Sunday, February 7, 2010

रास्ता नहीं मिलता....

आम आदमी को महगाई की मार आखिर कब तक सहनी होगी इस बात का जवाब किसी के पास नहीं है। सरकार पहले तो चुनाव के कार्य में व्यस्त रही और अब मंत्रिमंडल के गठन में। आम आदमी पहले भी महगाई की चक्की में पिस रहा था और अब भी पिस रहा है। केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार अब भी ब्यान दे रहे है कि लगातार मानसून के कमजोर होने से कृषि उत्पादन में आई कमी ही महगाई का कारण है। जल्द ही महगाई पर उनका कोई काबू नहीं है। अभी आने वाले समय में भी महगाई इसी प्रकार से जनता को परेशान करती रहेगी। उनके इस प्रकार से ब्यान से लोगों की बेचैनी और बढ़ गई है। लोगों का कहना है कि अगर सरकार ही इस समस्या से अपना पल्ला झाड़ लेती है तो इस समस्या से निजात दिलाने का जिम्मा कौन लेगा।
सच तो यही है कि सबको रोटी देने की जिम्मेवारी अमूमन केंद्रीय कृषि एवं खाद्य मंत्रालय की होती है, जिसका जिम्मा शरद पवार के कंधों पर है। सौ दिनी एजेंडे को छोड़ भी दिया जाए तो इसका अनुभव उनके पास पांच वर्ष से अधिक का है। फिर भी उनके मंत्रालय की नाकामी के कारण देश की जनता त्राहि-माम कर रही है। हाल तो इसकदर बेहाल है कि वह अपनी जिम्मेदारी में प्रधानमंत्री की सहभागिता को लपेट लेते हैं और कहते हैं कि मूल्य वृद्घि में प्रधानमंत्री सहित कैबिनेट की स्वीकृति होती है। लो कर लो बात...। सौ दिनी एजेंडे में स्मरणीय यह भी है कि पहली बार कृषि मंत्री शरद पवार ने देश में भरोसा पैदा करने की जगह संसद के परिसर से लेकर कृषि मंत्री की कुर्सी पर बैठ कर कहा कि चावल-चीनी के दाम आने वाले वक्त में बढ़ सकते हैं । दाल की कमी हो सकती है । इस दौर में कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य सत्यव्रत चतुर्वेदी ने भी सूखे और महंगाई के मद्देनजर शरद पवार पर देश को गुमराह करने का आरोप लगाया। लेकिन प्रधानमंत्री अपनी टीम के वरिष्ठ मंत्री को लेकर न दुखी हुए न ही उन्होंने कोई प्रतिक्रिया दी । बात हवा में उड़ा दी गयी। ग्लोबल हंगर इंडेक्स, 2009 के आंकड़ों के मुताबिक विश्व में भूखे और कुपोषित लोगों के सूचकांंक में भारत 65वें नंबर पर है। 23।9 फीसदी भूखी और कुपोषित जनता के साथ भारत 84 देशों की इस ग्लोबल हंगर सूची में 65वें स्थान पर है। इस रिपोर्ट को अंतर्राष्टï्रीय खाद्यान्न नीति एवं अनुसंधान संस्थान और कंसर्न वल्र्डवाइड ने मिल कर तैयार किया है। स्याह सच यह भी है कि जिस देश के कुछ मंत्री और नौकरशाह मिलकर एक वर्ष में करोड़ो रुपए का बोतलबंद पानी, चाय और काफी गटक जाते हैं, जहां मंत्रियों की गाडिय़ों और यात्राओं पर सालाना सैकड़ों करोड़ों रुपए खर्च हो जाते हैं, जहां भारी-भरकम योजनाओं तो बनती है लेकिन फलितार्थ नहीं हो पाती, जहां गोदामों में लाखों टन अनाज चूहे साफ कर जाते हैं और उस पर भी आयोग गठित होने की बात होती है, जहां बंदरगाह पर अनाज सड़ जाता है, वहां लोगों को खाना नहीं मिलता। इस विरोधाभास को समझना आसान नहीं है?
