Friday, February 26, 2010

होली आयो रे......

होली आने में अभी चार दिन बाकी हैं, लेकिन पलवल और मथुरा की ओर से आने वाली लोकल ट्रेनों में होली का रंगीन और खुशनुमा एहसास कई दिनों से बिखरा हुआ है। घरों से डयूटी पर जाने के लिए निकले लोग होली के गीतों पर ठुमकते दिखाई देते हैं।इन ट्रेनों के जरिए रोजाना हजारों लोग मथुरा-वृंदावन, कोसी, पलवल, बल्लभगढ़ और फरीदाबाद से ड्यूटी करने के लिए दिल्ली आते हैं। लोकल ट्रेनों में चलने वाली कीर्तन मंडलियां इन दिनों ब्रज के लोकगीत ’रसिया’ के जरिए यात्रियों को होली के आनंद से सराबोर करने में लगी हैं। घर और नौकरी की आपाधापी में व्यस्त लोग इस समय का सही सदुपयोग कर रहे हैं और कीर्तन मंडलियों के सुर में सुर मिलाकर गाते हैं या कुछ ज्यादा जोशीले लोग तो नाचने भी लगते हैं।किसी डिब्बे में ’आज बिरज में होरी रे रसिया’ गूंजता नजर आता है तो किसी डिब्बे में ’आ जइयो श्याम बरसाने में...बुला गई राधा प्यारी’ जैसे रसिया की गूंज सुनाई पड़ती है।हरि संकीर्तन मंडली के राघवेंद्र का कहना है कि वैसे तो उनकी मंडली ट्रेन में रोजाना सुबह शाम भजन गायन कर लोगों को अध्यात्म का ज्ञान कराती है लेकिन होली के नजदीक आ जाने से अब होली के ’रसियाओं’ की ही धूम है। उन्होंने कहा कि उनकी मंडली का प्रमुख रसिया गीत ’होरी खेली बंसी वारे नै अब घर कैसे जाऊ’ है।’प्रभु कीर्तन’ मंडली के राजीव कुमार कहते हैं कि उनकी टोली के लोक गायक जब ’आज है रही बिरज में होली ’ गाते हैं तो उस समय बहुत से यात्री सभी तरह के तनाव को भूलकर ट्रेन के डिब्बे में ही नाच उठते हैं।कुमार ने कहा कि होली के एहसास को और जीवंत बनाने के लिए गीत के दौरान यात्रियों पर पिचकारी से पानी की फुहार भी छोड़ी जाती है जिसका कोई भी बुरा नहीं मानता।ट्रेनों में चलने वाली इन कीर्तन मंडलियों में शामिल ज्यादातर लोग दिल्ली में नौकरी करते हैं। इनमें से कोई मथुरा-वृंदावन से आता है तो कोई पलवल, बल्लभगढ़ या फरीदाबाद से। ये लोग ढोल-मंजीरा भी अपने साथ रखते हैं।इनका कहना है कि सुबह ड्यूटी के लिए घर से जल्दी निकलना होता है और रात को वे देर से घर पहुंचते हैं, इसलिए उन्हें भगवान का ध्यान करने के लिए घर में बिल्कुल वक्त नहीं मिल पाता। इसलिए वे ट्रेन के डिब्बे में ही कीर्तन के जरिए भगवान का ध्यान कर लेते हैं।श्याम कीर्तन मंडली के रवि कुमार ने कहा कि आजकल होली का माहौल है इसलिए वे ब्रज के रसियाओं का गान ही प्रमुखता से कर रहे हैं जिनमें राधा और कृष्ण के प्रेम के साथ-साथ ब्रज मंडल की होली का जिक्र होता है।उन्होंने कहा ’काली दह पै खेलन आयौ री...’ और ’होरी रे रसिया बर जोरी रे रसिया’ जैसे गीत ब्रज की माटी के प्रमुख लोकगीत हैं जो होली की छटा में अद्भुत रंग बिखेरने का काम करते हैं।
फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला होली का त्योहार सभी को प्रेम के रंग से सराबोर कर देता है। यह दिन सभी को रंग-बिरंगे माहौल में झूमने, गाने और इठलाने को विवश कर देता है। यह त्योहार पूरे भारतवर्ष में मनाया जाता है। सभी जगह अलग-अलग नाम व मान्यताओं के साथ खेला जाता है। परंतु इसमें एक समानता रहती है कि यह पूरे देश की धरती को रंग-बिरंगे रंगों से सराबोर कर देती है।
