Saturday, January 2, 2010

आगे क्या होगा रामा ...

मोटे तौर पर कहा जाए तो झारखंड चुनाव में राष्टï्रीय राजनीति विफल हुई है और क्षेत्रीय राजनीति ऊपर आई है। क्षेत्रीय दलों को बेहतरी दिखाने वाले जनादेश ने यह साबित कर दिया है कि चुनाव में तमाम प्रत्याशा फलित नहीं हुए औ क्षेत्रीय अस्मिता का वर्चस्व रहा। अब अहम सवाल यह कि झारखंड के विकास और स्थायित्व में शिबू सोरेन और उनका सरकारी कुनबा कितना सफल होगा।
सवाल अहम है। विशेषकर तब जब समान विचारधाराओं के लोगों ने एक साथ सामजंस्य नहीं बिठाया। नतीजन शिबू सोरेन मुख्यमंत्री बने तो भाजपा के रघुवर दास और आजसू के सुदेश महतो को प्रदेश का उप-मुख्यमंत्री बनाया गया। भौगोलिक और राजनीतिक स्तर पर झारखण्ड उतना बड़ा नहीं है कि प्रदेश को मुख्यमंत्री के स्तर के तीन लोग चाहिए। कारण साफ हैै। गठबंधन की मजबूरी। अपने गठन के नौ वर्ष के अंदर ही प्रदेश ने आधा दर्जन से अधिक मुख्यमंत्री देखे हैं, फिर भी विकास की हवा नहीं बही। अव्वल तो यह कि शिबू सोरेन बिना विधायक बने हुए तीसरे बार सत्ता की सर्वोच्च कुर्सी पर बैठे हैं। इससे पहले भी दो बार मुख्यमंत्री बनने के बाद विधायक नहीं बन पाए और कुर्सी छोडऩी पड़ी। इस दफा भी स्थिति वही है। ऐसी स्थिति में एक बार फिर उन्हें छह महीने के अंदर विधायक बनने की औपचारिकता पूरी करनी होगी। यदि विधायक नहीं बन पाते हैं तो जनादेश का अपमान ही माना जाएगा और सरकार का क्या होगा, कहना मुश्किल है।
आमतौर पर यही कहा जाता है कि भाजपाई नैतिकता के पैमाने में फिट नहीं होते शिबू सोरेन। फिर भी सत्ता के स्वार्थ के चलते उसी के पाले में चली गई है। यह वाकई हैरत की बात है कि भाजपा भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने की बात तो करती है लेकिन जब दागी छवि वाले व्यक्तियों के सहारे सत्ता की उम्मीद दिखती है तो उसे कुछ गलत नजर नहीं आता। लोग ऐसा उदाहरण पूर्व में हिमाचल प्रदेश में देख चुके हैं जहां भाजपा ने सुखराम की पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस के साथ गठजोड़ कर सरकार बनाई थी जबकि चुनावों में वह सुखराम के कथित भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर उतरी थी। ऐसे में भाजपा-झामुमो की सरकार के स्थायित्व को लेकर संशय है। वह भी तब, जब तीसरे दल के रूप में आजसू अपनी बात मनवाने की भरसक कोशिश करेगा। गठबंधन के युग में जब मान-मनौव्वल का दौर चलता है तो विकास की बात धरी रह जाती है। लोकहित के मुद्दे हाशिए पर चले जाते हैं। मधु कोड़ा प्रसंग अभी सामने है।
सच तो यही है सोरेन की लाख आलोचना हो, लेकिन वे झारखंड में आदिवासी भावना का नेतृत्व करते हैं। आदिवासियों के बीच उनका गौरवशाली इतिहास रहा है। झारखंड को जब छोटा नागपुर कहा जाता था और वह बिहार का हिस्सा था, तब वहां सोरेन के नाम का सिक्का चला करता था। पर्चा नहीं होता था, पोस्टर नहीं होते थे, गाडी-घोडे नहीं होते थे, किसी भी पेड की टहनी काटकर इलाके में घुमा दी जाती थी, तो लोग समझ जाते थे, आज गुरूजी की सभा है।