सरकार चूंकि कांग्रेस के नेतृत्व में है और सरकार का मुखिया विश्वविख्यात अर्थशास्त्री हैं, सो जिम्मेदारी केंद्रीय कृषि मंत्री से कमत्तर जिम्मेवारी उनकी भी नहीे है। काबिलेगौर है कि कांग्रेस ने अपने आर्थिक प्रस्ताव में कहा कि मूल्यों में वृद्धि के कुछ कारणों में जलवायु परिवर्तन का भी योगदान रहा है लेकिन हमें विश्वास है कि सरकार की नीतियां कुछ आवश्यक खाद्य वस्तुओं के मूल्यों को नियंत्रित करने में सफल होंगी। पार्टी ने अपने राजनीतिक संकल्प में कहा कि बाहरी ताकतों द्वारा प्रायोजित आतंकवादी ताकतों के कारण बढ़ते खतरे पर यह अधिवेशन चिंता व्यक्त करता है। आज यह लोगों के लिए गंभीर चिंता का विषय बन गया है। हम उन देशों की निंदा करते हैं जो आतंकवादियों को संरक्षण प्रदान करते हैं और उनको बढ़ावा देते हैं। यह अधिवेशन आतंकवाद को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय से तत्काल हस्तक्षेप करने का आह्वान करता है। नए राज्यों की मांग के संबंध में पार्टी का मानना है कि पृथक तेलंगाना राज्य बनाए जाने के लिए केंर्द सरकार की सहमति की घोषणा से राजनीतिक संकट पैदा हो गया है जिसके फलस्वरूप यह राज्य विभिन्न राजनीतिक दलों का अखाड़ा बन गया है। राकांपा किसी भी मामले में जल्दबाजी में निर्णय लिए जाने के दृष्टिकोण से सहमत नहीं है।
दूसरी ओर समस्या यह भी है कि आर्थिक विकास दर से रीझे चंद बुद्धिजीवियों द्वारा देश में ऐसा माहौल बना दिया गया है कि मनमोहन जैसी मन मोहने वाली सरकार का कोई जोड़ नहीं। चूंकि विपक्ष बिखराव से ग्रस्त है और संप्रग सरकार की आलोचना करना वर्जित कृत्य करार दिया गया है इसलिए कोई भी इस ओर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं कि विदेश नीति से लेकर अर्थनीति तक के प्रत्येक मोर्चे पर केंद्रीय सत्ता कितनी विफल है। महंगाई चरम सीमा को छूने के बाद भी जिस तरह थमने का नाम नहीं ले रही उससे केंद्रीय सत्ता को चिंतित होना चाहिए, लेकिन ऐसे संकेत तक नहीं नजर आते कि उसके लिए यह चिंताजनक मसला है। दालों, चीनी एवं अन्य खाद्य सामग्री के बेतहाशा बढ़ते मूल्यों के लिए उसके पास न केवल तरह-तरह के बहाने मौजूद हैं, बल्कि यह दो टूक जवाब भी कि महंगाई का सामना करने के अलावा और कोई उपाय नहीं। खाद्य पदार्थो की कमी के लिए कभी कम उत्पादन को जिम्मेदार बनाया जाता है, कभी अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेजी को और कभी राज्य सरकारों के उस रवैये को जिसके तहत जमाखोरों और कालाबाजारियों के खिलाफ कार्रवाई करने में आनाकानी की जा रही है। यदि महंगाई का कारण जमाखोरी है तो फिर कम पैदावार और अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेजी का रोना क्यों रोया जाता है? सवाल यह भी है कि यदि महंगाई के लिए ये सभी कारक जिम्मेदार हैं तो फिर केंद्रीय सत्ता किस मर्ज की दवा है? यथार्थ यह है कि केंद्रीय सत्ता इतनी नाकारा है कि वह न तो कम पैदावार का अनुमान लगा सकी, न समय रहते दालों-चीनी आदि का आयात कर सकी। कहने