Sunday, February 28, 2010
Saturday, February 27, 2010
अमर की हुई जया
Posted by सुभाष चन्द्र at 3:37 PM 0 comments
Labels: जयाप्रदा
Friday, February 26, 2010
होली आयो रे......
Posted by नीलम at 11:09 AM 0 comments
Thursday, February 25, 2010
प्रकृति के अद्भुत नजारे
हमेशा से हम 7 वंडर के रूप में ऐसा कृतियों को जानते हैं जो इंसानों ने बनाई है। पर दुनिया में ऐसे कई वंडर हैं जो प्रकृति ने स्वंम बनाया है। फिर भी इन्हें देखकर ऐसा नहीं लगता कि ये खूबसूरत और हैरान कर देने वाली कृतियां इंसानों की बनाई हुई नहीं हैं। सुंदरबन सुंदरबन यानी सुंदर बगीचा, दुनिया का सबसे बड़ा मैंग्रोव वनक्षेत्र है। इसका अधिकतर हिस्सा बांग्लादेश और भारत के पश्चिम बंगाल में फैला हुआ है। इन दोनों देशों का प्रयास है कि यह नेचुरल वंडर दुनिया के सात अजूबों के फेहरिस्त में शुमार हो। रॉयल बंगाल टाइगर का यह घर है। यह स्तनधारियों की 42, रेंगने वाले जंतुओं और उभयचरों की 35, पक्षियों की 270 और मछलियों की लगभग 120 प्रकार की प्रजातियों की शरणस्थली है। चॉकलेट हिल्स वैसे चॉकलेट हिल्स का चाकलेट से कोई लेना देना नहीं है। फिलीपींस के बोहोल प्रांत की इस खूबसूरत कृति की बात ही कुछ ऐसी है कि इसका नाम पड़ गया चॉकलेट हिल्स। इसका कारण है यहां की चॉकलेटी रंगत वाली पहाडिय़ां जिसके चलते इसका यह नाम पड़ा। वैसे तो आम दिनों में इन पहाडिय़ों पर हरी घास फैली रहती है। लेकिन गर्मी यानी सूखे मौसम में यह घास सूखकर चॉकलेट के रंग में नजर आने लगती हैं। और चाकलेट की तरह दिखती है। माउंट डमावैंड ईरान का माउंट डमावैंड एक सक्रिय ज्वालामुखी है। साथ ही यह पूरे एशिया का यह सर्वोच्च ज्वालामुखी पर्वत है। इस जगह पर चमत्कारिक गुणों से भरपूर कई गर्म झरने हैं। स्थानीय लोग ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के लोग बड़े से बड़े घावों और चर्म रोगों के निदान लिए यहां आते हैं। डेड सी सी ऑफ सॉल्ट को मृत सागर इसलिए कहते हैं क्योंकि चालीस से ज्यादा मील में फैली इस झील में जीवन संभव नहीं है। यह जॉर्डन से इजरायल तक फैली है। इसका पानी समुद्र के पानी से आठ गुना या यूं कहें कि इससे कहीं ज्यादा खारा है। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसके पानी में इतना साल्ट है कि कोई भी इसमें डूब नहीं सकता है। कॉक्स बाजार तट बांग्लादेश के डिस्ट्रिक्ट हेडक्वॉर्टर का नाम कॉक्स बाजार है और इसी के समुद्र तट के विशाल क्षेत्र को कॉक्स बाजार तट कहा जाता है। यह दुनिया का सबसे लंबा समुद्र तट है। लगभग 125 किलोमीटर क्षेत्र में फैले इस तट पर सैलानी अक्सर सनबाथ के लिए आते हैं। प्यूर्टो प्रिंसेसा रिवर पार्क जैसे भरात में गंगा, जमुना के साथ एक भूमिगत नदी सरस्वती के रूप में मानी जाती है। वैसे ही प्यूर्टो प्रिंसेसा भी एक भूमिगत नदी है। यह फिलीपींस की सेंट पॉल पहाडिय़ों की श्रृंखला में स्थित है। प्यूर्टो प्रिंसेसा एशिया की सबसे लंबी और दुनिया की दूसरी सबसे लंबी भूमिगत नदी है।
Posted by नीलम at 1:06 PM 1 comments
Tuesday, February 23, 2010
कुर्सी के लिए महादलित का दांव
Posted by सुभाष चन्द्र at 9:53 AM 0 comments
Monday, February 22, 2010
बजट से आस
हाथ से निकलता घर का बजट आटे दाल की मंहगाई ने कर दिया सब चौपट अब आशा है की देश के से सुधर जाए घर का बजट बांट जोहते, दिन काटते आंखों में उम्मीद लिए कर रहे इंतजार पूरी होगी आस यही है विश्वास
Posted by नीलम at 2:02 PM 2 comments
Thursday, February 18, 2010
प्रकृति का अनूठा प्रांगण बस्तर
जब चारों ओर हरियाली ही हरियाली नजर आए, हर तरफ उफनती नदियों की कलकल हो, खुले नीले आसमान के नीचे शोर मचाते झरने अपने पूरे उन्माद पर हो, तो वह स्थल सिर्फ और सिर्फ छत्तीसगढ का खूबसूरत स्वर्ग, बस्तर ही हो सकता है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता सजीव रूप देखने का आंकाक्षा हो तो एक बार बस्तर से रूबरू होना लाजमी है क्योंकि यहाँ न सिर्फ प्रकृति अपनी संपूर्ण अठखेलियों के साथ देखी जा सकती है बल्कि यहाँ के आदिवासियों का भोलापन भी लोगों का मन मोह लेगा। तो अगर आप शहरों की भागदौड से आजिज आ चुके हैं तो निःसंदेह आपको बस्तर का हर कोना पसंद आएगा क्या देखें बस्तर का हर कोना अपनी अलग खूबसूरती से महकता है। यहाँ के पेड और हरियाली यहाँ के जंगलों में रहने वाले आदिवासी, उनका हाट (लोकल मार्केट) सबकुछ मनोहारी है। इसके अलावा कुछ ऐसे स्थल भी हैं जो शायद कहीं और देखने को न मिलें। जलप्रपात चित्रकोट जलप्रपात य्ाह स्थान बस्तर के मुख्या जलदलपुर से 38 किमी है। इसे मिनी नियाग्रा भी कहा जाता है। इन्द्रावती नदी द्वारा बनाया गया यह बारिश में तो अपनी संपूर्ण कलाओं के साथ अठखेलियाँ करता ही है साथ ही गर्मियों भी इसकी छटा देखते ही बनती है। तीरथगढ जलप्रपात अगर कोई नदी पूरे वेग से 300 फीट की उंचाई से नीचे गिरे तो नजारा कैसा होगा य्ाह सोच कर ही मन रोमांच से भर जाता है। तीरथगढ का नजारा कुछ ऐसा ही है। यह छत्तीसगढ का सबसे ऊंचा जलप्रपात है। य्ाह जगदलपुर से 35 किमी दक्षिण में पडता है। इसके अलावा मंडवा और चित्रशारा जलप्रपात भी देखा जा सकता है। गुफाएं कोटमसर गुफाएं यह न तो ऐतिहासिक गुफाएं हैं और न ही आपको यहाँ कोई आदिमकाल की चित्र्ाकारी ही देखने को मिलेगी। यहाँ प्रकृति ने स्वंम के लिए चित्रकारी की है जिसका लुत्फ आप भी उठा सकते हैं। तीरथगढ के पास कांगेर वेली नेशनल पार्क में चूने के पत्थर काच कर पानी द्वारा निर्मित ये गुफा किसी को भी अचंभित कर सकती है। 