Saturday, December 19, 2009

आधी आबादी का दिवास्वप्न

कांग्रेस ने जिन लोकलुभावन वादों के साथ 15 वीं लोकसभा में बड़ी सफलता पाई थी उन्हीं में से एक था संसद में महिलाओं को आरक्षण देना। कांग्रेस को चुनाव में मिली सफलता को देख, महिला राजनीतिज्ञों ने फिर से महिला आरक्षण विधेयक के पास होने का सपना देखना शुरू कर दिया था। यह वही सपना था जिसके सच होने का इंतजार महिलाएं 13 वर्षों से कर रही हैं। कांग्रेस ने भी जीत के बाद भरोसा दिलाया था कि महिला आरक्षण विधेयक पर 100 दिनों में कोई अहम फैसला ले लिया जाएगा पर नतीजा आज भी शून्य ही है। संसद में पहली बार 10 फीसदी का आकड़ा पार करने वाली महिलाओं ने महिला आरक्षण विधेयक पारित करवाने का प्रयास तो बहुत किया विपरीत इसके विधेयक, अब भी विचाराधीन ही है।
जब 15 वीं लोकसभा में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी और महिला आरक्षण विधेयक पर मुहर लगाने का समर्थन दल की महिलाओं ने किया तो कांग्रेस को भी लगा कि वह इस विधेयक को पास करवा कर इतिहास रच सकती है। उसे भरोसा था कि कुछ 'छोटे-मोटेÓ निर्णय तो वह आसानी से ले ही सकती है। उसकी इस सोच को और पुख्ता किया इस बार संसद में पहुंचने वाली महिलाओं की संख्या ने। पहली बार महिला सांसदों की संख्या ने 10 फीसदी के आंकडे को पार किया है। इस बार संसद में 52 महिला सांसदों की धमक है, जो अब तक की सर्वाधिक संख्या है। एक ओर जहां कांग्रेस में राणी नराह, तेजस्वनी रमेश, प्रिया दत्त, मीनाक्षी नटराजन, जैसे अनुभवी चेहरे हैं वहीं श्रुति चौधरी, मौसम नूर व ज्योति मिर्धा जैसे युवा चेहरे भी हैं जो कुछ भी कर गुजरने के जज्बे के साथ ससंद में पहुंचे हैं। महिला विधेयक का पुरजोर समर्थन करने वाली भाजपा की सुषमा स्वराज भी संसद में हैं। साथ ही विभिन्न दलों से जयाप्रदा, शताब्दी रॉय, अनु टंडन, किरण महेश्वरी भी अपने क्षेत्रों की दिग्गज मानी जाती हैं। यानी कुल मिलाकर संसद में महिलाओं की संख्या भले ही इस बार बहुत ज्यादा न हो पर इस बार संसद में दखल देने वाली महिलाएं दमदार हैं इसमें कोई शक नहीं है। 15 वीं लोकसभा में इसके पारित होने की संभावना इसलिए भी बढ़ गई थी क्योंकि इसके पारित होने का सीधा और दूरगामी फायदा कांग्रेस को होना लगभग तय है। अगर यह विधेयक पारित हो जाता है, तो लगभग 180 पुरूष सांसदों को अपनी सीटें गवांनी पडेंगी। यानी इसका सीधा सा मतलब होगा कि धर्म और जातिगत आरक्षण जैसे मुद्दों पर राजनीति करने वाले दलों को दूसरे मुद्दे तलाशने होंगे। कांग्रेस चूंकि खुद को धर्म-निरपेक्ष दल के रूप में परिलक्षित करती आयी है अत: उसकी दिली तमन्ना तो यही होगी कि धर्म और जाति के मुद्दे छोटे पड़ जाएं। इससे होगा यह कि अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की स्थिति और भी मजबूत होगी। साथ ही कांग्रेस के बडे नेताओं को अक्सर यह कहते सुना गया है कि सोनिया गांधी महिला आरक्षण को लेकर काफी गंभीर हैं और इसे हर हाल में पास करवाना चाहती हैं क्योंकि वह इसे पारित करवाकर स्वर्गीय राजीव गांधी के सपने को हकीकती जामा पहनाना चाहती थीं। ज्ञात रहे कि स्व. गांधी ने राजनीति में युवाओं की अधिक सा अधिक भागीदारी का सपना देखा था। इसीलिए उन्होंने वोट डालने की उम्र 18 वर्ष करवाई थी। आज कांग्रेस युवाओं को हर दिशा में आगे बढ़ाकर कर स्वर्गीय गांधी के उसी सपने को साकार कर रही है। स्वर्गीय गांधी ने एक और सपना देखा था, अधिक से अधिक महिलाओं को राजनीति में लाने का। पर स्वर्गीय गांधी का यह सपना अब भी सपना ही है।
