Saturday, April 3, 2010

शिक्षा अधिकार कानून कितना कारगर

संविधान में शिक्षा को मौलिक अधिकार के रुप में शामिल किए जाने के करीब आठ साल बाद अब जाकर केंद्र सरकार ने देश के 6 से 14 साल के सभी बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का रास्ता खोल दिया है। वहीं दूसरी ओर निजी स्कूलों का अपने हितों की रक्षा के नाम पर इस कानून का पुरजोर विरोध करना, कानून को संशय में डाल रहा है। वैसे तो वर्ष 2002 में 86वें संशोधन में शिक्षा को मूलभूत अधिकार के रूप में शामिल कर लिया गया था पर 2009 में शिक्षा का अधिकार बिल पास हो सका और अब लगभग आठ साल बाद शिक्षा का अधिकार का यह कानून एक अप्रैल से लागू हो गया है। कानून तो लागू हो गया पर इसे अमल में लाने की राहें उतनी आसान नहीं, जितनी दिखती हैं। दरअसल इसका असली इम्तिहान तो इसके लागू होने के बाद ही शुरू होगा। वैसे तो इस कानून की कई खासियते हैं जैसे 6 से 14 के आयु वर्ग के बच्चों को अनिवार्य शिक्षा, 40 छात्रों के पीछे एक शिक्षक, स्कूल में लाइब्रेरी, क्लासरुम, खेल का मैदान, पूरे शिक्षा सत्र के दौरान कभी भी प्रवेश के साथ-साथ अब निजी स्कूलों को भी 25 फीसदी सीट गरीब बच्चों के लिए आरक्षित करनी होगी। लेकिन केंद्र के नए मॉडल रूल के मुताबिक, राज्यों में पहली से पांचवीं कक्षा के बच्चों के लिए उनके रहने के स्थान के एक किलोमीटर की दूरी पर स्कूल होना चाहिए। छठी से आठवीं कक्षा के लिए तीन किमी के दायरे में स्कूल बनाना होगा पर सरकारी आंकड़ों की मानें तो आठ फीसदी के करीब आबादी ऐसी है जिसे तीन किमी के भीतर अपर प्राइमरी स्कूल की सुविधा तक मुहैय्या नहीं है। मानव संसाधन मंत्रालय के तहत एजूकेशन कंसलटेंट्स इंडिया लिमेटेड के सर्वेक्षण की ही मानें तो देश में 6 से 13 साल के बीच के 81 लाख से ज्यादा बच्चे ऐसे हैं जो स्कूलों से बाहर हैं। इनमें से 74 फीसदी से अधिक ऐसे हैं जो कभी स्कूल की दहलीज तक नहीं पहुंचे। 25 प्रतिशत से कुछ ज्यादा पढ़ाई बीच में छोड़ देने वालों की कतार में हैं। स्कूल तक नहीं पहुंचने वाले बच्चों में सबसे ज्यादा मुस्लिम वर्ग के 7.67 फीसदी हैं, जबकि अनुसूचित जाति वर्ग के 5.96 और जनजाति वर्ग के 5.60 फीसदी बच्चे हैं। यह सरसरी तौर पर किए गए सर्वेक्षण के सरकारी आकड़े है। स्थिति इससे काफी गंभीर है। साथ ही चूंकि यह शिक्षा का अधिकार कानून छह से 14 साल के बच्चों के लिए है। लिहाजा यह तादाद इस आंकड़े से कहीं ज्यादा है। फिलहाल तो इन बच्चों को स्कूल तक लाना सबसे बड़ी चुनौती होगी। वैसे इस कानून को लेकर केंद्र सरकार कितनी संजीदा है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस कानून के लागू होने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्र के नाम संदेश दिया। यह पहला मौका था जब आजाद भारत में प्रधानमंत्री ने किसी कानून को लेकर देश को संबोधित किया। इतना तो तय है कि इस कानून की खामियों से प्रधानमंत्री भी अवगत हैं शायद इसीलिए अपने संबोधन में वह इन खामियों की दुखती रग को छुए बिना नहीं रह सके। वैसे भी अभी से शिक्षा अधिकार कानून सवालों के घेरे में है। एक तरफ इसकी आंच सरकारी स्कूलों पर आने वाली है वहीं दूसरी ओर देश भर में इसके लागू होने के साथ ही इस कानून को लेकर दिल्ली के ही कई पब्लिक स्कूलों ने कड़े तेवर अपना लिए हैं। राजधानी के पब्लिक स्कूल संगठनों ने साफ कर दिया है कि शिक्षा अधिकार बिल को आधार बनाकर वह अपनी शिक्षा प्रणाली में किसी भी प्रकार का बदलाव नहीं करेंगे फिर चाहे इसके लिए उन्हें सडक़ों पर ही क्यों न उतरना पड़े। अभी तो विरोध केवल राजधानी तक सीमित है पर शिक्षा के व्यवसाय बनाने वालों की पूरे देश में कोी कमी नहीं और वे भी इस बिल का पुरजोर विरोध करेंगे। वैसे तो मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल और सरकार इस कानून के लेकर काफी सख्त दिख रहीं है और सभी निजी और अल्पसंख्यक स्कूलों को यह निर्देश जारी कर दिया गया है कि उन्हें अपने यहां 25 फीसदी सीट गरीब बच्चों के लिए आरक्षित करनी ही होगी। जो भी इसका उल्लंघन करेगा, उसे दंडित किया जाएगा। पर फिर भी आज के ये शिक्षा व्यवसायी इतने भी कमजोर नहीं है जिन्हें आसानी से इसके लिए राजी किया जा सके। इस कानून के लागू होने से इन विरोधों के अलावा भी ऐसी कई चुनौतियां हैं जिसका सामना सरकार को करना पड़ेगा। इस कानून को अमल में लाते हुए बच्चियों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की जरूरतों पर खास ध्यान देना होगा और इन्हें स्कूलों तक लाना सबसे बड़ी चुनौती होगी। साथ ही सेक्स वर्कर्स व विस्थापितों के बच्चों और कामकाजी बच्चों को भी स्कूल तक पहुंचाने में सरकार को काफी मशक्कत करनी होगी। खासतौर पर काम करने के लिए दूसरी जगहों पर गए बच्चों को कैसे समीपवर्ती स्कूल के दायरे में लाया जाएगा, यह स्पष्ट होना अब भी बाकी है। फिलहाल केंद्र सरकार अपनी पीठ थपथपाकर इस कानून को शिक्षा के क्षेत्र में केंद्र सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि बता रही है जबकि संविधान में पहले से ही यह प्रावधान है और 2002 में हुए 86वें संशोधन में भी शिक्षा के अधिकार की बात कही गई थी। लेकिन सरकार इसपर अब जाकर यह कानून ला पायी है। इन आठ सालों में बच्चों की पूरी एक पीढ़ी इस अधिकार से बाहर हो गई। खैर जो हुआ सो हुआ। अब तो यही आशा की जा सकती है कि यह कानून भलीभांति लागू हो जाए जिसकी संभवना फिलहाल तो कम है।

2 Comments:

आलोक साहिल said...

बेहद सटीक और सही विश्लेषण...

आलोक साहिल

सुभाष चन्द्र said...

सवालों के तह में जाता समीचीन विश्लेषण...........जरुरत इस पोस्ट को हर शहरी को पढने कि ...

नीलम