40 फीट लंबी यह गुफा रोशनीविहीन है अतः yahan प्रकृति एक और करामात अंधी मछलियाँ पाई जाती हैं। इसके अलावा कैलाश गुफा और दण्डक गुफाएं भी देखने लाय्ाक हैं। नेशनल पार्क एवं सेंचुरीस अगर आप जंगल में रोमांच ढूढते हैं तो भी आपको बस्तर अवश्य आएगा जंगल को करीब से देखने का इससे बेहतर विकल्प आपको दूसरा नहीं मिल सकता। यहाँ अगर कांगेर वेली और इन्द्रावती जैसे नेशनल हैं तो भैरमगढ पमेडा और विरगिन कुर्चेल वेली जैसी सेंचुरीज भी हैं जहां आप प्रकृति का भरपूर आनंद ले सकते हैं। कैसे जाएं वैसे तो बस्तर जाने के कई मार्ग हैं पर छत्तीसगढ की राजधानी राय्ापुर से य्ाहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। बस्तर के लिए ट्रेन नहीं चलती अतः सडक मार्ग ही य्ाहां पहुंचने का एकमात्र्ा सहारा है। हां अगर आप विशाखापट्टनम होकर आ रहे हैं तो ट्रेन से यहाँ आया जा सकता है। वैसे छत्तीसगढ पर्यटन विभाग के पास य्ाहां के लिए पैकेज टूर का भी आप्शन है तो आप इसे भी आजमा सकते हैं। कहां ठहरें बस्तर के मुख्या शहर जगदलपुर को बेस बना आप पूरा बस्तर आसानी से घूम सकते हैं। य्ाहां छत्तीसगढ पर्यटन विभाग के गेस्ट हाउस और कई निजी होटल काफी कम दाम पर उपलब्ध हैं। क्या खरीदें बस्तर के हाट से आप लोकल वस्तुएं जैसे बांस से बने सामान आदि खरीद सकते हैं। इसके अलावा ब्रांज मेटल की कलात्मक वस्तुएं, कोसा सिल्क क् कपडे और साड़ियाँ, लकडी का सामान, ये सभी यहाँ विशेषता है, खरीदा जा सकता है। कब जाएं वैसे तो बस्तर हर मौसम में जाया जा सकता है पर अक्टूबर नवंबर में यहाँ जाने पर यहाँ के विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरे का आनंद लिया जा सकता है।
Posted by नीलम at 5:35 PM 2 comments
Sunday, February 14, 2010
मियां यह मोहब्बत है या कोई कारखाना
किसी विषय पर लिखने के पहले उसकी परिभाषा देने का रिवाज है। हम लिखने जा रहे हैं -प्यार पर। कुछ लोग कहते हैं-प्यार एक सुखद अहसास है। पर यह ठीक नहीं है। प्यार के ब्रांड अम्बेडर लैला मजनू ,शीरी -फरहाद मर गये रोते-रोते। यह सुखद अहसास कैसे हो सकता है? सच यह है कि जब आदमी के पास कुछ करने को नहीं होता तो प्यार करने लगता है। इसका उल्टा भी सही है-जब आदमी प्यार करने लगता है तो कुछ और करने लायक नहीं रहता। प्यार एक आग है। इस आग का त्रिभुज तीन भुजाओं से मुकम्मल होता है। जलने के लिये पदार्थ (प्रेमीजीव), जलने के लिये न्यूनतम तापमान(उमर,अहमकपना) तथा आक्सीजन(वातावरण,मौका,साथ) किसी भी एक तत्व के हट जाने पर यह आग बुझ जाती है। धुआं सुलगता रहता है। कुछ लोग इस पवित्र ‘प्रेमयज्ञधूम’ को ताजिंदगी सहेज के रखते हैं । बहुतों को धुआं उठते ही खांसी आने लगती है जिससे बचने के लिये वे दूसरी आग जलाने के प्रयास करते हैं।
सच तो यह भी है की प्र और एम का युग्म रूप प्रेम कहलाता है। प्र को प्रकारात्मक और एम को पालन करता भी माना जाता है। "ऐं" शब्द दुर्गा सप्तशती के अनुसार पालन करने वाले के रूप में माना जाता है। निस्वार्थ भाव से चाहत भी प्रेम की परिभाषा में सम्मिलित है। एक कहावत में प्रेम शब्द की परिभाषा बताई गयी है,-"प्रेम प्रेम सब कोई कहे,प्रेम ना जाने कोय,ढाई अक्षर प्रेम को पढे से पंडित होय"। ज्योतिष के अनुसार प्रेम का कारक सूर्य है,सूर्य से दर्शन और शनि से परसन की भावना बनती है,सूर्य से रूप का मन के उदय होना,और सूर्य से आत्मा का जुड जाना,प्रेम में सहायक होता है। निश्चल प्रेम का कारक चन्द्रमा भी है,जिसे ज्योतिष में माता के रूप में माना जाता है। भौतिक प्रेम का कारक शुक्र भी है,जिसे संसार की भौतिक सम्पदा और पति के लिये पत्नी के रूप में जाना जाता है। बुध विद्या का कारक है,और विद्या से प्रेम करने के द्वारा बुद्धि का विकास सम्बभव है।
किसी का साथ अच्छा लगना और किसी के बिना जीवन की कल्पना न कर पाना दो अलग बातें है। हमारी आंख से आजतक इस बात के लिये एक भी आसूं नहीं निकला कि हाय अबके बिछुड़े जाने कब मिलें। किताबों में फूल और खत नहीं रखते थे कभी काहे से कि जिंदगी भर जूनियर इम्तहान होते ही किताबें अपनी बपौती समझ के ले जाते रहे।
इससे हटकर आज के संधर्भ में बात करे तो क्या प्रेम का परिणाम संभोग है या कि प्रेम भी गहरे में कहीं कामेच्छा ही तो नहीं? फ्रायड की मानें तो प्रेम भी सेक्स का ही एक रूप है। फिर सच्चे प्रेम की बात करने वाले नाराज हो जाएँगे। वे कहते हैं कि प्रेम तो दो आत्माओं का मिलन है। तब फिर 'मिलन' का अर्थ क्या? शरीर का शरीर से मिलन या आत्मा का आत्मा से मिलन में क्या फर्क है? प्रेमशास्त्री कहते हैं कि देह की सुंदरता के जाल में फँसने वाले कभी सच्चा प्रेम नहीं कर सकते। कामशास्त्र मानता है कि शरीर और मन दो अलग-अलग सत्ता नहीं हैं बल्कि एक ही सत्ता के दो रूप हैं। तब क्या संभोग और प्रेम भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं? धर्मशास्त्र और मनोविज्ञान कहता है कि काम एक ऊर्जा है। इस ऊर्जा का प्रारंभिक रूप गहरे में कामेच्छा ही रहता है। इस ऊर्जा को आप जैसा रुख देना चाहें दे सकते हैं। यह आपके ज्ञान पर निर्भर करता है। परिपक्व लोग इस ऊर्जा को प्रेम या सृजन में बदल देते हैं।
दर्शन कहता है कि कोई आत्मा इस संसार में इसलिए आई है कि उसे स्वयं को दिखाना है और कुछ देखना है। पाँचों इंद्रियाँ इसलिए हैं कि इससे आनंद की अनुभूति की जाए। प्रत्येक आत्मा को आनंद की तलाश है। आनंद चाहे प्रेम में मिले या संभोग में। आनंद के लिए ही सभी जी रहे हैं। सभी लोग सुख से बढ़कर कुछ ऐसा सुख चाहते हैं जो शाश्वत हो। क्षणिक आनंद में रमने वाले लोग भी अनजाने में शाश्वत की तलाश में ही तो जुटे हुए हैं। आखिर प्रेम क्या है?यही तो माथापच्ची का सवाल है। क्या यह मान लें कि प्रेम का मूल संभोग है या कि नहीं। सभी की इच्छा होती है कि कोई हमें प्रेम करे। यह कम ही इच्छा होती है कि हम किसी से प्रेम करें। वैज्ञानिक कहते हैं कि प्रेम आपके दिमाग की उपज है। अर्थात प्रेम या संभोग की भावनाएँ दिमाग में ही तो उपजती है। दिमाग को जैसा ढाला जाएगा वह वैसा ढल जाएगा।आत्मीयता ही प्रेम है :विद्वान लोग कहते हैं कि दो मित्रों का एक-दूसरे के प्रति आत्मीयता हो जाना ही प्रेम है। एक-दूसरे को उसी रूप और स्वभाव में स्वीकारना जिस रूप में वह हैं। दोनों यदि एक-दूसरे के प्रति सजग हैं और अपने साथी का ध्यान रखते हैं तो धीरे-धीरे प्रेम विकसित होने लगेगा।
