Tuesday, March 9, 2010

बदल रही है सोच

कल 8 मार्च था यानी महिला दिवस। एक ऐसा दिन जब विश्वभर की मीडिया आधी आबादी पर केन्द्रित सा हो जाता है। कभी तोड़ती पत्थर के जरिए, तो कभी अंतरिक्ष में महिला की चहलकदमी जैसी खबरों के इर्द गिर्द महिलाओं की सम्पूर्ण स्थिति को बांधने का प्रयास किया जाता है। नरजंदाज हो जाती है वह उपलब्धियां जो देखने में तो छोटी हैं पर इसका असर गंभीर है, सतसैंया के दोहों की तरह जो देखने में तो छोटे होते हैं पर घाव गंभीर करते हैं। भारतीय महिलाओं की अंतरिक्ष में चहल कदमी को तो हर कोई नोटिस कर लेता है पर समाज में हो रहे उन छोटे-छोटे बदलावों को नज़रअंदाज कर दिया जाता है जिनकी बदौलत समाज को एक नई दिशा मिल रही है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर जिक्र उन चंद महिलाओं का जो चांद पर नहीं गईं पर धरती पर रहकर समाज की सोच को बदलने का प्रयास किया है। 8 मार्च आधी आबादी का दिन है। एक ऐसा दिन जब समाज में महिलाओं की स्थिति पर गर्मागर्म चर्चा होती है। इस दिन समाज सुधारकों और बुद्धिजीवियों के साथ साथ तमाम मीडिया भी औरतों की समाज में स्थिति का आकलन करने में लग जाता है। पर इस आंकलन में या तो उन महिलाओं का जिक्र होता है जिन्होंने समाज में ऐसा कोई कार्य किया हो जो अपने आप में विरल होता है या फिर उस महिला का जो नौ माह के गर्भ के बावजूद, चौथे माले पर, अपने सर पर ईंट लादकर ले जाने को मजबूर होती है। कहने का तात्पर्य यह कि या तो औरतों की बड़ी बड़ी उपलब्धियों को गिनाया जाता है या 21वीं सदी में भी नारकीय जीवन बिताने को मजबूर स्त्री आकर्षण का केन्द्र होती है। इन सब कवायदों में लोगों के साथ साथ मीडिया भी औरतों की इन छोटी छोटी उपलब्धियों को भूल जाता है जो सही मायने में समाज में हो रहे परिवर्तनों की धुरी है। यह वह उपलब्धियां हैं जिनकी बदौलत भारतीय समाज में स्त्रियों ने छोटे छोटे मगर मजबूत कदमों से एक ऐसी नींव तैयार की है जिस पर खड़ी इमारत नि:संदेह मजबूत और दमदार होगी। वर्षों से चली आ रही रूढिय़ों को तोडक़र महिलाओं ने समाज में अपनी स्थिति को मजबूत तो किया ही है साथ ही विश्व को भी अपनी ताकत से रू-ब-रू करवाया है। भारत में धर्म चाहे हिन्दू हो या इस्लाम, कट्टर ही माना जाता है और अगर इसके रूढिग़त चले आ रहे नियमों को कोई तोडऩे का प्रयास करे तो क्या होता है यह बताने की आवश्यकता नहीं है। पर महिलाओं ने अब पीढिय़ो से चली आ रहा घर्मगत पुरुष प्रधान कार्यो को भी अपने जिम्मे ले लिया है। क्या कोई भगवा भेषधारी अपनी बनाई रूढिय़ों को तोड़ सकता है? क्या कभी महिला भी महंत हो सकती है। इस असंभव को संभव किया है साध्वी देव्यागिरी ने। देव्यागिरि के महंत के पद पर आसीन होने के साथ ही न सिर्फ लखनऊ के 100 साल पुराने मनकमलेश्वर शिव मंदिर की बल्कि सदियों से चली आ रही पुरुष महंत की परंपरा चरमराकर रह गई। अब देव्या उस गद्दी की अधिकारी हैं जिसको पुरुषों की आदत पड़ चुकी थी। भगवा भेषधारी देव्या ने वह कर दिखाया जो बड़े बड़े समाज सुधारक भी आज तक नहीं कर सके। ऐसा नहीं है कि परिवर्तन केवल हिंदू समाज में ही हुए हैं। मुस्लिम समुदाय में भी महिलाओं ने वह कर दिखाया है जिसकी कल्पना तक करना आसान नहीं था। सबसे पहले वह रूढि़ टूटी जिसके चलते औरतों को मस्जिद में नमाज अता करने पर पाबंदी थी। लखनऊ की मुस्लिम महिलाओं ने मस्जिद में नमाज अता करने का साहस कर दिखाया। भले ही उनके इस कदम को पूरे मुस्लिम समुदाय ने इस्लाम से बगावत का दर्जा दिया औैर फतवे भी जारी किए लेकिन दुनिया यह जान गई कि अब मुस्लिम महिलाएं रूढि़वादी मौलवियों द्वारा बनवाई गई गैरजरूरी इबारतों को पढऩे में कोई दिलचस्पी नहीं रखती। इसके बाद 2008 में नेशनल प्लानिंग कमीशन की डॉ. सईदा हमीद और समाजसेवी नाइश हसन ने तो मुस्लिम समुदाय को चौंकाकर रख दिया। डॉ. सईदा ने बतौर पहली महिला काजी, समाजसेवी संस्था तहरीक की अध्यक्ष, नाइश हसन और इमरान का निकाह पढ़वाया। और तो और यह निकाह भी आम मुस्लिम निकाहों से जुदा था क्योंकि रस्मों में भी काफी फेरबदल किया गया था। इन दोनों महिलाओं का यह कदम भले ही फौरी तौर पर कोई परिवर्तन न ला पाए लेकिन इन्होंने समाज को एक नई दिशा की राह तो दिखाई ही है। सदियों से हिन्दू समाज में महिलाएं पति की मृत्यु पर सती होती थीं या रुदाली बन उनकी मृत्यु पर क्रंदन करती थीं। हमेशा से पुरुषों के इर्द गिर्द घूमने वाले भारतीय समाज के पुरुषों को तब गहरा धक्का लगा जब एक महिला ने उनसे वह अधिकार छीन लिया जिस पर एक तरह से उनका एकाधिकार था। पिता के दाह संस्कार का पैदायशी हक पाने वाला पुरुष समाज एक महिला डॉ. बंदिता पुकन से हार गया। बंदिता ने वह कर दिखाया जिसके बारे में कोई भारतीय स्त्री सोच भी नहीं सकती थी। पेशे से मैकेनिकल इंजीनियर आसाम की डॉ. बंदिता पुकन ने 1993 में अपने पिता का अंतिम संस्कार किया। एक ऐसी विधि जिस पर अब तक पुरुषों का एकाधिकार था। उनके इस फैसले का काफी विरोध हुआ पर अंतत: जीत बंदिता की हुई। पुरोहितों ने फैसला किया कि चूंकि बंदिता का कोई भाई नहीं है अत: उन्हें पूरा हक है अपने पिता का दाह संस्कार करने का और इसी के साथ लिख दी गई एक नई इबारत जो आज भी बदस्तूर जारी है। इसके बाद तो हर स्त्री चाहे वह पत्नी हो या पुत्री, उसे यह अधिकार प्राप्त हो गया कि वह अपने संबन्धी का अंतिम संस्कार कर सके। 19 सितम्बर, 2007 को सामाजिक रूढिय़ों में जकड़ा माना जाने वाला का बिहार के नवादा जिले में शर्मिला देवी और मीना देवी ने अपने पिता उल्लास महतो का अंतिम संस्कार किया। सुखद यह था कि इन्होंने यह सब अपने भाईयों की उपस्थिति में किया। इसी तरह आरा की 50 वर्षीय महिला गीतू अवनिाश ने अपने पति अविनाश कुमार की मृत्यु के बाद श्राद्ध करवाया, जो अब तक पुत्र या पुरुष रिश्तेदार करवाता था। गीतू ने यह कार्य अपने देवर और उसके दो बेटों की उपस्थिति में किया। इसी तरह गुजरात के बडोदरा के राजपिपला की हेमा गोहिल ने अपनी छोटी बहन के साथ अपने पिता मोती सिंह परमार का अंतिम संस्कार किया। सवर्णों के लिए यह एक ऐसा साहसिक कदम था जिस पर हिन्दू खासकर पुरुषों को सख्त एतराज था। 2 जुलाई 2007 को इलाहाबाद की माया मुक्ति उपाध्याय ने इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए अपने ससुर का अंतिम संस्कार किया। 16 सितम्बर, 2007 को ओडि़सा के सबंलपुर की 49 साल की शांति बेहरा, ने अपने पति की अंतिम यात्रा में शामिल होकर उस रूढि़ को तोड़ा जिसके चलते यह हक केवल पुरुषों के पास था। किसी दूरदराज गांव में परिवर्तन की लहर लाकर, तो कभी दहेज रूपी दानव का मुकाबला करने के लिए अपनी बारात वापस भेज कर, कहीं लोगों को शराब के ठेके तोडऩे को मजबूर करती यह महिलाएं परिवर्तन की नई परिभाषा गढ़ रही हैं वह भी बिना किसी शोर शराबे और प्रदर्शन के। यहां तो चंद इबारतों का ही जिक्र है। इसके अलावा अनगिनत महिलाएं हैं जो हर दिन हर पल एक नई जमीन तैयार कर रही है। वे यह जानती भी नहीं है कि उनका यह कदम समाज में बड़े एक परिवर्तन का सूचक है। यह वह महिलाएं हैं जिनको कोई नहीं जानता लेकिन यह वहीं है जो समाज को धीरे धीरे ही सही, बदल रही हैं। महिला दिवस पर इन महिलाओं को शत शत नमन।