दरअसल, वर्तमान में झारखंड की राजनीति को समझने की जरूरत है। जब संयुक्त बिहार था, तब झारखंड के नेताओं को तीसरी-चौथी पंक्ति में स्थान मिलता था, वे पिछलग्गू होते थे। अब झारखंड की राजनीति अपने पैरों पर खडी हो रही है। झारखंड बनने के बाद भी कुछ समय तक यहां के नेता पिछलग्गू की मानसिकता से ग्रस्त थे। इस चुनाव से झारखंड में यह भावना पैदा हुई कि हमें अपना नेतृत्व देना है। तो आदिवासियों के बीच से नेतृत्व धीरे-धीरे उभरने लगा है। जैसे ही झारखंड बना है, आदिवासियों को मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला। हालांकि इसका एक बुरा पक्ष यह रहा कि पहले झारखंड के विधायकों पर बिकने के आरोप लगते थे और अब मुख्यमंत्री पद के बिकने की बातें हो रही हैं। आदिवासियों में नेतृत्व की आकांक्षा पैदा हुई है, लेकिन कांग्रेस व भाजपा ने इस बात को समझा नहीं। कांग्रेस और भाजपा एक ही धरातल पर खडी थी, दोनों की रणनीति भी एक थी। झारखंड में कांग्रेस और भाजपा, दोनों का ही नेतृत्व गैर-आदिवासी है। भाजपा में बडे खेमे का नेतृत्व यशवंत सिन्हा करते हैं, तो छोटे खेमे का नेतृत्व रघुवर दास, दोनों को ही मुख्यमंत्री पद का दावेदार माना जा रहा था। किसी समय भाजपा में बाबूलाल मरांडी अच्छे आदिवासी नेता रहे थे, लेकिन गैर-आदिवासी नेताओं ने उन्हें बाहर करने के लिए दबाव बनाया। इसके अलावा मरांडी पार्टी को ज्यादा पैसे नहीं दे सकते थे। दूसरी ओर, कांग्रेस में सुबोधकांत सहाय मुख्यमंत्री पद की दौड में थे। इसकी प्रतिक्रिया आदिवासियों में हुई।
इन सियासी हालातों के बावजूद प्रदेश के नवनियुक्त उपमुख्यमंत्री रघुवर दास कहते हैं, 'प्रदेश के अंदर सुशासन कायम करते हुए गरीबों का कल्याण हमारी पहली प्राथमिकता होगी। झारखंड की जनता ने राज्य के विकास का जो गुरुत्तर भार हमारे कंधे पर डाला है, हम पूरी निष्ठा के साथ इसका निर्वहन करेंगे।Ó वहीं उनके साथ ही शपथ लेने वाले उपमुख्यमंत्री सुदेश महतो शासन की धार से विकास की धारा बहाने की बात करते हैं। वे कहते हैं, 'शासन की धार से विकास की धारा को झोपड़ी तक पहुंचाने की कवायद ही उनकी प्राथमिकता है। गरीबों का कल्याण तभी हो सकता है, जब सरकार योजनाओं को लेकर उनके प्रति संवेदनशील होगी। युवाओं व महिलाओं का विकास भी उनके एजेंडे में सबसे ऊपर है।Ó
हालांकि, प्रदेश की जनता को विकास की बातों से अधिक विकास कार्यों की प्रतीक्षा है। ऐसे में तो यही कहा जाएगा कि मतदाता पूरे राज्य से अधिक अपने क्षेत्र-विशेष के संबंध में चिंतित है। हमारी राष्ट्रीय और जातीय चिंताएं स्थानीय चिंताओं के समक्ष कमजोर हो रही हैं। शिबू सोरेन की भूमिका बड़ी है। सरकार अपने लाभ और जनता के नुकसान के लिए नहीं बननी चाहिए। झारखंड में केवल समस्याएं हैं, जिनके समाधान के लिए पूरी ईमानदारी के साथ कांग्रेस, झाविमो और झामुमो को आगे बढऩा होगा।

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नीलम