Tuesday, January 4, 2011

कारगर होगी महिलाओं की फौज?

बिहार की पंचायती संस्थाओं में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की राज्यव्यापी नीतीश-पहल को पूरे देश ने देखा और उसका गुणात्मक परिणाम भी जाना। गत विधानसभा चुनाव में जिस प्रकार से महिलाओं का मतदान प्रतिशत बढ़ा, वह कहीं न कहीं इस महिला आरक्षण का ही प्रतिफल है। तभी तो प्रदेश में अगले वित्तीय वर्ष के प्रारंभ में ही करीब 3800 महिला मुखिया निर्वाचित होने के लिए तैयार हैं। दरअसल, बिहार में अगले वर्ष अप्रैल महीने में ग्राम पंचायतों के लिए चुनाव होने हैं। राज्य में कुल 8,463 ग्राम पंचायतों में होने वाले चुनाव में 3,784 ग्राम पंचायतों में मुखिया का पद महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिया गया है। राज्य निर्वाचन विभाग के अधिकारी के अनुसार, इन 3,784 महिला मुखियाओं में से सामान्य वर्ग की 2,611 मुखिया होंगी, जबकि 595 मुखिया पिछड़े वर्ग से आएंगी। इसके अतिरिक्त अनुसूचित जाति की महिलाओं को 561 सीटों पर और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं को 17 सीटों पर चुना जाना तय है। निर्वाचन आयोग ने स्पष्ट कर दिया है कि राज्य में स्थानीय निकाय के सभी पदों पर आरक्षण की वही स्थिति रहेगी जो वर्ष 2006के स्थानीय निकाय के चुनाव में थी। एक अधिकारी के अनुसार पूर्वी चम्पारण में सबसे ज्यादा महिला मुखिया चुनी जाएंगी। वहीं शेखपुरा में सबसे कम मुखिया महिला होंगी। पूर्वी चम्पारण जिले के 27 प्रखंडों में मुखिया के कुल 410 पद हैं, जिनमें 184 पद महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। इसी तरह पटना जिले में जहां 147 महिला मुखिया होंगी, वहीं भोजपुर में 104, बक्सर में 63, नालंदा और गोपालगंज में 108-108, कैमूर में 66, गया में 145, जहांनाबाद में 42, अरवल में 29, औरंगाबाद में 94 महिला मुखिया होंगी। शेखपुरा जिले में सबसे कम मात्र 20 महिला मुखिया होंगी। जानकारों की राय में बिहार में विकास पुरूष के नाम से अवतरित नीतीश कुमार ने महिलाओं को पंचायत में आरक्षण देकर देर से ही सही लेकिन एक सधा हुआ कदम उठाया। महिलाएं पंचायत प्रमुख, मुखिया, प्रधान, सरपंच और पंचायत से संबंधित कई पदों पर पहुंच गईं। लोगों को लगा बिहार में नारी शक्ति मजबूत हो गई है। कई जगहों पर यह सच साबित हुआ भी, लेकिन कई स्थानों पर ऐसा नहीं हुआ। सैकड़ों ऐसे मामले हैं जहां लोग-बाग जब महिला मुखिया से मिलने जाते हैं, तो मिलने आते हैं -मुखिया पति। कई दफा तो सरकारी बैठकों में महिलाओं के जगह उनके पति पहुंचते हैं। ऐसे में सामाजिक विकास की बात करने वाले यह सवाल भी खड़ा करने लगे हैं कि क्या इस पुरुष प्रधान समाज में महिला अपने फैसले लेने के लिए आजाद है? क्या यह सच नहीं है राबड़ी के फैसले लालू लेते रहे हैं? राजनीति प्रेक्षकों के अनुसार, पंचायतों में महिला आरक्षण वाली वोट-नीति से राज्य स्तर पर नीतीश कुमार ने की तो और राष्टï्रीय स्तर पर सोनिया गांधी ने अपने लिए महिला पक्षधरता का झंडा बनाया। जहाँ तक पंचायती संस्थाओं में इस आरक्षण व्यवस्था के ज़रिए महिलाओं के सशक्तिकरण की बात है, तो इस बाबत बिहार का अनुभव बहुत निराशाजनक है। आरक्षित पदों पर निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों में से अधिकतर को उनके पारिवारिक पुरुषों ने कठपुतली या रबड़ स्टांप बनाकर महिला सशक्तीकरण की ज़मीन ही खिसका दी है। कहीं-कहीं तो बड़ी हास्यास्पद स्थिति है। बिहार में पंचायत में महिलाओं को आरक्षण मिलने के बाद भी उनका काम-काज पुरुष ही करते हैं। मुखिया-पति या सरपंच-पति का ऐसा बोलबाला है कि गाँव के लोगों में वहां के महिला प्रतिनिधियों की कोई पहचान तक नहीं रह गई है, और कहीं-कहीं ऐसा भी हुआ है कि जो सीधी-सादी और कुछ पढ़ी-लिखी घरेलू महिला थीं, उन्हें उनके घर वालों ने मुखिया या और कोई प्रतिनिधि बनवाकर पंचायती संस्थाओं में चल रहे भ्रष्टाचार के खेल में माहिर बना दिया है। इसके साथ ही यह भी सच है कि बिहार के हालिया विधानसभा चुनाव में 1962 के बाद सबसे ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला है। इस दफा 32 महिलाएं विधायक बनी। खास बात यह है कि चुनाव में उतारे गए उम्मीदवारों में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 8.74 प्रतिशत ही थी। साढे पांच करोड़ मतदाताओं के बीच पचास प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाली बिहार की महिलाओं में से बहुत कम ही पुरूषों के दबदबे वाली राज्य की राजनीति में जगह बना पाई हैं। अगर पांच मुख्य पार्टियों सत्ताधारी जेडीयू और बीजेपी, विपक्षी आरजेडी, एलजेपी और कांग्रेस के साथ वामपंथियों के उम्मीदवारों की फेहरिस्त पर नजर डाले तो कुल 90 महिलाओं को टिकट दिया गया। इससे जाहिर होता है कि महिलाओं की तरक्की की राह में कितने रोड़े हैं।

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नीलम