3 Comments:

ashok mishra said...

bahut acha aur sadha hua likh rahi hai.

Ashok mishra
editor Rachna kram

Anonymous said...

neelam ji aapka lekh padha. padhta to hamesha hun. mahila diwas per bhi padha. meri drusti me mahila devi hai. isliye mahilaon per likhe kisi lekh ka mujh per koi asar nahi hota hai. phir bhi aapke lekh me sargarbhita hai.aaj aapke lekh k bahane mai bhi mahilaon se ek sawal karna chahta hun ki wo yeh batayen ki we ramayan ki sita banana chahti hain ya ramcharit manas ki? mera prashan thhoda atpata sa hai. lekin iska jawab milne per hi mere jaisa alpgyani mahila diwas ya women lib ko lekar koi dharna bana saqta hai.Aapki bhasha sadhi hui hai.
Is sadhepan ki nirantarta banaye rakhen

सुभाष चन्द्र said...

समसामयिक विषयों पर अच्छा कलम चलती है नीलम जी.
मुझे लगता है नाम का भी असर है... नीलम रत्न की महता किसी से छिपी नहीं है .
कितने लोगो का जीवन संवार चुकी है नीलम रत्न.... उसी प्रकार आप भी अपनी लेखनी से लोगो को utaprarit कर रही है .

नीलम