Posted by सुभाष चन्द्र at 11:50 AM 3 comments
Labels: प्रेम
Saturday, February 13, 2010
नक्सली ककहरा
किसी भी समाज की व्यवस्था पर सबसे अच्छी चोट बच्चों का गलत इस्तेमाल करके पहुंचायी जा सकती है। यही कारण है कि पहले जिन सरकारी स्कूलों के भवन को नक्सलियों ने तोड़ दिया था आज वहीं आदिवासी बच्चे नकसली ककहरा पढ़ रहे हैं। कैसे नक्सली बस्तर जिले के आंतरिक क्षेत्रों में चलने वाले इन प्राथमिक स्कूलों में बच्चों को गणित, विज्ञान व पर्यावरण के साथ हथियारों का प्रशिक्षण और लोगों के साथ विद्रोह की मूल बातें सिखा रहे हैं? प्रस्तुत है इसी की पड़ताल करता - आज पढ़िए क्या कर रही है प्रदेश की भाजपा सरकार बस्तर के कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां प्रदेश की भाजपा सरकार के शासन को नक्सली चुनौती देते हैं। इन क्षेत्रों में सरकारी स्कूल तो हैं पर यहां पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं हैं। कुछ समय पहले ही जब बस्तर जिला शिक्षा अधिकारी डी सौमैय्या ने अपने साथी अफसरों के साथ बकावंड एवं बस्तर ब्लाक की शालाओं का अचानक निरीक्षण किया था तो पाया था कि वहां की अधिकतर शालाएं बंद थी। जो शालाएं खुली भी थी वहां पढऩे वाले बच्चों का आभाव था। इसी तरह ग्राम कचनार में निरीक्षण दौरान पहुंचने पर देखा गया कि वहां की पूर्व माध्यमिक शाला में ताला लगा हुआ था। जिसके चलते वहां पदस्थ हेडमास्टर सुखराम गौरे, शिक्षाकर्मी वर्ग दो कीर्ति देवांगन एवं नेत्र प्रभा जोशी का वेतन भी रोका गया था। बोरपदर के मीडिल व प्रायमरी स्कूलों, चोलनार, नेगानार, पंडानार की प्राथमिक शालाओं में भी निरीक्षण के दौरान असमानता पायी गई। जाहिर है कि ये इस क्षेत्र के वह गांव हैं जो शहर के पास हैं। भीतरी इलाकों की शालाओं में तो शायद ही कभी कोई शिक्षक जाता होगा। ऐसा नहीं है कि नक्सलियों ने अपनी मुहिम को तेज और असरकारी बनाने के लिए पहली बार बच्चों का इस्तेमाल किया है। ह्युमन राइट्स वॉच यानी एचआरडब्ल्यु की (॥क्रङ्ख)की 2008 की रिपोर्ट में प्रकाशित किया था कि नक्सली अपने अभियान के लिए बच्चों के 'बाल संघम बना रहे हैं जिसमें छह और 12 वर्ष की आयु के बीच के बच्चों को माओवादी विचारधारा का पाठ पढ़ाया जा रहा है तथा हथियार चलाने का प्रशिक्षिण भी दिया जा रहा है। इसके लिए बच्चों को अलग-अलग दलों के रूप में बांटा जाता है। जिनमे 'चैतन्य नाट्य मंच, 'संघम, 'जन मिलिट्रीज और 'दलम के तौर पर पहचाना जाता है। 'संघम, 'जन मिलिट्रीज और 'दलम में नक्सली बच्चों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण देते हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि शुरुआत में इन बच्चों को नक्सली अपने मुखबिरों के रूप में इस्तेमाल करते हैं और जब यह बच्चे घातक हथियारों को चलाने में माहिर हो जाते हैं तब इन्हें हिंसक वारदातों का हिस्सा बना लिया जाता है। चूंकि बच्चों पर जल्दी किसी को शक नहीं होता अत: नक्सली इन बच्चों को राइफल के प्रशिक्षण के साथ विस्फोटकों से विभिन्न प्रकार के बारूदी सुरंगें बनाना भी सिखाते हैं ताकि समय आने पर इन्हें आसानी से इस काम में लगाया जा सके। कई बार माओवादी सुरक्षा बलों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष में इन बच्चों को ढाल के रूप में भी प्रयोग करते हैं। ये बच्चे स्कूल की यूनिफार्म में पुलिस को चकमा देकर, हथियारों की तस्करी भी करते हैं। कुछ समय पहले नक्सलियों और पुलिस के बीच हुए संघर्ष में पुलिस ने सात नक्सलियों को गोली मार दी थी। उनमें से कुछ स्कूल की वर्दी में थे। छत्तीसगढ़ में माओवादियों ये स्कूल दक्षिण बस्तर, दन्तेवाड़ा, बीजापुर और नारायणपुर जिलों में फैले विशाल वन क्षेत्र में अपना पैर पसार चुके हैं और अब इनकी नज़र शहर के स्कूलों पर है। सरकारी अनुमान के अनुसार बस्तर के तीन सौ से ज्यादा स्कूलों पर माओवादी कब्जा कर चुके हैं और यहां अपना स्कूल चला रहे हैं। ये वह स्कूल हैं जो आदिवासी कल्याण विभाग द्वारा चलाए जा रहे थे। वैसे भी आदिवासी कल्याण विभाग आदिवासी छात्रों को पढऩे के लिए प्रेरित करने में असक्षम रहा है। आदिवासी कल्याण विभाग के ही आंकड़ों पर गौर करने से पता चलता है कि दंतेवाड़ा में पहली कक्षा में लगभग 19,000 से अधिक छात्र एक शिक्षा सत्र में स्कूलों में दाखिला लेते हैं पर पांचवीं कक्षा तक पहुंचने-पहुंचते उनकी संख्या 7,000 से नीचे आ जाती है। इसके बाद आठवीं कक्षा में 4,000 बच जाते हैं और 10 वीं तक तो मात्र 2,300 छात्र ही पहुंचते हैं। इसी तरह बीजापुर जिले के 7,100 छात्र को पहली कक्षा में दाखिला लेते हैं जो आठवीं और दसवीं तक मात्र 1,500 और 1,200 ही रह जाते हैं। नारायणपुर की स्थिति तो इससे भी बदतर है। यहां 5000 छात्रों में से मात्र 1,000 छात्र ही 10 वीं कक्षा तक पहुंच पाते हैं। अब चूंकि यहां माओवादियों के स्कूल चलते हैं इसलिए क्षेत्र के आदिवासी छात्र, सरकार की शिक्षा से संबंधित तमाम सुविधाओं वंचित हैं। यह हाल सिर्फ छत्तीसगढ़ का नहीं है ऐसी ही स्थिति आंध्र प्रदेश और उड़ीसा के कई अंदरूनी हिस्सों के स्कूलों की भी है। ऐसे में नक्सली, आदिवासियों के बच्चों को अपनी पाठशाला में पढ़ाने के बहाने बुलाते हैं। कभी बहला फुसलाकर तो कभी जबरदस्ती भी। माओवादियों के इस कदम का आदिवासी ग्रामीणों ने विरोध भी किया है। पिछले दिनों माओवादी के इन प्रयासों के विरोध की कई घटनाएं सामने आयी हैं। नक्सलियों का यह कार्य, सरकार द्वारा चलाए जा रहे उस अभियान के बदले की कार्यवाही है जिसे पूरा देश सलवा जुड़ूम के नाम से जानता है। नक्सलियों से जूझने के लिए सन् 2005 में शुरू किये