को एक कृषि एवं खाद्य मंत्रालय है, लेकिन उसे न तो कृषि से मतलब है और न ही खाद्य संकट की चिंता करने से। देश यह भी महसूस कर रहा है कि मनमोहन का शरद पवार पर कोई जोर नहीं और शरद पवार को मनमोहन सिंह की कोई परवाह नहीं। शरद पवार जितने निरंकुश हैं, मनमोहन सिंह अपने निरंकुश मंत्रियों पर लगाम लगाने में उतने ही अक्षम हैं। वह किसी सेमिनार, सभा, सम्मेलन में भाषण देने के लिए ही अधिक स्वतंत्र-सक्षम नजर आते हैं। कोई नहीं जानता-शायद मनमोहन सिंह भी नहीं कि उन समस्याओं से निपटने के लिए क्या किया जा रहा है जो राष्ट्र के समक्ष मुंह बाए खड़ी हैं।
दूसरी ओर समस्या यह भी है कि आर्थिक विकास दर से रीझे चंद बुद्धिजीवियों द्वारा देश में ऐसा माहौल बना दिया गया है कि मनमोहन जैसी मन मोहने वाली सरकार का कोई जोड़ नहीं। चूंकि विपक्ष बिखराव से ग्रस्त है और संप्रग सरकार की आलोचना करना वर्जित कृत्य करार दिया गया है इसलिए कोई भी इस ओर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं कि विदेश नीति से लेकर अर्थनीति तक के प्रत्येक मोर्चे पर केंद्रीय सत्ता कितनी विफल है। महंगाई चरम सीमा को छूने के बाद भी जिस तरह थमने का नाम नहीं ले रही उससे केंद्रीय सत्ता को चिंतित होना चाहिए, लेकिन ऐसे संकेत तक नहीं नजर आते कि उसके लिए यह चिंताजनक मसला है। दालों, चीनी एवं अन्य खाद्य सामग्री के बेतहाशा बढ़ते मूल्यों के लिए उसके पास न केवल तरह-तरह के बहाने मौजूद हैं, बल्कि यह दो टूक जवाब भी कि महंगाई का सामना करने के अलावा और कोई उपाय नहीं। खाद्य पदार्थो की कमी के लिए कभी कम उत्पादन को जिम्मेदार बनाया जाता है, कभी अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेजी को और कभी राज्य सरकारों के उस रवैये को जिसके तहत जमाखोरों और कालाबाजारियों के खिलाफ कार्रवाई करने में आनाकानी की जा रही है। यदि महंगाई का कारण जमाखोरी है तो फिर कम पैदावार और अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेजी का रोना क्यों रोया जाता है? सवाल यह भी है कि यदि महंगाई के लिए ये सभी कारक जिम्मेदार हैं तो फिर केंद्रीय सत्ता किस मर्ज की दवा है? यथार्थ यह है कि केंद्रीय सत्ता इतनी नाकारा है कि वह न तो कम पैदावार का अनुमान लगा सकी, न समय रहते दालों-चीनी आदि का आयात कर सकी। कहने को एक कृषि एवं खाद्य मंत्रालय है, लेकिन उसे न तो कृषि से मतलब है और न ही खाद्य संकट की चिंता करने से। देश यह भी महसूस कर रहा है कि मनमोहन का शरद पवार पर कोई जोर नहीं और शरद पवार को मनमोहन सिंह की कोई परवाह नहीं। शरद पवार जितने निरंकुश हैं, मनमोहन सिंह अपने निरंकुश मंत्रियों पर लगाम लगाने में उतने ही अक्षम हैं। वह किसी सेमिनार, सभा, सम्मेलन में भाषण देने के लिए ही अधिक स्वतंत्र-सक्षम नजर आते हैं। कोई नहीं जानता-शायद मनमोहन सिंह भी नहीं कि उन समस्याओं से निपटने के लिए क्या किया जा रहा है जो राष्ट्र के समक्ष मुंह बाए खड़ी हैं।

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नीलम