Thursday, March 25, 2010

सुरों के रहनुमा-रहमान

संगीत भाषाओं से परे है, इस कथन को अर्थवान बनाया रहमान ने। उनके लाजवाब और बेमिसाल संगीत ने न सिर्फ भारत के हर प्रांत को अभिभूत किया, बल्कि विश्व फलक पर भी भारतीय संगीत को नई ऊंचाइयां दी। भारतीय संगीत की अनुगूंज को विदेशों तक पहुंचानेवाले संगीत के इस विरल-संत को सलाम....... संगीत की वह स्वर लहरियां, जो आत्मा को तृप्त करें, वह स्वर लहरियां जिनमें पिरोया हर शब्द, अपने अर्थ के साथ खनके। वह संगीत जिसमें भाषा कभी दीवार न बन पाये। ऐसा संगीत जिसमें निबौलियों की कडवाहट हो और मधु की मिठास भी। तूफान सी तेजी कि पैर खुद-ब-खुद थिरक उठें और बर्फ की ऐसी ठंडक हो, जहां सबकुछ ठहर जाये। पूरब की ढोलक के साथ पच्छिम के सिन्थेसाइजर तक और विशुद्ध कर्नाटक संगीत के साथ पॉप व जाज का प्रयोग अल्लाह का एक ही बंदा कर सकता है और वह है ए. शेखर दिलीप कुमार, जिसे दुनिया आज अल्लाहरक्खा रहमान के रूप में पहचानती है। अल्लाहरक्खा रहमान यानी जीता जागता संगीत। एक ऐसा नाम, जो है तो भारतीय, लेकिन विश्व संगीत का पैरोकार है। आज इस महान हस्ती के बूते भारतीयता और भारतीय संगीत, देश की सीमा लांघ उस फलक तक पहुंच गया है, जहां से आगे सिर्फ और सिर्फ ऑस्कर है। रहमान को हर उस बात पर जवाब देना पसंद है जिसमें संगीत का जिक्र हो। आज तक उनके बारे में लोगों ने या तो उनके संगीत-ज्ञान की चर्चा में कुछ पढ़ा होगा या फिर संगीत की बदौलत मिलने वाले अवाड्र्स के बारे में। इसके अतिरिक्त रहमान को किसी तीसरे विषय पर बात करना पसंद नहीं है और बेमिसाल संगीत के अलावा उनकी यह खूबी भी उन्हें उन तमाम संगीतकारों से जुदा बनाती है जो गलाकाट प्रतियोगिता के इस दौर में वाकयुद्ध को भी पब्लिसिटी स्टंट के रूप में लेने से कोताही नहीं करते। उन तमाम छोटे कद के संगीतकारों के लिए रहमान एक मिसाल हैं। अमूमन संगीतकार यह कहते मिल जाएंगे कि संगीत एक साधना है लेकिन इसका साधक होता कैसा है यह रहमान को देखकर बखूबी समझा जा सकता है। रहमान ने आज जो कुछ भी पाया है उसके पीछे उनकी 40 साल की साधना है। संगीत को 40 साल समर्पित करने वाला विरला ही होता और इसीलिए विरला होता है उसका संगीत भी। नहीं छूटा संगीत का मोह 4 साल की छोटी सी उम्र से रहमान में संगीत के लिए समर्पण दिखायी पडऩे लगा था। उनके पिता शेखर कई संगीतकारों के साथ काम करते थे जिनमें से एक थे संगीतकार सुदर्शनम मास्टर। एक बार रहमान भी अपने पिता के साथ उनके स्टूडियो गए थे जहां छोटा-सा रहमान हारमोनियम पर धुन बजा रहा था। लेकिन अहम बात यह थी कि हारमोनियम की की-बोर्ड कपड़े से ढकी हुई थी। रहमान की इस करामात को सुदर्शनम की पारखी नजरें तुरंत ताड़ गयीं। उन्होंने रहमान के पिता से कहा कि इसपर संगीत की देवी सरस्वती की कृपा है। इसे जल्द ही संगीत की विधिवत शिक्षा दिलवाओ। यह सुदर्शनम की बातों का असर था कि रहमान के पिता ने कुछ समय बाद ही उन्हें धनराज मास्टर के पास संगीत की विधिवत शिक्षा के लिए भेज दिया और वहां आज के रहमान की संगीत शिक्षा की नींव पड़ी। आर्थिक तंगी ए.शेखर दिलीप कुमार को भले ही संगीत की दौलत विरासत के रूप में मिली लेकिन वह उस दौलत से वर्षों तक महरूम रहे जिसे दुनिया लक्ष्मी या धन कहती है और जिसके बिना इस दुनिया में जीवन यापन नामुमकिन है। पिता मलयालम फिल्मों के मशहूर संगीतकार थे। जब तक वह थे तब तक धन की कोई कमी न थी। रहमान का बचपन भी सुखमय होता अगर उन्होंने 9 साल की उम्र में अपने पिता शेखर को एक रहस्यमयी बीमारी के चलते न खोया होता। पिता का साया सर से क्या उठा उनकी तो दुनिया ही लुट गयी। इस घटना ने रहमान से काफी कुछ छीन लिया। इसमें से एक था उनका बचपन। उनका पूरा परिवार बिखरने लगा। पिता तो दुनिया को अलविदा बोल गए और दे गए तमाम कठिनाइयां व जिम्मेदारियां, जिनका सारा बोझ मासूम दिलीप के कंधों पर आ पड़ा। यही कारण है कि रहमान समय से पहले बड़े हो गए। अपने नाजुक कंधों पर उन्होंने अपनी मां और तीन बहनों का बोझ उठा लिया। दुनियादारी देखनी थी, घर का खर्च चलाना था और इसके लिए पिता के वाद्ययंत्र किराए पर दिए ताकि कुछ पैसे आ सकें। पैसों के लिए 11 वर्ष की छोटी सी उम्र में वह दक्षिण के प्रसिद्ध संगीतकार इलिया राजा के ग्रुप में शामिल हो गए। और वहीं से शुरू हुआ उनका संगीत सफर आज भी बदस्तूर जारी है। आगे पढ़िए की कैसे दिलीप को रहमान का नाम मिला

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नीलम