गए सलवा जुड़ूम आंदोलन को सरकार का साथ मिला, लेकिन इसके बाद नक्सली और आक्रामक हो गए। बाद में सलवा जुड़ूमियों पर भी हत्या, लूटपाट और बलात्कार के आरोप लगे। बस्तर इलाके के 600 से ज्यादा गांव खाली हो गए। इनकी आबादी करीब 3 लाख बताई जाती है। इनमें से 60 हजार लोग सरकार के बनाए गये राहत शिविरों में रहते हैं, लेकिन बाकी आदिवासी कहां गये इसकी कोई खबर किसी को नहीं है। एक अंदाजें के अनुसार बड़ी संख्या में इन्होंने आंध्रप्रदेश व उड़ीसा की ओर भी पलायन किया, लेकिन उन्हें वहां से भी खदेड़ा जाता रहा। इन पलायन करने वालों के खेत-खलिहान उजड़ गए, बच्चों का स्कूल व पेट भर खाना छूट गया। अब खाली हाथ हो चुके आदिवासियों के सामने नक्सली बनने के अलावा कोई चारा नहीं है क्योंकि सरकार इन्हें चावल तो दे सकती है पर नक्सलियों से सुरक्षित नहीं रख सकती। इसका प्रमाण है सलवा जुड़ूम अभियान के बाद नक्सलियों के कई हमले जिसमें सैकड़ो आदिवासी मारे जा चुके हैं। एक ओर तो राज्य में इतने अधिक इंजीनियरिंग कालेज खोले जा चुके हैं कि पीईटी दिलाने वाले सारे छात्रों को जगह मिल जा रही है। राज्य में 4 नये मेडिकल कालेज खुल चुके हैं जो रमन सरकार की कामयाबियों की फेहरिस्त में एक सुनहरा अध्याय बन चमक रहे हैं। वहीं दूसरी ओर आदिवासी इलाकों में डॉक्टरों की भारी कमी है और स्वास्थ्य सेवा जैसी मूलभूत सुविधा का बुरा हाल है। राज्य की कुपोषण की दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। राज्य की औसत साक्षरता 64 प्रतिशत से अधिक है लेकिन आदिवासी इलाकों में यह 50 फीसदी तक ही सिमटी हुई है। स्कूली शिक्षा का बजट 9 सालों में 345 करोड़ से बढ़कर 2555 करोड़ हो गया पर आज भी आदिवासी इलाको के सैकड़ों स्कूल अभी भी शिक्षक विहीन हैं और स्कूल भवन जर्जर हैं। ऐसे में अगर आदिवासियों को सब्ज बाग दिखाकर नक्सली उनके बच्चों को अपना हथियार बना रहे हैं तो इसमें कहीं न कहीं राज्य सरकार भी दोषी है। विडंबना यही है राज्य की भाजपा सरकार 1 रुपए किलो चावल और 25 पैसे किलो का नमक बांटकर अपने कर्तव्यों से मुक्त होना चाहती है। जिस आदिवासी क्षेत्र में मिली भारी जीत के कारण भाजपा दोबारा सत्ता में आ पायी उनके कल्याण के नाम पर फाइलों में योजनाएं बनती और बिगड़ती हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो नक्सलियों द्वारा स्कूलों के भवनों पर कब्जा करने और वहां अपने स्कूल चलाने की खबर पर सरकार यूं खामोश न बैठी रहती। इस मामले पर सुरक्षा बलों ने बार-बार सरकार को आगाह किया लेकिन रमन सरकार पर इसका कोई खास प्रभाव नहीं दिखा। अगर इन खबरों का सरकार पर थोड़ा भी असर होता तो आज नक्सली धड़ल्ले से आदिवासियों के बच्चों को अपनी मुहिम का हिस्सा नहीं बना रहे होते।
Posted by नीलम at 1:10 PM 2 comments
Friday, February 12, 2010
नक्सली ककहरा
किसी भी समाज की व्यवस्था पर सबसे अच्छी चोट बच्चों का गलत इस्तेमाल करके पहुंचायी जा सकती है। यही कारण है कि पहले जिन सरकारी स्कूलों के भवन को नक्सलियों ने तोड़ दिया था आज वहीं आदिवासी बच्चे नकसली ककहरा पढ़ रहे हैं। कैसे नक्सली बस्तर जिले के आंतरिक क्षेत्रों में चलने वाले इन प्राथमिक स्कूलों में बच्चों को गणित, विज्ञान व पर्यावरण के साथ हथियारों का प्रशिक्षण और लोगों के साथ विद्रोह की मूल बातें सिखा रहे हैं? प्रस्तुत है इसी की पड़ताल करता यह आलेख- अब नक्सली यह समझ चुके हैं कि सिर्फ आतंक फैला कर वे आदिवासियों को ज्यादा दिनों तक बहका नहीं सकते हैं। उनका विश्वास फिर से हासिल करने का सबसे बेहतर तरीका है उनकी भावनाओं पर चोट करना और उन्हें कमजोर बनाकर अपनी ओर आकर्षित करना। शायद यही कारण है कि पहले जो सरकारी स्कूल नक्सलियों के कोप का शिकार बनकर उजाड़ हो गए थे आज वहीं नक्सली, आदिवासी बच्चों की भर्ती, उनकी शिक्षा का खासा ध्यान रख रहे हैं। खास बात यह है कि इन स्कूलों में बच्चे क, ख, ग, घ.. .. .. का ककहरा सीखने के बजाय नक्सली ककहरा सीखने पर मजबूर हैं। नक्सलियों के इस ककहरे में बच्चों को वही सब सिखाया जाता है जो आगे चलकर उन्हें नक्सली बनाने के लिए जरूरी है। इन प्राथमिक विद्यालयों में भाकपा (माओवादी) द्वारा प्रकाशित दंडकारण्य समिति की पाठ्यपुस्तकों का इस्तेमाल किया जाता है। इन पाठ्यपुस्तकों के विभिन्न अध्यायों में क्षेत्र के भूगोल और स्वास्थ्य के मुद्दों पर अध्याय हैं। साथ ही क्षेत्र में फैलने वाली सामान्य बीमारियों जैसे मलेरिया और पीलिया के बारे में भी जानकारी है। यह सब तो मात्र लोगों को दिखाने के लिए है। इन पुस्तकों का खास मकसद बच्चों में व्यवस्था के खिलाफ ज़हर भरना है। नक्सलियों के इस मकसद का पहला कदम है इस पुस्तक का कवर जिसमें 19 वीं सदी में आदिवासियों द्वारा पर्लकोट विद्रोह में इस्तेमाल किए गए नारे 'आज पढ़े, आज लड़े, जनता को आगे ले जाएंÓ का उपयोग किया गया है। दंडकारण्य समिति की इन पाठ्यपुस्तकों का खुलासा तब हुआ जब पुलिस द्वारा नक्सल विरोधी अभियान के तहत छापे के कार्यवाही के दौरान इन्हें जब्त किया गया। जब्ती की इन कार्यवाहियों में दक्षिण बस्तर से बंदूक भी बरामद हुई हैं। इस बात को पुलिस ने भी स्वीकारा है कि नक्सली इन बंदूकों का इस्तेमाल स्कूलों में उपस्थित बच्चों को, हथियारों का प्रशिक्षण देने के लिए करते थे। क्या कर रही है प्रदेश की भाजपा सरकार पढ़िए अगली बार
Posted by नीलम at 1:24 PM 2 comments
Thursday, February 11, 2010
बाज़ार और हिंदी