जीत की खुशी में कांग्रेस ने 100 दिनों में इसपर फैसला करने का दावा कर डाला लेकिन फिर एक बार इतिहास दोहराया गया और इस विधेयक को सदन में प्रस्तुत करने के निर्णय के साथ ही, विरोधी सुर एकजुट हो, फिर से इसे हाशिए पर ले जाने में कामयाब रहे। न तो आरक्षण के विधेयक पर चर्चा हुई और न ही अब कोई इसकी सुध ही ले रहा है। यूपीए सरकार के सौ दिन कब पूरे हुए, किसी को कानों कान खबर न लगी। तीमाही के कामकाज का ब्योरा दे कांगेस ने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। राजनीतिक दलों की चिरस्थायी विशेषता को अपनाकर यूपीए सरकार भी अपने उन वादों को भूल चुकी है। इन्ही वादों में संसद में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का वादा कहीं खो-सा गया।
आज ग्राम पंचायतों में महिलाओं को मिलने वाले आरक्षण का ही परिणाम है कि शहरी महिलाओं की तुलना में आज ग्रामीण महिलाएं ज्यादा मुखर नजर आती हैं। एक सवाल जो हर किसी को परेशान करता है कि जब ग्राम पंचायतों में 33 फीसदी आरक्षण का नियम लागू है तो लोकसभा में क्यों नहीं? जवाब है इसके पास होने के बाद होने वाला नुकसान जो लगभग हर राजनीतिक दल को झेलना पडेगा। अगर यह विधेयक पारित हो जाता है, तो लगभग 180 पुरूष सांसदों को अपनी सीटें गवानी पड़ेगी। यानी इसका सीधा सा मतलब होगा कि धर्म और जातिगत आरक्षण जैसे मुद्दों पर राजनीति करने वाले दलों को दूसरे मुद्दे तलाशने होंगें जो आसान काम नहीं है। इसके पास होने से समाजवादी पार्टी, बसपा, आरजेडी जैसी बड़ी पार्टियों सहित क्षेत्रिय पार्टियों को भी नए मुद्दे तो तलाशने ही होंगे। साथ ही महिलाओं की संख्या बढऩे से उनके का तेवर भी झेलने होंगे।
वैसे तो पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा के शासनकाल में महिला बिल पर सबसे पहले विचार किया गया, पर यह विचार सदन में दबकर ही रह गया। बाद में इसे पुख्ता तौर पर जोर-शोर से उठाया एनडीए के शासनकाल में, भाजपा ने। भाजपा के इस विधेयक पर विपक्षी दलों ने तो असहमति जतायी ही, इसके घटक दलों ने भी सदन में इसका जमकर विरोध किया। वह दिन था और आज का दिन है भाजपा की बोतल से निकले इस 'जिन्न' पर राजनीति तो जमकर हुई पर इन 13 वर्षों के लंबे अंतराल में इस पर आजतक कोई फैसला नहीं हुआ है। हुआ बस इतना कि हर दल अपने हिसाब से इस पर राजनीति करते रहे। किसी ने इस आरक्षण को 33 फीसदी से 10 फीसदी करने की बात कही, तो किसी ने 12 और कुछ दलों ने तो इस आरक्षण में भी 'आरक्षण कोटे' की भी राय दे डाली। और तो और जो पार्टियां डंके की चोट पर इस विधेयक का समर्थन करती थी उनकी पिछले चुनावों के प्रत्याशियों की फेहरिस्त में से महिलाओं के नाम सिरे से गायब रहे। जिनमें भाजपा प्रमुख है।
राजीव गांधी ने युवाओं को आगे बढाने के फंडे को अपनाकर कांग्रेस फिर से सत्ता में आई है। अब बारी है राजीव के दूसरे सपने, महिलाओं को सत्ता में भागीदारी देने को, पूरा करने की। संभावना यही है कि भले ही कुछ समय और लगे पर कांग्रेस यह सुनहरा अवसर अपने हाथों से जाने नहीं देगी। यानी अब वह दिन दूर नहीं जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, भारत में भी महिला सांसदों की संख्या 10 फीसदी का आकड़ा पार करेगी। लेकिन 13 सालों का यह यह लंबा इंतजार कब खत्म होगा, यह कहना अभी भी मुश्किल ही है।

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नीलम