के सिर्फ पुरुष सदस्य इसे अति गोपनीयता से बनाते हैं। किसी और को बताना या सिखाना तो दूर की बात है, घर की लड़कियों से भी यह कला गुप्त रखी जाती है ताकि शादी के बाद वे इसे ससुराल में न बता दें। इस कला का उद्भव कैसे और कहां से हुआ? आज के संदर्भ में इस प्रश्न का उत्तर सिर्फ इतना ही है कि यह कला करीब 500 वर्ष पुरानी हैै । राज सोनी परिवार के पूर्वज नाथू जी इसके आदि पुरुष थे। आज जब परंपरागत कलाकारों की प्रगति के लिए इतने प्रयास किए जा रहे हैं, तो थेवा कलाकार अपनी परंपरा के दायरे में उलझे हैं, ऐसा क्यों है? यह प्रश्न अपनी जगह सही है, पर राजसोनी परिवार का मानना है कि थेवा उनके लिए थाती है, धरोहर है। उन्हें इसका कोई अफसोस नहीं है कि वे परंपरावादी हैं। इसी कला ने तो राजसोनी परिवार को विश्व के नक्शे पर खास पहचान दी है। उनके परिवार के प्राय: सभी लोगों को राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार मिले हैं। उनके लिए यह कम गौरव की बात नहीं है कि लोग प्रतापगढ़ को थेवा या उनके परिवार के नाम से पहचानते हैं। थेवा से बने सामान में सबसे ज्यादा टाप्स और लॉकेट बिकते हैं। वैसे नेकलेस, टॉप्स और अंगूठी का सेट भी लोग पसंद करते हैं। डिब्बियां भी ज्यादा बिकती हैं। एक सेट में करीब 17 ग्राम सोना लगता है और यह सोने की कीमत के हिसाब से बिक जाता है। थेवा कलाकार जब बेचने के हिसाब से माल बनाते हैं तो छोटे आइटम ज्यादा बनाते हैं। पुरस्कार वगैरा या फिर ऑर्डर पर बड़े आइटम भी बनाते हैं। बड़ी चीजों मे मंजे हुए कलाकारों को भी नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसलिए बड़े आइटम खास मौके पर ही बनते हैं। आज हर क्षेत्र में नई तकनीक और नए औजार आ गए हैं, परंतु थेवा कलाकारों के कामकाज में बदलाव नहीं आया है। औजार वही हैं, चीजें वही हैं, हां, ग्राहक जरूर बदले हैं। पहले राजा-महाराजा ग्राहक थे, अब सेठ-साहूकार या सरकार। पहले माल तौल से बिकता था, अब नग के हिसाब से। झलाई का काम पहले कोयले की सिगड़ी पर होता था अब खास तरीके के स्टोव पर। अब साधारण लोग भी थेवा के जेवर खरीदने लगे हैं, क्योंकि इनमें नाममात्र का सोना होता है। इसलिए हर हाल में कीमत कुछ कम हो जाती है। थेवा कलाकार इसीलिए सारा माल सोने का नहीं बनाते हैं। ऊपर सोना और नीचे चांदी लगाते हैं ताकि आम आदमी ले सके, पर यदि कोई कहे तो सारा कुछ सोने से भी बनाते हैं। सोने की कीमतों में बढ़ोतरी से थेवा कलाकारों के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लग सकता है, परंतु कलाकारों का मानना है कि भविष्य बहुत अच्छा है। यदि सोना महंगा होता है तो कम सोने में बने होने के कारण थेवा के आभूषण बहुत ही लोकप्रिय होंगे। पहले के मुकाबले थेवा के माल की खपत बहुत बढ़ी है। पर सवाल यही है कि विरासत को क्या सिर्फ एक परिवार का धाती बनाकर रखना सही है। अगर राज सोनी परिवार ऐसा न करता तो शायद यह कला किसी और बुलंदी पर होती।
Tuesday, July 19, 2011
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1 Comment:
theva kala ko batana chahiye taki iski lokpriyata or bade or kai berojgaro ko rojgar mile is kala ko virast ki tarah sahej kar nahi rakhna chahiye..........
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