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक हिंदी दुनिया में तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा थी परंतु आज स्थिति यह है कि वह दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा बन गई है तथा यदि हिंदी जानने-समझने वाले हिंदीतरभाषी देशी-विदेशी हिंदी भाषा प्रयोक्ताओं को भी इसके साथ जोड़ लिया जाए तो हो सकता है कि हिंदी दुनिया की प्रथम सर्वाधिक व्यवहृत भाषा सिद्ध हो। हिंदी के इस वैश्विक विस्तार का बड़ा श्रेय भूमंडलीकरण और संचार माध्यमों के विस्तार को जाता है। यह कहना ग़लत न होगा कि संचार माध्यमों ने हिंदी के जिस विविधतापूर्ण सर्वसमर्थ नए रूप का विकास किया है, उसने भाषासमृद्ध समाज के साथ-साथ भाषावंचित समाज के सदस्यों को भी वैश्विक संदर्भों से जोड़ने का काम किया है। यह नई हिंदी कुछ प्रतिशत अभिजात वर्ग के दिमाग़ी शगल की भाषा नहीं बल्कि अनेकानेक बोलियों में व्यक्त होने वाले ग्रामीण भारत की नई संपर्क भाषा है। इस भारत तक पहुँचने के लिए बड़ी से बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी हिंदी और भारतीय भाषाओं का सहारा लेना पड़ रहा है। हिंदी के इस रूप विस्तार के मूल में यह तथ्य निहित है कि गतिशीलता हिंदी का बुनियादी चरित्र है और हिंदी अपनी लचीली प्रकृति के कारण स्वयं को सामाजिक आवश्यकताओं के लिए आसानी से बदल लेती है। इसी कारण हिंदी के अनेक ऐसे क्षेत्रीय रूप विकसित हो गए हैं जिन पर उन क्षेत्रों की भाषा का प्रभाव साफ़-साफ़ दिखाई देता है। ऐसे अवसरों पर हिंदी व्याकरण और संरचना के प्रति अतिरिक्त सचेत नहीं रहती बल्कि पूरी सदिच्छा और उदारता के साथ इस प्रभाव को आत्मसात कर लेती है। यही प्रवृत्ति हिंदी के निरंतर विकास का आधार है और जब तक यह प्रवृत्ति है तब तक हिंदी का विकास रुक नहीं सकता। बाज़ारीकरण की अन्य कितने भी कारणों से निंदा की जा सकती हो लेकिन यह मानना होगा कि उसने हिंदी के लिए अनुकूल चुनौती प्रस्तुत की। बाज़ारीकरण ने आर्थिक उदारीकरण, सूचनाक्रांति तथा जीवनशैली के वैश्वीकरण की जो स्थितियाँ भारत की जनता के सामने रखी, इसमें संदेह नहीं कि उनमें पड़कर हिंदी भाषा के अभिव्यक्ति कौशल का विकास ही हुआ। अभिव्यक्ति कौशल के विकास का अर्थ भाषा का विकास ही है। यहाँ यह भी जोड़ा जा सकता है कि बाज़ारीकरण के साथ विकसित होती हुई हिंदी की अभिव्यक्ति क्षमता भारतीयता के साथ जुड़ी हुई है। यदि इसका माध्यम अंग्रेज़ी हुई होती तो अंग्रेज़ियत का प्रचार होता। लेकिन आज प्रचार माध्यमों की भाषा हिंदी होने के कारण वे भारतीय परिवार और सामाजिक संरचना की उपेक्षा नहीं कर सकते। इसका अभिप्राय है कि हिंदी का यह नया रूप बाज़ार सापेक्ष होते हुए भी संस्कृति निरपेक्ष नहीं है। विज्ञापनों से लेकर धारावाहिकों तक के विश्लेषण द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि संचार माध्यमों की हिंदी अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत की छाया से मुक्त है और अपनी जड़ों से जुड़ी हुई है। अनुवाद को इसकी सीमा माना जा सकता है। फिर भी, कहा जा सकता है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं ने बाज़ारवाद के खिलाफ़ उसी के एक अस्त्र बाज़ार के सहारे बड़ी फतह हासिल कर ली है। अंग्रेज़ी भले ही विश्व भाषा हो, भारत में वह डेढ़-दो प्रतिशत की ही भाषा है। इसीलिए भारत के बाज़ार की भाषाएँ भारतीय भाषाएँ ही हो सकती हैं, अंग्रेज़ी नहीं। और उन सबमें हिंदी की सार्वदेशिकता पहले ही सिद्ध हो चुकी है। बाज़ार और हिंदी की इस अनुकूलता का एक बड़ा उदाहरण यह हो सकता है कि पिछले पाँच-सात वर्षों में संचार माध्यमों पर हिंदी के विज्ञापनों के अनुपात में सत्तर प्रतिशत उछाल आया है। इसका कारण भी साफ़ है। भारत रूपी इस बड़े बाज़ार में सबसे बड़ा उपभोक्ता वर्ग मध्य और निम्नवित्त समाज का है जिसकी समझ और आस्था अंग्रेज़ी की अपेक्षा अपनी मातृभाषा या राष्ट्रभाषा से अधिक प्रभावित होती है। इस नए भाषिक परिवेश में विभिन्न संचार माध्यमों की भूमिका केंद्रीय हो गई है। हम देख सकते हैं कि इधर हिंदी पत्रकारिता का स्वरूप बहुत बदल गया है। अनेक पत्रिकाएँ यद्यपि बंद हुई हैं परंतु अनेक नई पत्रिकाएँ नए रूपाकार में शुरू भी हुई हैं। आज हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में हिंदी और हिंदीतर राज्यों का अंतर मिटता जा रहा है। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का पाठक वर्ग तो संपूर्ण देश में है ही, उनका प्रकाशन भी देशभर से हो रहा है। डिजिटल टेकनीक और बहुरंगे चित्रों के प्रकाशन की सुविधा ने हिंदी पत्रकारिता जगत को आमूल परिवर्तित कर दिया है। फ़िल्म के माध्यम से भी हिंदी को वैश्विक स्तर पर सम्मान प्राप्त हो रहा है। आज अनेक फ़िल्मकार भारत ही नहीं यूरोप, अमेरिका और खाड़ी देशों के अपने दर्शकों को ध्यान में रखकर फिल्में बना रहे हैं और हिंदी सिनेमा ऑस्कर तक पहुँच रहा है। दुनिया की संस्कृतियों को निकट लाने के क्षेत्र में निश्चय ही इस संचार माध्यम का योगदान चमत्कार कर सकता है। यदि मनोरंजन और अर्थ उत्पादन के साथ-साथ सार्थकता का भी ध्यान रखा जाए तो सिनेमा सर्वाधिक प्रभावशाली माध्यम सिद्ध हो सकता है। इसमें संदेह नहीं कि सिनेमा ने हिंदी की लोकप्रियता भी बढ़ाई है और व्यावहारिकता भी। यहाँ यदि मोबाइल और कंप्यूटर की संचार क्रांति की चर्चा न की जाए तो बात अधूरी रह जाएगी। ये ऐसे माध्यम हैं जिन्होंने दुनिया को सचमुच मनुष्य की मुट्ठी में कर दिया है। सूचना, समाचार और संवाद प्रेषण के लिए इन्होंने हिंदी को विकल्प के रूप में विकसित करके संचार-तकनीक को तो समृद्ध किया ही है, हिंदी को भी समृद्धतर बनाया है। इसी प्रकार इंटरनेट और वेबसाइट की सुविधा ने पत्र-पत्रिकाओं के ई-संस्करण तथा पूर्णत: ऑनलाइन पत्र-पत्रिकाएँ उपलब्ध कराकर सर्वथा नई दुनिया के दरवाज़े खोज दिए हैं। आज हिंदी की अनेक पत्रिकाएँ इस रूप में विश्वभर में कहीं भी कभी भी सुलभ हैं तथा अब हर प्रकार की जानकारी इंटरनेट पर हिंदी में प्राप्त होने लगी है। इस तरह हिंदी भाषा ने 'बाज़ार' और 'कंप्यूटर' दोनों की भाषा के रूप में अपना सामर्थ्य सिद्ध कर दिया है। भविष्य की विश्वभाषा की ये ही तो दो कसौटियाँ बताई जाती रही हैं!
