Saturday, February 13, 2010

नक्सली ककहरा

किसी भी समाज की व्यवस्था पर सबसे अच्छी चोट बच्चों का गलत इस्तेमाल करके पहुंचायी जा सकती है। यही कारण है कि पहले जिन सरकारी स्कूलों के भवन को नक्सलियों ने तोड़ दिया था आज वहीं आदिवासी बच्चे नकसली ककहरा पढ़ रहे हैं। कैसे नक्सली बस्तर जिले के आंतरिक क्षेत्रों में चलने वाले इन प्राथमिक स्कूलों में बच्चों को गणित, विज्ञान व पर्यावरण के साथ हथियारों का प्रशिक्षण और लोगों के साथ विद्रोह की मूल बातें सिखा रहे हैं? प्रस्तुत है इसी की पड़ताल करता - आज पढ़िए क्या कर रही है प्रदेश की भाजपा सरकार बस्तर के कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां प्रदेश की भाजपा सरकार के शासन को नक्सली चुनौती देते हैं। इन क्षेत्रों में सरकारी स्कूल तो हैं पर यहां पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं हैं। कुछ समय पहले ही जब बस्तर जिला शिक्षा अधिकारी डी सौमैय्या ने अपने साथी अफसरों के साथ बकावंड एवं बस्तर ब्लाक की शालाओं का अचानक निरीक्षण किया था तो पाया था कि वहां की अधिकतर शालाएं बंद थी। जो शालाएं खुली भी थी वहां पढऩे वाले बच्चों का आभाव था। इसी तरह ग्राम कचनार में निरीक्षण दौरान पहुंचने पर देखा गया कि वहां की पूर्व माध्यमिक शाला में ताला लगा हुआ था। जिसके चलते वहां पदस्थ हेडमास्टर सुखराम गौरे, शिक्षाकर्मी वर्ग दो कीर्ति देवांगन एवं नेत्र प्रभा जोशी का वेतन भी रोका गया था। बोरपदर के मीडिल व प्रायमरी स्कूलों, चोलनार, नेगानार, पंडानार की प्राथमिक शालाओं में भी निरीक्षण के दौरान असमानता पायी गई। जाहिर है कि ये इस क्षेत्र के वह गांव हैं जो शहर के पास हैं। भीतरी इलाकों की शालाओं में तो शायद ही कभी कोई शिक्षक जाता होगा। ऐसा नहीं है कि नक्सलियों ने अपनी मुहिम को तेज और असरकारी बनाने के लिए पहली बार बच्चों का इस्तेमाल किया है। ह्युमन राइट्स वॉच यानी एचआरडब्ल्यु की (॥क्रङ्ख)की 2008 की रिपोर्ट में प्रकाशित किया था कि नक्सली अपने अभियान के लिए बच्चों के 'बाल संघम बना रहे हैं जिसमें छह और 12 वर्ष की आयु के बीच के बच्चों को माओवादी विचारधारा का पाठ पढ़ाया जा रहा है तथा हथियार चलाने का प्रशिक्षिण भी दिया जा रहा है। इसके लिए बच्चों को अलग-अलग दलों के रूप में बांटा जाता है। जिनमे 'चैतन्य नाट्य मंच, 'संघम, 'जन मिलिट्रीज और 'दलम के तौर पर पहचाना जाता है। 'संघम, 'जन मिलिट्रीज और 'दलम में नक्सली बच्चों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण देते हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि शुरुआत में इन बच्चों को नक्सली अपने मुखबिरों के रूप में इस्तेमाल करते हैं और जब यह बच्चे घातक हथियारों को चलाने में माहिर हो जाते हैं तब इन्हें हिंसक वारदातों का हिस्सा बना लिया जाता है। चूंकि बच्चों पर जल्दी किसी को शक नहीं होता अत: नक्सली इन बच्चों को राइफल के प्रशिक्षण के साथ विस्फोटकों से विभिन्न प्रकार के बारूदी सुरंगें बनाना भी सिखाते हैं ताकि समय आने पर इन्हें आसानी से इस काम में लगाया जा सके। कई बार माओवादी सुरक्षा बलों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष में इन बच्चों को ढाल के रूप में भी प्रयोग करते हैं। ये बच्चे स्कूल की यूनिफार्म में पुलिस को चकमा देकर, हथियारों की तस्करी भी करते हैं। कुछ समय पहले नक्सलियों और पुलिस के बीच हुए संघर्ष में पुलिस ने सात नक्सलियों को गोली मार दी थी। उनमें से कुछ स्कूल की वर्दी में थे। छत्तीसगढ़ में माओवादियों ये स्कूल दक्षिण बस्तर, दन्तेवाड़ा, बीजापुर और नारायणपुर जिलों में फैले विशाल वन क्षेत्र में अपना पैर पसार चुके हैं और अब इनकी नज़र शहर के स्कूलों पर है। सरकारी अनुमान के अनुसार बस्तर के तीन सौ से ज्यादा स्कूलों पर माओवादी कब्जा कर चुके हैं और यहां अपना स्कूल चला रहे हैं। ये वह स्कूल हैं जो आदिवासी कल्याण विभाग द्वारा चलाए जा रहे थे। वैसे भी आदिवासी कल्याण विभाग आदिवासी छात्रों को पढऩे के लिए प्रेरित करने में असक्षम रहा है। आदिवासी कल्याण विभाग के ही आंकड़ों पर गौर करने से पता चलता है कि दंतेवाड़ा में पहली कक्षा में लगभग 19,000 से अधिक छात्र एक शिक्षा सत्र में स्कूलों में दाखिला लेते हैं पर पांचवीं कक्षा तक पहुंचने-पहुंचते उनकी