होली मनाने के लिए विभिन्न वैदिक व पौराणिक मत हैं। वैदिक काल में इस पर्व को नवान्नेष्टि कहा गया है। इस दिन खेत के अधपके अन्न का हवन कर प्रसाद बांटने का विधान है। इस अन्न को होला कहा जाता है, इसलिए इसे होलिकोत्सव के रूप में मनाया जाता था। इस पर्व को नवसंवत्सर का आगमन तथा बसंतागम के उपलक्ष्य में किया हुआ यज्ञ भी माना जाता है। कुछ लोग इस पर्व को अग्निदेव का पूजन मात्र मानते हैं। मनु का जन्म भी इसी दिन का माना जाता है। अत: इसे मन्वादितिथि भी कहा जाता है। पुराणों के अनुसार भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था, तभी से यह त्योहार मनाने का प्रचलन हुआ। सबसे ज्यादा प्रचलित हिरण्यकश्यप की कथा है, जिसमें वह अपने पुत्र प्रहलाद को जलाने के लिए बहन होलिका को बुलाता है। जब होलिका प्रहलाद को लेकर अग्नि में बैठती हैं तो वह जल जाती है और भक्त प्रहलाद जीवित रह जाता है। तब से यह त्योहार मनाया जाने लगा है।
होली का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। संस्कृत के अनेक कवियों ने बसंतोत्सव का वर्णन किया है। सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है।
नेपाल, पाकिस्तान, बांगलादेश, श्रीलंका और मारीशस में भारतीय परंपरा के अनुरूप ही होली मनाई जाती है। फ्रांस में यह पर्व १९ मार्च को डिबोडिबी के नाम से मनाया जाता है। मिश्र में १३ अप्रैल को जंगल में आग जलाकर यह पर्व मनाया जाता है। इसमें लोग अपने पूर्वजों के कपड़े भी जलाते हैं। अधजले अंगारों को एक-दूसरे पर फेंकने के कारण यह अंगारों की होली होती है। थाईलैंड में यह त्योहार सौंगक्रान के नाम से मनाया जाता है। इस दिन वृद्धजनों के हाथों इत्र मिश्रित जल डलवाकर आशीर्वाद लिया जाता है। लाओस में इस त्योहार पर सभी एक-दूसरे पर पानी डालते हैं। म्यामार में इसे जलपर्व के नाम से मनाया जाता है। जर्मनी में ईस्टर के दिन घास का पुतला जलाया जाता है। अफ्रीका में यह ओमेना वोंगा के नाम से मनाया जाता है। इस दिन वहां के पूर्ववर्ती अन्यायी राजा का पुतला जलाकर प्रसन्नता मनाई जाती है। पोलैंड में आर्सिना पर लोग एक-दूसरे पर रंग गुलाल उड़ाते हैं। अमेरिका में मेडफो नामक पर्व मनाने के लिए लोग नदी किनारे एकत्रित होते हैं और गोबर और कीचड़ से बने गोलों को एक-दूसरे पर फेंकते हैं। ३१ अक्टूबर को यहां सूर्य पूजा की जाती है, जिसे होवो कहते हैं। इसे भी होली की तरह मनाया जाता है। हालैंड में कार्निवल होली सी मस्ती का पर्व है। बेल्जियम की होली भारत जैसी ही होती है।
- बस्तर में इस दिन लोग कामदेव का बुत सजाते हैं, जिसे कामुनी पेडम कहा जाता है। उस बुत के साथ एक कन्या का विवाह किया जाता है। इसके उपरांत कन्या की चुड़ियां तोड़कर, सिंदूर पौंछकर विधवा का प दिया जाता है। बाद में एक चिता जलाकर उसमें खोपरे भुनकर प्रसाद बांटा जाता है। - गुजरात में भील जाति के लोग होली को गोलगधेड़ों के नाम से मनाते हैं। इसमें किसी बांस या पेड़ पर नारियल और गुड़ बांध दिया जाता है उसके चारों और युवतियां घेरा बनाकर नाचती हैं। युवक को इस घेरे को तोड़कर गुड़, नारियल प्राप्त करना होता है। इस प्रक्रिया में युवतियां उस पर जबरदस्त प्रहार करती हैं। यदि वह इसमें कामयाब हो जाता है तो जिस युवती पर वह गुलाल लगाता है वह उससे विवाह करने के लिए बाध्य हो जाती है। - हिमाचल प्रदेश के कुलु में बर्फ में रंग मिलाकर होली खेली जाती है। यह बर्फीली होली के रूप में विख्यात है। गोवा में यह शिगमोत्सव के नाम से मनाई जाती है। बंगाल में डोल यात्रा अथवा डोल पूर्णिमा के नाम से होली का त्योहार मनाया जाता है। - मध्यप्रदेश के भील होली को भगौरिया कहते हैं। इस दिन युवक मांदल की थाप पर नृत्य करते हैं। नृत्य करते-करते जब युवक किसी युवती के मुंह पर गुलाल लगाता है और बदले में वह भी यदि गुलाल लगा देती है तो मान लिया जाता है कि दोनों विवाह के लिए सहमत हैं। यदि वह प्रत्युत्तर नहीं देती तो वह किसी और की तलाश में जुट जाता है।

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नीलम