Posted by सुभाष चन्द्र at 9:52 AM 0 comments
Wednesday, February 10, 2010
प्रभाष जोशी पर लिखी किताब का लोकार्पण इसी महीने
Posted by सुभाष चन्द्र at 1:28 PM 0 comments
Labels: प्रभाष जोशी
Tuesday, February 9, 2010
ग्रह भी कराते है प्रेम विवाह
जब किसी लड़का और लड़की के बीच प्रेम होता है तो वे साथ साथ जीवन बीताने की ख्वाहिश रखते हैं और विवाह करना चाहते हैं। कोई प्रेमी अपनी मंजिल पाने में सफल होता है यानी उनकी शादी उसी से होती है जिसे वे चाहते हैं और कुछ इसमे नाकामयाब होते हैं। ज्योतिषशास्त्री इसके लिए ग्रह योग को जिम्मेवार मानते हैं। देखते हैं ग्रह योग कुण्डली में क्या कहते हैं।
ज्योतिषशास्त्र में "शुक्र ग्रह" को प्रेम का कारक माना गया है । कुण्डली में लग्न, पंचम, सप्तम तथा एकादश भावों से शुक्र का सम्बन्ध होने पर व्यक्ति में प्रेमी स्वभाव का होता है। प्रेम होना अलग बात है और प्रेम का विवाह में परिणत होना अलग बात है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार पंचम भाव प्रेम का भाव होता है और सप्तम भाव विवाह का। पंचम भाव का सम्बन्ध जब सप्तम भाव से होता है तब दो प्रेमी वैवाहिक सूत्र में बंधते हैं। नवम भाव से पंचम का शुभ सम्बन्ध होने पर भी दो प्रेमी पति पत्नी बनकर दाम्पत्य जीवन का सुख प्राप्त करते हैं। ऐसा नहीं है कि केवल इन्हीं स्थितियो मे प्रेम विवाह हो सकता है। अगर आपकी कुण्डली में यह स्थिति नहीं बन रही है तो कोई बात नहीं है हो सकता है कि किसी अन्य स्थिति के होने से आपका प्रेम सफल हो और आप अपने प्रेमी को अपने जीवनसाथी के रूप में प्राप्त करें। पंचम भाव का स्वामी पंचमेश शुक्र अगर सप्तम भाव में स्थित है तब भी प्रेम विवाह की प्रबल संभावना बनती है । शुक्र अगर अपने घर में मौजूद हो तब भी प्रेम विवाह का योग बनता है।
शुक्र अगर लग्न स्थान में स्थित है और चन्द्र कुण्डली में शुक्र पंचम भाव में स्थित है तब भी प्रेम विवाह संभव होता है। नवमांश कुण्डली जन्म कुण्डली का शरीर माना जाता है अगर कुण्डली में प्रेम विवाह योग नहीं है और नवमांश कुण्डली में सप्तमेश और नवमेश की युति होती है तो प्रेम विवाह की संभावना 100 प्रतिशत बनती है। शुक्र ग्रह लग्न में मौजूद हो और साथ में लग्नेश हो तो प्रेम विवाह निश्चित समझना चाहिए । शनि और केतु पाप ग्रह कहे जाते हैं लेकिन सप्तम भाव में इनकी युति प्रेमियों के लिए शुभ संकेत होता है। राहु अगर लग्न में स्थित है तो नवमांश कुण्डली या जन्म कुण्डली में से किसी में भी सप्तमेश तथा पंचमेश का किसी प्रकार दृष्टि या युति सम्बन्ध होने पर प्रेम विवाह होता है। लग्न भाव में लग्नेश हो साथ में चन्द्रमा की युति हो अथवा सप्तम भाव में सप्तमेश के साथ चन्द्रमा की युति हो तब भी प्रेम विवाह का योग बनता है। सप्तम भाव का स्वामी अगर अपने घर में है तब स्वगृही सप्तमेश प्रेम विवाह करवाता है। एकादश भाव पापी ग्रहों के प्रभाव में होता है तब प्रेमियों का मिलन नहीं होता है और पापी ग्रहों के अशुभ प्रभाव से मुक्त है तो व्यक्ति अपने प्रेमी के साथ सात फेरे लेता है। प्रेम विवाह के लिए सप्तमेश व एकादशेश में परिवर्तन योग के साथ मंगल नवम या त्रिकोण में हो या फिर द्वादशेश तथा पंचमेश के मध्य राशि परिवर्तन हो तब भी शुभ और अनुकूल परिणाम मिलता है।
Posted by नीलम at 4:27 PM 2 comments
Monday, February 8, 2010
परछाइयाँ
क्षितिज पर सूरज बनकर बाँटना अपनी किरणें उन बीहड़ अन्धकारों में जहाँ कुलबुलाती हैं ढ़ेरों परछाइयाँ कोटर से बाहर आने को एक किरण की तलाश है उन्हें निश्चित ही तुम्हारी किरण उजाले में आने को उन्हें विवश करेगी खोलेंगी पलकें तो पाएँगी एक समूचा आकाश उनकी प्रतीक्षा में तना है, ब्रह्मïाण्ड के शीश पर पूरी की पूरी चटटान खड़ी है शिखर बनकर, सूरज की लालिमा में दमक रहे हैं उनके मस्तक, परछाइयाँ बाँहें उठाकर अपनी माँगेंगी उनसे मन्नत कुलाँचे भरेंगी हवाएँ गगन में तुम्हारी विजय पताका यशगाथा लेकर रू-ब-रू होगी तब तुमसे तुम्हारी ही शै। - डा. वाजदा खान
Posted by सुभाष चन्द्र at 4:26 PM 0 comments
Sunday, February 7, 2010
रास्ता नहीं मिलता....
Posted by नीलम at 2:04 PM 0 comments
Labels: महंगाई और शरद पवार
Thursday, February 4, 2010
निवेश के फंडे
कहां करें निवेश भले ही नवंबर-दिसंबर के दौरान शेयरों में ज्यादा उतार-चढ़ाव रहता है पर स्लोडाउन के बुरे दौर के बाद इस बार अबतक शेयर बाजार में कुछ ज्यादा घट-बढ़ देखने को मिल रही है। यह घट बढ़ अगले महीने भी जारी रह सकती है। ऐसे दौर में निवेशक को चाहिए कि रिस्क कम लें और समझदारी से शॉर्ट टर्म रणनीति बनाकर कारोबार करें। 1.पकड़ें कम उतार चढ़ाव को ऐसे दौर में जब एक दिन शेयरों में मंदी के भारी झटके लग रहे हैं और दूसरे दिन शेयर नई ऊंचाइयां चढ़ते दिख रहे हैं ऐसे में निवेशकों को उन शेयरों में हाथ आजमाना चाहिए, जिनमें उतार-चढ़ाव कम हुआ है। इन शेयरों को गिरने पर खरीद लेना चाहिए। जब ये शेयर चढ़ें, तो बेच दें। इन शेयरों को खरीदने का फायदा यह होगा कि इन शेयरों के ज्यादा गिरने का रिस्क आपको नहीं डराएगा। कुछ समय तक गिरने के बाद इन शेयरों का बढऩा तय है। ऐसे में आप इन्हें बेचकर मुनाफा कमा सकते हैं। 2. न पड़े बड़े प्रॉफिट के चक्कर में निवेशकों को तभी झटका लगता है जब लोग बड़े प्रॉफिट के चक्कर में पड़ते हैं। ज्यादा बढऩे की चाहत में लोग कई बारे शेयरों को होल्ड करके रख लेते हैं। अचानक पता चलता है कि मुनाफा वसूली की वजह से शेयर बुरी तरह गिर गए। ऐसे में जरूरी है कि शॉर्ट टर्म मुनाफा कमाया जाए। वसूली करते समय प्रॉफिट माजिर्न कम करें। इसलिए जरूरी है कि शेयरों को निचले स्तर पर खरीदें और 5 से 10 पर्सेंट के प्रॉफिट पर बेच दें। 3. रखें ध्यान मुनाफा कमाने के लिए शेयर बाजार में होने वाले झटकों पर ध्यान रखना जरूरी है, न कि बड़े चढ़ाव पर। जब भारी झटके लगें, तो देखें कि कौन-कौन से शेयर कितने गिरे हैं। शेयरों की गिरावट की तुलना उनकी पिछली गिरावट से करें। शेयरों के निचले स्तर का पता लगाएं। जो शेयर ज्यादा गिरे हैं और पहले की तुलना में निचले स्तर पर पहुंच गए हैं, उन्हें खरीदना फायदेमंद है। 4. करें 60 परसेंट इनवेस्ट यह हर व्यापार की सीख होती है कि कहीं भी अपनी सारी की सारी जमा पूंजी न लगा दें। यही फंडा निवेश का भी है। शेयरों में अपनी पूंजी का 60 परसेंट ही लगाएं। ज्यादा प्रॉफिट के लालच में अपनी सारी पूंजी शेयरों में लगाना बेवकूफी होगी। आपने जिन शेयरों में अपनी पूंजी लगाई है, अगर दुर्भाग्य से वे गिर गए तो भविष्य में भारी नुकसान हो सकता है। 5.बड़े शेयरों पर नज़र शेयर बाजार में ऐसे मौके भी आते हैं, जब बड़ी कंपनियों के शेयर बुरी तरह गिरते हैं। अगर आप थोड़ा रिस्क लेकर अपने बजट का 30 परसेंट तक शेयरों में लगा सकते हैं तो आपको बड़े शेयरों पर नजर रखनी चाहिए। जब भी 10 से 15 परसेंट की गिरावट आए, तुरंत खरीद लें। ऐसा तब होता है, जब तकनीकी करेक्शन का दौर चलता है या विदेशी इनवेस्टर भारी मुनाफे के लिए शेयरों को गिराने का खेल खेलते हैं। ये आपको कम कीमत पर ज्यादा मुनाफा देंगे।