संख्या 7,000 से नीचे आ जाती है। इसके बाद आठवीं कक्षा में 4,000 बच जाते हैं और 10 वीं तक तो मात्र 2,300 छात्र ही पहुंचते हैं। इसी तरह बीजापुर जिले के 7,100 छात्र को पहली कक्षा में दाखिला लेते हैं जो आठवीं और दसवीं तक मात्र 1,500 और 1,200 ही रह जाते हैं। नारायणपुर की स्थिति तो इससे भी बदतर है। यहां 5000 छात्रों में से मात्र 1,000 छात्र ही 10 वीं कक्षा तक पहुंच पाते हैं। अब चूंकि यहां माओवादियों के स्कूल चलते हैं इसलिए क्षेत्र के आदिवासी छात्र, सरकार की शिक्षा से संबंधित तमाम सुविधाओं वंचित हैं। यह हाल सिर्फ छत्तीसगढ़ का नहीं है ऐसी ही स्थिति आंध्र प्रदेश और उड़ीसा के कई अंदरूनी हिस्सों के स्कूलों की भी है। ऐसे में नक्सली, आदिवासियों के बच्चों को अपनी पाठशाला में पढ़ाने के बहाने बुलाते हैं। कभी बहला फुसलाकर तो कभी जबरदस्ती भी। माओवादियों के इस कदम का आदिवासी ग्रामीणों ने विरोध भी किया है। पिछले दिनों माओवादी के इन प्रयासों के विरोध की कई घटनाएं सामने आयी हैं। नक्सलियों का यह कार्य, सरकार द्वारा चलाए जा रहे उस अभियान के बदले की कार्यवाही है जिसे पूरा देश सलवा जुड़ूम के नाम से जानता है। नक्सलियों से जूझने के लिए सन् 2005 में शुरू किये गए सलवा जुड़ूम आंदोलन को सरकार का साथ मिला, लेकिन इसके बाद नक्सली और आक्रामक हो गए। बाद में सलवा जुड़ूमियों पर भी हत्या, लूटपाट और बलात्कार के आरोप लगे। बस्तर इलाके के 600 से ज्यादा गांव खाली हो गए। इनकी आबादी करीब 3 लाख बताई जाती है। इनमें से 60 हजार लोग सरकार के बनाए गये राहत शिविरों में रहते हैं, लेकिन बाकी आदिवासी कहां गये इसकी कोई खबर किसी को नहीं है। एक अंदाजें के अनुसार बड़ी संख्या में इन्होंने आंध्रप्रदेश व उड़ीसा की ओर भी पलायन किया, लेकिन उन्हें वहां से भी खदेड़ा जाता रहा। इन पलायन करने वालों के खेत-खलिहान उजड़ गए, बच्चों का स्कूल व पेट भर खाना छूट गया। अब खाली हाथ हो चुके आदिवासियों के सामने नक्सली बनने के अलावा कोई चारा नहीं है क्योंकि सरकार इन्हें चावल तो दे सकती है पर नक्सलियों से सुरक्षित नहीं रख सकती। इसका प्रमाण है सलवा जुड़ूम अभियान के बाद नक्सलियों के कई हमले जिसमें सैकड़ो आदिवासी मारे जा चुके हैं। एक ओर तो राज्य में इतने अधिक इंजीनियरिंग कालेज खोले जा चुके हैं कि पीईटी दिलाने वाले सारे छात्रों को जगह मिल जा रही है। राज्य में 4 नये मेडिकल कालेज खुल चुके हैं जो रमन सरकार की कामयाबियों की फेहरिस्त में एक सुनहरा अध्याय बन चमक रहे हैं। वहीं दूसरी ओर आदिवासी इलाकों में डॉक्टरों की भारी कमी है और स्वास्थ्य सेवा जैसी मूलभूत सुविधा का बुरा हाल है। राज्य की कुपोषण की दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। राज्य की औसत साक्षरता 64 प्रतिशत से अधिक है लेकिन आदिवासी इलाकों में यह 50 फीसदी तक ही सिमटी हुई है। स्कूली शिक्षा का बजट 9 सालों में 345 करोड़ से बढ़कर 2555 करोड़ हो गया पर आज भी आदिवासी इलाको के सैकड़ों स्कूल अभी भी शिक्षक विहीन हैं और स्कूल भवन जर्जर हैं। ऐसे में अगर आदिवासियों को सब्ज बाग दिखाकर नक्सली उनके बच्चों को अपना हथियार बना रहे हैं तो इसमें कहीं न कहीं राज्य सरकार भी दोषी है। विडंबना यही है राज्य की भाजपा सरकार 1 रुपए किलो चावल और 25 पैसे किलो का नमक बांटकर अपने कर्तव्यों से मुक्त होना चाहती है। जिस आदिवासी क्षेत्र में मिली भारी जीत के कारण भाजपा दोबारा सत्ता में आ पायी उनके कल्याण के नाम पर फाइलों में योजनाएं बनती और बिगड़ती हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो नक्सलियों द्वारा स्कूलों के भवनों पर कब्जा करने और वहां अपने स्कूल चलाने की खबर पर सरकार यूं खामोश न बैठी रहती। इस मामले पर सुरक्षा बलों ने बार-बार सरकार को आगाह किया लेकिन रमन सरकार पर इसका कोई खास प्रभाव नहीं दिखा। अगर इन खबरों का सरकार पर थोड़ा भी असर होता तो आज नक्सली धड़ल्ले से आदिवासियों के बच्चों को अपनी मुहिम का हिस्सा नहीं बना रहे होते।

2 Comments:

Anonymous said...

sarkaren or neta agar itne layak hote to shayad naxali hote hi nahi.

poonam

Anonymous said...

achchha laga aapka yeh lekh bhi.jab taq voton ki rajniti hoti rahegi tab taq yun hi sab garbar hota rahega

नीलम