Posted by नीलम at 1:59 PM 0 comments
Wednesday, February 3, 2010
निवेश के फंडे
निवेश के मामले में कोई कितनी भी सलाह दे ले पर सच यही है कि इसके प्रतिमान हर दिन बदलते हैं लेकिन कुछ खास बातों का ध्यान रखा जाए तो इसे एक सेफ गेम की तरह खेला जा सकता है। इससे इस क्षेत्र में जीत के चांस बढ़ जाते हैं। जरूरत है थोड़े से धैर्य और सजगता की। वित्तीय जगत के विशेषज्ञ शेयर के चुनाव के लिए पीई रेश्यो, कैशफ्लो और फंडामेंटल एनालिसिस के बुनियादी तथ्यों के विश्लेषण पर ज्यादा जोर देते हैं। यह निवेश के लिए जरूरी और कारगर तथ्य तो है पर इसके अलावा भी कुछ बातें हैं जिसके बिना निवेश करने की समग्र तस्वीर अधूरी है। बाजार के बदलते मूल्य और इसका मनोविज्ञान हमेशा ही शेयर के सही मूल्य को प्रतिबिंबित नहीं करता है। कई बार देखा गया है कि शेयर के मूल्य निवेशकों की आशंका से कहीं ज्यादानीचे गिर जाते हैं और निवेशकों का धैर्य भी टूटने लगता है। बाजार मे शेयर के गिरते मूल्य देखकर ऐसे निवेशक घबरा जाते हैं जिन्होंने सस्ते मूल्य में कंपनी का शेयर खरीद रखा था और गिरते मूल्यों की निराशा फैलने पर इसे सस्ते मूल्यों में बेचना शुरू कर देते हैं जो सही नहीं है क्योंकि शेयर के दाम का घटना बढऩा बाजार के स्वभाव का हिस्सा होता है। अगर निवेशक उसके मुताबिक थोड़ा सा धैर्य रख लें तो प्राय: परिस्थितियां उनके अनुकूल हो सकती हैं। इसके लिए जरूरी है कुछ खास बातों का तथ्यात्मक विश्लेषण करना। इसके साथ ही कंपनी की गुणवत्ता का विश्लेषण करना भी जरूरी है। कंपनी के बारें में यह जानना जरूरी है कि क्या कंपनी पहले से ही लाभ प्रदाता इकाई है? अगर कंपनी के शेयर मूल्य तेजी से बढ़ या घट रहे हैं तो उसका कारण क्या है? कंपनी कौन से नए उत्पाद ला रही है। इसके साथ ही अगर बाज़ार की अर्थव्यवस्था के विभिन्न पहलुओं पर नजर नहीं डाली गई तो कई बार बाहर से बेहतर दिखने वाली कंपनी के अचानक औंधेमुंह गिरने की आशंका बनी रहती है। किसी बेहतर कंपनी के मूल्यांकन की कई शर्ते होती हैं जैसे कंपनी का बिजनेस मॉडल सर्वश्रेष्ठ है या नहीं, कंपनी की ओर से लगातार नए और बेहतर उत्पाद लॉन्च किए जा रहे हैं या नहीं और इनकी वजह से कंपनी के विपणन में बढ़ोतरी हो रही है या नहीं आदि। साथ ही अपने आसपास के बाजार और मौसम पर ध्यान रखना जरूरी है। इसके अलावा निवेशकों को ऐसी कंपनी की तलाश करनी चाहिए जिसमें जारी किए गए शेयर वापस खरीदने का भी प्रावधान हो। इससे स्टॉक काअर्निंग पर शेयर तो बढ़ता ही है साथ ही यह इस बात की आश्वासन भी होता है कि कंपनी में किया गया निवेश ही सबसे बेहतर है। बहुत से स्टॉक चक्रीय क्रम पर भी कार्य करते हैं। इन्हें सीजनल स्टॉक कहा जाता है। इनमें वर्ष के कुछ खास महीनों में ट्रेडिंग वाल्यूम काफी रहता है और कुछ महीनों में यह काफी कम हो जाता है। लेकिन अगर निवेशक इस विचलन से अनजान है तो इस निवेश से घाटा भी हो सकता है। इसलिए बेहतर यह है कि निवेश का समय जानने के लिए ट्रेडिंग पैटर्न पर पांच वर्ष के चार्ट पर नजर डाल लें। ऐसे में इसके सभी पक्षों का गहराई से मूल्यांकन करने के बाद ही निवेश करना चाहिए। तो इस बात को दरकिनार करिये कि निवेश के लिए बुद्धिमान होना जरूरी है। सही निर्णय लेने के लिए जरूरी है कि निवेशक भय और लालच जैसी भावनाओं पर नियंत्रण रखे। सच यो यह है कि निवेश के लिए सामान्य बुद्धिमत्ता जरूरी है विशिष्टता नहीं। साथ अगर आप थोड़ी सजगता दिखाएं तो मार्केट में निवेश का फंडा समझते आपको देर नहीं लगेगी। अगली बार पढ़े कहां करें निवेश
Posted by नीलम at 12:55 PM 0 comments
Tuesday, February 2, 2010
मिनटों में मालामाल
कैसे कमाते हैं ये कलाकर मिनटों में लाखों? पढि़ए आगे.. .. .. .. हर कलाकार की प्रतिमिनट की कीमत बालीवुड में उसकी औकात पर निर्भर करती है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो कलाकार जितना हिट है, उसकी कीमत भी उसी हिसाब से लगाई जाती है। कार्यक्रमों में शिरकत करने की रकम कलाकार की बालीवुड में कामयाबी और लोगों के बीच उसकी प्रसिद्धी पर निर्भर करती है। कुछ कलाकार काफी चूजी हैं जो खास कार्यक्रमों में ही जाते है। इनमें सलमान खान, ऋतिक रोशन और संजय दत्त शामिल हैं। जहां ऋतिक रोशन 1.25 करोड़ प्रति आधे घंटे का लेते हैं वहीं सलमान खान की हर छोटी से छोटी प्रेजेंस की कीमत कम से कम 1 करोड़ रुपए है। संजय के पैसे तो इनसे कुछ कम, करीब 75 लाख के आसपास है पर वह शादी जैसे कार्यक्रमों में नहीं जाते हैं। इनके बाद नंबर आता है जान अब्राहम का जो प्रति आधा घंटा के हिसाब से 75 लाख रुपए के आसपास लेते हैं। इसी तरह शाहिद कपूर 50 लाख, अभय देओल 35 लाख, अक्षय कुमार 30 लाख, इरफान खान 20 लाख, अनिल कपूर 15 लाख, तुषार कपूर 10 लाख, डीनो मोरिया 4 लाख रुपए लेते हैं। हीरोइनें भी इस मामले में किसी से पीछे नहीं हैं। हीरोइनों में सबसे ज्यादा 75 लाख रुपए ऐश्वर्या राय को मिलते हैं। वहीं नवोदित कलाकार दीपिका पादुकोण और सोनम कपूर को 50 लाख मिलते हैं। इसके बाद रानी मुखर्जी आती हैं जिन्हें 35 लाख मिलते हैं। कैटरीना कैफ रिबन काटने का भी कम से कम 30 लाख लेती हैं। इसी तरह विद्या बालन 35 लाख, कोंकणा सेनशर्मा व चित्रांगदा 25 लाख, अमीषा पटेल व सेलीना जेठली 10 लाख, मनीषा कोइराला 6 लाख, नेहा धूपिया 5 लाख लेती हैं। कुछ कलाकार ऐसे भी हैं जो 1 लाख से 50 हजार रुपए में भी कार्यक्रमों में शिरकत करते हैं। कुछ हीरोइनें किसी पार्टी में डांस नहीं करती पर कुछ ऐसी भी अभिनेत्रियां हैं जिनको उनके आयटम नंबर के लिए ही बुलाया जाता है। इनमें पहला नाम बिपाशा बसु का है जो किसी कार्यक्रम में शिरकत करने का तो 25 लाख लेती हैं पर किसी कार्यक्रम में उनके डांस के लिए 1.5 करोड़ मिलते हैं। इसी तरह लारा दत्ता भी किसी कार्यक्रम में उपस्थिति का 25 लाख और डांस का 1.5 करोड़ लेती हैं। मल्लिका शेरावत भी डांस के लिए लगभग 1 करोड़ चार्ज करती हैं। कुछ लोग कपल को बुलाना पसंद करते हैं तो उनके लिए भी ढेरों च्वाइस हैं। इसमें सबसे पहला नंबर आता है जॉन अब्राहम और बिपाशा बसु का जिनको लगभग 1 करोड़ रुपए मिलते हैं। सैफ अली खान व करीना कपूर को साथ देखने की कीमत 80 लाख रुपए है, तो शिल्पा शेट्टी और राज कुंद्रा को इनसे कुछ कम, 40 से 50 लाख में बुलाया जा सकता है। सोनम कपूर और अनिल कपूर की बाप-बेटी की जोड़ी को 60 लाख मिलते हैं। ऐसा नहीं है कि स्टारडम के हर कीमती पलों का इस्तेमाल सिर्फ हीरो या हीरोइन ही करते हैं। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हास्य कलाकार, गायक, संगीतकार, लेखक सहित इंडस्ट्री का कोई भी व्यक्ति बिना फायदे के किसी कार्यक्रम में शिरकत नहीं करता। आज के दौर में कार्य का क्षेत्र चाहे कोई भी हो, आज की युवा पीढ़ी, युवावस्था में जमकर मेहनत कर, अपने भविष्य की सुरक्षित करने में भरोसा करती है। इसी तरह आज के ये कलाकार भी अपनी स्टारडम के हर मिनट का इस्तेमाल कर, लाखों कमा लेना चाहते हैं ताकि उनका भविष्य पैसे के आभाव में न बीते। कलाकरों के मिनट दर मिनट का हिसाब - एश्वर्या राय 2.50 लाख - जॉन अब्राहम 2.50 लाख - संजय दत्त, शाहीद कपूर, सोनम कपूर, दीपिका पादुकोण 1.66 लाख - अभय देओल, रानी मुखर्जी, विद्या बालान 1.16 लाख - अर्जुन रामपाल और मेहर जेसिया 1.16 लाख.... - आसीन 1 लाख - कोंकणा सेन शर्मा, बिपाशा बसु, लारा दत्ता, चित्रागंदा सिंह 83,300 - अनिल कपूर 50,000 - मल्लिका शेरावत, इरफान खान, आफताब शिवदासानी 66,600 - मनीषा कोइराला 50,000 - सेलिना जेटली, अमृता राव, अमीषा पटेल, तुषार कपूर, महिमा चौधरी 33,000 - मिनिशा लाम्बा 16,600 - डीनो मोरिया, नेहा धूपिया, मुग्धा गोडसे रुपए 13,300
Posted by नीलम at 12:52 PM 2 comments
Monday, February 1, 2010
मिनटों में मालामाल
पुराने कलाकारों की नज़र में भांड का दर्जा पाने वाले आज के फिल्मी कलाकार, प्रति मिनट लाखों कमा रहे हैं। आज के दौर के ये कलाकार पैसों के लिए, किसी को भी अपना रिश्तेदार बताने से भी नहीं चूकते। ये अपने इन कीमती पलों की कीमत लगाकर, अपना भविष्य सुरक्षित कर रहे हैं जिसकी पुराने कलाकारों ने कभी फिक्र नहीं की और जिसके चलते उन्हें अपने आखिरी दिन गरीबी में काटने पड़े। पेश है मिनटों में लाखों कमाने वाले आज के इन कलाकारों की कमाई की एक झलक- पिछले दिनों एक शादी में बिपाशा बसु और जॉन अब्राहम ने शिरकत की। जब पत्रकारों ने उनसे पूछा कि वे इस शादी में क्यों शिरकत कर रहे हैं तो उन्होंने मुस्कुराकर कहा कि यह उनके पुराने पारिवारिक मित्र की शादी है। बाद में पता चला कि उसमें शिरकत करने के लिए दोनों एक पैकेज के तहत आए थे जिसके लिए उन्हें एक मोटी रकम दी गई थी। इसी तरह कुछ समय पूर्व कैटरीना कैफ भी दिल्ली में अपने एक तथाकथित रिश्तेदार के यहां एक कार्यक्रम में कुछ पलों के लिए आयी थीं जिसके लिए उन्होंने 57 लाख रुपए लिए थे। वैसे भी अब वह दिन लद गए जब फिल्मी कलाकार किसी दोस्त या रिश्तेदार की शादी में शिरकत कर, उसके पूरे परिवार पर अहसान जताया करते थे। अब तो ये कलाकार पैसों के संगी हैं। इन नए कलाकारों का अपने प्रतिपल की कीमत तय करने के पीछे का कारण वह सत्य है जिसे पुराने कलाकारों ने अनदेखा कर दिया था। खुद को दुनिया से अलग और महत्वपूर्ण दिखाने के चक्कर में इन पुराने कलाकारों ने कभी भी लोगों के बीच जाने को प्राथमिकता नहीं दी और खुद को बस एक्टिंग के दायरे में समेटे रखा। बाद में उनका यह व्यवहार, उस कटु सत्य के रूप में लोगों के सामने आया जिससे आज के कलाकार खुद को सुरक्षित रखना चाहते हैं। फिल्मी दुनिया की विशेषता है कि 'जो दिखता है वही बिकता हैÓ। जब तक कलाकार हिट हैं लोगों के बीच उनकी पूछपरख तो होती ही है, वे लाखो के आसामी भी होते हैं। जैसे ही उनका शरीर काम करना बंद करता है जब उनके पास न तो शोहरत बचती है और न ही पैसे। ऐसे कई कलाकार हैं जिनका बुढ़ापा या बीमारी पैसों के आभाव में बीता है। अपने जमाने की श्रेष्ठ अभिनेत्रियों में से एक मधुबाला जब कैंसर से पाडि़त थी और काम करने में अक्षम थीं, तब अगर किशोर कुमार उनका सहारा नहीं बनते तो उनकी मौत शायद और भी दर्दनाक होती। किशोर कुमार ने मधुबाला से सिर्फ इसलिए शादी की थी ताकि वह मधुबाला के इलाज में उनकी मदद कर सकें। पर सबकी किस्मत मधु जैसी नहीं होती है। ये बात जगजाहिर है कि अपने जमाने के जाने माने कलाकार संजीव कुमार ने अपने आखिरी दिन, पैसों के आभाव में बिताएं हैं। इनके अलावा भी ऐसे कई कलाकार हैं जिन्होंने अपने आखिर दिनों में तंगी देखी है। तंगी के इसी दौर से अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए ये कलाकार अपनी प्रसिद्धी के हर पल को 'कैशÓ कर लेना चाहते हैं। अपने वरिष्ठों की ऐसी दशा देखकर नए कलाकारों ने उनसे प्रेरणा ली। आज के कलाकार यह जानते हैं कि फिल्मी दुनिया 'चार दिन की चांदनीÓ है। यह कोई सरकारी नौकरी तो है नहीं कि आगे चलकर सरकार पेंशन देगी। इसीलिए ये लोग अपनी प्रसिद्ध को भुनाने का कोई भी मौका अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते। यही कारण है कि शादी से लेकर बच्चे के जन्म की खुशी में भी ये कलाकार किसी को भी अपना रिश्तेदार बता सकते हैं। बशर्ते उनकी इस 'मेहरबानीÓ के लिए, लोग मोटी रकम देने का दमखम रखते हों। 'पैसा फेंक तमाशा देखÓ की तर्ज पर लोगों की पार्टियों में शिरकत करने वाले, नई पीढ़ी के इन कलाकारों को भले ही पुराने कलाकार 'भांडÓ की संज्ञा दें पर इन पार्टियों से मिलने वाले पैसों के सामने उन्हें ये आरोप छोटे प्रतीतहोते हैं। आज के कलाकार खुद को किसी उद्योगपति से कमतर नहीं मानते। जब फिल्म इंडस्ट्री, उद्योग क ा रूप अख्तियार कर चुकी हैं तो इसमें काम करने वाले कलाकार अगर खुद को उद्योगपति और अपने हर काम को बिजनेस मानकर कर रहे हैं तो इसमें किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए। अब चूंकि स्टार उद्योगपति की तर्ज पर काम कर रहे हैं तो उन्हें अपने हर उस पल के लिए पैसे चाहिए जो वे फिल्मों के अलावा लोगों के बीच जाकर बिताते हैं। उनके इन कामों में किसी पार्टी में डांस करने से लेकर फीता काटने तक और किसी के बच्चे के बर्थडे पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना तक शामिल है। अगली बार पढि़ए कि आखिर क्यों इन कलाकारों को मिनटों के लाखों मिलते हैं?
Posted by नीलम at 1:10 PM 1 comments